भारत मे मध्यकालीन इतिहासकार #इरफान_हबीब के वस्त्र उद्योग Vs #कौटिल्य_के_अर्थशास्त्र से #सूत_उद्योग की व्यवस्था कि तुलना
भारत मे मध्यकालीन इतिहासकार #इरफान_हबीब के वस्त्र उद्योग Vs #कौटिल्य_के_अर्थशास्त्र से #सूत_उद्योग की व्यवस्था कि तुलना
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#एखलाकिये रेडिकल इस्लामिक मध्यकालीन इतिहासकार #इरफान_हबीब का कहना है कि ऐसा समझा जाता है कि अंग्रेजी राज्य के पूर्व भारत में प्रौद्योगिकी एकदम #आदिम अवस्था में थी ।
लेकिन इस पर #असहमति जाहिर करते हुए #चरखे को आधार बनाकर #ईरान_और_मुसलमानों को #वस्त्र_उद्योग को भारत में आययतित चरखे को आधार मानकर ; एक क्रन्तिकारी परिवर्तन का निष्कर्ष निकालते हैं ।
और भारतीय देवी देवताओं और राजपुरुषों के अधोवस्त्र और उर्धव्वस्त्र धारण करने की परंपरा को मुग़ल काल के गरीब लोगों से तुलना करते हुए ये निष्कर्ष निकालते हैं कि प्राचीन भारत में वस्त्रोंकी कमी को भारतीय लेखको ने आत्मभ्रम और स्वाभिमान की रक्षा का आधार बनाते हुए , लोगों को दिग्भ्रमित किये थे ।
कल मैंने मध्यकालीन यात्रावृत्तांतों के जरिये ये बात प्रमाणित की थी कि भारत में आमजन से लेकर राजपुरुष सब एक ही तरह के वस्त्र पहनते थे ।लेकिन सनातन धर्म की अपरिग्रह इन इस्लामिक विद्वानों के मस्तिस्क में जगह नही बना सकता क्योंकि भोग और विलासिता ही उनकी theology का आधार है ।
जबकि धर्म के साथ अर्थ और काम को अर्जित करना भारतीय परंपरा का मूल रहा है ।
आज मैं #कौटिल्य_के_अर्थशास्त्र से #सूत_उद्योग की व्यवस्था का वर्णन करूंगा । जिनसे इन झुट्ठों की पोल खोल किया जा सके ।
कौटिल्य के इस ग्रन्थ के प्रकरण -39 के अध्याय 23 में #सूत्राध्यक्ष ( सूत-व्यवसाय का अध्यक्ष) नामक विभाग का वर्णन है जिसमे वस्त्र के सूत निर्माण से लेकर वस्त्र निर्माण के सारे नियम और विधि वर्णित है ।
ये वही काल है जब यूरोप के रोमन काल में भारत के सिल्क का दाम सोने के मूल्य में बेंचा जाता था। जिसका वर्णन #प्लिनी भी करता है ।
मात्र एक दो उद्धरण दूंगा ।
(1) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह सूत कवच कपड़ा और रस्सी कातने , बुनने तथा बटने वाले निपुड़ कारीगरों से उनके इन कार्यों की जानकारी प्राप्त करे।
(2) ऊन ,बल्क, कपास ,सेमल, सन, और जूट आदि को कतवाने के लिए विधवाओं , अंगहीन स्त्रियों , कन्याओं, संयसनियों, सजायाफ्ता स्त्रियों, वेश्याओं की खालाओं, बूढी दासियों और मन्दिरों की दासियों को नियुक्त करना चाहिए।
(3) सूत की एकरसता , मोटाई और मध्यमता की अच्छी तरह जांच करने के पश्चात उक्त महिलाओं की मजदूरी नियत करनी चाहिए ।कम-ज्यादा सूत काटने वाली स्त्रियों को उनके कार्य के अनुसार वेतन देना चाहिए।सूत का वजन अथवा लंबाई को जानकर पुरस्कार रूप में उन्हें तेल, आवंला , और उबटन देना चाहिए ,जिससे वो प्रसन्न होकर अधिक कार्य करें ।
(4) अद्द्यक्ष को चाहिए कि मोटे-महीन , चीनी रेशम ,रिंकु मृग का ऊन (रांकव) और कपास का सूत कातने -बुनने वाले कारीगरों को इत्र फुलेल तथा अन्य पारितोषिक देकर सदा प्रसन्न चित रखे ।उनसे वह ओढ़ने ,बिछाने अवं पहनने के डिज़ाइनदार वस्त्र बनवाये ।
(5) जो स्त्रियां पर्दानशींन हो , जिनके पति परदेश गए हो , विधवा हो, लूली लंगड़ी हो ,अविवाहित हो, जो आत्मनिर्भर रहना चाहती हों , ऐसी स्त्रियों के सम्बन्ध मे अद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह दासियों द्वारा सूत भेजकर उनसे कतवाए और उनसे अच्छा व्यवहार करे।
(6) घर पर काते हुए सूत को लेकर जो स्त्रियां स्वयं या दसियों के साथ प्रातः ही #पुतलीघर (सूत्रशाला) में उपस्थित हों ,उन्हें उचित मजदूरी मिले।
(7) स्त्रियों के साथ इधर उधर की बात करने वाले परीक्षक को प्रथम साहस का दंड देना चाहिए । उन्हें उचित वेतन न दिया जाय या वीना काम किये वेतन दिया जाय तो मध्यम साहस का दंड देना चाहिए ।इसी तरह माल चुराने वाले को भी दण्डित करना चाहिए ।
(8) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह रस्सी बटकर जीविकोपार्जन करने वाले तथा #चमडे_का_कार्य_करने वालों से संपर्क बनाये रखे ।उनसे वह गाय आदि बांधने का तथा हर तरह का चमड़े का सामान बनवाता रहे ।
(9) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह सन , सूत आदि की रस्सियाँ और कवच बनाने तथा घोड़े को बांधने के उपयोगी बेंत और बांस की रस्सियाँ बनवाये ।
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इसके बाद आये क्रूर बर्बर जाहिलिया तुर्क और मुग़ल और उन्होंने इन कारीगरों के साथ क्या रवैया अपनाया उसका वर्णन #वर्नियर की पुस्तक में है ।
फिर आये समुद्री लुटेरे जिन्होंने भारत के व्यापर और उत्पादन को नष्ट किया । सबसे ज्यादा लगभग 10% लोग अपनी जीविकोपार्जन कृषि आधारित इन्ही उत्पादों के निर्माण से गुजर बसर करते थे जो 1800 तक यूरोप में एक्सपोर्ट होता था । बेरोजगार होने वालो में ज्यादा प्रभावित वो लोग हुए जो सूत काटते थे या बुनकर थे । सूत व्यापार नष्ट होने से सबसे ज्यादा #स्त्रियों की आत्मनिर्भरता खत्म हुई इससे #अमिय_बागची सहित सारे आर्थिक इतिहासकार सहमत हैं ।
कौटिल्य के अर्थशाश्त्र को पढ़कर इसको आसानी से समझा जा सकता है ।
#इरफ़ान_हबीब ने #पर्शियन_जुलाहा और MA Sherring के 1872 की पुस्तक Tribes and Caste Of India के अनुसार 19वी शताब्दी तक सम्मानित वैश राजपूत के वंशज रहे #कोरी , जो आज #अनुसूचित जाति में लिस्टेड हैं , को एक ही तराजू में तौलना उनके इतिहास बोध की पोल पट्टी खोल रहा है ।
कौटल्य के अर्थशास्त्रं में तो लिखा है कि पशुओं की भी गणना का रिकॉर्ड रखा जाता था।
एक एक रुई कपास कातने वालों का हिसाब रखा जाता था। यहां तक सूत कातने वाली विकलांग महिला के साथ कोई बत्तमीजी न करे , उसकी भी व्यवस्था की थी उसने ।
तो फिर मनुष्यो की गणना तो करता ही रहा होगा।
लेकिन कौटल्य क्या #शम्बूक और #एकलव्य के खानदान की जनगणना करना भूल गया ?
कहीं जिक्र तक नही ।
ऐसा कैसे ?
और ये लंगडुवा बानर आये 300 साल पहले यूरोप के गोरे ईसाई, और जनगणना करते करते अछूत सूद चमरन के पूर्वज शम्बूक और एकलव्य को खोज निकाला ?
चिमत्कार इसी को कहते हैं ।
आपल का चिमत्कार जो आदम और ईव खाये थे।
बाकी बचा सूत पुत्र कर्ण ।
तो वो अर्जुन का भाई था, जिसका सारा हिसाब किताब कृष्ण रखते थे, मथुरा का गजेट चेक करके कहानी को आगे बढ़ाया जाए ।
ॐ श्री कृष्ण यदवाय ओबीसी नमः ।।
अब जब ये बात स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुकी है कि भारत को विखंडित, शासित और हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का इरादा रखने वाले नग्रेज और जर्मन ईसाइयो को संस्कृत का स भी नहीं आता था , लेकिन फिर भी अपने लूट और अत्याचार पर पर्दा डालने हेतु वेद और स्मृतियों से गलत संदर्भित कर हिन्दुओ को बांटा, तो उनके आधार पर संविधान में किये गए प्रावधानों में संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
और आर्य बाहर से आये आक्रांता थे, इस ईसाई षड्यंत्र का पोल खोल हो चूका है ।
तो सवर्ण और आर्य प्रमाणित तीन वर्णो को तीन सामान्य जातियां घोसित करने वाले संविधान के आर्टिकल 14 से 18 तक #समानता के आधार का संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
और अब धरम पाल की पुस्तक The beautiful Tree में अंग्रेजों द्वारा एकत्रित डाटा से ये भी प्रमाणित हो चूका है कि तथाकथित शूद्र मूलनिवासी, और भारत के उद्योगों की रीढ़ रहे लोग 1830 तक, और मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के पूर्व तक न तो सोशली बैकवर्ड (अछूत) थे और न ही एडुकेशनली बैकवर्ड थे । और तो और यहाँ तक कि हजारों साल से अछूत रहने की बात अप्रमाणिक सिद्ध हो चुकी है।
अनेक लेखकों के यात्रा वृत्तांत में मोघल काल तक इनके अछूत न होने की बात प्रामाणिक रूप से लिखी मिलती है। जिन कौटिल्य का सन्दर्भ डॉ आंबेडकर ने अपनी बात प्रामाणिक रूप से स्थापित करने की बात संदर्भित की है , उसी कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ये लिखा है कि "जो स्वामी अपने मातहत से मल मूत्र और और जूठन उठवावे इसकी संपत्ति जब्त कर ली जाय।
तो बहुप्रचारित अछूत प्रथा भी धर्म के एक लक्षण #शौच अर्थात sanitation और hygine की अवधारणा की देन है जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण 150 वर्ष पूर्व, #मेहतर समुदाय के सिवा कही नहीं मिलता।
मेहतर भी एक पर्शियन शब्द है जिसका अर्थ राजकुमार होता है - इसके समकक्ष संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में कोई शब्द नही मिलता।
मेहतर टाइटल आज भी ईरान और इराक के लोग गर्व से लगाते हैं , चाहे तो फेसबुक पर खोंज लें।
अब मेरा प्रश्न है कि इन तथ्यों के मद्दे नजर क्या संविधान के समानता के अधिकार को आर्टिकल 14 से 18 पर पुनर्विचार और पुनर्संसोधन नहीं होना चाहिए ?
Affermative Action पर भी पुनर्विचार इन्ही तथ्यों के मद्दे नजर नहीं होना चाहिए क्या ?
न्याय क्या कह्ता है ?
न्यायविदों और संविधान के विशेषज्ञ अपनी राय प्रस्तुत करें।
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डॉ त्रिभुवन सिंह के पोस्ट से संकलित
धन्यवाद
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#एखलाकिये रेडिकल इस्लामिक मध्यकालीन इतिहासकार #इरफान_हबीब का कहना है कि ऐसा समझा जाता है कि अंग्रेजी राज्य के पूर्व भारत में प्रौद्योगिकी एकदम #आदिम अवस्था में थी ।
लेकिन इस पर #असहमति जाहिर करते हुए #चरखे को आधार बनाकर #ईरान_और_मुसलमानों को #वस्त्र_उद्योग को भारत में आययतित चरखे को आधार मानकर ; एक क्रन्तिकारी परिवर्तन का निष्कर्ष निकालते हैं ।
और भारतीय देवी देवताओं और राजपुरुषों के अधोवस्त्र और उर्धव्वस्त्र धारण करने की परंपरा को मुग़ल काल के गरीब लोगों से तुलना करते हुए ये निष्कर्ष निकालते हैं कि प्राचीन भारत में वस्त्रोंकी कमी को भारतीय लेखको ने आत्मभ्रम और स्वाभिमान की रक्षा का आधार बनाते हुए , लोगों को दिग्भ्रमित किये थे ।
कल मैंने मध्यकालीन यात्रावृत्तांतों के जरिये ये बात प्रमाणित की थी कि भारत में आमजन से लेकर राजपुरुष सब एक ही तरह के वस्त्र पहनते थे ।लेकिन सनातन धर्म की अपरिग्रह इन इस्लामिक विद्वानों के मस्तिस्क में जगह नही बना सकता क्योंकि भोग और विलासिता ही उनकी theology का आधार है ।
जबकि धर्म के साथ अर्थ और काम को अर्जित करना भारतीय परंपरा का मूल रहा है ।
आज मैं #कौटिल्य_के_अर्थशास्त्र से #सूत_उद्योग की व्यवस्था का वर्णन करूंगा । जिनसे इन झुट्ठों की पोल खोल किया जा सके ।
कौटिल्य के इस ग्रन्थ के प्रकरण -39 के अध्याय 23 में #सूत्राध्यक्ष ( सूत-व्यवसाय का अध्यक्ष) नामक विभाग का वर्णन है जिसमे वस्त्र के सूत निर्माण से लेकर वस्त्र निर्माण के सारे नियम और विधि वर्णित है ।
ये वही काल है जब यूरोप के रोमन काल में भारत के सिल्क का दाम सोने के मूल्य में बेंचा जाता था। जिसका वर्णन #प्लिनी भी करता है ।
मात्र एक दो उद्धरण दूंगा ।
(1) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह सूत कवच कपड़ा और रस्सी कातने , बुनने तथा बटने वाले निपुड़ कारीगरों से उनके इन कार्यों की जानकारी प्राप्त करे।
(2) ऊन ,बल्क, कपास ,सेमल, सन, और जूट आदि को कतवाने के लिए विधवाओं , अंगहीन स्त्रियों , कन्याओं, संयसनियों, सजायाफ्ता स्त्रियों, वेश्याओं की खालाओं, बूढी दासियों और मन्दिरों की दासियों को नियुक्त करना चाहिए।
(3) सूत की एकरसता , मोटाई और मध्यमता की अच्छी तरह जांच करने के पश्चात उक्त महिलाओं की मजदूरी नियत करनी चाहिए ।कम-ज्यादा सूत काटने वाली स्त्रियों को उनके कार्य के अनुसार वेतन देना चाहिए।सूत का वजन अथवा लंबाई को जानकर पुरस्कार रूप में उन्हें तेल, आवंला , और उबटन देना चाहिए ,जिससे वो प्रसन्न होकर अधिक कार्य करें ।
(4) अद्द्यक्ष को चाहिए कि मोटे-महीन , चीनी रेशम ,रिंकु मृग का ऊन (रांकव) और कपास का सूत कातने -बुनने वाले कारीगरों को इत्र फुलेल तथा अन्य पारितोषिक देकर सदा प्रसन्न चित रखे ।उनसे वह ओढ़ने ,बिछाने अवं पहनने के डिज़ाइनदार वस्त्र बनवाये ।
(5) जो स्त्रियां पर्दानशींन हो , जिनके पति परदेश गए हो , विधवा हो, लूली लंगड़ी हो ,अविवाहित हो, जो आत्मनिर्भर रहना चाहती हों , ऐसी स्त्रियों के सम्बन्ध मे अद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह दासियों द्वारा सूत भेजकर उनसे कतवाए और उनसे अच्छा व्यवहार करे।
(6) घर पर काते हुए सूत को लेकर जो स्त्रियां स्वयं या दसियों के साथ प्रातः ही #पुतलीघर (सूत्रशाला) में उपस्थित हों ,उन्हें उचित मजदूरी मिले।
(7) स्त्रियों के साथ इधर उधर की बात करने वाले परीक्षक को प्रथम साहस का दंड देना चाहिए । उन्हें उचित वेतन न दिया जाय या वीना काम किये वेतन दिया जाय तो मध्यम साहस का दंड देना चाहिए ।इसी तरह माल चुराने वाले को भी दण्डित करना चाहिए ।
(8) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह रस्सी बटकर जीविकोपार्जन करने वाले तथा #चमडे_का_कार्य_करने वालों से संपर्क बनाये रखे ।उनसे वह गाय आदि बांधने का तथा हर तरह का चमड़े का सामान बनवाता रहे ।
(9) सूत्रद्ध्यक्ष को चाहिए कि वह सन , सूत आदि की रस्सियाँ और कवच बनाने तथा घोड़े को बांधने के उपयोगी बेंत और बांस की रस्सियाँ बनवाये ।
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इसके बाद आये क्रूर बर्बर जाहिलिया तुर्क और मुग़ल और उन्होंने इन कारीगरों के साथ क्या रवैया अपनाया उसका वर्णन #वर्नियर की पुस्तक में है ।
फिर आये समुद्री लुटेरे जिन्होंने भारत के व्यापर और उत्पादन को नष्ट किया । सबसे ज्यादा लगभग 10% लोग अपनी जीविकोपार्जन कृषि आधारित इन्ही उत्पादों के निर्माण से गुजर बसर करते थे जो 1800 तक यूरोप में एक्सपोर्ट होता था । बेरोजगार होने वालो में ज्यादा प्रभावित वो लोग हुए जो सूत काटते थे या बुनकर थे । सूत व्यापार नष्ट होने से सबसे ज्यादा #स्त्रियों की आत्मनिर्भरता खत्म हुई इससे #अमिय_बागची सहित सारे आर्थिक इतिहासकार सहमत हैं ।
कौटिल्य के अर्थशाश्त्र को पढ़कर इसको आसानी से समझा जा सकता है ।
#इरफ़ान_हबीब ने #पर्शियन_जुलाहा और MA Sherring के 1872 की पुस्तक Tribes and Caste Of India के अनुसार 19वी शताब्दी तक सम्मानित वैश राजपूत के वंशज रहे #कोरी , जो आज #अनुसूचित जाति में लिस्टेड हैं , को एक ही तराजू में तौलना उनके इतिहास बोध की पोल पट्टी खोल रहा है ।
कौटल्य के अर्थशास्त्रं में तो लिखा है कि पशुओं की भी गणना का रिकॉर्ड रखा जाता था।
एक एक रुई कपास कातने वालों का हिसाब रखा जाता था। यहां तक सूत कातने वाली विकलांग महिला के साथ कोई बत्तमीजी न करे , उसकी भी व्यवस्था की थी उसने ।
तो फिर मनुष्यो की गणना तो करता ही रहा होगा।
लेकिन कौटल्य क्या #शम्बूक और #एकलव्य के खानदान की जनगणना करना भूल गया ?
कहीं जिक्र तक नही ।
ऐसा कैसे ?
और ये लंगडुवा बानर आये 300 साल पहले यूरोप के गोरे ईसाई, और जनगणना करते करते अछूत सूद चमरन के पूर्वज शम्बूक और एकलव्य को खोज निकाला ?
चिमत्कार इसी को कहते हैं ।
आपल का चिमत्कार जो आदम और ईव खाये थे।
बाकी बचा सूत पुत्र कर्ण ।
तो वो अर्जुन का भाई था, जिसका सारा हिसाब किताब कृष्ण रखते थे, मथुरा का गजेट चेक करके कहानी को आगे बढ़ाया जाए ।
ॐ श्री कृष्ण यदवाय ओबीसी नमः ।।
अब जब ये बात स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुकी है कि भारत को विखंडित, शासित और हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का इरादा रखने वाले नग्रेज और जर्मन ईसाइयो को संस्कृत का स भी नहीं आता था , लेकिन फिर भी अपने लूट और अत्याचार पर पर्दा डालने हेतु वेद और स्मृतियों से गलत संदर्भित कर हिन्दुओ को बांटा, तो उनके आधार पर संविधान में किये गए प्रावधानों में संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
और आर्य बाहर से आये आक्रांता थे, इस ईसाई षड्यंत्र का पोल खोल हो चूका है ।
तो सवर्ण और आर्य प्रमाणित तीन वर्णो को तीन सामान्य जातियां घोसित करने वाले संविधान के आर्टिकल 14 से 18 तक #समानता के आधार का संसोधन क्यों नही होना चाहिए ?
और अब धरम पाल की पुस्तक The beautiful Tree में अंग्रेजों द्वारा एकत्रित डाटा से ये भी प्रमाणित हो चूका है कि तथाकथित शूद्र मूलनिवासी, और भारत के उद्योगों की रीढ़ रहे लोग 1830 तक, और मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के पूर्व तक न तो सोशली बैकवर्ड (अछूत) थे और न ही एडुकेशनली बैकवर्ड थे । और तो और यहाँ तक कि हजारों साल से अछूत रहने की बात अप्रमाणिक सिद्ध हो चुकी है।
अनेक लेखकों के यात्रा वृत्तांत में मोघल काल तक इनके अछूत न होने की बात प्रामाणिक रूप से लिखी मिलती है। जिन कौटिल्य का सन्दर्भ डॉ आंबेडकर ने अपनी बात प्रामाणिक रूप से स्थापित करने की बात संदर्भित की है , उसी कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ये लिखा है कि "जो स्वामी अपने मातहत से मल मूत्र और और जूठन उठवावे इसकी संपत्ति जब्त कर ली जाय।
तो बहुप्रचारित अछूत प्रथा भी धर्म के एक लक्षण #शौच अर्थात sanitation और hygine की अवधारणा की देन है जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण 150 वर्ष पूर्व, #मेहतर समुदाय के सिवा कही नहीं मिलता।
मेहतर भी एक पर्शियन शब्द है जिसका अर्थ राजकुमार होता है - इसके समकक्ष संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में कोई शब्द नही मिलता।
मेहतर टाइटल आज भी ईरान और इराक के लोग गर्व से लगाते हैं , चाहे तो फेसबुक पर खोंज लें।
अब मेरा प्रश्न है कि इन तथ्यों के मद्दे नजर क्या संविधान के समानता के अधिकार को आर्टिकल 14 से 18 पर पुनर्विचार और पुनर्संसोधन नहीं होना चाहिए ?
Affermative Action पर भी पुनर्विचार इन्ही तथ्यों के मद्दे नजर नहीं होना चाहिए क्या ?
न्याय क्या कह्ता है ?
न्यायविदों और संविधान के विशेषज्ञ अपनी राय प्रस्तुत करें।
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डॉ त्रिभुवन सिंह के पोस्ट से संकलित
धन्यवाद
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