महाराणा कुम्भकर्ण: कुम्भा
महाराणा कुम्भकर्ण: कुम्भा
देश के प्रतापी, कलाप्रिय शासकों में महाराणा कुंभकर्ण या कुंभा (1433-68 ई., जन्म मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी, 1417) का नाम बहुत सम्मान से लिया जा सकता है। कुंभा बहुत शिक्षित और साहित्य प्रेमी ही नहीं, स्वयं साहित्यकार था। कुंभा ने कई ग्रंथों की रचना की जिनमें से 16 हजार श्लोकों का पांच कोष वाला 'संगीतराज' तो ख्यातिलब्ध है ही, सूडप्रबंध और स्तंभराज, कामराज रतिसार जैसे ग्रंथ भी अल्पज्ञात ही सही, मगर उल्लेखनीय है। कुंभा ने 'गीतगोविंद' की रसिकप्रिय टीका और 'चंडीशतक' की वृत्ति लिखी और उसमें अपनी जन्मभूमि चित्तौड़ व कुल की मर्यादाओं को रेखांकित किया।
कुंभा के 33 साल के शासन काल में चित्तौड और कुंभलगढ में कोई 1700 ग्रंथों की रचना और प्रतिलिपि लेखन का कार्य हुआ। इतना बडा योगदान शायद ही अन्य किसी शासक का रहा हो। इनमें संगीत, साहित्य, दर्शन, मीमांसा, गणित, धर्मशास्त्र सहित तकनीकी विषय भी शामिल हैं।
कुंभा स्वयं वल्लकी वीणा वादन में निपुण था। शिवाराधक होते हुए भी कुंभा ने विष्णु की महिमा के गान में अपने को लगाए रखा। अपने युग में वह स्वयं विष्णु के अवतारी के रूप में ख्याति लब्ध इस कारण हुआ कि गीतगोविंद का सर्वाधिक प्रचार किया। सूड प्रबंध भी इसी पर लिखा हुआ है और इसी पर चार नाटकों की रचना भी की।
साहित्य और इतिहास प्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ये चार नाटक एक भाषा में नहीं, चार भाषाओं में थे। कुंभाकालीन साहित्य पर कई वर्षों तक काम करते-करते विदित हुआ कि उसके लिए चारों ही नाटक चार-चार अंक वाले थे। पहली बार इन नाटकों के नाम सामने आए हैं-
1. श्रीकर्णाटकी या कन्नड भाषा में कारी-मुरारी।
2. मेदपाटी या मेवाडी में संगति रस।
3. सुमहाराष्ट्री या मराठी में अतुल चातुरी और
4. आदि भाषा या संस्कृत में अनन्दिनी नन्दिनी।
एकलिंग माहात्म्य में कुंभा के वर्णन में बहुत युक्ति से इन नाटकों का नाम लिखा गया है। इनको इनकी भाषा के साथ भी बताया गया है- वाणीगुम्फमया। यही श्लोक चित्तौडगढ स्थित कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति में भी आया है। अब तक यही माना जाता था कि कुंभा ने गीत गोविंद पर अपनी रसिक प्रिया वृत्ति की प्रशंसा में इन शब्दों का प्रयोग किया है, किंतु एकलिंग माहात्म्य का पाठ सिद्ध करता है कि ये नाटकों के नाम थे। इनमें रस, स्वरपाठ, अनिन्द्य धातु आदि का प्रयोग किया गया था।
यह आश्चर्य ही है कि ये चारों ही नाटक गीत गोविंद की विषय वस्तु पर ही आधारित थे यानी राधा-कृष्ण की प्रणय लीला ही इनका वर्ण्य था। उक्त सभी प्रदेशों में गीत गोविंद की लोकप्रियता के मूल में कुंभा का प्रयास श्लाघनीय रहा क्योंकि कुंभा ने इनका मंचन करवाया, इन पर आधरित चित्रकर्म करवाया या चित्रांकन पर जोर दिया। एक प्रकार से उसका नाटक प्रणयन का यह प्रयास नवीन गीत गोंविंद रचने जैसा ही था -
श्रीवासुदेव चरणाम्बुज भक्तिलग्न चेता महीपति रसौ स्वरपाटतेनान्,
धातूननिन्द्य जयदेव कवींद्र गीत गोविन्दकं व्यरचयत् किल नव्य रूपान्।।
ये नाटक उस काल में इतने प्रशंसित हुए थे कि कुंभा को कवियों और राजाओं के समूहों बीच मौलि माणिक्य (सरताज) का खिताब दिया गया। लोकांचल में ये इस तरह बहुत रुचिकर लगे कि मानों वीणा का मधुर रणन हो और आद्यबिंदू या मूर्च्छना हो। वे इन नाटकों की संगीतमयता के कारण मधुकर कुल की लीलाहारी में शारीरशाली, शौर्य के अंशुमाली स्वीकारे गए। कुंभाकालीन प्रशस्तियों के संपादक, संग्राहक रहे कन्ह व्यास ने इस मान्यता को स्वीकारा है। राणा कुंभा की स्मृति में पंडित औंकारनाथ ठाकुर और उनकी विदुषी शिष्या प्रेमलता शर्मा ने उदयपुर में 1962 में वार्षिक संगीत समारोह आरंभ किया था।
क्या आपको मालूम है ?
#महाराणाकुंभा ने किया था
#बारुदी आग्नेयास्त्रों का प्रयोग
युद्ध में बारुदी आग्नेयास्त्रों का उपयोग मेवाड़ के महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) ने किया था। बाबर से 85 वर्ष पूर्व ही उन्होंने नालिकास्त्र का सफल प्रयोग किया था। राजस्थान ही नहीं, भारत में युद्ध में यह प्रयोग पहली बार हुआ था। कुंभा काल के ग्रंथों में इनका प्रामाणिक जिक्र आता है।
कुंभा ने अपने जीवनकाल में सर्वाधिक लडाइयां लड़ी और वह एक सफल शासक के रूप में ख्यात हुए। कलाओं को संरक्षण देने के लिए उनका कोई जवाब नहीं। मांडलगढ़ के पास 1443 ई. में मालवा के खिलजी सुल्तान महमूद के खिलाफ जो लडाई लड़ी, उसमें खुलकर आग्नेयास्त्रों का उपयोग हुआ।
इसी समय, 1467-68 ई. में लिखित ' मआसिरे महमूदशाही' में इस जंग का रोमांचक जिक्र हुआ है। मआसिरे के अनुसार उस काल में आतिशबाजी के करिश्मे होने लगे थे, इनका प्रदर्शन सर्वजनिक रूप से होता था। महमूद के आतिशी युद्ध का तोड कुंभा ने दिया था। वह पकड़ा गया। मआसिरे के अनुसार मांडलगढ में कुंभा ने नैफ्ता की आग, आतिशे नफ़्त और तीरे हवाई का प्रयोग किया था। ये ऐसे प्रक्षेपास्त्र थे जिनमें बांस के एक छोर पर बारुद जैसी किसी चीज को बांधा जाता था। आग दिखाते ही वह लंबी दूरी पर, दुश्मनों के दल पर जाकर गिरता था और भीड को तीतर-बितर कर डालता था। इससे पूर्व सैन्य शिविर में हडकंप मच जाता था। यह उस काल का एक चौंकाने वाला प्रयोग था। शत्रुओं में इस प्रयोग की खासी चर्चा थी।
कुंभा के दरबारी सूत्रधार मंडन कृत 'राजवल्लभ वास्तुशास्त्र' में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह्नम्बुसमीरणाख्या। सूत्रधार मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्न अंगों के नामों का उल्लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट्ट इत्यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं।
वास्तु मण्डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्य यंत्रों में नालिकास्त्र का मुख धत्तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए 'निर्वाणांगार चूर्ण' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह श्वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्तुमंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्य विधियां भी प्रचलित थी। (वैचारिकी, कोलकाता, अक्टूबर-दिसंबर, 2005 में प्रकाशित मेरा लेख)
कीर्तिस्तम्भ : जय विजय की कथा और मूल उद्देश्य
शिल्प का एक वातायन स्तंभों की ओर भी खुलता है। अच्छे-अच्छे स्तंभ। लकडी से लेकर पाषाण तक के खंभे। वेदों से लेकर पुराणों और शिल्पशास्त्रों तक में जिक्र-दर-जिक्र। शासकों ने यदि विजय के दिग्घोष के रूप में करवाए तो आराधकों ने देवताओं के यशवर्धन के उद्देश्य से स्तंभों का निर्माण करवाया। मीनार भी उसका एक रूप है। अशोक के स्तंभ, हेलियोडोरस का विष्णुध्वज... जीजाक का कीर्तिस्तंभ, कुंभा का विजय स्तंभ... भारत में सबसे कलात्मक स्तंभ है कैलास मंदिर अलोरा का। जब देखो तब अपनी कला के कौशल का स्मारक सा लगता है।
इन स्तंभों का निर्माण निरंतर होता रहा है, अहमदाबाद में हाल ही एक विजयस्तंभ बना है। अन्यत्र रोम की तर्ज पर क्लॉक टावर भी बनाए गए। इनका उदय या उन्नत स्वरूप यश के विस्तार का सूचक है। यूं तो एेसे देव स्तंभों के निर्माण का प्रारंभिक जिक्र अल्पज्ञात वहि्नपुराण में आता है जिसमें विष्णु को समर्पित गरुड और वराह ध्वज बनाने की विधि बताई गई है। अन्य ग्रंथ दीपार्णव, वास्तुविद्या आदि बाद के हैं। अपराजितपृच्छा में भी एकाधिक देवस्तंभों के निर्माण का संक्षिप्त विवरण है।
महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) ने ऐसे स्तंभों के निर्माण पर एक पुस्तक ही लिखी थी। इसको विश्वकर्मा और जय संवाद के रूप में लिखा गया। नाम था 'स्तम्भराज'। यह दुनिया का कदाचित पहला शिल्पशास्त्र था जिसको पाषाण पर उत्कीर्ण करवाया गया था। इससे पहले नाटक, काव्यशास्त्र जैसे ग्रंथ पाषाणों पर उत्कीर्ण करवाए गए थे। परमारों के शासनकाल में धार में और चौहानों के शासनकाल में अजमेर में...। कुंभा के शासनकाल में स्तंभराज को पाषाण पर उत्कीर्ण करने का श्रेय संभवत: सूत्रधार जयता को है, उसी ने चित्तौड दुर्ग पर विष्णुध्वज का निर्माण किया, जिसे 'विजय स्तंभ' या 'कीर्तिस्तंभ' के नाम से ख्याति मिली। इसमें इन्द्रध्वज, ब्रह्मस्तंभ, विष्णुस्तंभ आदि की ऊंचाई आैर उनमें जडी जाने वाली मूर्तियों का विवरण था, लिखा गया था -
श्रीविश्वकर्माख्य महार्यवर्यमाचार्य गुत्पत्ति विधावुपास्य।
स्तम्भस्य लक्ष्मातनुते नृपाल: श्रीकुंभकर्णे जय भाषितेन।। 3।।
यह ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं, इसकी एक शिला मौजूद है जिसमें इसका संक्षिप्त संकेतित है। जिस कुंभा ने इस कला को अक्षुण्ण रखने का प्रयत्न कर शिलोत्कीर्ण करवाया, वे शिलाएं ही पूरी तरह नदारद है...। मगर, केवल अवशेष कह रहे हैं कि ये कला बेमिसाल थी और अनेक प्रकार के लक्षणों वाले स्तंभों का निर्माण होता था। कालिदास ने जिस तरह उजडी हुई अयोध्यापुरी में खुर्द-बुर्द जयस्तम्भ का जिक्र किया है.. अब वहां क्या कोई अवशेष है ?
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू
साहणपाल - महाराणा कुंभा का महामात्य
#श्रीकृष्ण जुगनू
महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) का शासनकाल कलाओं के संरक्षण और शांतिप्रिय शासन के लिए जाना जाता है। कलम, कटार और करनी के धारक के रूप में कुंभा की कीर्ति कला के कलश का स्थान लिए हुए है। कुंभा के काल में साहणपाल जैसे राजनयिक ने जावर जैसी खान के क्षेत्र को तीर्थंकर तीर्थ बनाने में योगदान किया। देलवाड़ा को भी देवकुल पाटक के रूप में पहचान दिलाई।
हाल ही जावर माइंस से एक खंडित मूर्ति का चरण लेख सामने आया है जिसमें महाराणा कुंभा के महामात्य के रूप में साहणपाल का नाम अंकित है। पद सहित नाम पहली बार देखने को मिला। यह अभिलेख विक्रम संवत 1497 तदनुसार 1440 ई. का है, ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यहां इस मूल नायक आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा का कार्य हुआ था। शिलालेख में देवनागरी के अक्षरों को इस तरह लिखा गया है कि मात्राएं अक्षरों के आगे ही पडी हुई है, ऐसा इस काल में प्रचलन में था। जैसे कि गौत्रे लिखना है तो ' ।गा।त्र ' लिखा जाता था...। जैसा कि अंग्रेजी में होता है खड़ी लाइन से अलग अलग अक्षर।
खोजबीन पर नागदा के शांतिनाथ मूर्ति के चरण चौकी लेख और खेरोदा के कुम्भा कालीन ताम्र पत्र में भी साहनपाल का नाम मिला। यह नवलखा परिवार से था और यह परिवार अगले तीन सौ सालों तक मेवाड़ में, उदयपुर में सक्रिय रहा। ( मेरी : भारतीय प्रशस्ति परम्परा और अभिलेख)
एक खास बात और, जावर माइंस में वेला वाणिया नामक धनिक की एक गाथा भील आदिवासियों में गायी जाती है। ढाक नामक वाद्य पर इसका गायन होता है, जावर माता के यश के रूप में, मैंने इसे 1994 ई. में भारतीय लोककला मंडल में ध्वन्यांकित किया था और बाद में उस पर लिखा भी। संयोग से इस अभिलेख में वेला नाम भी आया है, लोक में गेय आख्यान की पुष्टि अभिलेख से हुई है। गाथा में उसकी पत्नी का नाम हीरा आता है, इसमें भी उसकी पत्नी का नाम हीरादेवी ही आया है...।
अच्छा लगा जबकि शोधार्थी श्री अरविंदकुमार ने इस अभिलेख का पाठ मुझे विश्लेषण के लिए भेजा। संयोग है कि इस अभिलेख में जावर नाम ही आया है, यह नाम तब तक हो चुका था। एक बात और, इस समय सूत्रधार परबत सक्रिय था जो सूत्रधार सीहाक का पुत्र था। इन दिनों जबकि कुंभा की एक अल्पज्ञात कृति के अनुवाद में लगा था, जिसकी प्रारंभिक रचना सूरि हीरानंद ने की थी, तब यह अभिलेख पढकर बहुत अच्छा लगा। राजस्थान के इतिहास के अध्येताओं के लिए यह अच्छी खबर सिद्ध होगी।
महाराणा कुंभा और चित्तौड़गढ़
#जन्मप्रसंग : महाराणा कुम्भा की जयंती
महाराणा कुंभा को कला प्रेमी और विद्यागुरु शासक कई अर्थों में कहा जा सकता है। वास्तु, शिल्प, संगीत, नाटक, नृत्य, चित्र जैसी अनेक भागों वाली कृतियां और कला मूलक रचनात्मक प्रवृत्तियां कुंभा की अद्भुत देन और देश की दिव्य निधि है।
भूलोकमल्ल सोमेश्वर और परमार कुलावतंस भोज की तरह कुंभा ने भी स्वयं को प्रदर्शित, प्रवर्तित और प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। हालांकि जीवन में लडाइयां बहुत करनी पड़ी और जिस मांडू के सुल्तान ख़लजी से कोई पंद्रह बड़े मुकाबले किए, उसको हर बार उकसाने वाला कुंभा का भाई ही रहा जो एक तरह से मांडू के परचम तले उत्तराधिकार की लड़ाई लड़ रहा था। कुंभा इस शीत और प्रत्यक्ष युद्ध से आहत भी कम न हुआ मगर मेवाड़ में कला की प्रगति को मंद न होने दिया : न चारु और न ही कारु कला की धार मंद हुई।
कुंभा को सर्वाधिक लगाव अपनी जन्मभूमि चित्तौड़ से था। जो लोग अकारण इस तथ्य को ठुकरा रहे हो, उनको यह जरूर जानना चाहिए कि यह लगाव अनेक कारणों से था और इस ललित लगाव को कुंभलगढ़ की सुदीर्घ प्रशस्ति में बहुत प्रशंसा के साथ लिखा गया है। यही वर्णन एकलिंग माहात्म्य में भी दोहराया गया है। मां सौभाग्यदेवी ने गजानन की तीन जन्मों की आराधना के फलस्वरूप तनयत्रिशक्ति के फल रूप में कुंभा को पाया : मोकल जैसा गुणवान पिता, चित्तौड़ सरीखी कूटमयी भूमि और विघ्ननाशक विनायक की तपस्या। यही स्वीकारोक्ति कीर्तिस्तंभ की प्रशस्ति में भी हैं जिसमें वह नवीन विश्वामित्र की उपाधि से अलंकृत किये गए हैं। ( मेरी : राजस्थान की एेतिहासिक प्रशस्तियां और ताम्रपत्र, पृष्ठ 166)
यहीं कुंभा का जन्म संवत् 1474 में मार्गशीर्ष कृष्णा 5 को हुआ। संयोगवश कुंभलगढ़ प्रशस्ति की पहली शिला पर सं. 1517 वर्षे शाके 1382 प्रवर्तमाने मार्ग्गशीर्ष वदि 5 सोमे प्रशस्ति' पंक्ति के साथ राज्ञं सुजात योगं का स्मरण किया गया है। कुंभा ने चित्तौड़ के हर छोर को अलंकृत पाषाण से जटित करने का जो संकल्प किया, वह उम्रभर निरंतर रहा। कारीगरों कहावत सी रही : 'कमठाणो कुंभा रौ'। कहीं रोजगार न मिले तो कुंभा के चित्तौड़ में मिल जाएगा, यह काम 'अमर टांकी' कहलाया।
चित्तौड़ में कुंभा की कई कौतुकी निर्मितियां हैं और आज तक देश विदेश की हजारों आंखों के लिए चित्रकूट को विचित्रकूट बनाए हुए है। कला के संरक्षण ही नहीं संवर्धन का पाठ कुंभा के कृतित्व से सहज ही सीखा जा सकता है। वह अपने जीवनकाल में ही अनेक कौतुकों से मंडित कर दिया गया क्योंकि तेवर वाली तलवार के वार और कल्पनातीत लिखने वाली कलम के कुतूहल और विनम्र बारह राजाओं के मंडल से आदरणीय रहे।
जब तक कुंभलगढ़ की दीवार की चौड़ाई व ऊंचाई रहेगी, मूर्तिमय कीर्तिस्तंभ का कुतूहल बना रहेगा और नवभरतावतारीय संगीतराज की महत्ता व रसमय गीत गोविंद की रसिक प्रियता रहेगी, चित्तौड़ के कुंभा की कीर्तिकथा गेय रहेगी...।
महाराणा कुम्भा की मुद्रा
*
•श्रीकृष्ण जुगनू
महाराणा कुम्भा (1433-68 ई.) के शासन काल के सिक्कों का महत्व उनके धात्विक एवं कला पक्ष, नागरी लिपि और महाराजिक मुद्रा के रूप में तो है ही, मेवाड़ की उस मुद्रा के रूप में भी है जो संघर्ष और स्थापत्य कला में सफलता की परिचायक है।
कुम्भा की दो मुद्राएं क्रमशः कीर्ति स्तंभ और कुंभलगढ़ की स्थापना के अवसर पर जारी हुईं। यह एक ऐसा तथ्य है कि शासक ने जन्मतिथि, नव वर्ष या किसी विजय को लक्ष्य न कर निर्माण को ध्यान में रखा और उसी के वर्ष को चिरायु किया। लेकिन, यह बहुत रोचक तथ्य है कि चूंकि दोनों ही स्थानों के अभिलेख मार्गशीर्ष वदि 5 तिथि के है और इसको ' राज्ञ सुजात योग ' लिखा गया, तो दोनों सिक्के कुम्भा के जन्म दिवस पर जारी हुए। ( राजस्थान की ऐतिहासिक प्रशस्तियां और ताम्रपत्र)
भारतीय मुद्राओं के इतिहास में कुम्भा के सिक्कों का अपना खास महत्व रहा। ये चित्तौड़ी मुद्रा थी और मालवा सहित गुजरात में समान मूल्य पर चलती रही। यह मुद्रा बड़ी देखरेख में चित्तौड़ी टकसाल पर ढली। प्रधान सहनपाल ने इसकी योजना बनाई और यह लगभग डेढ़ सदी तक व्यवहार में रही। लेकिन, पूजा का अंग हो गई। कई लोगों के संग्रह में है। हां, अब अलभ्य हो गई है।
मित्र भूपेंद्र मल्हारा जी का आभार कि उन्होंने अपने संग्रह से यह सिक्का हमें दिखाया। तांबे का यह सिक्का कुंभलगढ़ के निर्माण के बाद, 1454 ईसवी का है।
इसमें चित भाग पर लिखा है :
श्री कुम्भलमेरौ, राणा श्री कुंभकर्ण।
कटार का चिह्न है।
दूसरी ओर लिखा है :
श्री एकलिंगस्य प्रसादात, संवत् १५११
बीचों बीच श्री चौकोर बनाकर उकेरा गया है।
श्रीविद्याचार्य : एकलिंग मंदिर में पूजा विधि के प्रवर्तक
(महाराणा कुम्भा के गुुरु)
मेवाड के प्रसिद्ध एकलिंगजी मंदिर के मध्यकालीन पूजा विधान के प्रवर्तक के रूप में आचार्य विद्यानन्द का नाम ऐतिहासिक स्रोतों में उभरकर सामने आता है। उनको हारीत राशि की परंपरा में बताया गया है। एकलिंगपुराण में कहा गया कि वे हारीत की शिष्य परंपरा में थे और अति ही विख्यात थे। वेद, वेदांग के तत्व को जानने वाले, सभी शास्त्रो के विद्वान, निग्रह अनुग्रह करने वाले थे- विद्याचार्य इति ख्यातो वेद वेदांगपारग:।
वह दयावान थे और किसी से ईर्ष्या नहीं करते थे। उन्होंने एकलिंगजी की पूजा अर्चना की और लोकानुग्रह के कारण से तपस्या में लगे रहते थे। (एकलिगपुराण 26, 62-63)
विद्याचार्य ही महाराणा कुंभा के गुरु थे। उनके लिए पुराण में कहा गया है कि महाराणा कुंभा आदि तत्कालीन राजागण उनकी आज्ञा का पालन करते थे और अपने हाथ में छडी ग्रहण करके अपना उद्धतपन (तत्कालीन परंपरानुसार राज्याभिमान) छोडकर पूर्व परंपरित रीति के अनुसार प्रतिहार (छडीदार) की तरह उनके पास रहते थे और राजधानी में जाकर ही पुन: राजचिन्ह धारण करते थे :
कुंभादयो नृपा ह्यासन तदाज्ञापरिपालका:।
यष्टिं पाणौ गृहीत्वा ते स्वमौद्धत्यं विहाय च।।
प्रतीहार इव द्वारि पूर्वज्ञान नियंत्रिता:।
स्वराजधानीं सम्प्राप्य राजचिन्हान्य धारयऩ।। (एकलिंग. 26, 67-68)
उन महाबुद्धिमान ने बाद में सन्यास ग्रहण कर लिया और वे 'शिवानन्दाश्रम' के नाम से ख्यात हुए, उनके आश्रम में बहुत से शिष्य-प्रशिष्य हुए। उनका मठ चौदह प्रकार की विद्याओं (छह वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र, ये 14 विद्याएं हैं) का प्रचार देशभर में करने वाले हुआ। वे श्रुति-स्मृति में वर्णित अपने आचार धर्म का पालन करते थे।
महाराणा कुंभा के काल में रचित एकलिंग माहात्म्य में विद्याचार्य का नाम विद्यानन्दी आया है। उन आचार्य की महिमा तब इतनी ख्यात हुई कि मेवाड को अविमुक्त काशी तीर्थ की तरह मान लिया गया था। यह श्लोक सिद्ध करता है कि काशी जैसे तीर्थ का पुण्य मेवाड ही प्रकाशित करता है, यहां चित्रकूट हो या त्रिकूट (कैलाशपुरी) जहां पर विश्वनाथ की तरह एकलिंग विराजित है, गंगा की तरह यहां प्रवाहित कुटीला नदी स्पर्द्धा करती लगती है। यहां भोजेन्द्र तालाब मानो काशी का मणिकर्णिका घाट हो गया है, यहां कुंभा के गुरु विद्यानन्दी शिव गण की तरह आनन्दित करने वाले हैं और जीवन से विमुक्त करने वाले हैं। श्लोक देेखिये-
काशी पुण्य प्रकाशीकृत शिववसति: चित्रकूट: त्रिकूटो
विश्वेश्वरस्त्वेकलिंग: सरिदिह कुटिला स्वर्धुनीस्पर्धिनीयम़।
श्रीभोजेन्द्रस्तडागो मुखरचित मणि:कर्णिका कुम्भकर्णो
विद्यानन्दी विनोदी जयति गुरुगणैर्यस्तु जीवन्विमुक्ति:।। (एकलिंग माहात्म्य 38)
सचमुच इस विद्वद्विभूति ने मेवाड को मठ, आश्रम में शिक्षा के केंद्र की तरह प्रतिष्ठा दी। इसमें क्षत्रिय ही नहीं, वैश्यवर्ग के लोग भी शिक्षा ग्रहण करते थे। आज एकलिंग माहात्म्य में आए इस श्लोक पर दृष्टि जमी की जमी रह गई तो सोचा कि सभी जन इसका आनंद उठाएं। वैसे एक बार प्रो. पुष्पेंद्रसिंहजी राणावत साहब ने इस संबंध में जिज्ञासा प्रकट की ही थी और इन दिनों जबकि मेवाड शिव गुणानुवाद का आनंद उठा रहा है तो इस विभूति का स्मरण भी हो गया।
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
(शीघ्र प्रकाश्य : महाराणा कुम्भा : एक अतुलनीय महाराजा... से)
महाराजा जिसे अभिनेता होना अच्छा लगा
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
महाराणा कुंभा यूं तो अपने युग का श्रेष्ठ शासक और विजेता रहा, मगर उसे साहित्यकार और अभिनेता होना ज्यादा रुचिशील लगा। कुंभा की रचनाएं जाहिर करती है कि वह दिन रात साहित्य सृजन और चिंतन में ही लगा रहता था। उसके लिए समकालीन कवियों को प्रशंसा करते हुए कहना पडा--
वह नित्य सुंदर छंदो के विचार में डूबा रहता था, सुंदर कविता पाठ करता था जो श्रवणप्रिय होती थी, उसकी रचनाओं के वर्णों से पीयूधारा का वर्षण होता था। उसकी रचनाओं से अनुप्रासादि अलंकारों का ऐसा दर्शन होता था मानों वर्णों में स्थल-स्थल पर तिलक लगा दिया हो, प्रबंधों में वह ताल का बहुत प्रयोग करता था और इसमें अपने समय के कवियों में चर्चित था, वह सचमुच सुकाव्यकार राजा था। (एकलिंग माहात्म्य पंचायत स्तुति 2)
कुंभा ने अपने आपको जयदेव के 'गीत गोविंद' के मंचन के लिए भी समर्पित कर दिया था। एक प्रबंध पर चार नाटक लिखे ही नहीं, उनके मंचन में भी रुचि ली। अपनी जन्मभूमि चित्तौडगढ को उसकी इन प्रस्तुतियों ने एक प्रकार से नवीन मथुरा बना दिया था।
कन्ह व्यास ने कुंभा की इस रूचि को बहुत उदारता से लिखा है कि इन नाटकों को देखकर यही लगता है कि मानों कुंभा श्रीकृष्ण हो और उनकी पत्नी कुम्भल देवी कमला या लक्ष्मी हो, एक गोपकन्या तो दूसरा गोपकुमार। चित्तौड की धरती तो नव मथुरा हो गया। कुंभा ने अपने पिता मोकल को नंद बना दिया, माता सौभाग्य देवी को यशोदा बना दिया, वे अपने प्रेक्षक रूप प्रजा के लिए मुरारी के रूप में हैं--
कृष्ण कुंभेंद्रभूप: प्रमुदित कमला कुम्भला देविकेयं,
भोगिन्यो गोपकन्या भुवि नव मथुरा चित्रकूटाचलस्था।
नंद: श्रीमोकलेंद्र: प्रकटित शुभ सौभाग्य नाम्नी यशोदा
रक्षोव्रातं निहंतु पुनरजनि जगद्गोपरूपो मुरारि:।।
जैसा कि मैंने कहा कि उस काल में गीत गोविंद का देशभर में प्रचार के लिए कुंभा ने चार भाषाओं में नाटक के रूप में उसका पुनर्रचन का श्लाघनीय प्रयास किया, भारत में किसी प्रबंधकाव्य का नाट्य-रूपांतरण का यह प्रथम प्रयास ही कहा जाएगा, यह अभिलेख से प्रमाणित है... किसी एक शासक के संबंध में इस तरह का वर्णन शायद दुर्लभ ही कहा जाएगा, वर्णनकर्ता स्वयं अपने को कुंभा के स्मरण के साथ अपने को धन्य मानता था, मगर अन्य चतुर-कविगण उससे उसकी इस प्रभूत विद्वता से खफा ही अधिक थे...।
कन्ह व्यास ने कुंभा की रक्षा और चिरायुष्य की बहुत कामना की, मगर क्या पता कि पिता की हत्या बहके-बहकाये पुत्र के हाथों ही होनी लिखी थी, 1468 में शिवालय में बैठे पिता की पीठ में पुत्र उदयकर्ण ने कटार भौंक दी। काल ने कुंभा को लील लिया मगर कालेश्वर ने उसके कृतित्व को कालजयी बना दिया।
दुर्ग बत्तीसी के संयोजनकार - महाराणा कुंभा
- डा. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
दुर्ग या किले अथवा गढ किसी राज्य की बडी ताकत माने जाते थे। दुर्गों के स्वामी होने से राजा को दुर्गपति कहा जाता था, दुर्गनिवासिनी होने से ही शक्ति को भी दुर्गा कहा गया। दुर्ग बडी ताकत होते हैं, चाणक्य से लेकर मनु और राजनीतिक ग्रंथों में दुर्गों की महिमा में सैकडों श्लोक मिलते हैं।
महाराणा कुंभा या कुंभकर्ण (शिव के एक नाम पर ही यह नाम रखा गया, शिलालेखों में कुंभा का नाम कलशनृपति भी मिलता है, काल 1433-68 ई.) के काल में लिखे गए अधिकांश वास्तु ग्रंथों में दुर्ग के निर्माण की विधि लिखी गई है। यह उस समय की आवश्यकता थी और उसके जीवनकाल में अमर टांकी चलने की मान्यता इसीलिए है कि तब शिल्पी और कारीगर दिन-रात काम में लगे हुए रहते थे। यूं भी इतिहासकारों का मत है कि कुंभा ने अपने राज्य में 32 दुर्गों का निर्माण करवाया था। मगर, नाम सिर्फ दो-चार ही बता पाते हैं। यथा- कुंभलगढ, अचलगढ, चित्तौडगढ और वसंतगढ।
सच ये है कि कुंभा के समय में मेवाड-राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्तीसी की रचना की गई, अर्थात् राज्य की सीमा पर चारों ही ओर दुर्गों की रचना की जाए। यह कल्पना 'सिंहासन बत्तीसी' की तरह आई हो, यह कहा नहीं जा सकता मगर जैसे 32 दांत जीभ की सुरक्षा करते हैं, वैसे ही किसी राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्तीसी को जरूरी समझा गया हो : श्रीमेदपाटं देशं रक्षति यो दुर्गमन्य देशांश्च। तस्य गुणानखिलानपि वक्तुं नालं चतुर्वदन:।। (एकलिंग माहात्म्य 54)
कुंभा के काल में दुर्गों का जो काम हुआ, वह निम्न तरह का है-
1. विस्तार कार्य -
इस कार्य के अंतर्गत 1. अपनी जन्मभूमि चित्तौडगढ का कार्य प्रमुख है, जिसमें कुंभा ने न केवल प्रवेश का मार्ग बदला (पश्चिम से पूर्व किया) बल्कि नवीन रथ्याओं या पोलों, द्वारों का कार्य करवाया और सुदृढ प्रकार, परिखा का निर्माण भी करवाया जो करीब 90 साल तक बना रहा। इसी प्रकार 2. मांडलगढ को विस्तार दिया गया, 3. वसंतगढ (आबू) को उत्तर से लेकर पूर्व की ओर बढाया गया मगर चंद्रावती को तब छोड दिया गया, 4. अचलगढ (आबू) की कोट को किले के रूप में बढाया गया और 5. यही कार्य जालोर में भी हुआ। इसी प्रकार 6. आहोर (जालोड, झाड़ोल) में दुर्ग की रचना को बढाया गया जहां कि पुलस्त्य मुनि का आश्रम था।
2. स्थापना कार्य - अपनी रानी कुंभलदेवी के नाम पर 7. कुंभलगढ की स्थापना की गई, यह नवीन राजधानी के रूप में कल्पित था, यहां से गोडवाड, मारवाड, मेरवाडा आदि पर नजर रखी जा सकती थी। इसी प्रकार 8. जावर में किला बनाया गया, 9. कोटडा 10. पानरवा, 9. झाडोल में नवीन दुर्ग बने। यही नहीं, 11 गोगुंदा के पास घाटे में सेनवाडा, 12. बगडूंदा, 13. देसूरी, 14. घाणेराव और 15. मुंडारा में कोट बनवाए गए ताकि उधर से होने वाले हमलों को रोका जा सके और 16. आकोला में सूत्रधार केल्हा की देखरेख में उपयोगी भंडारण के लिए किला बनवाया गया।
3. पुनरुद्धार कार्य -
कुंभा के काल में 17. धनोप, 18. बनेडा, 19. गढबोर, 20. सेवंत्री, 21. कोट सोलंकियान, 22. मिरघेरस या मृगेश्वर, 23. राणकपुर के घाटे में भी पुराने किलों का जीर्णोद्धार किया गया। इसी प्रकार 24. उदावट के पास एक कोट का उद्धार हुआ और 25. केलवाडा में हमीरसर के पास कोट का जीर्णोद्धार किया, 26. आदिवासियों पर नियंत्रण के लिए देवलिया में कोटडी गिराकर नवीन किला बनवाया। ऐसे ही 27. गागरोन का पुनरुद्धार हुआ और 28. नागौर के किले को जलाकर नवीन बनाया गया। 29. एकलिंगजी मंदिर के लिए पिता महाराणा मोकल द्वारा प्रारंभ किए कार्य के तहत किला-परकोटा बनवाकर सुरक्षा दी गई। इस समय इस बस्ती का नाम 'काशिका' रखा गया जो वर्तमान में कैलाशपुरी है।
4. नवनिरूपण कार्य - शत्रुओं को भ्रमित करने के लिहाज से 30. चित्तौडगढ के पूर्व की पहाडी पर नकली किला बनाया गया, 31. ऐसी ही रचना कैलाशपुरी में त्रिकूट पर्वत के लिए की गई और 32. भैसरोडगढ को नवीन स्वरुप दिया गया।
कुंभा की यह दुर्ग बत्तीसी आज तक अपनी अहमियत रखती है। पहली बार इन बत्तीस दुर्गों का जिक्र हुआ है, कुंभाकालीन ग्रंथों के संपादन, अनुवाद के लिए किए गए सर्वेक्षण के समय मेरा ध्यान इस अनुश्रुति पर गया था तब यह जानकारी एकत्रित हुई। आशा है सबको रुचिकर लगेगी। इन दिनों जबकि उदयपुर में कुंभा संगीत समारोह चल रहा है, तब यह जानकारी आपको शेयर करने की इच्छा हुई।
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- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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देश के प्रतापी, कलाप्रिय शासकों में महाराणा कुंभकर्ण या कुंभा (1433-68 ई., जन्म मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी, 1417) का नाम बहुत सम्मान से लिया जा सकता है। कुंभा बहुत शिक्षित और साहित्य प्रेमी ही नहीं, स्वयं साहित्यकार था। कुंभा ने कई ग्रंथों की रचना की जिनमें से 16 हजार श्लोकों का पांच कोष वाला 'संगीतराज' तो ख्यातिलब्ध है ही, सूडप्रबंध और स्तंभराज, कामराज रतिसार जैसे ग्रंथ भी अल्पज्ञात ही सही, मगर उल्लेखनीय है। कुंभा ने 'गीतगोविंद' की रसिकप्रिय टीका और 'चंडीशतक' की वृत्ति लिखी और उसमें अपनी जन्मभूमि चित्तौड़ व कुल की मर्यादाओं को रेखांकित किया।
कुंभा के 33 साल के शासन काल में चित्तौड और कुंभलगढ में कोई 1700 ग्रंथों की रचना और प्रतिलिपि लेखन का कार्य हुआ। इतना बडा योगदान शायद ही अन्य किसी शासक का रहा हो। इनमें संगीत, साहित्य, दर्शन, मीमांसा, गणित, धर्मशास्त्र सहित तकनीकी विषय भी शामिल हैं।
कुंभा स्वयं वल्लकी वीणा वादन में निपुण था। शिवाराधक होते हुए भी कुंभा ने विष्णु की महिमा के गान में अपने को लगाए रखा। अपने युग में वह स्वयं विष्णु के अवतारी के रूप में ख्याति लब्ध इस कारण हुआ कि गीतगोविंद का सर्वाधिक प्रचार किया। सूड प्रबंध भी इसी पर लिखा हुआ है और इसी पर चार नाटकों की रचना भी की।
साहित्य और इतिहास प्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ये चार नाटक एक भाषा में नहीं, चार भाषाओं में थे। कुंभाकालीन साहित्य पर कई वर्षों तक काम करते-करते विदित हुआ कि उसके लिए चारों ही नाटक चार-चार अंक वाले थे। पहली बार इन नाटकों के नाम सामने आए हैं-
1. श्रीकर्णाटकी या कन्नड भाषा में कारी-मुरारी।
2. मेदपाटी या मेवाडी में संगति रस।
3. सुमहाराष्ट्री या मराठी में अतुल चातुरी और
4. आदि भाषा या संस्कृत में अनन्दिनी नन्दिनी।
एकलिंग माहात्म्य में कुंभा के वर्णन में बहुत युक्ति से इन नाटकों का नाम लिखा गया है। इनको इनकी भाषा के साथ भी बताया गया है- वाणीगुम्फमया। यही श्लोक चित्तौडगढ स्थित कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति में भी आया है। अब तक यही माना जाता था कि कुंभा ने गीत गोविंद पर अपनी रसिक प्रिया वृत्ति की प्रशंसा में इन शब्दों का प्रयोग किया है, किंतु एकलिंग माहात्म्य का पाठ सिद्ध करता है कि ये नाटकों के नाम थे। इनमें रस, स्वरपाठ, अनिन्द्य धातु आदि का प्रयोग किया गया था।
यह आश्चर्य ही है कि ये चारों ही नाटक गीत गोविंद की विषय वस्तु पर ही आधारित थे यानी राधा-कृष्ण की प्रणय लीला ही इनका वर्ण्य था। उक्त सभी प्रदेशों में गीत गोविंद की लोकप्रियता के मूल में कुंभा का प्रयास श्लाघनीय रहा क्योंकि कुंभा ने इनका मंचन करवाया, इन पर आधरित चित्रकर्म करवाया या चित्रांकन पर जोर दिया। एक प्रकार से उसका नाटक प्रणयन का यह प्रयास नवीन गीत गोंविंद रचने जैसा ही था -
श्रीवासुदेव चरणाम्बुज भक्तिलग्न चेता महीपति रसौ स्वरपाटतेनान्,
धातूननिन्द्य जयदेव कवींद्र गीत गोविन्दकं व्यरचयत् किल नव्य रूपान्।।
ये नाटक उस काल में इतने प्रशंसित हुए थे कि कुंभा को कवियों और राजाओं के समूहों बीच मौलि माणिक्य (सरताज) का खिताब दिया गया। लोकांचल में ये इस तरह बहुत रुचिकर लगे कि मानों वीणा का मधुर रणन हो और आद्यबिंदू या मूर्च्छना हो। वे इन नाटकों की संगीतमयता के कारण मधुकर कुल की लीलाहारी में शारीरशाली, शौर्य के अंशुमाली स्वीकारे गए। कुंभाकालीन प्रशस्तियों के संपादक, संग्राहक रहे कन्ह व्यास ने इस मान्यता को स्वीकारा है। राणा कुंभा की स्मृति में पंडित औंकारनाथ ठाकुर और उनकी विदुषी शिष्या प्रेमलता शर्मा ने उदयपुर में 1962 में वार्षिक संगीत समारोह आरंभ किया था।
क्या आपको मालूम है ?
#महाराणाकुंभा ने किया था
#बारुदी आग्नेयास्त्रों का प्रयोग
युद्ध में बारुदी आग्नेयास्त्रों का उपयोग मेवाड़ के महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) ने किया था। बाबर से 85 वर्ष पूर्व ही उन्होंने नालिकास्त्र का सफल प्रयोग किया था। राजस्थान ही नहीं, भारत में युद्ध में यह प्रयोग पहली बार हुआ था। कुंभा काल के ग्रंथों में इनका प्रामाणिक जिक्र आता है।
कुंभा ने अपने जीवनकाल में सर्वाधिक लडाइयां लड़ी और वह एक सफल शासक के रूप में ख्यात हुए। कलाओं को संरक्षण देने के लिए उनका कोई जवाब नहीं। मांडलगढ़ के पास 1443 ई. में मालवा के खिलजी सुल्तान महमूद के खिलाफ जो लडाई लड़ी, उसमें खुलकर आग्नेयास्त्रों का उपयोग हुआ।
इसी समय, 1467-68 ई. में लिखित ' मआसिरे महमूदशाही' में इस जंग का रोमांचक जिक्र हुआ है। मआसिरे के अनुसार उस काल में आतिशबाजी के करिश्मे होने लगे थे, इनका प्रदर्शन सर्वजनिक रूप से होता था। महमूद के आतिशी युद्ध का तोड कुंभा ने दिया था। वह पकड़ा गया। मआसिरे के अनुसार मांडलगढ में कुंभा ने नैफ्ता की आग, आतिशे नफ़्त और तीरे हवाई का प्रयोग किया था। ये ऐसे प्रक्षेपास्त्र थे जिनमें बांस के एक छोर पर बारुद जैसी किसी चीज को बांधा जाता था। आग दिखाते ही वह लंबी दूरी पर, दुश्मनों के दल पर जाकर गिरता था और भीड को तीतर-बितर कर डालता था। इससे पूर्व सैन्य शिविर में हडकंप मच जाता था। यह उस काल का एक चौंकाने वाला प्रयोग था। शत्रुओं में इस प्रयोग की खासी चर्चा थी।
कुंभा के दरबारी सूत्रधार मंडन कृत 'राजवल्लभ वास्तुशास्त्र' में कुंभा के काल में दुर्गों की सुरक्षा के लिए तैनात किए जाने वाले आयुधों, यंत्रों का जिक्र आया है - संग्रामे वह्नम्बुसमीरणाख्या। सूत्रधार मंडन ने ऐसे यंत्रों में आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, जलयंत्र, नालिका और उनके विभिन्न अंगों के नामों का उल्लेख किया है - फणिनी, मर्कटी, बंधिका, पंजरमत, कुंडल, ज्योतिकया, ढिंकुली, वलणी, पट्ट इत्यादि। ये तोप या बंदूक के अंग हो सकते हैं।
वास्तु मण्डनम में मंडन ने गौरीयंत्र का जिक्र किया है। अन्य यंत्रों में नालिकास्त्र का मुख धत्तूरे के फूल जैसा होता था। उसमें जो पॉवडर भरा जाता था, उसके लिए 'निर्वाणांगार चूर्ण' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह श्वेत शिलाजीत (नौसादर) और गंधक को मिलाकर बनाया जाता था। निश्चित ही यह बारूद या बारुद जैसा था। आग का स्पर्श पाकर वह तेज गति से दुश्मनों के शिविर पर गिरता था और तबाही मचा डालता था। वास्तुमंडन जाहिर करता है कि उस काल में बारुद तैयार करने की अन्य विधियां भी प्रचलित थी। (वैचारिकी, कोलकाता, अक्टूबर-दिसंबर, 2005 में प्रकाशित मेरा लेख)
कीर्तिस्तम्भ : जय विजय की कथा और मूल उद्देश्य
शिल्प का एक वातायन स्तंभों की ओर भी खुलता है। अच्छे-अच्छे स्तंभ। लकडी से लेकर पाषाण तक के खंभे। वेदों से लेकर पुराणों और शिल्पशास्त्रों तक में जिक्र-दर-जिक्र। शासकों ने यदि विजय के दिग्घोष के रूप में करवाए तो आराधकों ने देवताओं के यशवर्धन के उद्देश्य से स्तंभों का निर्माण करवाया। मीनार भी उसका एक रूप है। अशोक के स्तंभ, हेलियोडोरस का विष्णुध्वज... जीजाक का कीर्तिस्तंभ, कुंभा का विजय स्तंभ... भारत में सबसे कलात्मक स्तंभ है कैलास मंदिर अलोरा का। जब देखो तब अपनी कला के कौशल का स्मारक सा लगता है।
इन स्तंभों का निर्माण निरंतर होता रहा है, अहमदाबाद में हाल ही एक विजयस्तंभ बना है। अन्यत्र रोम की तर्ज पर क्लॉक टावर भी बनाए गए। इनका उदय या उन्नत स्वरूप यश के विस्तार का सूचक है। यूं तो एेसे देव स्तंभों के निर्माण का प्रारंभिक जिक्र अल्पज्ञात वहि्नपुराण में आता है जिसमें विष्णु को समर्पित गरुड और वराह ध्वज बनाने की विधि बताई गई है। अन्य ग्रंथ दीपार्णव, वास्तुविद्या आदि बाद के हैं। अपराजितपृच्छा में भी एकाधिक देवस्तंभों के निर्माण का संक्षिप्त विवरण है।
महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) ने ऐसे स्तंभों के निर्माण पर एक पुस्तक ही लिखी थी। इसको विश्वकर्मा और जय संवाद के रूप में लिखा गया। नाम था 'स्तम्भराज'। यह दुनिया का कदाचित पहला शिल्पशास्त्र था जिसको पाषाण पर उत्कीर्ण करवाया गया था। इससे पहले नाटक, काव्यशास्त्र जैसे ग्रंथ पाषाणों पर उत्कीर्ण करवाए गए थे। परमारों के शासनकाल में धार में और चौहानों के शासनकाल में अजमेर में...। कुंभा के शासनकाल में स्तंभराज को पाषाण पर उत्कीर्ण करने का श्रेय संभवत: सूत्रधार जयता को है, उसी ने चित्तौड दुर्ग पर विष्णुध्वज का निर्माण किया, जिसे 'विजय स्तंभ' या 'कीर्तिस्तंभ' के नाम से ख्याति मिली। इसमें इन्द्रध्वज, ब्रह्मस्तंभ, विष्णुस्तंभ आदि की ऊंचाई आैर उनमें जडी जाने वाली मूर्तियों का विवरण था, लिखा गया था -
श्रीविश्वकर्माख्य महार्यवर्यमाचार्य गुत्पत्ति विधावुपास्य।
स्तम्भस्य लक्ष्मातनुते नृपाल: श्रीकुंभकर्णे जय भाषितेन।। 3।।
यह ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं, इसकी एक शिला मौजूद है जिसमें इसका संक्षिप्त संकेतित है। जिस कुंभा ने इस कला को अक्षुण्ण रखने का प्रयत्न कर शिलोत्कीर्ण करवाया, वे शिलाएं ही पूरी तरह नदारद है...। मगर, केवल अवशेष कह रहे हैं कि ये कला बेमिसाल थी और अनेक प्रकार के लक्षणों वाले स्तंभों का निर्माण होता था। कालिदास ने जिस तरह उजडी हुई अयोध्यापुरी में खुर्द-बुर्द जयस्तम्भ का जिक्र किया है.. अब वहां क्या कोई अवशेष है ?
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू
साहणपाल - महाराणा कुंभा का महामात्य
#श्रीकृष्ण जुगनू
महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) का शासनकाल कलाओं के संरक्षण और शांतिप्रिय शासन के लिए जाना जाता है। कलम, कटार और करनी के धारक के रूप में कुंभा की कीर्ति कला के कलश का स्थान लिए हुए है। कुंभा के काल में साहणपाल जैसे राजनयिक ने जावर जैसी खान के क्षेत्र को तीर्थंकर तीर्थ बनाने में योगदान किया। देलवाड़ा को भी देवकुल पाटक के रूप में पहचान दिलाई।
हाल ही जावर माइंस से एक खंडित मूर्ति का चरण लेख सामने आया है जिसमें महाराणा कुंभा के महामात्य के रूप में साहणपाल का नाम अंकित है। पद सहित नाम पहली बार देखने को मिला। यह अभिलेख विक्रम संवत 1497 तदनुसार 1440 ई. का है, ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यहां इस मूल नायक आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा का कार्य हुआ था। शिलालेख में देवनागरी के अक्षरों को इस तरह लिखा गया है कि मात्राएं अक्षरों के आगे ही पडी हुई है, ऐसा इस काल में प्रचलन में था। जैसे कि गौत्रे लिखना है तो ' ।गा।त्र ' लिखा जाता था...। जैसा कि अंग्रेजी में होता है खड़ी लाइन से अलग अलग अक्षर।
खोजबीन पर नागदा के शांतिनाथ मूर्ति के चरण चौकी लेख और खेरोदा के कुम्भा कालीन ताम्र पत्र में भी साहनपाल का नाम मिला। यह नवलखा परिवार से था और यह परिवार अगले तीन सौ सालों तक मेवाड़ में, उदयपुर में सक्रिय रहा। ( मेरी : भारतीय प्रशस्ति परम्परा और अभिलेख)
एक खास बात और, जावर माइंस में वेला वाणिया नामक धनिक की एक गाथा भील आदिवासियों में गायी जाती है। ढाक नामक वाद्य पर इसका गायन होता है, जावर माता के यश के रूप में, मैंने इसे 1994 ई. में भारतीय लोककला मंडल में ध्वन्यांकित किया था और बाद में उस पर लिखा भी। संयोग से इस अभिलेख में वेला नाम भी आया है, लोक में गेय आख्यान की पुष्टि अभिलेख से हुई है। गाथा में उसकी पत्नी का नाम हीरा आता है, इसमें भी उसकी पत्नी का नाम हीरादेवी ही आया है...।
अच्छा लगा जबकि शोधार्थी श्री अरविंदकुमार ने इस अभिलेख का पाठ मुझे विश्लेषण के लिए भेजा। संयोग है कि इस अभिलेख में जावर नाम ही आया है, यह नाम तब तक हो चुका था। एक बात और, इस समय सूत्रधार परबत सक्रिय था जो सूत्रधार सीहाक का पुत्र था। इन दिनों जबकि कुंभा की एक अल्पज्ञात कृति के अनुवाद में लगा था, जिसकी प्रारंभिक रचना सूरि हीरानंद ने की थी, तब यह अभिलेख पढकर बहुत अच्छा लगा। राजस्थान के इतिहास के अध्येताओं के लिए यह अच्छी खबर सिद्ध होगी।
महाराणा कुंभा और चित्तौड़गढ़
#जन्मप्रसंग : महाराणा कुम्भा की जयंती
महाराणा कुंभा को कला प्रेमी और विद्यागुरु शासक कई अर्थों में कहा जा सकता है। वास्तु, शिल्प, संगीत, नाटक, नृत्य, चित्र जैसी अनेक भागों वाली कृतियां और कला मूलक रचनात्मक प्रवृत्तियां कुंभा की अद्भुत देन और देश की दिव्य निधि है।
भूलोकमल्ल सोमेश्वर और परमार कुलावतंस भोज की तरह कुंभा ने भी स्वयं को प्रदर्शित, प्रवर्तित और प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। हालांकि जीवन में लडाइयां बहुत करनी पड़ी और जिस मांडू के सुल्तान ख़लजी से कोई पंद्रह बड़े मुकाबले किए, उसको हर बार उकसाने वाला कुंभा का भाई ही रहा जो एक तरह से मांडू के परचम तले उत्तराधिकार की लड़ाई लड़ रहा था। कुंभा इस शीत और प्रत्यक्ष युद्ध से आहत भी कम न हुआ मगर मेवाड़ में कला की प्रगति को मंद न होने दिया : न चारु और न ही कारु कला की धार मंद हुई।
कुंभा को सर्वाधिक लगाव अपनी जन्मभूमि चित्तौड़ से था। जो लोग अकारण इस तथ्य को ठुकरा रहे हो, उनको यह जरूर जानना चाहिए कि यह लगाव अनेक कारणों से था और इस ललित लगाव को कुंभलगढ़ की सुदीर्घ प्रशस्ति में बहुत प्रशंसा के साथ लिखा गया है। यही वर्णन एकलिंग माहात्म्य में भी दोहराया गया है। मां सौभाग्यदेवी ने गजानन की तीन जन्मों की आराधना के फलस्वरूप तनयत्रिशक्ति के फल रूप में कुंभा को पाया : मोकल जैसा गुणवान पिता, चित्तौड़ सरीखी कूटमयी भूमि और विघ्ननाशक विनायक की तपस्या। यही स्वीकारोक्ति कीर्तिस्तंभ की प्रशस्ति में भी हैं जिसमें वह नवीन विश्वामित्र की उपाधि से अलंकृत किये गए हैं। ( मेरी : राजस्थान की एेतिहासिक प्रशस्तियां और ताम्रपत्र, पृष्ठ 166)
यहीं कुंभा का जन्म संवत् 1474 में मार्गशीर्ष कृष्णा 5 को हुआ। संयोगवश कुंभलगढ़ प्रशस्ति की पहली शिला पर सं. 1517 वर्षे शाके 1382 प्रवर्तमाने मार्ग्गशीर्ष वदि 5 सोमे प्रशस्ति' पंक्ति के साथ राज्ञं सुजात योगं का स्मरण किया गया है। कुंभा ने चित्तौड़ के हर छोर को अलंकृत पाषाण से जटित करने का जो संकल्प किया, वह उम्रभर निरंतर रहा। कारीगरों कहावत सी रही : 'कमठाणो कुंभा रौ'। कहीं रोजगार न मिले तो कुंभा के चित्तौड़ में मिल जाएगा, यह काम 'अमर टांकी' कहलाया।
चित्तौड़ में कुंभा की कई कौतुकी निर्मितियां हैं और आज तक देश विदेश की हजारों आंखों के लिए चित्रकूट को विचित्रकूट बनाए हुए है। कला के संरक्षण ही नहीं संवर्धन का पाठ कुंभा के कृतित्व से सहज ही सीखा जा सकता है। वह अपने जीवनकाल में ही अनेक कौतुकों से मंडित कर दिया गया क्योंकि तेवर वाली तलवार के वार और कल्पनातीत लिखने वाली कलम के कुतूहल और विनम्र बारह राजाओं के मंडल से आदरणीय रहे।
जब तक कुंभलगढ़ की दीवार की चौड़ाई व ऊंचाई रहेगी, मूर्तिमय कीर्तिस्तंभ का कुतूहल बना रहेगा और नवभरतावतारीय संगीतराज की महत्ता व रसमय गीत गोविंद की रसिक प्रियता रहेगी, चित्तौड़ के कुंभा की कीर्तिकथा गेय रहेगी...।
महाराणा कुम्भा की मुद्रा
*
•श्रीकृष्ण जुगनू
महाराणा कुम्भा (1433-68 ई.) के शासन काल के सिक्कों का महत्व उनके धात्विक एवं कला पक्ष, नागरी लिपि और महाराजिक मुद्रा के रूप में तो है ही, मेवाड़ की उस मुद्रा के रूप में भी है जो संघर्ष और स्थापत्य कला में सफलता की परिचायक है।
कुम्भा की दो मुद्राएं क्रमशः कीर्ति स्तंभ और कुंभलगढ़ की स्थापना के अवसर पर जारी हुईं। यह एक ऐसा तथ्य है कि शासक ने जन्मतिथि, नव वर्ष या किसी विजय को लक्ष्य न कर निर्माण को ध्यान में रखा और उसी के वर्ष को चिरायु किया। लेकिन, यह बहुत रोचक तथ्य है कि चूंकि दोनों ही स्थानों के अभिलेख मार्गशीर्ष वदि 5 तिथि के है और इसको ' राज्ञ सुजात योग ' लिखा गया, तो दोनों सिक्के कुम्भा के जन्म दिवस पर जारी हुए। ( राजस्थान की ऐतिहासिक प्रशस्तियां और ताम्रपत्र)
भारतीय मुद्राओं के इतिहास में कुम्भा के सिक्कों का अपना खास महत्व रहा। ये चित्तौड़ी मुद्रा थी और मालवा सहित गुजरात में समान मूल्य पर चलती रही। यह मुद्रा बड़ी देखरेख में चित्तौड़ी टकसाल पर ढली। प्रधान सहनपाल ने इसकी योजना बनाई और यह लगभग डेढ़ सदी तक व्यवहार में रही। लेकिन, पूजा का अंग हो गई। कई लोगों के संग्रह में है। हां, अब अलभ्य हो गई है।
मित्र भूपेंद्र मल्हारा जी का आभार कि उन्होंने अपने संग्रह से यह सिक्का हमें दिखाया। तांबे का यह सिक्का कुंभलगढ़ के निर्माण के बाद, 1454 ईसवी का है।
इसमें चित भाग पर लिखा है :
श्री कुम्भलमेरौ, राणा श्री कुंभकर्ण।
कटार का चिह्न है।
दूसरी ओर लिखा है :
श्री एकलिंगस्य प्रसादात, संवत् १५११
बीचों बीच श्री चौकोर बनाकर उकेरा गया है।
श्रीविद्याचार्य : एकलिंग मंदिर में पूजा विधि के प्रवर्तक
(महाराणा कुम्भा के गुुरु)
मेवाड के प्रसिद्ध एकलिंगजी मंदिर के मध्यकालीन पूजा विधान के प्रवर्तक के रूप में आचार्य विद्यानन्द का नाम ऐतिहासिक स्रोतों में उभरकर सामने आता है। उनको हारीत राशि की परंपरा में बताया गया है। एकलिंगपुराण में कहा गया कि वे हारीत की शिष्य परंपरा में थे और अति ही विख्यात थे। वेद, वेदांग के तत्व को जानने वाले, सभी शास्त्रो के विद्वान, निग्रह अनुग्रह करने वाले थे- विद्याचार्य इति ख्यातो वेद वेदांगपारग:।
वह दयावान थे और किसी से ईर्ष्या नहीं करते थे। उन्होंने एकलिंगजी की पूजा अर्चना की और लोकानुग्रह के कारण से तपस्या में लगे रहते थे। (एकलिगपुराण 26, 62-63)
विद्याचार्य ही महाराणा कुंभा के गुरु थे। उनके लिए पुराण में कहा गया है कि महाराणा कुंभा आदि तत्कालीन राजागण उनकी आज्ञा का पालन करते थे और अपने हाथ में छडी ग्रहण करके अपना उद्धतपन (तत्कालीन परंपरानुसार राज्याभिमान) छोडकर पूर्व परंपरित रीति के अनुसार प्रतिहार (छडीदार) की तरह उनके पास रहते थे और राजधानी में जाकर ही पुन: राजचिन्ह धारण करते थे :
कुंभादयो नृपा ह्यासन तदाज्ञापरिपालका:।
यष्टिं पाणौ गृहीत्वा ते स्वमौद्धत्यं विहाय च।।
प्रतीहार इव द्वारि पूर्वज्ञान नियंत्रिता:।
स्वराजधानीं सम्प्राप्य राजचिन्हान्य धारयऩ।। (एकलिंग. 26, 67-68)
उन महाबुद्धिमान ने बाद में सन्यास ग्रहण कर लिया और वे 'शिवानन्दाश्रम' के नाम से ख्यात हुए, उनके आश्रम में बहुत से शिष्य-प्रशिष्य हुए। उनका मठ चौदह प्रकार की विद्याओं (छह वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र, ये 14 विद्याएं हैं) का प्रचार देशभर में करने वाले हुआ। वे श्रुति-स्मृति में वर्णित अपने आचार धर्म का पालन करते थे।
महाराणा कुंभा के काल में रचित एकलिंग माहात्म्य में विद्याचार्य का नाम विद्यानन्दी आया है। उन आचार्य की महिमा तब इतनी ख्यात हुई कि मेवाड को अविमुक्त काशी तीर्थ की तरह मान लिया गया था। यह श्लोक सिद्ध करता है कि काशी जैसे तीर्थ का पुण्य मेवाड ही प्रकाशित करता है, यहां चित्रकूट हो या त्रिकूट (कैलाशपुरी) जहां पर विश्वनाथ की तरह एकलिंग विराजित है, गंगा की तरह यहां प्रवाहित कुटीला नदी स्पर्द्धा करती लगती है। यहां भोजेन्द्र तालाब मानो काशी का मणिकर्णिका घाट हो गया है, यहां कुंभा के गुरु विद्यानन्दी शिव गण की तरह आनन्दित करने वाले हैं और जीवन से विमुक्त करने वाले हैं। श्लोक देेखिये-
काशी पुण्य प्रकाशीकृत शिववसति: चित्रकूट: त्रिकूटो
विश्वेश्वरस्त्वेकलिंग: सरिदिह कुटिला स्वर्धुनीस्पर्धिनीयम़।
श्रीभोजेन्द्रस्तडागो मुखरचित मणि:कर्णिका कुम्भकर्णो
विद्यानन्दी विनोदी जयति गुरुगणैर्यस्तु जीवन्विमुक्ति:।। (एकलिंग माहात्म्य 38)
सचमुच इस विद्वद्विभूति ने मेवाड को मठ, आश्रम में शिक्षा के केंद्र की तरह प्रतिष्ठा दी। इसमें क्षत्रिय ही नहीं, वैश्यवर्ग के लोग भी शिक्षा ग्रहण करते थे। आज एकलिंग माहात्म्य में आए इस श्लोक पर दृष्टि जमी की जमी रह गई तो सोचा कि सभी जन इसका आनंद उठाएं। वैसे एक बार प्रो. पुष्पेंद्रसिंहजी राणावत साहब ने इस संबंध में जिज्ञासा प्रकट की ही थी और इन दिनों जबकि मेवाड शिव गुणानुवाद का आनंद उठा रहा है तो इस विभूति का स्मरण भी हो गया।
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
(शीघ्र प्रकाश्य : महाराणा कुम्भा : एक अतुलनीय महाराजा... से)
महाराजा जिसे अभिनेता होना अच्छा लगा
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
महाराणा कुंभा यूं तो अपने युग का श्रेष्ठ शासक और विजेता रहा, मगर उसे साहित्यकार और अभिनेता होना ज्यादा रुचिशील लगा। कुंभा की रचनाएं जाहिर करती है कि वह दिन रात साहित्य सृजन और चिंतन में ही लगा रहता था। उसके लिए समकालीन कवियों को प्रशंसा करते हुए कहना पडा--
वह नित्य सुंदर छंदो के विचार में डूबा रहता था, सुंदर कविता पाठ करता था जो श्रवणप्रिय होती थी, उसकी रचनाओं के वर्णों से पीयूधारा का वर्षण होता था। उसकी रचनाओं से अनुप्रासादि अलंकारों का ऐसा दर्शन होता था मानों वर्णों में स्थल-स्थल पर तिलक लगा दिया हो, प्रबंधों में वह ताल का बहुत प्रयोग करता था और इसमें अपने समय के कवियों में चर्चित था, वह सचमुच सुकाव्यकार राजा था। (एकलिंग माहात्म्य पंचायत स्तुति 2)
कुंभा ने अपने आपको जयदेव के 'गीत गोविंद' के मंचन के लिए भी समर्पित कर दिया था। एक प्रबंध पर चार नाटक लिखे ही नहीं, उनके मंचन में भी रुचि ली। अपनी जन्मभूमि चित्तौडगढ को उसकी इन प्रस्तुतियों ने एक प्रकार से नवीन मथुरा बना दिया था।
कन्ह व्यास ने कुंभा की इस रूचि को बहुत उदारता से लिखा है कि इन नाटकों को देखकर यही लगता है कि मानों कुंभा श्रीकृष्ण हो और उनकी पत्नी कुम्भल देवी कमला या लक्ष्मी हो, एक गोपकन्या तो दूसरा गोपकुमार। चित्तौड की धरती तो नव मथुरा हो गया। कुंभा ने अपने पिता मोकल को नंद बना दिया, माता सौभाग्य देवी को यशोदा बना दिया, वे अपने प्रेक्षक रूप प्रजा के लिए मुरारी के रूप में हैं--
कृष्ण कुंभेंद्रभूप: प्रमुदित कमला कुम्भला देविकेयं,
भोगिन्यो गोपकन्या भुवि नव मथुरा चित्रकूटाचलस्था।
नंद: श्रीमोकलेंद्र: प्रकटित शुभ सौभाग्य नाम्नी यशोदा
रक्षोव्रातं निहंतु पुनरजनि जगद्गोपरूपो मुरारि:।।
जैसा कि मैंने कहा कि उस काल में गीत गोविंद का देशभर में प्रचार के लिए कुंभा ने चार भाषाओं में नाटक के रूप में उसका पुनर्रचन का श्लाघनीय प्रयास किया, भारत में किसी प्रबंधकाव्य का नाट्य-रूपांतरण का यह प्रथम प्रयास ही कहा जाएगा, यह अभिलेख से प्रमाणित है... किसी एक शासक के संबंध में इस तरह का वर्णन शायद दुर्लभ ही कहा जाएगा, वर्णनकर्ता स्वयं अपने को कुंभा के स्मरण के साथ अपने को धन्य मानता था, मगर अन्य चतुर-कविगण उससे उसकी इस प्रभूत विद्वता से खफा ही अधिक थे...।
कन्ह व्यास ने कुंभा की रक्षा और चिरायुष्य की बहुत कामना की, मगर क्या पता कि पिता की हत्या बहके-बहकाये पुत्र के हाथों ही होनी लिखी थी, 1468 में शिवालय में बैठे पिता की पीठ में पुत्र उदयकर्ण ने कटार भौंक दी। काल ने कुंभा को लील लिया मगर कालेश्वर ने उसके कृतित्व को कालजयी बना दिया।
दुर्ग बत्तीसी के संयोजनकार - महाराणा कुंभा
- डा. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
दुर्ग या किले अथवा गढ किसी राज्य की बडी ताकत माने जाते थे। दुर्गों के स्वामी होने से राजा को दुर्गपति कहा जाता था, दुर्गनिवासिनी होने से ही शक्ति को भी दुर्गा कहा गया। दुर्ग बडी ताकत होते हैं, चाणक्य से लेकर मनु और राजनीतिक ग्रंथों में दुर्गों की महिमा में सैकडों श्लोक मिलते हैं।
महाराणा कुंभा या कुंभकर्ण (शिव के एक नाम पर ही यह नाम रखा गया, शिलालेखों में कुंभा का नाम कलशनृपति भी मिलता है, काल 1433-68 ई.) के काल में लिखे गए अधिकांश वास्तु ग्रंथों में दुर्ग के निर्माण की विधि लिखी गई है। यह उस समय की आवश्यकता थी और उसके जीवनकाल में अमर टांकी चलने की मान्यता इसीलिए है कि तब शिल्पी और कारीगर दिन-रात काम में लगे हुए रहते थे। यूं भी इतिहासकारों का मत है कि कुंभा ने अपने राज्य में 32 दुर्गों का निर्माण करवाया था। मगर, नाम सिर्फ दो-चार ही बता पाते हैं। यथा- कुंभलगढ, अचलगढ, चित्तौडगढ और वसंतगढ।
सच ये है कि कुंभा के समय में मेवाड-राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्तीसी की रचना की गई, अर्थात् राज्य की सीमा पर चारों ही ओर दुर्गों की रचना की जाए। यह कल्पना 'सिंहासन बत्तीसी' की तरह आई हो, यह कहा नहीं जा सकता मगर जैसे 32 दांत जीभ की सुरक्षा करते हैं, वैसे ही किसी राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्तीसी को जरूरी समझा गया हो : श्रीमेदपाटं देशं रक्षति यो दुर्गमन्य देशांश्च। तस्य गुणानखिलानपि वक्तुं नालं चतुर्वदन:।। (एकलिंग माहात्म्य 54)
कुंभा के काल में दुर्गों का जो काम हुआ, वह निम्न तरह का है-
1. विस्तार कार्य -
इस कार्य के अंतर्गत 1. अपनी जन्मभूमि चित्तौडगढ का कार्य प्रमुख है, जिसमें कुंभा ने न केवल प्रवेश का मार्ग बदला (पश्चिम से पूर्व किया) बल्कि नवीन रथ्याओं या पोलों, द्वारों का कार्य करवाया और सुदृढ प्रकार, परिखा का निर्माण भी करवाया जो करीब 90 साल तक बना रहा। इसी प्रकार 2. मांडलगढ को विस्तार दिया गया, 3. वसंतगढ (आबू) को उत्तर से लेकर पूर्व की ओर बढाया गया मगर चंद्रावती को तब छोड दिया गया, 4. अचलगढ (आबू) की कोट को किले के रूप में बढाया गया और 5. यही कार्य जालोर में भी हुआ। इसी प्रकार 6. आहोर (जालोड, झाड़ोल) में दुर्ग की रचना को बढाया गया जहां कि पुलस्त्य मुनि का आश्रम था।
2. स्थापना कार्य - अपनी रानी कुंभलदेवी के नाम पर 7. कुंभलगढ की स्थापना की गई, यह नवीन राजधानी के रूप में कल्पित था, यहां से गोडवाड, मारवाड, मेरवाडा आदि पर नजर रखी जा सकती थी। इसी प्रकार 8. जावर में किला बनाया गया, 9. कोटडा 10. पानरवा, 9. झाडोल में नवीन दुर्ग बने। यही नहीं, 11 गोगुंदा के पास घाटे में सेनवाडा, 12. बगडूंदा, 13. देसूरी, 14. घाणेराव और 15. मुंडारा में कोट बनवाए गए ताकि उधर से होने वाले हमलों को रोका जा सके और 16. आकोला में सूत्रधार केल्हा की देखरेख में उपयोगी भंडारण के लिए किला बनवाया गया।
3. पुनरुद्धार कार्य -
कुंभा के काल में 17. धनोप, 18. बनेडा, 19. गढबोर, 20. सेवंत्री, 21. कोट सोलंकियान, 22. मिरघेरस या मृगेश्वर, 23. राणकपुर के घाटे में भी पुराने किलों का जीर्णोद्धार किया गया। इसी प्रकार 24. उदावट के पास एक कोट का उद्धार हुआ और 25. केलवाडा में हमीरसर के पास कोट का जीर्णोद्धार किया, 26. आदिवासियों पर नियंत्रण के लिए देवलिया में कोटडी गिराकर नवीन किला बनवाया। ऐसे ही 27. गागरोन का पुनरुद्धार हुआ और 28. नागौर के किले को जलाकर नवीन बनाया गया। 29. एकलिंगजी मंदिर के लिए पिता महाराणा मोकल द्वारा प्रारंभ किए कार्य के तहत किला-परकोटा बनवाकर सुरक्षा दी गई। इस समय इस बस्ती का नाम 'काशिका' रखा गया जो वर्तमान में कैलाशपुरी है।
4. नवनिरूपण कार्य - शत्रुओं को भ्रमित करने के लिहाज से 30. चित्तौडगढ के पूर्व की पहाडी पर नकली किला बनाया गया, 31. ऐसी ही रचना कैलाशपुरी में त्रिकूट पर्वत के लिए की गई और 32. भैसरोडगढ को नवीन स्वरुप दिया गया।
कुंभा की यह दुर्ग बत्तीसी आज तक अपनी अहमियत रखती है। पहली बार इन बत्तीस दुर्गों का जिक्र हुआ है, कुंभाकालीन ग्रंथों के संपादन, अनुवाद के लिए किए गए सर्वेक्षण के समय मेरा ध्यान इस अनुश्रुति पर गया था तब यह जानकारी एकत्रित हुई। आशा है सबको रुचिकर लगेगी। इन दिनों जबकि उदयपुर में कुंभा संगीत समारोह चल रहा है, तब यह जानकारी आपको शेयर करने की इच्छा हुई।
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- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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