दस महाविद्या रहस्य, नवरात्रि विशेष
दस महाविद्या रहस्य
तंत्र के क्षेत्र में सबसे प्रभावी हैं दस महाविद्या। उनके नाम हैं-काली, तारा, षोडषी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला। गुण और प्रकृति के कारण इन सारी महाविद्याओं को दो कुल-कालीकुल और श्रीकुल में बांटा जाता है। साधकों का अपनी रूचि और भक्ति के अनुसार किसी एक कुल की साधना में अग्रसर हों। ब्रह्मांड की सारी शक्तियों की स्रोत यही दस महाविद्या हैं। इन्हें शक्ति भी कहा जाता है। मान्यता है कि शक्ति के बिना देवाधिदेव शिव भी शव के समान हो जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति भी इन्हीं में निहित हैं। सिक्के का दूसरी पहलू यह भी है कि शक्ति की पूजा शिव के बिना अधूरी मानी जाती है। इसी तरह शक्ति के विष्णु रूप में भी दस अवतार माने गए हैं। किसी भी महाविद्या के पूजन के समय उनकी दाईं ओर शिव का पूजन ज्यादा कल्याणकारी होता है। अनुष्ठान या विशेष पूजन के समय इसे अनिवार्य मानना चाहिए। उनका विवरण निम्न है--------
महाविद्या--------------शिव के रूप
1-काली------------------- महाकाल
2-तारा-------------------- अक्षोभ्य
3-षोडषी------------------ कामेश्वर
4-भुवनेश्वरी--------------- त्रयम्बक
5-त्रिपुर भैरवी------------ दक्षिणा मूर्ति
6-छिन्नमस्ता------------ क्रोध भैरव
7-धूमावती--------------- चूंकि विधवा रूपिणी हैं, अत: शिव नहीं हैं
8-बगला----------------- मृत्युंजय
9-मातंगी---------------- मातंग
10-कमला--------------- विष्णु रूप
दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं--
महाविद्या----------- विष्णु के अवतार
1-काली--------------------कृष्ण
2-तारा---------------------मत्स्य
3-षोडषी--------------------परशुराम
4-भुवनेश्वरी----------------वामन
5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम
6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह
7-धूमावती-----------------वाराह
8-बगला---------------------कूर्म
9-मातंगी--------------------राम
10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है।
दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।,,,,
अब ये देखिये :-
महाविद्या तारा
By:-Anand Kumar -
खूब तल-भुनकर बहुत अच्छा, स्वादिष्ट खाना भी बनाया हो तो भी उसे दो-तीन महीने के बच्चे को नहीं खिला देते। तंत्र के साथ भी ऐसा ही है, सबसे हजम नहीं होता, जबरन ठूंसने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसे कुछ ऐसे भी समझ सकते हैं कि कुत्ते-बिल्ली जैसे किसी जानवर से अगर बच्चा डरता हो तो उसे देखते ही वो मम्मी चिल्लाता माँ के पास भागेगा। जो मम्मी बच्चे के लिए प्यारी से होती है वही उस कुत्ते-बिल्ली के लिए भयावह हो जाती है क्या ? ये उतना मुश्किल सवाल नहीं है, मामूली सा एक्सपेरिमेंट कीजिये।
अपने बच्चों को दुलारती किसी निरीह दिखती बिल्ली के बच्चे को उठा लेने की कोशिश कीजियेगा, जवाब समझ आ जाएगा। तंत्र या वामाचार मुश्किल है क्योंकि इसमें कई पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। जैसे देवी तारा की उपासना में महाशंख की माला का प्रयोग होता है। इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल और शालिग्राम से कभी नहीं करना चाहिये। थोड़े समय पहले तक भारत के घरों में आंगन, सामने की सड़क को गोबर से लीपने की परंपरा थी। तुलसी घर में होगी ही। गंगाजल छिडके जाने और शालिग्राम की भी कई जगह संभावना रहती है। यानि तकनिकी मजबूरियों की वजह से तांत्रिक किसी गृहस्थ के घर में प्रवेश भी नहीं कर सकता।
देवी तारा, दस महाविद्याओं में से दूसरी होती है, उन्हें नीलसरस्वती, उग्रतारा, कामख्या आदि नामों से भी जाना जाता है। आदिशक्ति के इस स्वरुप की उपासना कौल तंत्र और बौद्ध वज्रायण में भी की जाती है। कम प्रचलित वाली कथाओं के हिसाब से एक बार जब देवताओं को शुम्भ और निशुम्भ ने पराजित कर के अमरावती से भगा दिया तो हिमालय पर वो देवी दुर्गा की उपासना कर रहे थे। उसी समय वहां मातंग ऋषि की पत्नी मातंगी आयीं। उन्होंने जब देवताओं से पूछा कि आप किसकी उपासना कर रहे हैं ?
देवताओं ने जवाब देने की कोशिश की, वो सही जवाब दे नहीं पाए। आखिर महासरस्वती मातंगी के शरीर से प्रकट हुई। सरस्वती जो मातंगी के शरीर से अलग हो गई थी, वो आठ भुजाओं वाली देवी गौर वर्ण कौशिकी थी। उनके अलग होने पर मातंगी का शरीर काला पड़ गया था और वो कालिका-उग्रतारा नाम की देवी हुई। तंत्र में सांध्यवंदना तारा को अर्पित होती है, सुबह की एकजाता, दोपहर की नीलसरस्वती, और संध्या की कामख्या के रूप को अर्पित होती है। तांत्रिक के हिसाब से शमशान वो जगह है जहाँ पञ्च तत्व, महाभूत’ या देह में विद्यमान स्थूल तत्त्व, चिद्-ब्रह्म में विलीन होते हैं।
तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान, विकार रहित हृदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। जहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि विकारों या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं। मन या हृदय भी वह श्मशान हैं, जहाँ इन समस्त विकारों का दाह होता हैं। अतः देवी काली-तारा अपने उपासकों के विकार शून्य हृदय पर ही वास करती हैं।
रुद्र्यामाला तंत्र के मुताबिक प्रजापति ब्रह्मा की आज्ञा से वसिष्ठ मुनि ने प्रागज्योतिषपुर में अपना आश्रम बनाया और कामख्या शक्ति पीठ के पास देवी तारा की मन्त्र साधना शुरू की। काफी लम्बे, बरसों के प्रयास के बाद भी जब मन्त्र सिद्ध नहीं हुआ, देवी भी प्रकट नहीं हुई। तो खीज कर वसिष्ठ मन्त्र को ही शापित करने चले, इतने में पार्वती अपने वज्रयोगिनी स्वरुप में वसिष्ठ के सामने आई और उनसे महाचीन जाकर साधना सीखने कहा। देवी की सलाह से जब वसिष्ठ बुद्ध के पास पहुंचे तो विष्णु अवतार को पंचमकार में लिप्त देखकर वो घृणा से भर उठे।
लेकिन वशिष्ठ को पंचमकार का अर्थ समझाते हुए वाम साधना में बुद्ध ने दीक्षित किया। लौटने पर द्वारक नदी के किनारे एक शमशान चुनकर वसिष्ठ ने साधना दोबारा की और देवी तारा सद्योजात शिव के साथ प्रकट हुई और वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। जिस स्थान पर वशिष्ठ ने ये उपासना की थी, वो जगह अब बीरभूम (बंगाल) में है। यहाँ के मंदिर में देवी तारा अपने आदिरूप में हैं जिसे चार भुजाओं वाले एक चांदी के उग्रतारा के आवरण से ढक कर रखा जाता है। इसे सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त में देख सकते हैं।
देवी के तारा स्वरुप के भैरव का नाम अक्षोभ्य है। वो प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी होती हैं, यानी योद्धाओं की तरह बायाँ पैर आगे शिव के अचेतन स्वरुप पर। देवी का वाहन गीदड़ या शव होता है। द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से साधक ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें ताराणी भी कहा जाता हैं। वशिष्ठ मुनि ने सबसे पहले देवी तारा कि आराधना की थी, इसलिए देवी ’वशिष्ठाराधिता’ के नाम से भी जानी जाती हैं।
देवी तारा ज्ञान और मोक्ष की देवी हैं, जितनी हिन्दुओं के लिए उपास्य हैं, उतनी ही बौद्ध तंत्र में भी उनकी मान्यता है। हाँ, फिर से याद दिला दें, गरिष्ठ भोजन मजबूत हाजमे वालों के लिए होता है, बच्चों के लिए नहीं।
तंत्र के क्षेत्र में सबसे प्रभावी हैं दस महाविद्या। उनके नाम हैं-काली, तारा, षोडषी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला। गुण और प्रकृति के कारण इन सारी महाविद्याओं को दो कुल-कालीकुल और श्रीकुल में बांटा जाता है। साधकों का अपनी रूचि और भक्ति के अनुसार किसी एक कुल की साधना में अग्रसर हों। ब्रह्मांड की सारी शक्तियों की स्रोत यही दस महाविद्या हैं। इन्हें शक्ति भी कहा जाता है। मान्यता है कि शक्ति के बिना देवाधिदेव शिव भी शव के समान हो जाते हैं। भगवान विष्णु की शक्ति भी इन्हीं में निहित हैं। सिक्के का दूसरी पहलू यह भी है कि शक्ति की पूजा शिव के बिना अधूरी मानी जाती है। इसी तरह शक्ति के विष्णु रूप में भी दस अवतार माने गए हैं। किसी भी महाविद्या के पूजन के समय उनकी दाईं ओर शिव का पूजन ज्यादा कल्याणकारी होता है। अनुष्ठान या विशेष पूजन के समय इसे अनिवार्य मानना चाहिए। उनका विवरण निम्न है--------
महाविद्या--------------शिव के रूप
1-काली------------------- महाकाल
2-तारा-------------------- अक्षोभ्य
3-षोडषी------------------ कामेश्वर
4-भुवनेश्वरी--------------- त्रयम्बक
5-त्रिपुर भैरवी------------ दक्षिणा मूर्ति
6-छिन्नमस्ता------------ क्रोध भैरव
7-धूमावती--------------- चूंकि विधवा रूपिणी हैं, अत: शिव नहीं हैं
8-बगला----------------- मृत्युंजय
9-मातंगी---------------- मातंग
10-कमला--------------- विष्णु रूप
दस महाविद्या से ही विष्णु के भी दस अवतार माने गए हैं। उनके विवरण भी निम्न हैं--
महाविद्या----------- विष्णु के अवतार
1-काली--------------------कृष्ण
2-तारा---------------------मत्स्य
3-षोडषी--------------------परशुराम
4-भुवनेश्वरी----------------वामन
5-त्रिपुर भैरवी--------------बलराम
6-छिन्नमस्ता--------------नृसिंह
7-धूमावती-----------------वाराह
8-बगला---------------------कूर्म
9-मातंगी--------------------राम
10-कमला-----------------बुद्धविष्णु का कल्कि अवतार दुर्गा जी का माना गया है।
दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है। ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं। कथा के अनुसार महादेव से संवाद के दौरान एक बार माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। क्रोध से माता का शरीर काला पडऩे लगा। यह देख विवाद टालने के लिए शिव वहां से उठ कर जाने लगे तो सामने दिव्य रूप को देखा। फिर दूसरी दिशा की ओर बढ़े तो अन्य रूप नजर आया। बारी-बारी से दसों दिशाओं में अलग-अलग दिव्य दैवीय रूप देखकर स्तंभित हो गए। तभी सहसा उन्हें पार्वती का स्मरण आया तो लगा कि कहीं यह उन्हीं की माया तो नहीं। उन्होंने माता से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने बताया कि आपके समक्ष कृष्ण वर्ण में जो स्थित हैं, वह सिद्धिदात्री काली हैं। ऊपर नील वर्णा सिद्धिविद्या तारा, पश्चिम में कटे सिर को उठाए मोक्षा देने वाली श्याम वर्णा छिन्नमस्ता, वायीं तरफ भोगदात्री भुवनेश्वरी, पीछे ब्रह्मास्त्र एवं स्तंभन विद्या के साथ शत्रु का मर्दन करने वाली बगला, अग्निकोण में विधवा रूपिणी स्तंभवन विद्या वाली धूमावती, नेऋत्य कोण में सिद्धिविद्या एवं भोगदात्री दायिनी भुवनेश्वरी, वायव्य कोण में मोहिनीविद्या वाली मातंगी, ईशान कोण में सिद्धिविद्या एवं मोक्षदात्री षोडषी और सामने सिद्धिविद्या और मंगलदात्री भैरवी रूपा मैं स्वयं उपस्थित हूं। उन्होंने कहा कि इन सभी की पूजा-अर्चना करने में चतुवर्ग अर्थात- धर्म, भोग, मोक्ष और अर्थ की प्राप्ति होती है। इन्हीं की कृपा से षटकर्णों की सिद्धि तथौ अभिष्टि की प्राप्ति होती है। शिवजी के निवेदन करने पर सभी देवियां काली में समाकर एक हो गईं।,,,,
अब ये देखिये :-
महाविद्या तारा
By:-Anand Kumar -
खूब तल-भुनकर बहुत अच्छा, स्वादिष्ट खाना भी बनाया हो तो भी उसे दो-तीन महीने के बच्चे को नहीं खिला देते। तंत्र के साथ भी ऐसा ही है, सबसे हजम नहीं होता, जबरन ठूंसने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसे कुछ ऐसे भी समझ सकते हैं कि कुत्ते-बिल्ली जैसे किसी जानवर से अगर बच्चा डरता हो तो उसे देखते ही वो मम्मी चिल्लाता माँ के पास भागेगा। जो मम्मी बच्चे के लिए प्यारी से होती है वही उस कुत्ते-बिल्ली के लिए भयावह हो जाती है क्या ? ये उतना मुश्किल सवाल नहीं है, मामूली सा एक्सपेरिमेंट कीजिये।
अपने बच्चों को दुलारती किसी निरीह दिखती बिल्ली के बच्चे को उठा लेने की कोशिश कीजियेगा, जवाब समझ आ जाएगा। तंत्र या वामाचार मुश्किल है क्योंकि इसमें कई पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। जैसे देवी तारा की उपासना में महाशंख की माला का प्रयोग होता है। इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल और शालिग्राम से कभी नहीं करना चाहिये। थोड़े समय पहले तक भारत के घरों में आंगन, सामने की सड़क को गोबर से लीपने की परंपरा थी। तुलसी घर में होगी ही। गंगाजल छिडके जाने और शालिग्राम की भी कई जगह संभावना रहती है। यानि तकनिकी मजबूरियों की वजह से तांत्रिक किसी गृहस्थ के घर में प्रवेश भी नहीं कर सकता।
देवी तारा, दस महाविद्याओं में से दूसरी होती है, उन्हें नीलसरस्वती, उग्रतारा, कामख्या आदि नामों से भी जाना जाता है। आदिशक्ति के इस स्वरुप की उपासना कौल तंत्र और बौद्ध वज्रायण में भी की जाती है। कम प्रचलित वाली कथाओं के हिसाब से एक बार जब देवताओं को शुम्भ और निशुम्भ ने पराजित कर के अमरावती से भगा दिया तो हिमालय पर वो देवी दुर्गा की उपासना कर रहे थे। उसी समय वहां मातंग ऋषि की पत्नी मातंगी आयीं। उन्होंने जब देवताओं से पूछा कि आप किसकी उपासना कर रहे हैं ?
देवताओं ने जवाब देने की कोशिश की, वो सही जवाब दे नहीं पाए। आखिर महासरस्वती मातंगी के शरीर से प्रकट हुई। सरस्वती जो मातंगी के शरीर से अलग हो गई थी, वो आठ भुजाओं वाली देवी गौर वर्ण कौशिकी थी। उनके अलग होने पर मातंगी का शरीर काला पड़ गया था और वो कालिका-उग्रतारा नाम की देवी हुई। तंत्र में सांध्यवंदना तारा को अर्पित होती है, सुबह की एकजाता, दोपहर की नीलसरस्वती, और संध्या की कामख्या के रूप को अर्पित होती है। तांत्रिक के हिसाब से शमशान वो जगह है जहाँ पञ्च तत्व, महाभूत’ या देह में विद्यमान स्थूल तत्त्व, चिद्-ब्रह्म में विलीन होते हैं।
तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान, विकार रहित हृदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। जहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि विकारों या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं। मन या हृदय भी वह श्मशान हैं, जहाँ इन समस्त विकारों का दाह होता हैं। अतः देवी काली-तारा अपने उपासकों के विकार शून्य हृदय पर ही वास करती हैं।
रुद्र्यामाला तंत्र के मुताबिक प्रजापति ब्रह्मा की आज्ञा से वसिष्ठ मुनि ने प्रागज्योतिषपुर में अपना आश्रम बनाया और कामख्या शक्ति पीठ के पास देवी तारा की मन्त्र साधना शुरू की। काफी लम्बे, बरसों के प्रयास के बाद भी जब मन्त्र सिद्ध नहीं हुआ, देवी भी प्रकट नहीं हुई। तो खीज कर वसिष्ठ मन्त्र को ही शापित करने चले, इतने में पार्वती अपने वज्रयोगिनी स्वरुप में वसिष्ठ के सामने आई और उनसे महाचीन जाकर साधना सीखने कहा। देवी की सलाह से जब वसिष्ठ बुद्ध के पास पहुंचे तो विष्णु अवतार को पंचमकार में लिप्त देखकर वो घृणा से भर उठे।
लेकिन वशिष्ठ को पंचमकार का अर्थ समझाते हुए वाम साधना में बुद्ध ने दीक्षित किया। लौटने पर द्वारक नदी के किनारे एक शमशान चुनकर वसिष्ठ ने साधना दोबारा की और देवी तारा सद्योजात शिव के साथ प्रकट हुई और वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। जिस स्थान पर वशिष्ठ ने ये उपासना की थी, वो जगह अब बीरभूम (बंगाल) में है। यहाँ के मंदिर में देवी तारा अपने आदिरूप में हैं जिसे चार भुजाओं वाले एक चांदी के उग्रतारा के आवरण से ढक कर रखा जाता है। इसे सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त में देख सकते हैं।
देवी के तारा स्वरुप के भैरव का नाम अक्षोभ्य है। वो प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी होती हैं, यानी योद्धाओं की तरह बायाँ पैर आगे शिव के अचेतन स्वरुप पर। देवी का वाहन गीदड़ या शव होता है। द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से साधक ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें ताराणी भी कहा जाता हैं। वशिष्ठ मुनि ने सबसे पहले देवी तारा कि आराधना की थी, इसलिए देवी ’वशिष्ठाराधिता’ के नाम से भी जानी जाती हैं।
देवी तारा ज्ञान और मोक्ष की देवी हैं, जितनी हिन्दुओं के लिए उपास्य हैं, उतनी ही बौद्ध तंत्र में भी उनकी मान्यता है। हाँ, फिर से याद दिला दें, गरिष्ठ भोजन मजबूत हाजमे वालों के लिए होता है, बच्चों के लिए नहीं।
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