दुर्गा-बोर्जो : आदिवासी इतिहास मिटाने की मिशनरी कवायद
दुर्गा-बोर्जो : आदिवासी इतिहास मिटाने की मिशनरी कवायद
By:- आनंद कुमार
संथाल जनजाति बिहार, झारखंड के अलावा बंगाल में भी होती है.
बीरभूम जिले के सुलंगा गाँव में इनके करीब सौ घर होंगे. छोटा सा गाँव है, संथालों की आबादी भी वही 500-700 जैसी होगी.
इतने मामूली से गाँव का जिक्र क्यों?
क्योंकि बरसों पहले यहाँ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका गया था. जैसा कि बाकी भारत में हुआ था यहाँ भी विद्रोह की मुख्य वजह धार्मिक और आर्थिक ही थी.
ये वो दौर था, जब बिहार और बंगाल अलग अलग सूबे नहीं थे. एक ही बंगाल हुआ करता था और लोग भाषाई आधार पर सीमायें मानते थे.
1907 के उस दौर में बिहार के एक करपा साहेब को बुला कर यहाँ का जमींदार बना दिया गया और वो लगे किसानों से लगान वसूलने.
इस लगान की दो शर्ते थी, या तो सीधे तरीके से लगान दो, या इसाई हो जाओ तो लगान माफ़ किया जायेगा.
विरोध करने वालों को या तो मार दिया गया था या पकड़ कर असम में कुली बना कर भेजा गया था.
इस नाजायज और जबरन वसूली, ऊपर से धर्म परिवर्तन के खिलाफ मुर्मू लोग विद्रोह पर उतर आये.
जैसा कि बाकी के भारत में होता है और तिलक ने भी किया था, वैसे ही यहाँ भी लोगों ने एकजुट होने के लिए त्योहारों का ही सहारा लिया.
दुर्गा पूजा की नवमी को बलि प्रदान के दिन जब सब इकठ्ठा होते वहीँ से विद्रोह की शुरुआत हुई थी. विद्रोह के नेता थे बोर्जो मुर्मू और उनके भाई.
दल हित चिन्तक आज महिषासुर को जब संथाल लोगों का वंशज और झारखण्ड इलाके का वासी बताने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने संथाल इतिहास तो जरूर ही देखा होगा?
अब ये सवाल इसलिए है क्योंकि बोर्जो मुर्मू के भाई का नाम दुर्गा मुर्मू था. जब इतिहास में संथाल विद्रोह दर्ज किया जाता है तो दुर्गा मुर्मू और बोर्जो मुर्मू का नाम साथ ही लिया जाता है.
बोर्जो मुर्मू के वंशज अभी भी इसी गाँव में होते हैं. दुर्गा पूजा अभी भी यहाँ होती है, हां संस्कृत वाले मन्त्र नहीं पढ़े जाते, स्थानीय भाषा में बदले हुए मन्त्र होते हैं. तारीख़ वही बाकी भारत की दुर्गा पूजा वाली होती है, मूर्तियाँ स्थानीय रंग-ढंग की.
जांच करने के लिए जो जाना चाहेंगे वो गाँव के पुजारी रोबीन टुडू से अष्टमी को गोरा साहिब को दर्शाने के लिए सफ़ेद छागर की बलि की प्रथा जांच सकते हैं.
इलाके के वाम मोर्चे के पुराने मुखिया अरुण चौधरी से भी बात कर सकते हैं, दुर्गा पूजा में कम्युनिस्ट भी शामिल होते हैं.
क्या कहा? रोबिन टुडू नाम क्यों है पुजारी का?
भाई वो क्रिस्चियन वाला Robin नहीं है, ‘रविन्द्र’ का बांग्ला अपभ्रंश है रोबीन! नहीं भाई, हर बार पुजारी ब्राह्मण हो ये भी जरूरी नहीं होता.
बाकी ऊँचे अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल (जिसका नाम आपने अज्ञात कारणों से 14th Floor रखा है) पर बंद ए.सी. कमरों से भारत पूरा दिखता भी नहीं जनाब! नीचे जमीन पे आइये तो बेहतर दिखेगा.
✍🏻आनंद कुमार
20 हज़ार आदिवासियों की कुर्बानी से शुरू हुई थी स्वतंत्रता की कहानी, जब 1855 में जगे थे हिन्दुस्तानी
भारतीय स्वतंत्रता की जब भी बात की जाती है, तो सैनिक विद्रोह का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है. वर्ष 1857 की क्रांति को हिन्दुस्तान की पहली क्रान्ति कहा गया है. सच की बात करें तो ये सच नहीं है. इससे पहले भी एक लड़ाई हुई थी, जो सिर्फ़ अंग्रेजों के खिलाफ़ ही नहीं, वरन समाज में शोषण करने वाले सभी लोगों के ख़िलाफ़ थी. सामाजिक जनचेतना के लिहाज से यह युद्ध काफ़ी महत्वपूर्ण था. इतिहास में इसे 'संथाल हूल' या 'संथाल विद्रोह' के नाम से जाना जाता है. इसका नेतृत्व सिद्धू और कान्हू नाम के दो आदिवासी भाइयों ने 30 जून 1855 से प्रारंभ किया था. इस घटना की याद में प्रतिवर्ष 30 जून को 'हूल क्रांति दिवस' मनाया जाता है. आइए, आपको इसकी विशेषता के बारे में बताते हैं.
पूरा आर्टिकल पढ़ने से पहले इन मुख्य बिंदुओं पर ज़रूर ग़ौर करें.
•संथाल परगना में 'संथाल हूल' और 'संथाल विद्रोह' के कारण अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी.
•झारखंड के इतिहास के पन्नों में जल, जंगल, जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने के संघर्ष के लिए जून महीना 'शहीदों का महीना' माना जाता है.
•अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो. इस युद्ध में करीब 20 हजार वनवासियों ने अपनी जान दी थी.
क्रान्ति की मुख्य वजह
जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासियों का हक़ सदियों से चला आ रहा है. अंग्रेज़ों ने इस पर मालगुजारी भत्ता लगा दिया, इसके विरोध में आदिवासियों ने सिद्धु-कान्हू के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया. इसे दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने मार्शल लॉ लगा दिया. नतीजा ये हुआ कि 20 हजार से ज़्यादा आदिवासियों को जान से हाथ धोना पड़ा.
अंग्रेज़ों के खिलाफ़ रोष था
आदिवासी अंग्रेजों से इतना चिढ़ गए कि वे उन्हें हर हाल में अपने क्षेत्र से भगाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 'करो या मरो, 'अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो' के नारे दिए गए थे.
चार सगे भाइयों ने पूरी हुकूमत हिला दी थी
इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व चार सगे भाई सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव कर रहे थे. उनके साथ पूरा आदिवासी समाज था.
तोप का मुकाबला तीर से किया जा रहा था
इस लड़ाई में हार आदिवासियों की तय थी. अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक हथियार थे, जबकि आदिवासियों के पास धनुष और तीर के अलावा कुछ नहीं था. आदिवासियों के पास हिम्मत तो थी, लेकिन धूर्त गोरों को हराना मुश्किल था.
इतिहासकारों की नज़र से 'संथाल विद्रोह'
इतिहासकारों ने संथाल हूल को 'मुक्ति आंदोलन' का दर्जा दिया है. हूल को कई अर्थों में समाजवाद के लिए पहली लड़ाई माना गया है. आइए आपको कुछ महत्वपूर्ण इतिहासकारों से मिलवाते हैं.
रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा के प्रोफेसर उमेश चंद्र तिवारी कहते हैं, 'देश की आजादी का संभवत: पहला संगठित जन अभियान हासिल करने के लिए तमाम शोषित-वंचितों ने मुखर स्वर जान की कीमत देकर बुलंद किया.'
डॉ़ भुवनेश्वर अनुज की पुस्तक 'झारखंड के शहीद' के मुताबिक, इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी. इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा था, बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी. इस कारण यहां के लोगों में विद्रोह पनप रहा था.
झारखंड के विनोबा भावे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमलेश्वर झा कहते हैं कि संथाल हूल के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालीन चिंतक कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में जून 1855 की संथाल क्रांति को जनक्रांति बताया है.
झारखंड के इतिहास के जानकार बी. पीक. केशरी कहते हैं कि सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप बनाया.
'जुमीदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन अमलो को गुजुकमा.' (जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो). इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था. हिन्दुस्तान के इतिहास में यह आंदोलन काफ़ी महत्वपूर्ण था, है और रहेगा.
धन्यवाद
By:- आनंद कुमार
संथाल जनजाति बिहार, झारखंड के अलावा बंगाल में भी होती है.
बीरभूम जिले के सुलंगा गाँव में इनके करीब सौ घर होंगे. छोटा सा गाँव है, संथालों की आबादी भी वही 500-700 जैसी होगी.
इतने मामूली से गाँव का जिक्र क्यों?
क्योंकि बरसों पहले यहाँ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका गया था. जैसा कि बाकी भारत में हुआ था यहाँ भी विद्रोह की मुख्य वजह धार्मिक और आर्थिक ही थी.
ये वो दौर था, जब बिहार और बंगाल अलग अलग सूबे नहीं थे. एक ही बंगाल हुआ करता था और लोग भाषाई आधार पर सीमायें मानते थे.
1907 के उस दौर में बिहार के एक करपा साहेब को बुला कर यहाँ का जमींदार बना दिया गया और वो लगे किसानों से लगान वसूलने.
इस लगान की दो शर्ते थी, या तो सीधे तरीके से लगान दो, या इसाई हो जाओ तो लगान माफ़ किया जायेगा.
विरोध करने वालों को या तो मार दिया गया था या पकड़ कर असम में कुली बना कर भेजा गया था.
इस नाजायज और जबरन वसूली, ऊपर से धर्म परिवर्तन के खिलाफ मुर्मू लोग विद्रोह पर उतर आये.
जैसा कि बाकी के भारत में होता है और तिलक ने भी किया था, वैसे ही यहाँ भी लोगों ने एकजुट होने के लिए त्योहारों का ही सहारा लिया.
दुर्गा पूजा की नवमी को बलि प्रदान के दिन जब सब इकठ्ठा होते वहीँ से विद्रोह की शुरुआत हुई थी. विद्रोह के नेता थे बोर्जो मुर्मू और उनके भाई.
दल हित चिन्तक आज महिषासुर को जब संथाल लोगों का वंशज और झारखण्ड इलाके का वासी बताने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्होंने संथाल इतिहास तो जरूर ही देखा होगा?
अब ये सवाल इसलिए है क्योंकि बोर्जो मुर्मू के भाई का नाम दुर्गा मुर्मू था. जब इतिहास में संथाल विद्रोह दर्ज किया जाता है तो दुर्गा मुर्मू और बोर्जो मुर्मू का नाम साथ ही लिया जाता है.
बोर्जो मुर्मू के वंशज अभी भी इसी गाँव में होते हैं. दुर्गा पूजा अभी भी यहाँ होती है, हां संस्कृत वाले मन्त्र नहीं पढ़े जाते, स्थानीय भाषा में बदले हुए मन्त्र होते हैं. तारीख़ वही बाकी भारत की दुर्गा पूजा वाली होती है, मूर्तियाँ स्थानीय रंग-ढंग की.
जांच करने के लिए जो जाना चाहेंगे वो गाँव के पुजारी रोबीन टुडू से अष्टमी को गोरा साहिब को दर्शाने के लिए सफ़ेद छागर की बलि की प्रथा जांच सकते हैं.
इलाके के वाम मोर्चे के पुराने मुखिया अरुण चौधरी से भी बात कर सकते हैं, दुर्गा पूजा में कम्युनिस्ट भी शामिल होते हैं.
क्या कहा? रोबिन टुडू नाम क्यों है पुजारी का?
भाई वो क्रिस्चियन वाला Robin नहीं है, ‘रविन्द्र’ का बांग्ला अपभ्रंश है रोबीन! नहीं भाई, हर बार पुजारी ब्राह्मण हो ये भी जरूरी नहीं होता.
बाकी ऊँचे अपार्टमेंट की तेरहवीं मंजिल (जिसका नाम आपने अज्ञात कारणों से 14th Floor रखा है) पर बंद ए.सी. कमरों से भारत पूरा दिखता भी नहीं जनाब! नीचे जमीन पे आइये तो बेहतर दिखेगा.
✍🏻आनंद कुमार
20 हज़ार आदिवासियों की कुर्बानी से शुरू हुई थी स्वतंत्रता की कहानी, जब 1855 में जगे थे हिन्दुस्तानी
भारतीय स्वतंत्रता की जब भी बात की जाती है, तो सैनिक विद्रोह का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है. वर्ष 1857 की क्रांति को हिन्दुस्तान की पहली क्रान्ति कहा गया है. सच की बात करें तो ये सच नहीं है. इससे पहले भी एक लड़ाई हुई थी, जो सिर्फ़ अंग्रेजों के खिलाफ़ ही नहीं, वरन समाज में शोषण करने वाले सभी लोगों के ख़िलाफ़ थी. सामाजिक जनचेतना के लिहाज से यह युद्ध काफ़ी महत्वपूर्ण था. इतिहास में इसे 'संथाल हूल' या 'संथाल विद्रोह' के नाम से जाना जाता है. इसका नेतृत्व सिद्धू और कान्हू नाम के दो आदिवासी भाइयों ने 30 जून 1855 से प्रारंभ किया था. इस घटना की याद में प्रतिवर्ष 30 जून को 'हूल क्रांति दिवस' मनाया जाता है. आइए, आपको इसकी विशेषता के बारे में बताते हैं.
पूरा आर्टिकल पढ़ने से पहले इन मुख्य बिंदुओं पर ज़रूर ग़ौर करें.
•संथाल परगना में 'संथाल हूल' और 'संथाल विद्रोह' के कारण अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी.
•झारखंड के इतिहास के पन्नों में जल, जंगल, जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने के संघर्ष के लिए जून महीना 'शहीदों का महीना' माना जाता है.
•अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो. इस युद्ध में करीब 20 हजार वनवासियों ने अपनी जान दी थी.
क्रान्ति की मुख्य वजह
जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासियों का हक़ सदियों से चला आ रहा है. अंग्रेज़ों ने इस पर मालगुजारी भत्ता लगा दिया, इसके विरोध में आदिवासियों ने सिद्धु-कान्हू के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया. इसे दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने मार्शल लॉ लगा दिया. नतीजा ये हुआ कि 20 हजार से ज़्यादा आदिवासियों को जान से हाथ धोना पड़ा.
अंग्रेज़ों के खिलाफ़ रोष था
आदिवासी अंग्रेजों से इतना चिढ़ गए कि वे उन्हें हर हाल में अपने क्षेत्र से भगाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 'करो या मरो, 'अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो' के नारे दिए गए थे.
चार सगे भाइयों ने पूरी हुकूमत हिला दी थी
इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व चार सगे भाई सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव कर रहे थे. उनके साथ पूरा आदिवासी समाज था.
तोप का मुकाबला तीर से किया जा रहा था
इस लड़ाई में हार आदिवासियों की तय थी. अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक हथियार थे, जबकि आदिवासियों के पास धनुष और तीर के अलावा कुछ नहीं था. आदिवासियों के पास हिम्मत तो थी, लेकिन धूर्त गोरों को हराना मुश्किल था.
इतिहासकारों की नज़र से 'संथाल विद्रोह'
इतिहासकारों ने संथाल हूल को 'मुक्ति आंदोलन' का दर्जा दिया है. हूल को कई अर्थों में समाजवाद के लिए पहली लड़ाई माना गया है. आइए आपको कुछ महत्वपूर्ण इतिहासकारों से मिलवाते हैं.
रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा के प्रोफेसर उमेश चंद्र तिवारी कहते हैं, 'देश की आजादी का संभवत: पहला संगठित जन अभियान हासिल करने के लिए तमाम शोषित-वंचितों ने मुखर स्वर जान की कीमत देकर बुलंद किया.'
डॉ़ भुवनेश्वर अनुज की पुस्तक 'झारखंड के शहीद' के मुताबिक, इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी. इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा था, बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी. इस कारण यहां के लोगों में विद्रोह पनप रहा था.
झारखंड के विनोबा भावे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमलेश्वर झा कहते हैं कि संथाल हूल के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालीन चिंतक कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में जून 1855 की संथाल क्रांति को जनक्रांति बताया है.
झारखंड के इतिहास के जानकार बी. पीक. केशरी कहते हैं कि सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप बनाया.
'जुमीदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन अमलो को गुजुकमा.' (जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो). इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था. हिन्दुस्तान के इतिहास में यह आंदोलन काफ़ी महत्वपूर्ण था, है और रहेगा.
धन्यवाद
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