हूण भी रहे विष्णु मंदिर के निर्माता : अभिलेखीय साक्ष्य
हूण भी रहे विष्णु मंदिर के निर्माता : अभिलेखीय साक्ष्य
मेवाड़ में शिलालेखों का क्रम कुछ इस तरह से मिलता है कि पूर्व ब्राह्मी से लेकर देवनागरी लिपि तक का क्रम पूरा हो जाता है। उदयपुर के प्राचीन शिलालेखाें में एक शिलालेख विक्रम संवत् 1010 तद्नुसार 953 ईस्वी का है। गणना के अनुसार 23 अप्रैल, वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन इस शिलालेख को लिखा गया व वराह की प्रतिमा उत्कीर्ण कर उसको प्रतिष्ठित किया गया था।
इसको 'सारणेश्वर प्रशस्ति' के नाम से जाना गया है। वर्तमान में यह सारणेश्वर मंदिर में प्रवेश मंडप के छबने पर लगा है। किन्तु, यह मूलत: यहां नहीं था। यह आदिवराह मंदिर में लगा था और इसको स्थानांतरित किया गया। यह तत्कालीन देवनागरी लिपि में हैं ओर इसमें पहली बार देवालय न्यास अथवा देवकुल गोष्ठिक का संदर्भ मिलता है। यह स्थान प्रसिद्ध आहाड़ सभ्यता के पास ही है।
उस काल के कई पदाधिकारियों और उन लोगों का इसमें नाम हैं जिनके कंधों पर आदिवराह मंदिर के निर्माण और उसके संरक्षण का दायित्व था। यह गुहिलवंशी महालक्ष्मी नामक रानी के पुत्र अल्लट के पुत्र नरवाहन का अभिलेख है। इसमें कहा गया है कि सोढक, सिद्ध, सीलुका, संधि विग्राहक दुर्लभराज, मातृदेव, सदुदेव, अभिनियुक्त अल्लट व अक्षपटलिक मयूर, समुद्र राजपुरोहित वसंत, नागरुद्र, भूषण, मावप, नारक, रिपि, प्रमाता, गुहिष, गर्ग, त्रिविक्रम और बंदिपति नाग आदि इस प्रासाद से जुड़े रहे हैं।
इसी प्रकार भिषगाधिराज या मुख्य वैद्यराज रुद्रादित्य और वज्रट, लिम्ब, आदित्यच्छन्न, अम्मुल, संगमवीर, ससोज्जा, वैश्रवण, अविक, भक्तिम्मोह, संगम, वेल्लक, नाग, जेलक, वासुदेव, दुम्बटक, यच्चक्य जैसे यहां व्यापारियों का वर्ग था। इस प्रासाद की गोष्ठिक या समिति में प्रतिहार वंश के यश के पुत्र रुद्रहास, राहट, धर्म, काष्ठिक साहार, श्रीधर, अनवृटि सहित हूण, और कृषु राजन्य, सर्वदेव जैसे व्यक्ति थे। आमात्य मम्मट के साथ सभी ने सहयोग करके इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
हूण नाम से ज्ञात होता है कि तब तक यह समुदाय भारतीय रंग में रंग चुका था। इस समुदाय ने विष्णु मंदिर के निर्माण में रुचि दिखाई। क्योंकि, कहा गया है कि सभी गोष्ठिकों ने अपने पुण्यों का परिपाक होने से बढ़ी कीर्ति को जानकर इस गंभीर संसार सिंधु को असार जानकर उससे तरण-तारण के उद़देश्य से जहाज के समान भगवान विष्णु का यह मंदिर पर्वत के शिखर पर निर्मित करवाया। शिलालेख में एक श्लोक में यह आशय आया है-
पुण्य प्रबंध परिपाकिमकीर्तयोर्मी संसार सागरमसारमिमं गभीरं बुध्वा।
अद्रिराज शिखरोत्थम चीकरन्त पोतायमानं इदं आयतनं मुरारे।। (मेरी पुस्तक ' राजस्थान के प्राचीन अभिलेख', राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2013 ई. पृष्ठ 54-57)
मेरी उक्त पुस्तक में इसका संपादित मूलपाठ और उसका शब्दश: अनुवाद ससंदर्भ दिया गया है। इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तब तक यहां कर्णाट और मध्य देश सहित लाट-गुजरात के व्यापारियों का आना जाना लगा रहता था। वे इस मंदिर के लिए दान करते थे। हाथी, घोड़ा और अन्य पशुओं की बिक्री होती थी। यहां साप्ताहिक हाट लगती थी। इस शिलालेख में रुपये का नाम रूपक आया है। अन्य मुद्राओं में द्रम, विंशक के नाम हैं और तौलादि के प्रमाण भी लिखे गए हैं। है न रोचक। एक ही शिलालेख में इतनी सारी जानकारियां। आज इस मंदिर के पास से गुजर रहा था। सोचा कि इसका आनंद आप भी उठाएं। जय-जय।
लकुलीश - एक शिवावतार
उत्तर से पश्चिमी भारत होते हुए दक्षिण तक लाकुलीश शिव के कई मन्दिर मिलते हैं। मेवाड में 8वीं सदी से ही लाकुलीश मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ था और पहला शिवालय कल्याणपुर में था जिसको शूलिन मंदिर कहा गया है। यहां जो शैव साधक रहा था, वह अपने मार्ग को शिव आम्नाय कहता है और आम्नाय की परिभाषा भी देता है।
दसवी सदी के आरंभ में उदयपुर जिलांतर्गत कैलासपुरी लाकुलीश मंदिर बना था। इसमें शिव की जो मूर्ति विराजित है, वह तीर्थंकर की तरह है और हाथ में बीजपूरक (बीजोरा नींबू), लकुटी लिए है जबकि शिव ऊर्ध्वमेढ्र हैं। लाकुलीश मूर्ति का यही लक्षण विश्वकर्मावतार नामक ग्रंथ में आया है।
चौथी सदी में संपादित हुए वायुपुराण में शिव के इस अवतार की कथा आती है। कहा गया है कि यह अवतार तब हुआ जबकि द्वापर में कृष्ण का जीवनकाल था। तब शिव ने कायावरोहण (गुजरात के बडौदा के पास) नामक स्थान पर श्मशान में साधक के रूप में अपना अवतार ग्रहण किया था। शिवपुराण में तो बाद में इस अवतार की पूरी कथा ही दे दी गई है। इसके साधक बहुत कठिन साधना करते थे और शरीर को इतना तपाते थे कि आज तो विचार करना ही कठिन होता है।
कायावरोहण माहात्म्य नामक ग्रंथ में इसका संदर्भ मिलता है।
इस सम्प्रदाय का एकमात्र ग्रंथ 'गणकारिका' है। इसमें मा आठ ही श्लोक हैं और प्रारंभ 'ओम नम: सर्वज्ञाय' श्लोक से हुआ है। आचार्य हरदत्ताचार्य ने इसकी रचना की और आचार्य भासर्वज्ञ ने इसकी रत्नटीका नामक विवृत्ति रची थी। इसका अनुवाद मैंने एकलिंगपुराण के परिशिष्ट में दिया है। (एकलिंगपुराण पृष्ठ 500-502) इसके साधकों के लिए यह निर्देश था कि वे निवास के कर्म का सदैव ध्यान रखें, जप करें, ध्यान करें, एकमेव रुद्र का ही ध्यान करें और स्मरण करें-
वासचर्या जपध्यानं सदारुद्रस्मृतिस्तथा।
प्रसादश्चैव लाभानामुपाया: पंच निश्चिता।। (गणकारिका 7)
मथुरा से लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात आदि में इस मत के बहुत मंदिर मिलते हें। कहां-कहां है, मित्र बनाएंगे, मैं तो बस शिवरात्रि के उपलक्ष्य में यह बात शुरू कर रहा हूं। मित्र प्रकाशजी मांजरेकर, एमडी सेदुरी रहमान ने चित्र भेजे तो अच्छा लगा कि इस संबंध में कुछ लिख दिया जाए। वैसे बाणभट के हर्षचरित में शैव साधकों की क्रियाओं का अच्छा वर्णन मिलता है।
संवरणा : सिर सज्जा का रूप
कितना ही अभ्यंग स्नान हो और वस्त्राभरण धारण हो जाए, लेकिन केश सज्जा नहीं तो सजावट को पहचान नहीं मिल पाती। केश सज्जा भले ही ऊपर से ना दीखे लेकिन सामने से दिखाई देना ही बहुत होता है कि केश घुंघरवाले हैं या चंद्रमा सरीखे फुग्गेदार। जटाजूट, मुंडितशिर, क्षुद्रकेश, त्रिजटा, शिखा, पंचकेशी जैसे कई रूप शिर सज्जा के कहे गये हैं और सब जानते भी हैं। इनका विन्यास करना संवरना या संवरणा कहा जाता है।
देवालयों के लक्षणों में भी संवरणा एक विशिष्ट अर्थ लिए है। जब मैं राजा भोज कृत "समरांगण सूत्रधार" के संपादन और अनुवाद का काम कर रहा था तब प्रासाद शिखर की सज्जा के लिये संवरणा का विवरण आया मगर वह खंडित पाठ था। इसकी पूर्ति करने के लिए मैंने भोज के आधारभूत ग्रंथ रहे "जयपृच्छा" का सहारा लिया। उसमें संयोग से वह अंश था। यही नहीं, भोज के बनवाये चित्तौड़ के समीधेश्वर मंदिर की स्थापत्य रचना को भी देखा। इस त्रिदिशीय द्वार वाले शिव प्रासाद की शिखर की रचना संवरणाओं को लिए है।
इसके लिए पाषाणों के खंडों को छत के विस्तार के लिए अपेक्षित आकार में विभाजित किया गया अौर उन पर आड़ी-खड़ी रेखाओं को खींचते हुए वर्गाकार कोष्ठक बनाए गए। इनकी कटाई तिर्यक् रूप में कुछ इस तरह की गई कि स्थापित होने पर वे सीधी दिखाई दें। इसके बाद इन पर शंकु और शकोरों के आकारों को कंदुक पर आरोपित करते हुए घुंघरवाले वालों को आकार दिया गया। यह काम अब आसान नहीं है।
अपराजितपृच्छा के अनुवाद के दौरान भी यह संदर्भ मेरे हाथ आया। यानी यह परंपरा उस समय मारु गुर्जर शैली के मंदिरों में लोकप्रिय रही। यह बाद में, 17वीं सदी में जबकि जगदीश मंदिर बना, तब भी लोकप्रिय थी। इसका एक हस्तरेखा चित्र मुझे रणकपुर के जैन मंदिर के समय का मिला था। इसी चित्र से जाहिर हुआ था शिखर की केश जैसी सज्जा संवरणा है। हमारे यहां देहात में मिट्टी के मकानों की छत पर केवलू की छवाई करना भी हारणा या हांवरणा कहा जाता है, यह भी संस्कृत के संवरणा का ही देशज रूप है।
आप भी देखियेगा कि कितनी युक्तियां से शिखर को घुंघरवाला बनाकर संवारा गया है ! यह संवरणा ज्यामिति, रेखागणित के ज्ञान और उसके उपयोग को बताती है। शेष तो सोचकर ही समझा जा सकता है। जय जय..
- डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू
दूसरी तरफ अंग्रेजो ने क्या किया बता रहे हैं डॉ सुरेंद्र सोलंकी ----
रोचक एतिहासिक ज्ञान...
१८०८ में ईस्ट इंडिया कंपनी पूरी के जगन्नाथ मंदिर को अपने कब्जे में लेती हे और फिर लोगो से कर बसूला जाता हे, तीर्थ यात्रा के नाम पर.. चार ग्रुप बनाए जाते हैं.. और चौथा ग्रुप जो कंगाल हे उनकी एक लिस्ट जारी की जाती हे....
१९३२ में जब डॉ आंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं, तो वे ईस्ट इंडिया के जगनाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज की लिस्ट को अछूत बना कर लिखते हैं....
भगवान् जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला जिससे अरबो रूपये सीधे अंग्रेजो के खजाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे.
यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था .
प्रथम श्रेणी = लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री )
द्वितीय श्रेणी = निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री )
तृतीय श्रेणी = भुरंग ( यात्री जो दो रुपया दे सके )
चतुर्थ श्रेणी = पुंज तीर्थ ...(कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो रूपये भी नही , तलासी लेने के बाद )..
चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हे .
१. लोली या कुस्बी ,२ कुलाल या सोनारी ३ मछुवा ४ नामसुंदर या चंडाल 5 घोस्की 6 गजुर ७ बागड़ी 8 जोगी 9 कहार १० राजबंशी ११ पीरैली १२ चमार 13 डॉम 14 पौन १५ टोर १६ बनमाली १७ हड्डी
प्रथम श्रेणी से १० रूपये , द्वितीय श्रेणी से 6 रूपये , तृतीय श्रेणी से २ रूपये और चतुर्थ श्रेणी से कुछ नही ..
जो कंगाल की लिस्ट है जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नही घुसने दिया जाता था। आप यदि उस समय 10 रूपये भर सकते तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जाओगे।
डॉ आंबेडकर ने अपनी lothian commtee report में यही लिस्ट का जिक्र किया हे...और कहा हे , कंगाल पिछले १०० साल में कंगाल ही रहे......
In regard to the depressed classes of Bengal there is an important piece of evidence to which I should like to call attention and which goes to show that the list given in the Bengal Census of 1911 is a correct enumeration of caste which have been traditionally treated as untouchable castes in Bengal. I refer to Section 7 of Regulation IV of 1809 (A regulation for rescinding Regulations IV and V of 1806 ; and for substituting rules in lieu of those enacted in the said regulations for levying duties from the pilgrims resorting to Jagannath, and for the superintendence and management of the affairs of the temple; passed by the Governor-General in Council, on the 28th of April 1809) which gives the following list of castes which were debarred from entering the temple of Jagannath at Puri : (1) Loli or Kashi, (2) Kalal or Sunri, (3) Machhua, (4) Namasudra or Chandal, (5) Ghuski, (6) Gazur, (7) Bagdi, (8) Jogi or Nurbaf, (9) Kahar-Bauri and Dulia, (10) Rajbansi, (II) Pirali, (12) Chamar, (13) Dom, (14) Pan, (15) Tiyar, (16) Bhuinnali, and (17) Hari.
The enumeration agrees with the list of 1911 Census and thus lends support to its correctness. Incidentally it shows that a period of 100 years made no change in the social status of the untouchables of Bengal.
वही कंगाल बाद में अछूत बने। ध्यान दीजिये महार शब्द का उल्लेख तक नही है। (सबसे रोचक)
ध्यान दीजिये रोचक हे..
ईस्ट इंडिया कंपनी की report...
शयद फोटो क्लियर नही हैं। सीधे वेबसाइट पर जा कर पढ़े ।
https://books.google.co.in/books?id=dytDAAAAcAAJ&pg=PA81&lpg=PA81&dq=Section+7+of+Regulation+IV+of+1809+(A+regulation+for+rescinding+Regulations+IV+and+V+of+1806&source=bl&ots=NIRt1-s9GL&sig=0U_Rbyib5G_S_rZiDUqFaK88T7g&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjBsJ3J1erMAhWCEpQKHXloA64Q6AEIHDAA#v=onepage&q&f=false
lothian commetee. report..
http://www.ambedkar.org/ambcd/14E.%20Dr.%20Ambedkar%20with%20the%20Simon%20Commission%20E.htm
✍🏻 डॉ सुरेंद्र सोलंकी
धन्यवाद
मेवाड़ में शिलालेखों का क्रम कुछ इस तरह से मिलता है कि पूर्व ब्राह्मी से लेकर देवनागरी लिपि तक का क्रम पूरा हो जाता है। उदयपुर के प्राचीन शिलालेखाें में एक शिलालेख विक्रम संवत् 1010 तद्नुसार 953 ईस्वी का है। गणना के अनुसार 23 अप्रैल, वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन इस शिलालेख को लिखा गया व वराह की प्रतिमा उत्कीर्ण कर उसको प्रतिष्ठित किया गया था।
इसको 'सारणेश्वर प्रशस्ति' के नाम से जाना गया है। वर्तमान में यह सारणेश्वर मंदिर में प्रवेश मंडप के छबने पर लगा है। किन्तु, यह मूलत: यहां नहीं था। यह आदिवराह मंदिर में लगा था और इसको स्थानांतरित किया गया। यह तत्कालीन देवनागरी लिपि में हैं ओर इसमें पहली बार देवालय न्यास अथवा देवकुल गोष्ठिक का संदर्भ मिलता है। यह स्थान प्रसिद्ध आहाड़ सभ्यता के पास ही है।
उस काल के कई पदाधिकारियों और उन लोगों का इसमें नाम हैं जिनके कंधों पर आदिवराह मंदिर के निर्माण और उसके संरक्षण का दायित्व था। यह गुहिलवंशी महालक्ष्मी नामक रानी के पुत्र अल्लट के पुत्र नरवाहन का अभिलेख है। इसमें कहा गया है कि सोढक, सिद्ध, सीलुका, संधि विग्राहक दुर्लभराज, मातृदेव, सदुदेव, अभिनियुक्त अल्लट व अक्षपटलिक मयूर, समुद्र राजपुरोहित वसंत, नागरुद्र, भूषण, मावप, नारक, रिपि, प्रमाता, गुहिष, गर्ग, त्रिविक्रम और बंदिपति नाग आदि इस प्रासाद से जुड़े रहे हैं।
इसी प्रकार भिषगाधिराज या मुख्य वैद्यराज रुद्रादित्य और वज्रट, लिम्ब, आदित्यच्छन्न, अम्मुल, संगमवीर, ससोज्जा, वैश्रवण, अविक, भक्तिम्मोह, संगम, वेल्लक, नाग, जेलक, वासुदेव, दुम्बटक, यच्चक्य जैसे यहां व्यापारियों का वर्ग था। इस प्रासाद की गोष्ठिक या समिति में प्रतिहार वंश के यश के पुत्र रुद्रहास, राहट, धर्म, काष्ठिक साहार, श्रीधर, अनवृटि सहित हूण, और कृषु राजन्य, सर्वदेव जैसे व्यक्ति थे। आमात्य मम्मट के साथ सभी ने सहयोग करके इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
हूण नाम से ज्ञात होता है कि तब तक यह समुदाय भारतीय रंग में रंग चुका था। इस समुदाय ने विष्णु मंदिर के निर्माण में रुचि दिखाई। क्योंकि, कहा गया है कि सभी गोष्ठिकों ने अपने पुण्यों का परिपाक होने से बढ़ी कीर्ति को जानकर इस गंभीर संसार सिंधु को असार जानकर उससे तरण-तारण के उद़देश्य से जहाज के समान भगवान विष्णु का यह मंदिर पर्वत के शिखर पर निर्मित करवाया। शिलालेख में एक श्लोक में यह आशय आया है-
पुण्य प्रबंध परिपाकिमकीर्तयोर्मी संसार सागरमसारमिमं गभीरं बुध्वा।
अद्रिराज शिखरोत्थम चीकरन्त पोतायमानं इदं आयतनं मुरारे।। (मेरी पुस्तक ' राजस्थान के प्राचीन अभिलेख', राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2013 ई. पृष्ठ 54-57)
मेरी उक्त पुस्तक में इसका संपादित मूलपाठ और उसका शब्दश: अनुवाद ससंदर्भ दिया गया है। इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तब तक यहां कर्णाट और मध्य देश सहित लाट-गुजरात के व्यापारियों का आना जाना लगा रहता था। वे इस मंदिर के लिए दान करते थे। हाथी, घोड़ा और अन्य पशुओं की बिक्री होती थी। यहां साप्ताहिक हाट लगती थी। इस शिलालेख में रुपये का नाम रूपक आया है। अन्य मुद्राओं में द्रम, विंशक के नाम हैं और तौलादि के प्रमाण भी लिखे गए हैं। है न रोचक। एक ही शिलालेख में इतनी सारी जानकारियां। आज इस मंदिर के पास से गुजर रहा था। सोचा कि इसका आनंद आप भी उठाएं। जय-जय।
लकुलीश - एक शिवावतार
उत्तर से पश्चिमी भारत होते हुए दक्षिण तक लाकुलीश शिव के कई मन्दिर मिलते हैं। मेवाड में 8वीं सदी से ही लाकुलीश मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ था और पहला शिवालय कल्याणपुर में था जिसको शूलिन मंदिर कहा गया है। यहां जो शैव साधक रहा था, वह अपने मार्ग को शिव आम्नाय कहता है और आम्नाय की परिभाषा भी देता है।
दसवी सदी के आरंभ में उदयपुर जिलांतर्गत कैलासपुरी लाकुलीश मंदिर बना था। इसमें शिव की जो मूर्ति विराजित है, वह तीर्थंकर की तरह है और हाथ में बीजपूरक (बीजोरा नींबू), लकुटी लिए है जबकि शिव ऊर्ध्वमेढ्र हैं। लाकुलीश मूर्ति का यही लक्षण विश्वकर्मावतार नामक ग्रंथ में आया है।
चौथी सदी में संपादित हुए वायुपुराण में शिव के इस अवतार की कथा आती है। कहा गया है कि यह अवतार तब हुआ जबकि द्वापर में कृष्ण का जीवनकाल था। तब शिव ने कायावरोहण (गुजरात के बडौदा के पास) नामक स्थान पर श्मशान में साधक के रूप में अपना अवतार ग्रहण किया था। शिवपुराण में तो बाद में इस अवतार की पूरी कथा ही दे दी गई है। इसके साधक बहुत कठिन साधना करते थे और शरीर को इतना तपाते थे कि आज तो विचार करना ही कठिन होता है।
कायावरोहण माहात्म्य नामक ग्रंथ में इसका संदर्भ मिलता है।
इस सम्प्रदाय का एकमात्र ग्रंथ 'गणकारिका' है। इसमें मा आठ ही श्लोक हैं और प्रारंभ 'ओम नम: सर्वज्ञाय' श्लोक से हुआ है। आचार्य हरदत्ताचार्य ने इसकी रचना की और आचार्य भासर्वज्ञ ने इसकी रत्नटीका नामक विवृत्ति रची थी। इसका अनुवाद मैंने एकलिंगपुराण के परिशिष्ट में दिया है। (एकलिंगपुराण पृष्ठ 500-502) इसके साधकों के लिए यह निर्देश था कि वे निवास के कर्म का सदैव ध्यान रखें, जप करें, ध्यान करें, एकमेव रुद्र का ही ध्यान करें और स्मरण करें-
वासचर्या जपध्यानं सदारुद्रस्मृतिस्तथा।
प्रसादश्चैव लाभानामुपाया: पंच निश्चिता।। (गणकारिका 7)
मथुरा से लेकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात आदि में इस मत के बहुत मंदिर मिलते हें। कहां-कहां है, मित्र बनाएंगे, मैं तो बस शिवरात्रि के उपलक्ष्य में यह बात शुरू कर रहा हूं। मित्र प्रकाशजी मांजरेकर, एमडी सेदुरी रहमान ने चित्र भेजे तो अच्छा लगा कि इस संबंध में कुछ लिख दिया जाए। वैसे बाणभट के हर्षचरित में शैव साधकों की क्रियाओं का अच्छा वर्णन मिलता है।
संवरणा : सिर सज्जा का रूप
कितना ही अभ्यंग स्नान हो और वस्त्राभरण धारण हो जाए, लेकिन केश सज्जा नहीं तो सजावट को पहचान नहीं मिल पाती। केश सज्जा भले ही ऊपर से ना दीखे लेकिन सामने से दिखाई देना ही बहुत होता है कि केश घुंघरवाले हैं या चंद्रमा सरीखे फुग्गेदार। जटाजूट, मुंडितशिर, क्षुद्रकेश, त्रिजटा, शिखा, पंचकेशी जैसे कई रूप शिर सज्जा के कहे गये हैं और सब जानते भी हैं। इनका विन्यास करना संवरना या संवरणा कहा जाता है।
देवालयों के लक्षणों में भी संवरणा एक विशिष्ट अर्थ लिए है। जब मैं राजा भोज कृत "समरांगण सूत्रधार" के संपादन और अनुवाद का काम कर रहा था तब प्रासाद शिखर की सज्जा के लिये संवरणा का विवरण आया मगर वह खंडित पाठ था। इसकी पूर्ति करने के लिए मैंने भोज के आधारभूत ग्रंथ रहे "जयपृच्छा" का सहारा लिया। उसमें संयोग से वह अंश था। यही नहीं, भोज के बनवाये चित्तौड़ के समीधेश्वर मंदिर की स्थापत्य रचना को भी देखा। इस त्रिदिशीय द्वार वाले शिव प्रासाद की शिखर की रचना संवरणाओं को लिए है।
इसके लिए पाषाणों के खंडों को छत के विस्तार के लिए अपेक्षित आकार में विभाजित किया गया अौर उन पर आड़ी-खड़ी रेखाओं को खींचते हुए वर्गाकार कोष्ठक बनाए गए। इनकी कटाई तिर्यक् रूप में कुछ इस तरह की गई कि स्थापित होने पर वे सीधी दिखाई दें। इसके बाद इन पर शंकु और शकोरों के आकारों को कंदुक पर आरोपित करते हुए घुंघरवाले वालों को आकार दिया गया। यह काम अब आसान नहीं है।
अपराजितपृच्छा के अनुवाद के दौरान भी यह संदर्भ मेरे हाथ आया। यानी यह परंपरा उस समय मारु गुर्जर शैली के मंदिरों में लोकप्रिय रही। यह बाद में, 17वीं सदी में जबकि जगदीश मंदिर बना, तब भी लोकप्रिय थी। इसका एक हस्तरेखा चित्र मुझे रणकपुर के जैन मंदिर के समय का मिला था। इसी चित्र से जाहिर हुआ था शिखर की केश जैसी सज्जा संवरणा है। हमारे यहां देहात में मिट्टी के मकानों की छत पर केवलू की छवाई करना भी हारणा या हांवरणा कहा जाता है, यह भी संस्कृत के संवरणा का ही देशज रूप है।
आप भी देखियेगा कि कितनी युक्तियां से शिखर को घुंघरवाला बनाकर संवारा गया है ! यह संवरणा ज्यामिति, रेखागणित के ज्ञान और उसके उपयोग को बताती है। शेष तो सोचकर ही समझा जा सकता है। जय जय..
- डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू
दूसरी तरफ अंग्रेजो ने क्या किया बता रहे हैं डॉ सुरेंद्र सोलंकी ----
रोचक एतिहासिक ज्ञान...
१८०८ में ईस्ट इंडिया कंपनी पूरी के जगन्नाथ मंदिर को अपने कब्जे में लेती हे और फिर लोगो से कर बसूला जाता हे, तीर्थ यात्रा के नाम पर.. चार ग्रुप बनाए जाते हैं.. और चौथा ग्रुप जो कंगाल हे उनकी एक लिस्ट जारी की जाती हे....
१९३२ में जब डॉ आंबेडकर अछूतों के बारे में लिखते हैं, तो वे ईस्ट इंडिया के जगनाथ पुरी मंदिर के दस्तावेज की लिस्ट को अछूत बना कर लिखते हैं....
भगवान् जगन्नाथ के मंदिर की यात्रा को यात्रा कर में बदलने से ईस्ट इंडिया कंपनी को बेहद मुनाफ़ा हुआ और यह 1809 से 1840 तक निरंतर चला जिससे अरबो रूपये सीधे अंग्रेजो के खजाने में बने और इंग्लैंड पहुंचे.
यात्रियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता था .
प्रथम श्रेणी = लाल जतरी (उत्तर के धनी यात्री )
द्वितीय श्रेणी = निम्न लाल (दक्षिण के धनी यात्री )
तृतीय श्रेणी = भुरंग ( यात्री जो दो रुपया दे सके )
चतुर्थ श्रेणी = पुंज तीर्थ ...(कंगाल की श्रेणी जिनके पास दो रूपये भी नही , तलासी लेने के बाद )..
चतुर्थ श्रेणी के नाम इस प्रकार हे .
१. लोली या कुस्बी ,२ कुलाल या सोनारी ३ मछुवा ४ नामसुंदर या चंडाल 5 घोस्की 6 गजुर ७ बागड़ी 8 जोगी 9 कहार १० राजबंशी ११ पीरैली १२ चमार 13 डॉम 14 पौन १५ टोर १६ बनमाली १७ हड्डी
प्रथम श्रेणी से १० रूपये , द्वितीय श्रेणी से 6 रूपये , तृतीय श्रेणी से २ रूपये और चतुर्थ श्रेणी से कुछ नही ..
जो कंगाल की लिस्ट है जिन्हें हर जगह रोका जाता था और मंदिर में नही घुसने दिया जाता था। आप यदि उस समय 10 रूपये भर सकते तो आप सबसे अच्छे से ट्रीट किये जाओगे।
डॉ आंबेडकर ने अपनी lothian commtee report में यही लिस्ट का जिक्र किया हे...और कहा हे , कंगाल पिछले १०० साल में कंगाल ही रहे......
In regard to the depressed classes of Bengal there is an important piece of evidence to which I should like to call attention and which goes to show that the list given in the Bengal Census of 1911 is a correct enumeration of caste which have been traditionally treated as untouchable castes in Bengal. I refer to Section 7 of Regulation IV of 1809 (A regulation for rescinding Regulations IV and V of 1806 ; and for substituting rules in lieu of those enacted in the said regulations for levying duties from the pilgrims resorting to Jagannath, and for the superintendence and management of the affairs of the temple; passed by the Governor-General in Council, on the 28th of April 1809) which gives the following list of castes which were debarred from entering the temple of Jagannath at Puri : (1) Loli or Kashi, (2) Kalal or Sunri, (3) Machhua, (4) Namasudra or Chandal, (5) Ghuski, (6) Gazur, (7) Bagdi, (8) Jogi or Nurbaf, (9) Kahar-Bauri and Dulia, (10) Rajbansi, (II) Pirali, (12) Chamar, (13) Dom, (14) Pan, (15) Tiyar, (16) Bhuinnali, and (17) Hari.
The enumeration agrees with the list of 1911 Census and thus lends support to its correctness. Incidentally it shows that a period of 100 years made no change in the social status of the untouchables of Bengal.
वही कंगाल बाद में अछूत बने। ध्यान दीजिये महार शब्द का उल्लेख तक नही है। (सबसे रोचक)
ध्यान दीजिये रोचक हे..
ईस्ट इंडिया कंपनी की report...
शयद फोटो क्लियर नही हैं। सीधे वेबसाइट पर जा कर पढ़े ।
https://books.google.co.in/books?id=dytDAAAAcAAJ&pg=PA81&lpg=PA81&dq=Section+7+of+Regulation+IV+of+1809+(A+regulation+for+rescinding+Regulations+IV+and+V+of+1806&source=bl&ots=NIRt1-s9GL&sig=0U_Rbyib5G_S_rZiDUqFaK88T7g&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjBsJ3J1erMAhWCEpQKHXloA64Q6AEIHDAA#v=onepage&q&f=false
lothian commetee. report..
http://www.ambedkar.org/ambcd/14E.%20Dr.%20Ambedkar%20with%20the%20Simon%20Commission%20E.htm
✍🏻 डॉ सुरेंद्र सोलंकी
धन्यवाद
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