स्वदेशी पद्धति से आप भी कीजिए वर्ष भर के मौसम का पूर्वानुमान
देशी पद्धति से आप भी कीजिए वर्ष भर के मौसम का पूर्वानुमान
प्राचीन काल से अभी तक अपने यहाँ भी मौसम की भविष्यवाणियाँ जिस प्रकार
की जाती रहीं हैं उन्हीं मैं से एक प्रणाली आपके सामने प्रस्तुत है, मेरे सन्ग्यान
में ये प्रणाली १९८० मैं आईं, तब से लगातार में इसका परीक्षण करता हूँ और
मेरा मानना है कि ये प्रणाली ८० से १००% सटीक परिणाम देती है.
अषाढ़ की पूर्णिमा का दिन हमारे यहाँ 'वेदर फोरकास्ट' के लिए होता है,इस दिन
सूर्यास्त से पूर्व तैयारी कीजिए. किसी खुले पार्क या उँची छत पर जाकर वहाँ एक
बड़े से दंड मैं बहुत हल्के कपड़े का ध्वज लगा दीजिए,कुतूबनुमा से दिशाएं इंगित
कर लीजिए. अब जैसे ही सूर्यास्त से पूर्व वायु का मिज़ाज व दिशा नोट करिए -
हवा पूरब की हो तो वर्ष मैं वर्षा बढ़िया होगी,दक्षिण-पूर्व की हो तो फसल को हानि,
दक्षिण की हो तो कम वर्षा, दक्षिण-पश्चिम की हो तो फसल हानि व अकाल,पश्चिम
की हो तो अधिक वर्षा,उत्तर-पश्चिम की हो तो हवा आदि ज़्यादा चलें और फसलों
आदि पर कीट चूहे आदि का प्रकोप,और उत्तर एवं पूर्वोत्तर की हो तो पर्याप्त वर्षा
और संवत ठीक से गुज़रे.
यहाँ ये ध्यान रखें वायु की जैसी गति उसी अनुपात मैं शुभाशुभ फल होगा.
यदि सूर्यास्त पर ध्वजा स्थिर हो तो भी वर्षा बढ़िया होगी, अत्यधिक तेज व
आँधी व घूमड़तीजैसी हवा से अनावृष्टि ,
वायु वामवर्ती अर्थात पूरव से दक्षिण के क्रम व आमने-सामने सीधी हो तो अशुभ
फल व कम वर्षा लेकिन हवा यदि दक्षिणवर्ती अर्थात पूरव से उत्तर के क्रम मैं हो
तो शुभ फल और अच्छी वारिश होगी. वायु परीक्षण के समय हवा का रुख़ यदि बदल जाए तो बाद वाला रुख़ ही परीणामकारी होगा.
बारह मासों की भविष्यवाणी
इस चीज़ का परीक्षण ज़रूर करें,ये प्रणाली भी कभी कभार अपवादों को छोड़ कर
एक दम सटीक उतरती है.
इसके लिए पूर्णिमा (इस वार शनिवार १२ जुलाई) को सूर्योदय के समय एलर्ट
हो जाइए,अब ठीक सूर्योदय से प्रत्येक दो घंटे के मौसम की समरी नोट करते
जाइए, पहला दूसरा तीसरा आदि दो दो घंटों का सार क्रमशः सावन ,भादौ,क्वार आदि
बारह महीनो के लिए ज्यों की त्यों मानें.
सूत्रधार मण्डन का महान योगदान
सूत्रधार मण्डन मेवाड के महाराणा कुंभा का दरबारी सूत्रधार था। भारतीय वास्तु विज्ञान की एक नामचीन हस्ती। कुंभलगढ जैसा नायाब दुर्ग उसकी विराट कल्पनाओं की निर्मिति है। कहते हैं अंतरिक्ष से चीन की दीवार के बार कुंभलगढ का परकोटा ही दिखाई देता है। महाराणा कुंभा को उसके निर्माण का श्रेय है मगर उसकी वास्तु कल्पना मंडन की ही थी। मण्डन ने महाराणा कुंभा को करनी, कटार और कलम का धनी बनाने में खासा योगदान किया।
मंडन मूलत: गुजराती सोमपुरा परिवार का था। उसके पिता सर्वकलाविशारद सूत्रधार क्षेत्रार्क या खेता थे। वह वास्तु के प्रसाद शिल्प का अपने काल का खास हस्ताक्षर था। उसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों के पुनर्संपादन का अधिकार था। उसने ज्ञान प्रकाश दीपार्णव, जयपृच्छा जैसे ग्रंथों का पुनर्नवीकरण किया। ये विश्वकर्मा रचित ग्रंथ माने जाते हैं। मंडन ने अपने पिता से ही गुरुज्ञान को प्राप्त किया और तत्कालीन आवश्यकताओं के मद्देनजर ग्रंथों का प्रणयन किया।
मण्डन के मुख्य ग्रंथ हैं :
राजवल्लभ वास्तुशास्त्रम्,
प्रासाद मण्डनम्
रूप मंडनं
देवता मूर्ति प्रकरणम्
वास्तु मण्डनम्
वास्तुसार मण्डनम्
आयतत्तवम्
शाकुन मण्डनम़, बंदी स्तोत्र इत्यादि।
इन ग्रंथों में वास्तु के लगभग सारे ही विषय आ जाते हैं। वास्तुविदों के लिए मंडन के ग्रंथ आधार भूत माने जाते हैं। इन सब ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मेरे ही हाथों 2003 से लेकर 2008 तक हुआ है। राजवल्लभ की भूमिका में मैंने यह प्रतिपादित किया है कि जितनी संख्या में मेवाड़ में वास्तु और शिल्प ग्रंथों का प्रणयन हुआ, उतना दुनिया में कभी किसी एक क्षेत्र में नहीं हुआ। (English translation also available )
मण्डन केवल ग्रंथकार नहीं था, वह सूत्रधार था, नगर नियोजक, दुर्ग का परिकल्पनाकार, नाट़य शालाओं का निर्माता, ज्योतिर्विद, जल स्थापत्य का संयोजक और हजारों कामगारों का नीति निर्देशक भी था। उसके ग्रंथों की प्रतिलिपियां तत्काल देश के अन्य हिस्सों में पहुच जाती थी। बनारस के शाहजहां कालीन मंडित कवींद्राचार्य के ग्रंथ संग्रह में भी मंडन के ग्रंथ विराजित थे। उसके भाई नाथा और पुत्र गोविंद भी ग्रंथों के रचयिता थे।
ओद् यन्त्र : क्षत्रपकालीन जलीय इंजन
#जेठ_में_जल
पानी उठाने, ले जाने जैसे कामों से जुड़े यंत्र कब चलन में आए, मालूम नहीं लेकिन वैदिक संदर्भों से आशा रखने वालों ने जल की वैद्युतिक रचना का प्रमाण जरूर खोजा है :
संघातयति परमाण्वादीन् तद् ब्रह्म जलम्।
जड़ अर्थ में यहां कहां गया है कि अव्यक्त परमाणुओं का जो संयोग-वियोग करवाता है, वह जल कहा जाता है।
जल के साथ यंत्रों का साक्ष्य सिंचाई के प्रयोजन से अर्थशास्त्र में मिलता है। दूसरे अधिकरण में चार तरह के कृत्रिम साधनों का वर्णन है :
१. हाथ द्वारा सिंचाई
२. कंधे पर लादकर ले जाए गए पानी से,
३. नलों व नालियों से और
४. नदी, कूप आदि स्रोतों से लाकर या उठाकर।
इनमें नलों द्वारा सिंचाई के लिए " स्रोतो यंत्र प्रावर्तिम" कहा गया है और चौथे स्रोत " चतुर्थं नदी सरसितटाक कूपोद्घाटनम्" की टीका में त. गणपति शास्त्री ने कहा है : उद्घाट्यते निस्सार्यते जलमनेनेत् उद्घाटोऽरघट्टकादि यंत्रं लक्षणया...। (पृष्ठ २८७)
लेकिन, यह टीका पिछली सदी की है और चाणक्य के काल के जल यंत्रों की पुष्टि नहीं करती। यंत्रों के स्वरूप पर कुछ और विचार के लिए मनुस्मृति के साक्ष्य देखें तो वहां 'प्रस्रवाणानि' और 'सततमुदकागम' जैसे शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। ये यंत्र न होकर सिंचाई के काम आने वाली नहरें और नदियां हो सकती हैं।
यंत्रों और यंत्रों से जुड़े लोगों का कदाचित पहला साक्ष्य महाराष्ट्र से मिलता है। यह नासिक बौद्ध गुहाभिलेख है और आभीर शासक माढ़री पुत्र ईश्वर सेन के समय का है। यानी क्षत्रपकालीन, वर्ष 9 का जिसके अक्षर सातवाहनों के परवर्ती लगते हैं। ल्यूडर्स की अभिलेखीय सूची में आए इस साक्ष्य में "ओद् यंत्रिक" का उल्लेख है और उसकी पहचान जलीय इंजन बनाने वाले मजदूर या कारीगर से की जाती है। हालांकि इन लोगों की श्रेणी की पहचान पर एक राय नहीं है। इसकी नवीं दसवीं पंक्ति में लिखा है : हस्ते कार्षापण सहस्त्रं 1000 ओदयन्त्रिक सहस्त्राणि द्वे 2...
अब कैसे तय हो कि ये जल के इंजन कैसे होते थे? हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि ये इंजन जल भरने के काम आते थे या पानी चढ़ाने, तोड़ने या फिर पानी में तैरने ? लेकिन यह जरूर है कि पानी के लिए ये इंजन थे और 'ओद् यंत्रिक' सक्रिय थे तथापि इसके समकालीन "देवीपुराण" में द्वारीबंध के जिस निर्माण, स्वरूप, रचना, उपयोग आदि की जानकारियां हैं, उसमें एेसा कोई विवरण नहीं है, उसने जरूरी भी नहीं समझा हो।
पनडेरा, पंडेरा और पानेरा
घरों में जलस्थान बनाने की परंपरा बड़ी पुरानी है। घट कलश, चरु-चरवी और गंगाजली (लोटा), झारा, गिलास वगैरह इसके अंग रहे। चाणक्य ने पानेरा व पानेरी का जिक्र किया है। प्रपा के महत्व को तो ऋग्वेद में बताया गया है लेकिन वहां इसके रचनात्मक रूप के वर्णन का अभाव है।
हर्षचरित में पौंसले का जो वर्णन है, वह कई अर्थों में रोचक है। कई तरह के कलशों का जिक्र है और पानी को ठंडा रखने के लिए रेत पर गिले कपड़े से ढककर कलश रखने जैसी विधि वही है, जो आज भी हमारे बीच है लेकिन फ्रीज़ ने उस परंपरा को दरकिनार करने में कसर नहीं छोड़ी और घर के वास्तु को बिगाड़ने का भी काम किया।
वास्तु विषयक अनेक ग्रंथों घर में सोलह उपयोगी स्थल बनाने का जो संदर्भ है, वह जलस्थल से आरंभ होता है। इसकी वजह थी कि वरुण स्थान समस्त रचनाओं को संतुलित करता। इससे यह विश्वास भी मजबूत हुआ कि यह देवी की तरह है। इसी कारण पंडेरा को 'पंडेरी' कहा जाने लगा।
एेसे कई परिवार हैं, तो अपने मूल स्थान की पंडेरी को किसी भी सामूहिक आयोजन में पूजना नहीं भूलते। वंशवर्द्धन पर भी पंडेरी पूजी जाती है। पंडेरी पर कोई कभी पांव नहीं रखता। सिंदूरी त्रिशूल इसे शक्ति स्थल सिद्ध करता है। इसी पर पितृ स्थान, इसके ईशान कोण में देवकोना व आग्नेय कोण में दीप स्थान रखा जाता।
इस तरह घर में पंडेरी से अनेक स्थलों का निर्धारण किया और माना जाता, मगर यह भी रोचक है कि मर्तबान के धोने व पानी के टपकने पर जो कुंडी रखी जाती, उसी से नाबदान या प्रणाल को निश्चित किया जाता। यह विवरण नारद संहिता, वसिष्ठ संहिता में है और ऊंचाई व निम्नता को देशानुसार तय किया गया है। यह विधान शुक्रजन्य मधुमेहादि व्याधि से बचाता लेकिन अब इस परंपरा पर हमारा ध्यान नहीं जाता। रसोई में ही जल स्थान तय कर दिया जाता है।
है न पंडेरा से जुड़ी रोचक बातें। कुछ आपके ध्यान में भी होगी?
पर्यावरण पर भारतीय वैश्विक चिंतन
#जेठ_में_जल
पर्यावरण पर भारतीय ऋषि चिंतन बहुत गंभीर रहा है। आवास से लेकर प्रवास और मनुष्यालय से लेकर देवालय तक पर्यावरण के संरक्षण अौर संवर्धन पर जोर दिया गया है। पर्यावरण के लिए 'वन', 'वायु' और 'वृष्िट' की निरंतरता पर जोर दिया गया है- इसका जीता जागता उदाहरण 'वृक्षायुर्वेद' की धारणा है। वृक्षायुर्वेद शब्द का प्रयोग सबसे पहले अर्थशास्त्र में 'गुल्म वृक्षायुर्वेद' के नाम से मिलता है और यह वह विद्या थी जो सुकाल की साधना के रूप में राजाश्रय में प्रतिफलित थी। इसके लिए सुयोग्य अधिकृत पदाधिकारी नियुक्त रहते थे।
इसी पर बाद में सारस्वत मुनि ने "दकार्गल" नाम से ग्रंथ लिखा जो जीवनोपयोगी और भूमितल में उपलब्ध जल विद्या पर आधारित था। वराहमिहिर के काल तक यह ग्रंथ मौजूद था। उसने इसके कई श्लोकों को आर्याच्छंद के रूप में बदलकर लिखा और उन्हीं मूल श्लोकों को भटोत्पल ने 9वीं सदी में अपनी विवृति में उृद़धृत किया। यही ग्रंथ विष्णु धर्मोत्तर पुराण में एक अध्याय के रूप में संपादित किया गया।
दसवीं-ग्यारहवीं सदी में सूरपाल ने 'वृक्षायुर्वेद' का संपादन किया और फिर, इस ग्रंथ की विषय वस्तु को आधार बनाकर अग्निपुराणादि ने दो-दो अध्याय लिखे। वृद्ध गर्गादि संहिताओं में इस विषय को संपादित किया गया। यही नहीं, ज्योतिर्निबंध और बृहद्दैवज्ञ रंजनं में भी इसकी धारणा मिलती है ।
वृक्षायुर्वेद का संपादन, अनुवाद करते समय, 2004 में भूमिका में मैंने इस सभी विषयों का खुलासा किया और माना कि भारतीयों ने पर्यावरण अध्ययन व संरक्षण पर बड़ा जोर दिया है। राजाश्रय में पर्यावरण के सर्वांग संरक्षण के लिए प्रयास किया गया। महाराणा प्रताप के काल में लिखित #'विश्ववल्लभ-वृक्षायुर्वेद' इसका जीवंत उदाहरण है। इसमें पर्यावरण के मूलाधार वृक्ष, वृष्टि और वायु पर पर्याप्त और वैज्ञानिक विचार प्राप्त होता है। यह विचार इस काल में वैश्विक महत्व का होकर सामने आता है और यह कई अर्थों में रोचक भी है।*
पर्यावरण क्षरण अकाल का सेतु है और इसके लिए संसाधनाें के न्यूनतम दोहन पर जोर दिया गया। हमारी जरूरतें सीमित हों और प्रकृति का विकास भरपूर हो, हम प्रकृति के संरक्षण के लिए क्या कुछ कर सकते हैं, यह चिंतन इन ग्रंथों में दिया गया है। हमें पर्यावरण चिंतन के लिए किसी भी बाहरी विचार को ग्रहण करने की जरूरत नहीं, हमारे अपने ग्रंथों का चिंतन ही पर्याप्त है। ये ग्रंथ ही अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा देते है।
--------
*विश्ववल्लभ : महाराणा प्रताप आश्रित पं. चक्रपाणि मिश्र कृत, उपलब्ध : Parimal Publications, Sakti Nagar, Delhi
Parimal Joshi Dr.Hetal Dave
जय-जय।
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
धन्यवाद
प्राचीन काल से अभी तक अपने यहाँ भी मौसम की भविष्यवाणियाँ जिस प्रकार
की जाती रहीं हैं उन्हीं मैं से एक प्रणाली आपके सामने प्रस्तुत है, मेरे सन्ग्यान
में ये प्रणाली १९८० मैं आईं, तब से लगातार में इसका परीक्षण करता हूँ और
मेरा मानना है कि ये प्रणाली ८० से १००% सटीक परिणाम देती है.
अषाढ़ की पूर्णिमा का दिन हमारे यहाँ 'वेदर फोरकास्ट' के लिए होता है,इस दिन
सूर्यास्त से पूर्व तैयारी कीजिए. किसी खुले पार्क या उँची छत पर जाकर वहाँ एक
बड़े से दंड मैं बहुत हल्के कपड़े का ध्वज लगा दीजिए,कुतूबनुमा से दिशाएं इंगित
कर लीजिए. अब जैसे ही सूर्यास्त से पूर्व वायु का मिज़ाज व दिशा नोट करिए -
हवा पूरब की हो तो वर्ष मैं वर्षा बढ़िया होगी,दक्षिण-पूर्व की हो तो फसल को हानि,
दक्षिण की हो तो कम वर्षा, दक्षिण-पश्चिम की हो तो फसल हानि व अकाल,पश्चिम
की हो तो अधिक वर्षा,उत्तर-पश्चिम की हो तो हवा आदि ज़्यादा चलें और फसलों
आदि पर कीट चूहे आदि का प्रकोप,और उत्तर एवं पूर्वोत्तर की हो तो पर्याप्त वर्षा
और संवत ठीक से गुज़रे.
यहाँ ये ध्यान रखें वायु की जैसी गति उसी अनुपात मैं शुभाशुभ फल होगा.
यदि सूर्यास्त पर ध्वजा स्थिर हो तो भी वर्षा बढ़िया होगी, अत्यधिक तेज व
आँधी व घूमड़तीजैसी हवा से अनावृष्टि ,
वायु वामवर्ती अर्थात पूरव से दक्षिण के क्रम व आमने-सामने सीधी हो तो अशुभ
फल व कम वर्षा लेकिन हवा यदि दक्षिणवर्ती अर्थात पूरव से उत्तर के क्रम मैं हो
तो शुभ फल और अच्छी वारिश होगी. वायु परीक्षण के समय हवा का रुख़ यदि बदल जाए तो बाद वाला रुख़ ही परीणामकारी होगा.
बारह मासों की भविष्यवाणी
इस चीज़ का परीक्षण ज़रूर करें,ये प्रणाली भी कभी कभार अपवादों को छोड़ कर
एक दम सटीक उतरती है.
इसके लिए पूर्णिमा (इस वार शनिवार १२ जुलाई) को सूर्योदय के समय एलर्ट
हो जाइए,अब ठीक सूर्योदय से प्रत्येक दो घंटे के मौसम की समरी नोट करते
जाइए, पहला दूसरा तीसरा आदि दो दो घंटों का सार क्रमशः सावन ,भादौ,क्वार आदि
बारह महीनो के लिए ज्यों की त्यों मानें.
सूत्रधार मण्डन का महान योगदान
सूत्रधार मण्डन मेवाड के महाराणा कुंभा का दरबारी सूत्रधार था। भारतीय वास्तु विज्ञान की एक नामचीन हस्ती। कुंभलगढ जैसा नायाब दुर्ग उसकी विराट कल्पनाओं की निर्मिति है। कहते हैं अंतरिक्ष से चीन की दीवार के बार कुंभलगढ का परकोटा ही दिखाई देता है। महाराणा कुंभा को उसके निर्माण का श्रेय है मगर उसकी वास्तु कल्पना मंडन की ही थी। मण्डन ने महाराणा कुंभा को करनी, कटार और कलम का धनी बनाने में खासा योगदान किया।
मंडन मूलत: गुजराती सोमपुरा परिवार का था। उसके पिता सर्वकलाविशारद सूत्रधार क्षेत्रार्क या खेता थे। वह वास्तु के प्रसाद शिल्प का अपने काल का खास हस्ताक्षर था। उसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों के पुनर्संपादन का अधिकार था। उसने ज्ञान प्रकाश दीपार्णव, जयपृच्छा जैसे ग्रंथों का पुनर्नवीकरण किया। ये विश्वकर्मा रचित ग्रंथ माने जाते हैं। मंडन ने अपने पिता से ही गुरुज्ञान को प्राप्त किया और तत्कालीन आवश्यकताओं के मद्देनजर ग्रंथों का प्रणयन किया।
मण्डन के मुख्य ग्रंथ हैं :
राजवल्लभ वास्तुशास्त्रम्,
प्रासाद मण्डनम्
रूप मंडनं
देवता मूर्ति प्रकरणम्
वास्तु मण्डनम्
वास्तुसार मण्डनम्
आयतत्तवम्
शाकुन मण्डनम़, बंदी स्तोत्र इत्यादि।
इन ग्रंथों में वास्तु के लगभग सारे ही विषय आ जाते हैं। वास्तुविदों के लिए मंडन के ग्रंथ आधार भूत माने जाते हैं। इन सब ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मेरे ही हाथों 2003 से लेकर 2008 तक हुआ है। राजवल्लभ की भूमिका में मैंने यह प्रतिपादित किया है कि जितनी संख्या में मेवाड़ में वास्तु और शिल्प ग्रंथों का प्रणयन हुआ, उतना दुनिया में कभी किसी एक क्षेत्र में नहीं हुआ। (English translation also available )
मण्डन केवल ग्रंथकार नहीं था, वह सूत्रधार था, नगर नियोजक, दुर्ग का परिकल्पनाकार, नाट़य शालाओं का निर्माता, ज्योतिर्विद, जल स्थापत्य का संयोजक और हजारों कामगारों का नीति निर्देशक भी था। उसके ग्रंथों की प्रतिलिपियां तत्काल देश के अन्य हिस्सों में पहुच जाती थी। बनारस के शाहजहां कालीन मंडित कवींद्राचार्य के ग्रंथ संग्रह में भी मंडन के ग्रंथ विराजित थे। उसके भाई नाथा और पुत्र गोविंद भी ग्रंथों के रचयिता थे।
ओद् यन्त्र : क्षत्रपकालीन जलीय इंजन
#जेठ_में_जल
पानी उठाने, ले जाने जैसे कामों से जुड़े यंत्र कब चलन में आए, मालूम नहीं लेकिन वैदिक संदर्भों से आशा रखने वालों ने जल की वैद्युतिक रचना का प्रमाण जरूर खोजा है :
संघातयति परमाण्वादीन् तद् ब्रह्म जलम्।
जड़ अर्थ में यहां कहां गया है कि अव्यक्त परमाणुओं का जो संयोग-वियोग करवाता है, वह जल कहा जाता है।
जल के साथ यंत्रों का साक्ष्य सिंचाई के प्रयोजन से अर्थशास्त्र में मिलता है। दूसरे अधिकरण में चार तरह के कृत्रिम साधनों का वर्णन है :
१. हाथ द्वारा सिंचाई
२. कंधे पर लादकर ले जाए गए पानी से,
३. नलों व नालियों से और
४. नदी, कूप आदि स्रोतों से लाकर या उठाकर।
इनमें नलों द्वारा सिंचाई के लिए " स्रोतो यंत्र प्रावर्तिम" कहा गया है और चौथे स्रोत " चतुर्थं नदी सरसितटाक कूपोद्घाटनम्" की टीका में त. गणपति शास्त्री ने कहा है : उद्घाट्यते निस्सार्यते जलमनेनेत् उद्घाटोऽरघट्टकादि यंत्रं लक्षणया...। (पृष्ठ २८७)
लेकिन, यह टीका पिछली सदी की है और चाणक्य के काल के जल यंत्रों की पुष्टि नहीं करती। यंत्रों के स्वरूप पर कुछ और विचार के लिए मनुस्मृति के साक्ष्य देखें तो वहां 'प्रस्रवाणानि' और 'सततमुदकागम' जैसे शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। ये यंत्र न होकर सिंचाई के काम आने वाली नहरें और नदियां हो सकती हैं।
यंत्रों और यंत्रों से जुड़े लोगों का कदाचित पहला साक्ष्य महाराष्ट्र से मिलता है। यह नासिक बौद्ध गुहाभिलेख है और आभीर शासक माढ़री पुत्र ईश्वर सेन के समय का है। यानी क्षत्रपकालीन, वर्ष 9 का जिसके अक्षर सातवाहनों के परवर्ती लगते हैं। ल्यूडर्स की अभिलेखीय सूची में आए इस साक्ष्य में "ओद् यंत्रिक" का उल्लेख है और उसकी पहचान जलीय इंजन बनाने वाले मजदूर या कारीगर से की जाती है। हालांकि इन लोगों की श्रेणी की पहचान पर एक राय नहीं है। इसकी नवीं दसवीं पंक्ति में लिखा है : हस्ते कार्षापण सहस्त्रं 1000 ओदयन्त्रिक सहस्त्राणि द्वे 2...
अब कैसे तय हो कि ये जल के इंजन कैसे होते थे? हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि ये इंजन जल भरने के काम आते थे या पानी चढ़ाने, तोड़ने या फिर पानी में तैरने ? लेकिन यह जरूर है कि पानी के लिए ये इंजन थे और 'ओद् यंत्रिक' सक्रिय थे तथापि इसके समकालीन "देवीपुराण" में द्वारीबंध के जिस निर्माण, स्वरूप, रचना, उपयोग आदि की जानकारियां हैं, उसमें एेसा कोई विवरण नहीं है, उसने जरूरी भी नहीं समझा हो।
पनडेरा, पंडेरा और पानेरा
घरों में जलस्थान बनाने की परंपरा बड़ी पुरानी है। घट कलश, चरु-चरवी और गंगाजली (लोटा), झारा, गिलास वगैरह इसके अंग रहे। चाणक्य ने पानेरा व पानेरी का जिक्र किया है। प्रपा के महत्व को तो ऋग्वेद में बताया गया है लेकिन वहां इसके रचनात्मक रूप के वर्णन का अभाव है।
हर्षचरित में पौंसले का जो वर्णन है, वह कई अर्थों में रोचक है। कई तरह के कलशों का जिक्र है और पानी को ठंडा रखने के लिए रेत पर गिले कपड़े से ढककर कलश रखने जैसी विधि वही है, जो आज भी हमारे बीच है लेकिन फ्रीज़ ने उस परंपरा को दरकिनार करने में कसर नहीं छोड़ी और घर के वास्तु को बिगाड़ने का भी काम किया।
वास्तु विषयक अनेक ग्रंथों घर में सोलह उपयोगी स्थल बनाने का जो संदर्भ है, वह जलस्थल से आरंभ होता है। इसकी वजह थी कि वरुण स्थान समस्त रचनाओं को संतुलित करता। इससे यह विश्वास भी मजबूत हुआ कि यह देवी की तरह है। इसी कारण पंडेरा को 'पंडेरी' कहा जाने लगा।
एेसे कई परिवार हैं, तो अपने मूल स्थान की पंडेरी को किसी भी सामूहिक आयोजन में पूजना नहीं भूलते। वंशवर्द्धन पर भी पंडेरी पूजी जाती है। पंडेरी पर कोई कभी पांव नहीं रखता। सिंदूरी त्रिशूल इसे शक्ति स्थल सिद्ध करता है। इसी पर पितृ स्थान, इसके ईशान कोण में देवकोना व आग्नेय कोण में दीप स्थान रखा जाता।
इस तरह घर में पंडेरी से अनेक स्थलों का निर्धारण किया और माना जाता, मगर यह भी रोचक है कि मर्तबान के धोने व पानी के टपकने पर जो कुंडी रखी जाती, उसी से नाबदान या प्रणाल को निश्चित किया जाता। यह विवरण नारद संहिता, वसिष्ठ संहिता में है और ऊंचाई व निम्नता को देशानुसार तय किया गया है। यह विधान शुक्रजन्य मधुमेहादि व्याधि से बचाता लेकिन अब इस परंपरा पर हमारा ध्यान नहीं जाता। रसोई में ही जल स्थान तय कर दिया जाता है।
है न पंडेरा से जुड़ी रोचक बातें। कुछ आपके ध्यान में भी होगी?
पर्यावरण पर भारतीय वैश्विक चिंतन
#जेठ_में_जल
पर्यावरण पर भारतीय ऋषि चिंतन बहुत गंभीर रहा है। आवास से लेकर प्रवास और मनुष्यालय से लेकर देवालय तक पर्यावरण के संरक्षण अौर संवर्धन पर जोर दिया गया है। पर्यावरण के लिए 'वन', 'वायु' और 'वृष्िट' की निरंतरता पर जोर दिया गया है- इसका जीता जागता उदाहरण 'वृक्षायुर्वेद' की धारणा है। वृक्षायुर्वेद शब्द का प्रयोग सबसे पहले अर्थशास्त्र में 'गुल्म वृक्षायुर्वेद' के नाम से मिलता है और यह वह विद्या थी जो सुकाल की साधना के रूप में राजाश्रय में प्रतिफलित थी। इसके लिए सुयोग्य अधिकृत पदाधिकारी नियुक्त रहते थे।
इसी पर बाद में सारस्वत मुनि ने "दकार्गल" नाम से ग्रंथ लिखा जो जीवनोपयोगी और भूमितल में उपलब्ध जल विद्या पर आधारित था। वराहमिहिर के काल तक यह ग्रंथ मौजूद था। उसने इसके कई श्लोकों को आर्याच्छंद के रूप में बदलकर लिखा और उन्हीं मूल श्लोकों को भटोत्पल ने 9वीं सदी में अपनी विवृति में उृद़धृत किया। यही ग्रंथ विष्णु धर्मोत्तर पुराण में एक अध्याय के रूप में संपादित किया गया।
दसवीं-ग्यारहवीं सदी में सूरपाल ने 'वृक्षायुर्वेद' का संपादन किया और फिर, इस ग्रंथ की विषय वस्तु को आधार बनाकर अग्निपुराणादि ने दो-दो अध्याय लिखे। वृद्ध गर्गादि संहिताओं में इस विषय को संपादित किया गया। यही नहीं, ज्योतिर्निबंध और बृहद्दैवज्ञ रंजनं में भी इसकी धारणा मिलती है ।
वृक्षायुर्वेद का संपादन, अनुवाद करते समय, 2004 में भूमिका में मैंने इस सभी विषयों का खुलासा किया और माना कि भारतीयों ने पर्यावरण अध्ययन व संरक्षण पर बड़ा जोर दिया है। राजाश्रय में पर्यावरण के सर्वांग संरक्षण के लिए प्रयास किया गया। महाराणा प्रताप के काल में लिखित #'विश्ववल्लभ-वृक्षायुर्वेद' इसका जीवंत उदाहरण है। इसमें पर्यावरण के मूलाधार वृक्ष, वृष्टि और वायु पर पर्याप्त और वैज्ञानिक विचार प्राप्त होता है। यह विचार इस काल में वैश्विक महत्व का होकर सामने आता है और यह कई अर्थों में रोचक भी है।*
पर्यावरण क्षरण अकाल का सेतु है और इसके लिए संसाधनाें के न्यूनतम दोहन पर जोर दिया गया। हमारी जरूरतें सीमित हों और प्रकृति का विकास भरपूर हो, हम प्रकृति के संरक्षण के लिए क्या कुछ कर सकते हैं, यह चिंतन इन ग्रंथों में दिया गया है। हमें पर्यावरण चिंतन के लिए किसी भी बाहरी विचार को ग्रहण करने की जरूरत नहीं, हमारे अपने ग्रंथों का चिंतन ही पर्याप्त है। ये ग्रंथ ही अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा देते है।
--------
*विश्ववल्लभ : महाराणा प्रताप आश्रित पं. चक्रपाणि मिश्र कृत, उपलब्ध : Parimal Publications, Sakti Nagar, Delhi
Parimal Joshi Dr.Hetal Dave
जय-जय।
- डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
धन्यवाद
Comments
Post a Comment