लुप्त इतिहास का एक और स्वर्णिम पृष्ठ : - #कवि_सम्राट्_हाल_सातवाहन
लुप्त इतिहास का एक और स्वर्णिम पृष्ठ : -
#कवि_सम्राट्_हाल_सातवाहन
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☆ डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'
सातवाहन वंश के महत्त्वपूर्ण शासकों में कवि सम्राट् हाल की गणना निर्विवाद रूप से होती है। यद्यपि महाराज हाल का शासनकाल बहुत समय का है, तथापि कुछ विषयों पर उनका शासनकाल बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान् थे, तो महाराज हाल सातवाहन शान्तिदूत के रूप में अग्रणगण्य थे। महाराज हाल सातवाहन साहित्यिक अभिरुचि के कारण साहित्य-जगत् में कवि सम्राट् के रूप में प्रख्यात हैं। उनके नाम का उल्लेख पुराण वाड़्मय के साथ साथ 'लीलावती', 'सप्तशती', 'अभिधानचिन्तामणि' प्रभृति ग्रन्थों में हुआ है। कवि सम्राट् हाल सातवाहन ने प्राकृत भाषा में 'गाहा सतसई' ('गाथा सप्तशती') नामक सुविख्यात श्रृंगार-ग्रन्थ का संकलन एवं सम्पादन किया है। 'बृहत्कथा' के लेखक गुणाढ्य भी महाराज हाल सातवाहन के समकालीन थे तथा कदाचित पैशाची भाषा में लिखी इस पुस्तक की रचना उन्होंनेे महाराज हाल सातवाहन के संरक्षण में ही की थी। कालानतर में बुद्धस्वामी की बृहत्कथालयलोक-संग्रह, क्षेमेन्द्र की बृहदकथा-मंजरी तथा सोमदेव की कथासरितसागर नामक तीन ग्रन्थों की उत्पति गुणाढ्य की बृहत्कथा से ही हुई।
महाराज हाल सातवाहन के प्रधान सेनापति विजयानन्द ने अपने स्वामी के आदेशानुसार श्रीलंका पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस विजय अभियान से प्रत्यावर्तित होते समय वह कुछ समय के लिए सप्त गोदावरी भीमम् नामक स्थान पर रूका। वहाँ विजयानन्द ने श्रीलंका के राजा की अति रूपवान पुत्री लीलावती की चर्चा सुनी, जिसका वर्णन उसने अपने महाराज हाल सातवाहन से किया। महाराज हाल सातवाहन ने प्रयास कर लीलावती से विवाह कर लिया। किवदन्ती है कि महाराज हाल ने पूर्वी दक्कन में कुछ सैनिक अभियान भी किये, परन्तु साक्ष्यों के अभाव में अधिकतर विद्वान् इसे ग़लत मानते हैं।
महाकवि बाणभट्ट ने 'हर्षचरित' की उत्थानिका में महाराज हाल सातवाहन कृत 'गाहा सतसई' का 'कोष' या 'सुभाषित कोष' और उसके कर्ता का 'सातवाहन' के नाम से उल्लेख किया है-
अविनाशिनमग्राह्यमकरोत्सातवाहन:।
विशुद्ध जातिभि: कोषं रत्नेखिसुभाषितै:।।
- हर्षचरित 13
इससे अनुमान होता है कि मूलत: यह कृति चुने हुए प्राकृत पद्यों का एक संग्रह था। धीरे धीरे उसमें सात सौ गाथाओं का समावेश हो गया और वहाँ सतसई के नाम से प्रख्यात हुई। तथापि उसके कर्ता का नाम वही बना रहा। आदि की तीसरी गाथा में ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि इस रचना में महाराज हाल सातवान ने एक कोटि गाथाओं में से 700 अलंकारपूर्ण गाथाओं को चुनकर निबद्ध किया। सतसई की रचना का काल अनिश्चित है। हाँ, बाण के उल्लेख से इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि गाथाकोष के रूप में उसका संकलन ईसा की सातवीं शती से पूर्व हो चुका था। सातवाहन का एक नामान्तर शालिवाहन भी है, जो ई. सन् 78 में प्रारम्भ होनेवाले एक संवत् के साथ जुड़ा हुआ पाया जाता है। वायु, विष्णु, भागवत आदि पुराणों में आन्ध्रभृत्य नामक राजाओं की वंशावली पायी जाती है जिसमें सर्वप्रथम नरेश का नाम सातवाहन तथा 17वें राजा का नाम हाल मिलता है। इस राजवंश का प्रभाव पश्चिम भारत में ईसा की प्रथम तीन-चार शतियों तक गुप्तराजवंश से पूर्व था। उनकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (आधुनिक पैठन) थी।
महाराज हाल सातवाहन कुतूहल कविकृत प्राकृत-काव्य 'लीलावई' के नायक हैं। जैन कवि उद्योतनसूरि ने अपनी 'कुवलयमाला कथा' (शक संवत् 700) में सालाहण कवि की प्रशंसा पालित्तय (पादलिप्त) और छप्पण्ण्य नामक कवियों के साथ साथ की है और यह भी कहा है कि 'तरंगवतीकथा' के कर्ता पालित्तय (पादलिप्त) से हाल अपनी काव्यगोष्ठियों में शोभायमान होते थे। इससे 700 शक संवत् से पूर्व महाराज हाल सातवान की ख्याति का पता चलता है।
महाराज हाल सातवाहन कृत 'गाहा सत्तसई' की अनेक टीकाओं में से पीताम्बर और भुवनपालकृत दो टीकाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं। इनमें तीन सौ से ऊपर गाथाओं में कर्ताओं का भी उल्लेख पाया जाता है जिनमें पालित्तक, प्रवरसेन, सर्वसेन, पोट्टिम, कुमारिल आदि कवियों के नाम पाये जाते हैं।
'गाहा सत्तसई' (संस्कृत: गाथासप्तशती) प्राकृत भाषा में गीतिसाहित्य की अनमोल निधि है। इसमें प्रयुक्त छन्द का नाम 'गाथा' छन्द है। इसमें 700 गाथाएँ हैं। इस काव्य में सामान्य लोकजीवन का ही चित्रण है। अत: यह प्रगतिवादी कविता का प्रथम उदाहरण कही जा सकती है।
महाराज हाल सातवाहन भारतीय कथासाहित्य में उसी प्रकार ख्यातिप्राप्त हैं जैसे विक्रमादित्य। वात्स्यायन तथा राजशेखर ने उन्हें कुन्तल का राजा कहा है और सोमदेवकृत कथासरित्सागर के अनुसार वे नरवाहनदत के पुत्र थे तथा उनकी राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठण) थी। पुराणों में आन्ध्रभृत्यों की राजवंशावली में सत्रहवें नरेश के रूप में महाराज हाल सातवाहन निर्दिष्ट किये गये है।
'गाहा सत्तसई' की प्रत्येक गाथा अपने रूप में परिपूर्ण है और किसी मानवीय भावना, व्यवहार या प्राकृतिक दृश्य का अत्यन्त सरसता और सौन्दर्य से चित्रण करती है। इहमें श्रृंगार रस की प्रधानता है, किन्तु हास्य, करुण आदि रसों का भी अभाव नहीं है। प्रकृति-चित्रण में विन्ध्यपर्वत ओर गोला (गोदावरी) नदी का नाम पुन: पुन: आता है। ग्राम, खेत, उपवन, झाड़ी, नदी, कुएँ, तालाब आदि पर पुरुषों और स्त्रियों के विलासपूर्ण व्यवहार एव भावभंगियों का जैसा चित्रण यहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
महाराज हाल सातवाहन ने अपनी ‘गाहा सत्तसई’ में मधूक का अनेक स्थानों पर वर्णन किया है। एक स्थान पर उन्होंने मधु-पुष्प की उपमा ‘जाया’ (जिसने जन्म दे दिया हो, पत्नी किन्तु नववधू नहीं) से देते हुए लिखा है- पथिक जाया के कपोल सदृश मधूक पुष्पों को कभी सूँघ रहा है, कभी छू रहा है, कभी चूम रहा है, तो कभी अपने रोमांचित वक्ष से लगा रहा है-
अग्घाइ, छिवइ, चुम्बइ, ठेवइ हियअम्मि जणिय रोमंचो।
जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअपुफ्फम॥
इस मधूक-पुष्प – महुये के फूल का स्वाद ही वास्तविक मधुर कहे जाने योग्य मीठा होता है, तथा इसका उदास-पीला रंग प्रसविनी जाया के उदास-पीत कपोल के ही रंग की भाँति होता है। मधूक-वृक्षों के मधु-कुञ्ज ‘महुआबारी’ में सबेरे सबेरे अकसर बड़े ही रूमानी क्षण आ जुटा करते हैं, आज से नहीं, सदियों से और कभी कभी तो बहुत ही मोहक – मनरंजक कार-बार हो जाता है। ‘गाहा सत्तसई’ में ही एक वधू मधूक-कुंज से निवेदन करती है - हे गोदावरी तट के मधूक-कुंज! तुम्हारी शाखाएँ तो पुष्प-भार से धरा-पर्यन्त झुक आयी हैं, किन्तु तुम धीरे धीरे ही विगलित-पुष्प होना! (जिससे मुझे अधिक दिनों तक यहाँ मुंह-अँधेरे आने का तथा अपने प्रेमी – जार से मिल सकने का अवसर प्राप्त होता रहे!)-
बहु पुप्फभरो नामिअभूमिग, असाह सुअणु विण्णत्तिम्।
गोला तइ विअइ कुडंग महुअ स्रणिय गलिज्जासु॥
एक अन्य आर्या में एक सरल-मन मूर्ख पति का वर्णन करते हुए महाराज हाल सातवाहन लिखते हैं- एक ईर्ष्यालु पति अपनी वधू को इतनी सुबह महुआ बीनने से इसलिए मना करता है कि कहीं वह वहाँ अपने जार से भेंट न करे, किन्तु उसकी सरलता तो देखो! वह उसे घर में अकेला छोड़ स्वयं महुआ बीनने चला गया-
ईसालुओ पई सेरत्तिम् महुअ ण देइ उच्चे उ।
उच्चेइ अप्पण च्चिअ माए अइ उज्जु असुआहो॥
'गाहा सत्तसई' के सुभाषित अपने लालित्य तथा मधुर कल्पना के लिए समस्त प्राचीन साहित्य में अनुपम माने गये हैं। उनमें पुरुष और नारियों की श्रृंगार-लीलाओं तथा जलाशय आदि पर नर-नारियों के व्यवहारों और सामान्यत: लोकजीवन के सभी पक्षों की अति सुन्दर चित्र दृग्गत होते हैं। महाराज हाल सातवाहन की इस रचना का भारतीय साहित्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है। अलंकारशास्त्रों में तो उसके अवतरण दृष्टान्त रूप से मिलते ही है। इस संग्रह का पश्चात्कालीन साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसी के आदर्श पर जैन कवि जयवल्लभ ने 'वज्जालग्गं' नामक प्राकृत सुभाषितों का संग्रह तैयार किया, जिसकी लगभग 800 गाथाओं में से कोई 80 गाथाएँ इसी कोश से उद्धृत की गयी हैं। संस्कृत में गोवर्धनाचार्य (11वीं-12वीं शती) ने इसी के अनुकरण पर 'आर्यासप्तशती' की रचना की। इसी तरह हिन्दी में 'तुलसी सतसई', 'बिहारी सतसई' आदि रचनाएँ उसी के आदर्श पर हुई है। महाराज हाल सातवाहन की 'गाहा सत्तसई' पर प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व के विद्वान् डॉ. राजेश मिश्र ने प्रामाणिक पुस्तक का प्रणयन किया है। भारतीय संस्कृति के महनीय पुरोधा प्रो. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय की पुस्तक 'महिलाएँ' हाल की 'गाहा सत्तसई' की सांस्कृतिक व्याख्या प्रस्तुत करती है। 'गाहा सत्तसई' का टीका सहित संस्कृत काव्यानुवाद राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है।
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हाल सातवाहन आन्ध्र वंश के राजा थे जिनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इनका मूल स्थान आन्ध्र प्रदेश में श्रीपर्वत या श्रीशैलम था। अतः इनको श्रीपर्वतीय कहते थे। इनके सेनापति गुप्त थे अतः गुप्त वंशी राजाओं को आन्ध्र-भृत्य कहा गया है। हाल ने केवल 5 वर्ष शासन किया था तथा वह शंकराचार्य (509-476 ईपू) का समकालीन था।
शालिवाहन उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (82 ईपू-19 ई) का पौत्र था जिसने 57 ईपू में विक्रम संवत आरम्भ किया। उनके मरने के बाद भारत 18 भागों में बंट गया तथा चीन, तातार, तुरुष्क, खुरासान आदि ने एक साथ भारत पर आक्रमण किया था। सरस्वती कण्ठाभरण में लिखा है कि विक्रमादित्य तक सभी सरकारी काम संस्कृत में होते थे। शालिवाहन (आढ्य राज, शालि = धान, वाहन = ढोना, जमा करना, आढ्य = आढ़त) के समय से सभी 18 भागों में क्षेत्रीय भाषाओं में काम होने लगा। कालिदास के नाटकों में भी सरकारी अधिकारी संस्कृत में तथा सामान्य लोग प्राकृत में बात करते हैं। तिब्बत के इतिहास (तारानाथ) में भी लिखा है कि उस काल में वहाँ के राजा ने भारत पर आक्रमण किया था जिससे पूरा भारत कांपने लगा था। बाद मे हिन्दी चीनी भाई भाई नारे में प्रचार हुआ कि चीन ने कभी आक्रमण नहीं किया था। 60 वर्ष तक अराजकता तथा विदेशियों द्वारा लूटमार होने के बादल शालिवाहन ने उन सभी को पराजित कर सिन्धु के पार खदेड़ा तथा सभी से दण्ड वसूल किया। इस विजय के अवसर पर 78 ईस्वी में शालिवाहन शक आरम्भ किया जिसे अंग्रेजों ने 1292-1272 ईपू के कश्मीर के गोनन्द वंश के राजा कनिष्क से जोड़ कर उसे विदेशी शकों का वर्ष बना दिया है। अल बरूनी ने प्राचीन देशों की काल गणना में लिखा है कि किसी भी शक राजा ने आज तक कोई कैलेण्डर नहीं शुरू किया। यदि वे करते तो उसका प्रचार केवल उत्तर पश्चिमी भारत (पाकिस्तान) में ही होता। पर इसका प्रचार विक्रमादित्य शासित 180 जनपदों में होने के कारण (ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय 20) कम्बोडिया तथा फिलिपीन के सैकड़ों संस्कृत लेखों में उपलब्ध है।
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अरुण उपाध्याय
धन्यवाद
#कवि_सम्राट्_हाल_सातवाहन
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☆ डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'
सातवाहन वंश के महत्त्वपूर्ण शासकों में कवि सम्राट् हाल की गणना निर्विवाद रूप से होती है। यद्यपि महाराज हाल का शासनकाल बहुत समय का है, तथापि कुछ विषयों पर उनका शासनकाल बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान् थे, तो महाराज हाल सातवाहन शान्तिदूत के रूप में अग्रणगण्य थे। महाराज हाल सातवाहन साहित्यिक अभिरुचि के कारण साहित्य-जगत् में कवि सम्राट् के रूप में प्रख्यात हैं। उनके नाम का उल्लेख पुराण वाड़्मय के साथ साथ 'लीलावती', 'सप्तशती', 'अभिधानचिन्तामणि' प्रभृति ग्रन्थों में हुआ है। कवि सम्राट् हाल सातवाहन ने प्राकृत भाषा में 'गाहा सतसई' ('गाथा सप्तशती') नामक सुविख्यात श्रृंगार-ग्रन्थ का संकलन एवं सम्पादन किया है। 'बृहत्कथा' के लेखक गुणाढ्य भी महाराज हाल सातवाहन के समकालीन थे तथा कदाचित पैशाची भाषा में लिखी इस पुस्तक की रचना उन्होंनेे महाराज हाल सातवाहन के संरक्षण में ही की थी। कालानतर में बुद्धस्वामी की बृहत्कथालयलोक-संग्रह, क्षेमेन्द्र की बृहदकथा-मंजरी तथा सोमदेव की कथासरितसागर नामक तीन ग्रन्थों की उत्पति गुणाढ्य की बृहत्कथा से ही हुई।
महाराज हाल सातवाहन के प्रधान सेनापति विजयानन्द ने अपने स्वामी के आदेशानुसार श्रीलंका पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस विजय अभियान से प्रत्यावर्तित होते समय वह कुछ समय के लिए सप्त गोदावरी भीमम् नामक स्थान पर रूका। वहाँ विजयानन्द ने श्रीलंका के राजा की अति रूपवान पुत्री लीलावती की चर्चा सुनी, जिसका वर्णन उसने अपने महाराज हाल सातवाहन से किया। महाराज हाल सातवाहन ने प्रयास कर लीलावती से विवाह कर लिया। किवदन्ती है कि महाराज हाल ने पूर्वी दक्कन में कुछ सैनिक अभियान भी किये, परन्तु साक्ष्यों के अभाव में अधिकतर विद्वान् इसे ग़लत मानते हैं।
महाकवि बाणभट्ट ने 'हर्षचरित' की उत्थानिका में महाराज हाल सातवाहन कृत 'गाहा सतसई' का 'कोष' या 'सुभाषित कोष' और उसके कर्ता का 'सातवाहन' के नाम से उल्लेख किया है-
अविनाशिनमग्राह्यमकरोत्सातवाहन:।
विशुद्ध जातिभि: कोषं रत्नेखिसुभाषितै:।।
- हर्षचरित 13
इससे अनुमान होता है कि मूलत: यह कृति चुने हुए प्राकृत पद्यों का एक संग्रह था। धीरे धीरे उसमें सात सौ गाथाओं का समावेश हो गया और वहाँ सतसई के नाम से प्रख्यात हुई। तथापि उसके कर्ता का नाम वही बना रहा। आदि की तीसरी गाथा में ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि इस रचना में महाराज हाल सातवान ने एक कोटि गाथाओं में से 700 अलंकारपूर्ण गाथाओं को चुनकर निबद्ध किया। सतसई की रचना का काल अनिश्चित है। हाँ, बाण के उल्लेख से इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि गाथाकोष के रूप में उसका संकलन ईसा की सातवीं शती से पूर्व हो चुका था। सातवाहन का एक नामान्तर शालिवाहन भी है, जो ई. सन् 78 में प्रारम्भ होनेवाले एक संवत् के साथ जुड़ा हुआ पाया जाता है। वायु, विष्णु, भागवत आदि पुराणों में आन्ध्रभृत्य नामक राजाओं की वंशावली पायी जाती है जिसमें सर्वप्रथम नरेश का नाम सातवाहन तथा 17वें राजा का नाम हाल मिलता है। इस राजवंश का प्रभाव पश्चिम भारत में ईसा की प्रथम तीन-चार शतियों तक गुप्तराजवंश से पूर्व था। उनकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (आधुनिक पैठन) थी।
महाराज हाल सातवाहन कुतूहल कविकृत प्राकृत-काव्य 'लीलावई' के नायक हैं। जैन कवि उद्योतनसूरि ने अपनी 'कुवलयमाला कथा' (शक संवत् 700) में सालाहण कवि की प्रशंसा पालित्तय (पादलिप्त) और छप्पण्ण्य नामक कवियों के साथ साथ की है और यह भी कहा है कि 'तरंगवतीकथा' के कर्ता पालित्तय (पादलिप्त) से हाल अपनी काव्यगोष्ठियों में शोभायमान होते थे। इससे 700 शक संवत् से पूर्व महाराज हाल सातवान की ख्याति का पता चलता है।
महाराज हाल सातवाहन कृत 'गाहा सत्तसई' की अनेक टीकाओं में से पीताम्बर और भुवनपालकृत दो टीकाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं। इनमें तीन सौ से ऊपर गाथाओं में कर्ताओं का भी उल्लेख पाया जाता है जिनमें पालित्तक, प्रवरसेन, सर्वसेन, पोट्टिम, कुमारिल आदि कवियों के नाम पाये जाते हैं।
'गाहा सत्तसई' (संस्कृत: गाथासप्तशती) प्राकृत भाषा में गीतिसाहित्य की अनमोल निधि है। इसमें प्रयुक्त छन्द का नाम 'गाथा' छन्द है। इसमें 700 गाथाएँ हैं। इस काव्य में सामान्य लोकजीवन का ही चित्रण है। अत: यह प्रगतिवादी कविता का प्रथम उदाहरण कही जा सकती है।
महाराज हाल सातवाहन भारतीय कथासाहित्य में उसी प्रकार ख्यातिप्राप्त हैं जैसे विक्रमादित्य। वात्स्यायन तथा राजशेखर ने उन्हें कुन्तल का राजा कहा है और सोमदेवकृत कथासरित्सागर के अनुसार वे नरवाहनदत के पुत्र थे तथा उनकी राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठण) थी। पुराणों में आन्ध्रभृत्यों की राजवंशावली में सत्रहवें नरेश के रूप में महाराज हाल सातवाहन निर्दिष्ट किये गये है।
'गाहा सत्तसई' की प्रत्येक गाथा अपने रूप में परिपूर्ण है और किसी मानवीय भावना, व्यवहार या प्राकृतिक दृश्य का अत्यन्त सरसता और सौन्दर्य से चित्रण करती है। इहमें श्रृंगार रस की प्रधानता है, किन्तु हास्य, करुण आदि रसों का भी अभाव नहीं है। प्रकृति-चित्रण में विन्ध्यपर्वत ओर गोला (गोदावरी) नदी का नाम पुन: पुन: आता है। ग्राम, खेत, उपवन, झाड़ी, नदी, कुएँ, तालाब आदि पर पुरुषों और स्त्रियों के विलासपूर्ण व्यवहार एव भावभंगियों का जैसा चित्रण यहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
महाराज हाल सातवाहन ने अपनी ‘गाहा सत्तसई’ में मधूक का अनेक स्थानों पर वर्णन किया है। एक स्थान पर उन्होंने मधु-पुष्प की उपमा ‘जाया’ (जिसने जन्म दे दिया हो, पत्नी किन्तु नववधू नहीं) से देते हुए लिखा है- पथिक जाया के कपोल सदृश मधूक पुष्पों को कभी सूँघ रहा है, कभी छू रहा है, कभी चूम रहा है, तो कभी अपने रोमांचित वक्ष से लगा रहा है-
अग्घाइ, छिवइ, चुम्बइ, ठेवइ हियअम्मि जणिय रोमंचो।
जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअपुफ्फम॥
इस मधूक-पुष्प – महुये के फूल का स्वाद ही वास्तविक मधुर कहे जाने योग्य मीठा होता है, तथा इसका उदास-पीला रंग प्रसविनी जाया के उदास-पीत कपोल के ही रंग की भाँति होता है। मधूक-वृक्षों के मधु-कुञ्ज ‘महुआबारी’ में सबेरे सबेरे अकसर बड़े ही रूमानी क्षण आ जुटा करते हैं, आज से नहीं, सदियों से और कभी कभी तो बहुत ही मोहक – मनरंजक कार-बार हो जाता है। ‘गाहा सत्तसई’ में ही एक वधू मधूक-कुंज से निवेदन करती है - हे गोदावरी तट के मधूक-कुंज! तुम्हारी शाखाएँ तो पुष्प-भार से धरा-पर्यन्त झुक आयी हैं, किन्तु तुम धीरे धीरे ही विगलित-पुष्प होना! (जिससे मुझे अधिक दिनों तक यहाँ मुंह-अँधेरे आने का तथा अपने प्रेमी – जार से मिल सकने का अवसर प्राप्त होता रहे!)-
बहु पुप्फभरो नामिअभूमिग, असाह सुअणु विण्णत्तिम्।
गोला तइ विअइ कुडंग महुअ स्रणिय गलिज्जासु॥
एक अन्य आर्या में एक सरल-मन मूर्ख पति का वर्णन करते हुए महाराज हाल सातवाहन लिखते हैं- एक ईर्ष्यालु पति अपनी वधू को इतनी सुबह महुआ बीनने से इसलिए मना करता है कि कहीं वह वहाँ अपने जार से भेंट न करे, किन्तु उसकी सरलता तो देखो! वह उसे घर में अकेला छोड़ स्वयं महुआ बीनने चला गया-
ईसालुओ पई सेरत्तिम् महुअ ण देइ उच्चे उ।
उच्चेइ अप्पण च्चिअ माए अइ उज्जु असुआहो॥
'गाहा सत्तसई' के सुभाषित अपने लालित्य तथा मधुर कल्पना के लिए समस्त प्राचीन साहित्य में अनुपम माने गये हैं। उनमें पुरुष और नारियों की श्रृंगार-लीलाओं तथा जलाशय आदि पर नर-नारियों के व्यवहारों और सामान्यत: लोकजीवन के सभी पक्षों की अति सुन्दर चित्र दृग्गत होते हैं। महाराज हाल सातवाहन की इस रचना का भारतीय साहित्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है। अलंकारशास्त्रों में तो उसके अवतरण दृष्टान्त रूप से मिलते ही है। इस संग्रह का पश्चात्कालीन साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसी के आदर्श पर जैन कवि जयवल्लभ ने 'वज्जालग्गं' नामक प्राकृत सुभाषितों का संग्रह तैयार किया, जिसकी लगभग 800 गाथाओं में से कोई 80 गाथाएँ इसी कोश से उद्धृत की गयी हैं। संस्कृत में गोवर्धनाचार्य (11वीं-12वीं शती) ने इसी के अनुकरण पर 'आर्यासप्तशती' की रचना की। इसी तरह हिन्दी में 'तुलसी सतसई', 'बिहारी सतसई' आदि रचनाएँ उसी के आदर्श पर हुई है। महाराज हाल सातवाहन की 'गाहा सत्तसई' पर प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व के विद्वान् डॉ. राजेश मिश्र ने प्रामाणिक पुस्तक का प्रणयन किया है। भारतीय संस्कृति के महनीय पुरोधा प्रो. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय की पुस्तक 'महिलाएँ' हाल की 'गाहा सत्तसई' की सांस्कृतिक व्याख्या प्रस्तुत करती है। 'गाहा सत्तसई' का टीका सहित संस्कृत काव्यानुवाद राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है।
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हाल सातवाहन आन्ध्र वंश के राजा थे जिनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इनका मूल स्थान आन्ध्र प्रदेश में श्रीपर्वत या श्रीशैलम था। अतः इनको श्रीपर्वतीय कहते थे। इनके सेनापति गुप्त थे अतः गुप्त वंशी राजाओं को आन्ध्र-भृत्य कहा गया है। हाल ने केवल 5 वर्ष शासन किया था तथा वह शंकराचार्य (509-476 ईपू) का समकालीन था।
शालिवाहन उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य (82 ईपू-19 ई) का पौत्र था जिसने 57 ईपू में विक्रम संवत आरम्भ किया। उनके मरने के बाद भारत 18 भागों में बंट गया तथा चीन, तातार, तुरुष्क, खुरासान आदि ने एक साथ भारत पर आक्रमण किया था। सरस्वती कण्ठाभरण में लिखा है कि विक्रमादित्य तक सभी सरकारी काम संस्कृत में होते थे। शालिवाहन (आढ्य राज, शालि = धान, वाहन = ढोना, जमा करना, आढ्य = आढ़त) के समय से सभी 18 भागों में क्षेत्रीय भाषाओं में काम होने लगा। कालिदास के नाटकों में भी सरकारी अधिकारी संस्कृत में तथा सामान्य लोग प्राकृत में बात करते हैं। तिब्बत के इतिहास (तारानाथ) में भी लिखा है कि उस काल में वहाँ के राजा ने भारत पर आक्रमण किया था जिससे पूरा भारत कांपने लगा था। बाद मे हिन्दी चीनी भाई भाई नारे में प्रचार हुआ कि चीन ने कभी आक्रमण नहीं किया था। 60 वर्ष तक अराजकता तथा विदेशियों द्वारा लूटमार होने के बादल शालिवाहन ने उन सभी को पराजित कर सिन्धु के पार खदेड़ा तथा सभी से दण्ड वसूल किया। इस विजय के अवसर पर 78 ईस्वी में शालिवाहन शक आरम्भ किया जिसे अंग्रेजों ने 1292-1272 ईपू के कश्मीर के गोनन्द वंश के राजा कनिष्क से जोड़ कर उसे विदेशी शकों का वर्ष बना दिया है। अल बरूनी ने प्राचीन देशों की काल गणना में लिखा है कि किसी भी शक राजा ने आज तक कोई कैलेण्डर नहीं शुरू किया। यदि वे करते तो उसका प्रचार केवल उत्तर पश्चिमी भारत (पाकिस्तान) में ही होता। पर इसका प्रचार विक्रमादित्य शासित 180 जनपदों में होने के कारण (ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय 20) कम्बोडिया तथा फिलिपीन के सैकड़ों संस्कृत लेखों में उपलब्ध है।
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अरुण उपाध्याय
धन्यवाद
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