छठ महापर्व एक संक्षिप्त परिचय
छठ व्रत
पूजा विधि- छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्त्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्त्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार ३६ घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
(१) पहला दिन कार्त्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठ व्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरान्त ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
(२) दूसरे दिन कार्त्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का निर्जल उपवास रखने के बाद रात्रि को चन्द्र उदय के बाद (प्रायः ८ बजे से १० बजे के भीतर) भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ (खड़ना) कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। खर = तीक्ष्ण, खरांशु = सूर्य (तीव्र प्रकाश वाला)। खराई = देर तक भूखे प्यासे रहने पर शरीर पर प्रभाव-अम्लता, जल की कमी कारण दुर्बलता, भूख में कमी। ३६ घण्टा निर्जल उपवास के पूर्व खराई का अभ्यास जरूरी है, अतः इसे खरना कहते हैं।
(३) तीसरे दिन कार्त्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है। शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
(४) चौथे दिन कार्त्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती अदरख और गुड़ (प्रसाद में चढ़ाया हुआ) खा कर कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं। यह कठिन व्रत होने के कारण इसके बाद दूध के पारण को छठी का दूध कहते हैं जिसका अर्थ कठिनाई है। बच्चों के जन्म के बाद भी छठी होती है पर उनका दूध पीना जन्म होते ही शुरु हो जाता है। पुरुष और स्त्री दोनों इस व्रत को कर सकते हैं पर अन्य व्रतों की तरह यह उपवास भी प्रायः स्त्रियां ही अधिक करती हैं।
सूर्य के स्थान, षष्ठी-ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप सूर्य है जिसकी शक्ति से जीवन की उत्पत्ति तथा पालन हो रहा है। सूर्य का तेज या उसका प्रभाव क्षेत्र षष्ठी देवी (सावित्री) है। पृथ्वी पर अक्षांश देशान्तर सूर्य की छाया से निकाले जाते हैं। प्राचीन विश्व में ६० समय क्षेत्र थे (६० = २४ मिनट के अन्तर पर), हर क्षेत्र की सीमा पर सूर्य स्थान था। सर्वे के लिये केन्द्रीय स्थान भी सूर्य क्षेत्र थे। भारत में उज्जैन प्राचीन विश्व का शून्य देशान्तर था। यहां का समय विश्व समय था, अतः यह महाकाल का स्थान है। उससे ६ अंश पूर्व कालहस्ती, १२ अंश पूर्व कोणार्क, १८ अंश पूर्व असम में भगदत्त की राजधानी शोणितपुर थी। क्योटो (जापान की प्राचीन राजधानी)-६०० पूर्व, पुष्कर (बुखारा) उज्जैन से १२० पश्चिम (विष्णु पुराण २/८/२६), वाराणसी का लोलार्क, पटना से पूर्व पुण्यार्क (पुनारख) ६० तथा ९० पूर्व, मिस्र के पिरामिड ४५० पश्चिम, पेरु के इन्का (सूर्य सिद्धान्त में इनः = सूर्य) राजाओं की प्राचीन राजधानी १५०० पश्चिम, इंगलैण्ड का स्टोनहेज ७८० पूर्व, फ्रांस का लौर्डेस ७२० पश्चिम, हेलेसपौण्ट (ग्रीस-तुर्की सीमा पर, हेलिओस = सूर्य), तुर्की के इजमीर (मेरु), कनक्कटे (कोणार्क) ४२० पश्चिम हैं।
कार्त्तिक मास का महत्त्व-यहां दो कालमानों का महत्त्व जानना जरूरी है-प्रथम यह कार्त्तिक मास में क्यों होता है, द्वितीय यह षष्ठी को क्यों है? पहले कार्त्तिक मास की व्याख्या देखें। दीपावली के बाद कार्त्तिक शुक्ल पक्ष से कार्त्तिकादि विक्रम सम्वत् आरम्भ होता है जिसका आरम्भ उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य ने ५७ ई.पू. में सोमनाथ में किया था। उसके ७ मास पूर्व नेपाल के पशुपतिनाथ में चैत्रादि सम्वत् का आरम्भ किया था जब वहां अवन्तिवर्मन् (१०३-३३ ई.पू.) का शासन था। अवन्तिवर्मन् ने व्याकरण की पुस्तक लिखी थी। उनका पुत्र जिष्णुगुप्त कुछ काल के लिये राजा था, बाद में ज्योतिष अध्येता के रूप में उसके समकालीन वराहमिहिर (९५-५ ई.पू.) ने उनका उल्लेख किया है। उसका पुत्र ब्रह्मगुप्त विख्यात ज्योतिषी थे जिनकी पुस्तक ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त का अरबी अनुवाद अल-जबर-उल-मुकाबला (अलजब्रा शब्द का मूल) के रूप में हुआ।
कृत्तिका का अर्थ कैंची होता है। ज्योतिष गणना में आकाश के दो वृत्तों का प्रयोग होता है-विषुव और क्रान्ति-वृत्त। इन दोनों का एक मिलन विन्दु कृत्तिका है जहां से कैंची की तरह दो शाखायें निकलती हैं। उससे १८० अंश दूर दोनों शाखायें जहां मिलतीं हैं वह द्वि-शाखा = विशाखा नक्षत्र है। आकाश में पृथ्वी का घूर्णन अक्ष २६००० वर्ष में क्रान्ति-वृत्त के उत्तरी ध्रुव नाक-स्वर्ग की परिक्रमा करता है जिसका मार्ग शिशुमार चक्र है। यह परिक्रमा भी जिस विन्दु से आरम्भ होती है उसे कृत्तिका कहा गया है।
तन्नोदेवासोअनुजानन्तुकामम् .... दूरमस्मच्छत्रवोयन्तुभीताः।
तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ॥११॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्॥१२॥ (तैत्तिरीयब्राह्मण३/१/१)
= देव कामना पूर्ण करते हैं, इन्द्राग्नि (कृत्तिका) से विशाखा (नक्षत्रों की पत्नी) तक बढ़ते हैं। तम वे पूर्ण होते हैं, जो पूर्णमासी है। तब विपरीत गति आरम्भ होती है। यह गति नाक कॆ चारो तरफ है।
इसे ब्रह्माण्ड पुराण में मन्वन्तर काल कहा है, जो इतिहास का मन्वन्तर है।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
पृथ्वी पर भी वार्षिक रास कार्त्तिक पूर्णिमा से आरम्भ होता है। यह ऋतु चक्र का वह समय है जब सभी समुद्री तूफान शान्त हो जाते हैं और समुद्री यात्रा आरम्भ हो सकती है। अतः सोमनाथ के समुद्र तट पर कार्त्तिकादि विक्रम सम्वत् का आरम्भ हुआ था। गणित के अनुसार कार्त्तिक कृष्ण पक्ष आश्विन मास में होगा उसके बाद शुक्ल पक्ष से कार्त्तिक मास और कार्त्तिकादि वर्ष आरम्भ होगा। वर्ष और मास सन्धि पर दीपावली होती है। इस मास में अन्न और सब्जियां अधिक होती हैं अतः हरी सब्जी युक्त शाकाहारी भोजन कार्त्तिक मास में लेने का नियम है।
इस सम्वत्सर चक्र की सन्धि पर जब नया वर्ष आरम्भ होता है दीपावली में ३ सन्धियां होती हैं-
असतोमासद्गमय, तमसोमाज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय .. बृहदारण्यकउपनिषद् (१/३/२८)
स्वयं दीपावली अन्धकार से प्रकाश की तरफ गति है जिसके लिये दीप जलाते हैं-तमसो मा ज्योतिर्गमय।
दीपावली के १ दिन पूर्व यम-चतुर्दशी होती है। १४ भुवन अर्थात् जीव सर्ग है, उनकी परिणति यम है, अतः कृष्ण चतुर्दशी को यम-चतुर्दशी कहते हैं, रात्रि तिथि के अनुसार यह शिवरात्रि भी होती है। दीपावली के एक दिन बाद अन्न-कूट होता है जो इन्द्र की पूजा थी (भागवत पुराण)। भगवान् कृष्ण ने इसके बदले गोवर्धन पूजा की थी। गोकुल में इस नाम का पर्वत है। गो-वर्धन का अर्थ गोवंश की वृद्धि है जो हमारे यज्ञों का आधार है। शरीर की इन्द्रियां भी गो हैं, जिनकी वृद्धि रात्रि में होती है जब हम सोते हैं। अतः १ दिन पूर्व से १ दिन बाद का पर्व मृत्यु से अमृत की गति है-मृत्योर्मा अमृतं गमय।
दीपावली से २ दिन पूर्व निर्ऋति (दरिद्रता) होती है जिसे दूर किया जाता है। इसके लिये धन-तेरस पर कुछ बर्तन या सोना खरीदा जाता है। दीपावली के २ दिन बाद यम-द्वितीया है। यहां यम का अर्थ मृत्यु नहीं, यमल = युग्म या जोड़ा है। इसका अर्थ भाई-बहन का जोड़ा यम-यमी है। अतः इस दिन को भ्रातृ-द्वितीया कहते हैं जब बहन भाई की पूजा करती है। यह असत् (अव्यक्त, अस्तित्व हीन) से सत् (सत्ता, व्यक्त) की गति है-असतो मा सद् गमय।
इस युग्म के २ दिन बाद चतुर्थी से छठ पर्व आरम्भ होता है। मुख्य पर्व षष्ठी को होने के बाद सप्तमी के सूर्योदय अर्घ्य के साथ व्रत पूर्ण होता है। पुनः २ दिन के बाद पञ्चक आरम्भ होता है, जब चन्द्रमा धनिष्ठा से अन्तिम रेवती तक के ५ नक्षत्रों में रहता है। सावन वर्ष में ३०-३० दिनों के १२ मास होते थे अतः सौर मास से मिलाने के लिये अन्त में ५ दिन जोड़ते थे। यह अतिरिक्त दिन छुट्टी के तौर पर (रोमन कैलेन्डर में क्रिसमस या इस्लाम में हज) मनाया जाता है। पञ्चक के बाद सामान्य भोजन आरम्भ करते हैं और कार्त्तिक पूर्णिमा के दिन नदी या समुद्र में स्नान कर कार्त्तिक व्रत पूर्ण करते हैं। वर्ष के अतिरिक्त या छोड़े हुये भाग के बाद भोजन करते हैं अतः इसे ओड़िशा में छाड़खाई कहते हैं। ४ वर्षों के बाद ६ दिन अधिक होने पर षडाह मनाते थे (ऐतरेय ब्राह्मण) जिसका पालन अभी नहीं हो रहा है।
ओड़िशा में इस दिन समुद्र यात्रा आरम्भ होती है जब जहाज बान्ध कर उसमें सामान भरते हैं। जहाज बान्धने को बोइत-बन्धान कहते हैं। संस्कृत वहित्र = बोइत = अंग्रेजी बोट (Boat)। बिहार के पत्तनों पटना, कर्ण के समय का मुंगेर आदि से जहाज कुछ पहले चलते थे अतः वहां ९ दिन पूर्व से ही सामान नदी तट पर लाना शुरु करते हैं। सामान ढोने के लिये बांस का कांवर व्यवहार होता है, इस डण्डे पर भार दोनों तरफ लादने पर यह बहंगी कहते हैं। ओड़िशा के पारादीप पत्तन के मार्ग में भी एक बहंगा बाजार है।
षष्ठी का महत्त्व-६ दिन जोड़ने पर (५.२५) सावन वर्ष सौर मास के बराबर होता है-षडहो वा उ सर्वः संवत्सरः। (कौषीतकि ब्राह्मण १९/१०)
पुरुष को ६ठी चिति (निर्माण क्रम में ६ठा कार्य) कहा गया है। आकाश के ५ पर्वों के बाद मनुष्य का निर्माण होता है। इसे ६ठा दिन कहा गया है, उसके बाद अभी ७वां दिन या मन्वन्तर चल रहा है। बाइबिल में भी इसे ७ दिनों की सृष्टि कहा है।
तस्मै (ब्रह्मणे) षष्टं हूतः प्रत्यशृणोत्। स षड्ढूतोऽभवत् षड्ढूतो ह वै नामैषः। तं वा एतं षड्ढूतं सन्तं षड्ढोतेत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/११/२-३)
धाता षड्ढोता (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/१/१. २/२/८/४)।
पुरुष एव षष्ठमहः (कौषीतकि ब्राह्मण २३/४)
देवक्षेत्रं वै षष्टमहः (गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०, ऐतरेय ब्राह्मण ५/९)
कई प्रकार से पुरुष ६ठी चिति है-(१) आकाश के ५ पर्व हैं-स्वयम्भू मण्डल (१०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह), ब्रह्माण्ड (स्वयम्भू रूपी ब्रह्म का अण्ड, इसके निर्माण की सामग्री को आण्ड कहा गया है, १०० अरब तारों का समूह), सौर मण्डल (सूर्य का प्रभाव क्षेत्र, जहां तक इसका प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है), मध्यवर्त्ती ग्रह (चन्द्र कक्षा का गोल, अत्रि = यहां का, बाहरी आकर्षण भृगु, और सूर्य का विकिरण अंगिरा = अंगारा के बीच), पृथ्वी। इसके बाद मनुष्य की उत्पत्ति हुयी जो स्वयम्भू और ब्रह्माण्ड की प्रतिमा रूप १०० अरब कोषिका (कलिल = सेल, cell)
(२) छान्दोग्य उपनिषद् खण्ड ५, ६ में कई प्रकार की ५ चितियां कही गयी हैं जिनके बाद मनुष्य बनता है। ५ महाभूतों से उत्पत्ति, ५ कर्म या ज्ञान की इन्द्रियों के नियन्त्रक मन जो मनुष्य का रूप है, अन्न के ६ स्तरों के पाचन के बाद मनुष्य का तेज आदि।
(३) सूक्ष्म रूप में मूल ऋषि तत्त्व से पितर (आधुनिक विज्ञान के स्ट्रिंग और क्वार्क)-ये असत् तत्त्व अर्थात् अनुभव या यान्त्रिक माप से परे हैं। इसके बाद देव-दानव (उपयोगी या अनुपयोगी शक्ति), जगत् (परमाणु कण), कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), जीव (परमाणु, बालाग्र का १०,००० भाग), कलिल (सेल cell)-ये ५ स्तर हैं। इसके बाद ६ठा स्तर मनुष्य का है।
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यं (अथर्वशिर उपनिषद् ५)
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
कार्त्तिक पूर्णिमा को चन्द्र कृत्तिका नक्षत्र में रहता है अतः इस को कार्त्तिक मास कहते हैं। इस मास से यज्ञ-वर्ष शुरु होता था (ऋतु चक्र, अन्न उत्पादन का आरम्भ)। ज्योतिष में वेध (आंख या दूरवीक्षण से देखना) के लिये स्थिर तारों का नक्षत्र मण्डल अश्विनी से शुरु होता है। पर गणना उसी विन्दु से की जा सकती हैं जहां विषुव और क्रान्ति-वृत्त मिलते हैं, जिसे कृत्तिका कहते हैं। इसी विन्दु से गोलीय पृष्ठ का त्रिभुज बनता है जिसका गणित हम कर सकते हैं। इस अर्थ में कृत्तिका को नक्षत्रों का मुख या आरम्भ विन्दु कहा है। इसमें भी ६ तारे स्पष्ट हैं, १ अस्पष्ट था जो अब बहुत धूमिल होकर लुप्तप्राय है। इन ६ तारों की तरह कार्त्तिकेय के ६ सैन्य केन्द्र थे, जिनके नाम आज भी प्रचलित हैं-ओड़िशा बंगाल में दुला (इसका पुत्र दुलाल = कार्त्तिकेय), असम में वर्षयती (अधिक वर्षा का स्थान), आन्ध्र महाराष्ट्र में अभ्रयन्ती, गुजरात राजस्थान में मेघयन्ती (मेघानी, मेघवाल, केवल मेघ, वर्षा बहुत कम) पंजाब में चुपुणीका (चोपड़ा) तमिल, कन्नड़ में नितत्नी। अतः कार्त्तिकेय को भी ६ मुख वाला कहते हैं।
मुखं वा एतन्नक्षत्राणां यत् कृत्तिकाः। (तैत्तिरीय बाह्मण १/१/२/१)
एतद् वा अग्नेर्नक्षत्रं यत् कृत्तिकाः। (तैत्तिरीय बाह्मण १/१/२/१, १/५/१/१, ३/१/१/१)
अग्नये स्वाहा, कृत्तिकेभ्यः स्वाहा। (कृत्तिकेति सप्तानां नक्षत्रमूर्त्तीनां साधारणं नाम। अम्बा-दुलादीनि विशेषनामानीति सायणः) अम्बायै स्वाहा। दुलायै स्वाहा। नितत्न्यै स्वाहा। अभ्रयन्त्यै स्वाहा। मेघयन्त्यै स्वाहा। वर्षयन्त्यै स्वाहा। चुपुणीकायै स्वाहेति। (तैत्तिरीय बाह्मण ३/१/४/१)
धन्यवाद
छठ महापर्व की सुभकामनाओं के साथ
पूजा विधि- छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्त्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्त्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार ३६ घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
(१) पहला दिन कार्त्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठ व्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरान्त ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
(२) दूसरे दिन कार्त्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का निर्जल उपवास रखने के बाद रात्रि को चन्द्र उदय के बाद (प्रायः ८ बजे से १० बजे के भीतर) भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ (खड़ना) कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। खर = तीक्ष्ण, खरांशु = सूर्य (तीव्र प्रकाश वाला)। खराई = देर तक भूखे प्यासे रहने पर शरीर पर प्रभाव-अम्लता, जल की कमी कारण दुर्बलता, भूख में कमी। ३६ घण्टा निर्जल उपवास के पूर्व खराई का अभ्यास जरूरी है, अतः इसे खरना कहते हैं।
(३) तीसरे दिन कार्त्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है। शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
(४) चौथे दिन कार्त्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती अदरख और गुड़ (प्रसाद में चढ़ाया हुआ) खा कर कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं। यह कठिन व्रत होने के कारण इसके बाद दूध के पारण को छठी का दूध कहते हैं जिसका अर्थ कठिनाई है। बच्चों के जन्म के बाद भी छठी होती है पर उनका दूध पीना जन्म होते ही शुरु हो जाता है। पुरुष और स्त्री दोनों इस व्रत को कर सकते हैं पर अन्य व्रतों की तरह यह उपवास भी प्रायः स्त्रियां ही अधिक करती हैं।
सूर्य के स्थान, षष्ठी-ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप सूर्य है जिसकी शक्ति से जीवन की उत्पत्ति तथा पालन हो रहा है। सूर्य का तेज या उसका प्रभाव क्षेत्र षष्ठी देवी (सावित्री) है। पृथ्वी पर अक्षांश देशान्तर सूर्य की छाया से निकाले जाते हैं। प्राचीन विश्व में ६० समय क्षेत्र थे (६० = २४ मिनट के अन्तर पर), हर क्षेत्र की सीमा पर सूर्य स्थान था। सर्वे के लिये केन्द्रीय स्थान भी सूर्य क्षेत्र थे। भारत में उज्जैन प्राचीन विश्व का शून्य देशान्तर था। यहां का समय विश्व समय था, अतः यह महाकाल का स्थान है। उससे ६ अंश पूर्व कालहस्ती, १२ अंश पूर्व कोणार्क, १८ अंश पूर्व असम में भगदत्त की राजधानी शोणितपुर थी। क्योटो (जापान की प्राचीन राजधानी)-६०० पूर्व, पुष्कर (बुखारा) उज्जैन से १२० पश्चिम (विष्णु पुराण २/८/२६), वाराणसी का लोलार्क, पटना से पूर्व पुण्यार्क (पुनारख) ६० तथा ९० पूर्व, मिस्र के पिरामिड ४५० पश्चिम, पेरु के इन्का (सूर्य सिद्धान्त में इनः = सूर्य) राजाओं की प्राचीन राजधानी १५०० पश्चिम, इंगलैण्ड का स्टोनहेज ७८० पूर्व, फ्रांस का लौर्डेस ७२० पश्चिम, हेलेसपौण्ट (ग्रीस-तुर्की सीमा पर, हेलिओस = सूर्य), तुर्की के इजमीर (मेरु), कनक्कटे (कोणार्क) ४२० पश्चिम हैं।
कार्त्तिक मास का महत्त्व-यहां दो कालमानों का महत्त्व जानना जरूरी है-प्रथम यह कार्त्तिक मास में क्यों होता है, द्वितीय यह षष्ठी को क्यों है? पहले कार्त्तिक मास की व्याख्या देखें। दीपावली के बाद कार्त्तिक शुक्ल पक्ष से कार्त्तिकादि विक्रम सम्वत् आरम्भ होता है जिसका आरम्भ उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य ने ५७ ई.पू. में सोमनाथ में किया था। उसके ७ मास पूर्व नेपाल के पशुपतिनाथ में चैत्रादि सम्वत् का आरम्भ किया था जब वहां अवन्तिवर्मन् (१०३-३३ ई.पू.) का शासन था। अवन्तिवर्मन् ने व्याकरण की पुस्तक लिखी थी। उनका पुत्र जिष्णुगुप्त कुछ काल के लिये राजा था, बाद में ज्योतिष अध्येता के रूप में उसके समकालीन वराहमिहिर (९५-५ ई.पू.) ने उनका उल्लेख किया है। उसका पुत्र ब्रह्मगुप्त विख्यात ज्योतिषी थे जिनकी पुस्तक ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त का अरबी अनुवाद अल-जबर-उल-मुकाबला (अलजब्रा शब्द का मूल) के रूप में हुआ।
कृत्तिका का अर्थ कैंची होता है। ज्योतिष गणना में आकाश के दो वृत्तों का प्रयोग होता है-विषुव और क्रान्ति-वृत्त। इन दोनों का एक मिलन विन्दु कृत्तिका है जहां से कैंची की तरह दो शाखायें निकलती हैं। उससे १८० अंश दूर दोनों शाखायें जहां मिलतीं हैं वह द्वि-शाखा = विशाखा नक्षत्र है। आकाश में पृथ्वी का घूर्णन अक्ष २६००० वर्ष में क्रान्ति-वृत्त के उत्तरी ध्रुव नाक-स्वर्ग की परिक्रमा करता है जिसका मार्ग शिशुमार चक्र है। यह परिक्रमा भी जिस विन्दु से आरम्भ होती है उसे कृत्तिका कहा गया है।
तन्नोदेवासोअनुजानन्तुकामम् .... दूरमस्मच्छत्रवोयन्तुभीताः।
तदिन्द्राग्नी कृणुतां तद्विशाखे, तन्नो देवा अनुमदन्तु यज्ञम्।
नक्षत्राणां अधिपत्नी विशाखे, श्रेष्ठाविन्द्राग्नी भुवनस्य गोपौ॥११॥
पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्, उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय।
तस्यां देवा अधिसंवसन्तः, उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्॥१२॥ (तैत्तिरीयब्राह्मण३/१/१)
= देव कामना पूर्ण करते हैं, इन्द्राग्नि (कृत्तिका) से विशाखा (नक्षत्रों की पत्नी) तक बढ़ते हैं। तम वे पूर्ण होते हैं, जो पूर्णमासी है। तब विपरीत गति आरम्भ होती है। यह गति नाक कॆ चारो तरफ है।
इसे ब्रह्माण्ड पुराण में मन्वन्तर काल कहा है, जो इतिहास का मन्वन्तर है।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
पृथ्वी पर भी वार्षिक रास कार्त्तिक पूर्णिमा से आरम्भ होता है। यह ऋतु चक्र का वह समय है जब सभी समुद्री तूफान शान्त हो जाते हैं और समुद्री यात्रा आरम्भ हो सकती है। अतः सोमनाथ के समुद्र तट पर कार्त्तिकादि विक्रम सम्वत् का आरम्भ हुआ था। गणित के अनुसार कार्त्तिक कृष्ण पक्ष आश्विन मास में होगा उसके बाद शुक्ल पक्ष से कार्त्तिक मास और कार्त्तिकादि वर्ष आरम्भ होगा। वर्ष और मास सन्धि पर दीपावली होती है। इस मास में अन्न और सब्जियां अधिक होती हैं अतः हरी सब्जी युक्त शाकाहारी भोजन कार्त्तिक मास में लेने का नियम है।
इस सम्वत्सर चक्र की सन्धि पर जब नया वर्ष आरम्भ होता है दीपावली में ३ सन्धियां होती हैं-
असतोमासद्गमय, तमसोमाज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय .. बृहदारण्यकउपनिषद् (१/३/२८)
स्वयं दीपावली अन्धकार से प्रकाश की तरफ गति है जिसके लिये दीप जलाते हैं-तमसो मा ज्योतिर्गमय।
दीपावली के १ दिन पूर्व यम-चतुर्दशी होती है। १४ भुवन अर्थात् जीव सर्ग है, उनकी परिणति यम है, अतः कृष्ण चतुर्दशी को यम-चतुर्दशी कहते हैं, रात्रि तिथि के अनुसार यह शिवरात्रि भी होती है। दीपावली के एक दिन बाद अन्न-कूट होता है जो इन्द्र की पूजा थी (भागवत पुराण)। भगवान् कृष्ण ने इसके बदले गोवर्धन पूजा की थी। गोकुल में इस नाम का पर्वत है। गो-वर्धन का अर्थ गोवंश की वृद्धि है जो हमारे यज्ञों का आधार है। शरीर की इन्द्रियां भी गो हैं, जिनकी वृद्धि रात्रि में होती है जब हम सोते हैं। अतः १ दिन पूर्व से १ दिन बाद का पर्व मृत्यु से अमृत की गति है-मृत्योर्मा अमृतं गमय।
दीपावली से २ दिन पूर्व निर्ऋति (दरिद्रता) होती है जिसे दूर किया जाता है। इसके लिये धन-तेरस पर कुछ बर्तन या सोना खरीदा जाता है। दीपावली के २ दिन बाद यम-द्वितीया है। यहां यम का अर्थ मृत्यु नहीं, यमल = युग्म या जोड़ा है। इसका अर्थ भाई-बहन का जोड़ा यम-यमी है। अतः इस दिन को भ्रातृ-द्वितीया कहते हैं जब बहन भाई की पूजा करती है। यह असत् (अव्यक्त, अस्तित्व हीन) से सत् (सत्ता, व्यक्त) की गति है-असतो मा सद् गमय।
इस युग्म के २ दिन बाद चतुर्थी से छठ पर्व आरम्भ होता है। मुख्य पर्व षष्ठी को होने के बाद सप्तमी के सूर्योदय अर्घ्य के साथ व्रत पूर्ण होता है। पुनः २ दिन के बाद पञ्चक आरम्भ होता है, जब चन्द्रमा धनिष्ठा से अन्तिम रेवती तक के ५ नक्षत्रों में रहता है। सावन वर्ष में ३०-३० दिनों के १२ मास होते थे अतः सौर मास से मिलाने के लिये अन्त में ५ दिन जोड़ते थे। यह अतिरिक्त दिन छुट्टी के तौर पर (रोमन कैलेन्डर में क्रिसमस या इस्लाम में हज) मनाया जाता है। पञ्चक के बाद सामान्य भोजन आरम्भ करते हैं और कार्त्तिक पूर्णिमा के दिन नदी या समुद्र में स्नान कर कार्त्तिक व्रत पूर्ण करते हैं। वर्ष के अतिरिक्त या छोड़े हुये भाग के बाद भोजन करते हैं अतः इसे ओड़िशा में छाड़खाई कहते हैं। ४ वर्षों के बाद ६ दिन अधिक होने पर षडाह मनाते थे (ऐतरेय ब्राह्मण) जिसका पालन अभी नहीं हो रहा है।
ओड़िशा में इस दिन समुद्र यात्रा आरम्भ होती है जब जहाज बान्ध कर उसमें सामान भरते हैं। जहाज बान्धने को बोइत-बन्धान कहते हैं। संस्कृत वहित्र = बोइत = अंग्रेजी बोट (Boat)। बिहार के पत्तनों पटना, कर्ण के समय का मुंगेर आदि से जहाज कुछ पहले चलते थे अतः वहां ९ दिन पूर्व से ही सामान नदी तट पर लाना शुरु करते हैं। सामान ढोने के लिये बांस का कांवर व्यवहार होता है, इस डण्डे पर भार दोनों तरफ लादने पर यह बहंगी कहते हैं। ओड़िशा के पारादीप पत्तन के मार्ग में भी एक बहंगा बाजार है।
षष्ठी का महत्त्व-६ दिन जोड़ने पर (५.२५) सावन वर्ष सौर मास के बराबर होता है-षडहो वा उ सर्वः संवत्सरः। (कौषीतकि ब्राह्मण १९/१०)
पुरुष को ६ठी चिति (निर्माण क्रम में ६ठा कार्य) कहा गया है। आकाश के ५ पर्वों के बाद मनुष्य का निर्माण होता है। इसे ६ठा दिन कहा गया है, उसके बाद अभी ७वां दिन या मन्वन्तर चल रहा है। बाइबिल में भी इसे ७ दिनों की सृष्टि कहा है।
तस्मै (ब्रह्मणे) षष्टं हूतः प्रत्यशृणोत्। स षड्ढूतोऽभवत् षड्ढूतो ह वै नामैषः। तं वा एतं षड्ढूतं सन्तं षड्ढोतेत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/११/२-३)
धाता षड्ढोता (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/१/१. २/२/८/४)।
पुरुष एव षष्ठमहः (कौषीतकि ब्राह्मण २३/४)
देवक्षेत्रं वै षष्टमहः (गोपथ ब्राह्मण उत्तर ६/१०, ऐतरेय ब्राह्मण ५/९)
कई प्रकार से पुरुष ६ठी चिति है-(१) आकाश के ५ पर्व हैं-स्वयम्भू मण्डल (१०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह), ब्रह्माण्ड (स्वयम्भू रूपी ब्रह्म का अण्ड, इसके निर्माण की सामग्री को आण्ड कहा गया है, १०० अरब तारों का समूह), सौर मण्डल (सूर्य का प्रभाव क्षेत्र, जहां तक इसका प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है), मध्यवर्त्ती ग्रह (चन्द्र कक्षा का गोल, अत्रि = यहां का, बाहरी आकर्षण भृगु, और सूर्य का विकिरण अंगिरा = अंगारा के बीच), पृथ्वी। इसके बाद मनुष्य की उत्पत्ति हुयी जो स्वयम्भू और ब्रह्माण्ड की प्रतिमा रूप १०० अरब कोषिका (कलिल = सेल, cell)
(२) छान्दोग्य उपनिषद् खण्ड ५, ६ में कई प्रकार की ५ चितियां कही गयी हैं जिनके बाद मनुष्य बनता है। ५ महाभूतों से उत्पत्ति, ५ कर्म या ज्ञान की इन्द्रियों के नियन्त्रक मन जो मनुष्य का रूप है, अन्न के ६ स्तरों के पाचन के बाद मनुष्य का तेज आदि।
(३) सूक्ष्म रूप में मूल ऋषि तत्त्व से पितर (आधुनिक विज्ञान के स्ट्रिंग और क्वार्क)-ये असत् तत्त्व अर्थात् अनुभव या यान्त्रिक माप से परे हैं। इसके बाद देव-दानव (उपयोगी या अनुपयोगी शक्ति), जगत् (परमाणु कण), कुण्डलिनी (परमाणु की नाभि), जीव (परमाणु, बालाग्र का १०,००० भाग), कलिल (सेल cell)-ये ५ स्तर हैं। इसके बाद ६ठा स्तर मनुष्य का है।
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यं (अथर्वशिर उपनिषद् ५)
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
कार्त्तिक पूर्णिमा को चन्द्र कृत्तिका नक्षत्र में रहता है अतः इस को कार्त्तिक मास कहते हैं। इस मास से यज्ञ-वर्ष शुरु होता था (ऋतु चक्र, अन्न उत्पादन का आरम्भ)। ज्योतिष में वेध (आंख या दूरवीक्षण से देखना) के लिये स्थिर तारों का नक्षत्र मण्डल अश्विनी से शुरु होता है। पर गणना उसी विन्दु से की जा सकती हैं जहां विषुव और क्रान्ति-वृत्त मिलते हैं, जिसे कृत्तिका कहते हैं। इसी विन्दु से गोलीय पृष्ठ का त्रिभुज बनता है जिसका गणित हम कर सकते हैं। इस अर्थ में कृत्तिका को नक्षत्रों का मुख या आरम्भ विन्दु कहा है। इसमें भी ६ तारे स्पष्ट हैं, १ अस्पष्ट था जो अब बहुत धूमिल होकर लुप्तप्राय है। इन ६ तारों की तरह कार्त्तिकेय के ६ सैन्य केन्द्र थे, जिनके नाम आज भी प्रचलित हैं-ओड़िशा बंगाल में दुला (इसका पुत्र दुलाल = कार्त्तिकेय), असम में वर्षयती (अधिक वर्षा का स्थान), आन्ध्र महाराष्ट्र में अभ्रयन्ती, गुजरात राजस्थान में मेघयन्ती (मेघानी, मेघवाल, केवल मेघ, वर्षा बहुत कम) पंजाब में चुपुणीका (चोपड़ा) तमिल, कन्नड़ में नितत्नी। अतः कार्त्तिकेय को भी ६ मुख वाला कहते हैं।
मुखं वा एतन्नक्षत्राणां यत् कृत्तिकाः। (तैत्तिरीय बाह्मण १/१/२/१)
एतद् वा अग्नेर्नक्षत्रं यत् कृत्तिकाः। (तैत्तिरीय बाह्मण १/१/२/१, १/५/१/१, ३/१/१/१)
अग्नये स्वाहा, कृत्तिकेभ्यः स्वाहा। (कृत्तिकेति सप्तानां नक्षत्रमूर्त्तीनां साधारणं नाम। अम्बा-दुलादीनि विशेषनामानीति सायणः) अम्बायै स्वाहा। दुलायै स्वाहा। नितत्न्यै स्वाहा। अभ्रयन्त्यै स्वाहा। मेघयन्त्यै स्वाहा। वर्षयन्त्यै स्वाहा। चुपुणीकायै स्वाहेति। (तैत्तिरीय बाह्मण ३/१/४/१)
धन्यवाद
छठ महापर्व की सुभकामनाओं के साथ
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