गणेश सखाराम देउसकर की "देश की कथा " से / भाग -1 सखाराम गणेश देउस्कर लिखित 1904 में 'देशेर कथा' बांग्ला में लिखी गयी। इसका हिंदी अनुवाद बाबुराव विष्णु पराड़कर ने किया था। उसी का कुछ अंश : प्रायः शक्ति सम्वन्धी संघर्ष इतिहास की भूमि पर होते हैं। उपनिवेशवाद , दूसरे देशों और समाजों के वर्तमान और भविष्य पर कब्ज़ा करने के लिए , व्याख्या की राजनीति के माध्यम से , उनके इतिहास पर भी कब्ज़ा करता रहा है। अफ्रीका के बारे में ऐरोप के अनेक दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि वहां कोई इतिहास नहीं है। भारत के बारे में ऐसा नहीं कह सकते थे , इसलिए उन्होंने भारत के इतिहास की पुनर्व्याख्या और दुर्व्याख्या की कोशिश की।सन् 1857 के महाविद्रोह के बाद उपनिवेशवादी दृस्टि से इतिहास - लेखन की जो कोशिश हुई उसमे भारतीय इतिहास के मुस्लिम शासनकाल को अन्याय और अत्याचार का काल साबित किया गया । इसका कारन यह था कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध हिन्दूओं और मुसलमानों के बीच जो एकता कायम हुई थी उससे अंग्रेजी राज् डरता था, और उसे तोडना चाहता था , इसीलिये मुसलमानी शासन को अत्याचार...
आदि शंकराचार्य के शिष्य विश्व विजेता सम्राट सुधन्वा चौहान - विश्वविजेता हिन्दू सम्राटों की कड़ी में आज बात करेंगे सम्राट सुधन्वा चौहान की कई महाशय इनबॉक्स कमेंट इत्यादि में कहते हैं इतिहास में जो गुजर गया उसे देख कर क्या होगा वर्तमान जो हो रहा हैं उसे देखिये तो उनके बातों का उत्तर हैं “मैक्स-मुलर भारत आते ही सर्वप्रथम हिन्दुओ के पराक्रम एवं भुजाओं की शक्ति के बारे में जब जानना चाहा तब उसको इतिहास बताया गया उसका सर घूम गया इतिहास सुनकर उसने अपने साथी से कहा अगर यह इतिहास नहीं मिटाया गया तो हमें दुनिया से मिटा देंगे क्योंकि पूर्वजो के इतिहास से इन्हें उर्जा मिलती हैं इनका इतिहास में इनकी शक्ति छुपी हैं तो इस गोरे सियार को युक्ति सूझी इसने हिन्दू राजाओ को निर्बल ठेराया । मुस्लिम आक्रमणकारी लगभग आधा यूरोप जिहाद कर के अपने कब्जे में ले लिए थे परन्तु भारतवर्ष से सनातन धर्म को नही मिटा पाया इस्लामिक इतिहासकार ने भी माना था हिन्दू योद्धाओ के बाहुबल का लोहा यह मैक्स मुलर की नफरत थी हिन्दुओं के प्रति जिन्होंने इतिहास को बदल दिया और मुग़ल , यवन , यूनान को ताकतवर बताया एवं हिन्दू राज...
महाराणा कुम्भकर्ण: कुम्भा देश के प्रतापी, कलाप्रिय शासकों में महाराणा कुंभकर्ण या कुंभा (1433-68 ई., जन्म मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी, 1417) का नाम बहुत सम्मान से लिया जा सकता है। कुंभा बहुत शिक्षित और साहित्य प्रेमी ही नहीं, स्वयं साहित्यकार था। कुंभा ने कई ग्रंथों की रचना की जिनमें से 16 हजार श्लोकों का पांच कोष वाला 'संगीतराज' तो ख्यातिलब्ध है ही, सूडप्रबंध और स्तंभराज, कामराज रतिसार जैसे ग्रंथ भी अल्पज्ञात ही सही, मगर उल्लेखनीय है। कुंभा ने 'गीतगोविंद' की रसिकप्रिय टीका और 'चंडीशतक' की वृत्ति लिखी और उसमें अपनी जन्मभूमि चित्तौड़ व कुल की मर्यादाओं को रेखांकित किया। कुंभा के 33 साल के शासन काल में चित्तौड और कुंभलगढ में कोई 1700 ग्रंथों की रचना और प्रतिलिपि लेखन का कार्य हुआ। इतना बडा योगदान शायद ही अन्य किसी शासक का रहा हो। इनमें संगीत, साहित्य, दर्शन, मीमांसा, गणित, धर्मशास्त्र सहित तकनीकी विषय भी शामिल हैं। कुंभा स्वयं वल्लकी वीणा वादन में निपुण था। शिवाराधक होते हुए भी कुंभा ने विष्णु की महिमा के गान में अपने को लगाए रखा। अपने युग में...
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