हम अपनी भाषा और क्षेत्र बिलकुल नहीं देखते हैं। केवल यही देखते और समझते हैं कि अंग्रेजों ने क्या लिखा है।
भारत में अभ्यास हो गया है कि हम अपनी भाषा और क्षेत्र बिलकुल नहीं देखते हैं। केवल यही देखते और समझते हैं कि अंग्रेजों ने क्या लिखा है। अपनी तरह भारतीयों को भी विदेशी सिद्ध करने के लिये सिन्ध में खुदाई कर उसके मनमाने अर्थ निकाले। आज तक नयी नयी कल्पनायें हो रही हैं। केवल महाराष्ट्र नाम और उसके विशेष शब्दों अजिंक्या, विट्ठल आदि पर ध्यान दिया जाय तो भारत का पूरा इतिहास स्पष्ट हो जायगा। इन शब्दों का मूल समझा जा सकता है पर यह क्यॊं महाराष्ट्र में ही हैं यह पता लगाना बहुत कठिन है। जो कुछ हमारे ग्रन्थों में लिखा है, उसका ठीक उलटा हम पढ़ते हैं। इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा है, उसके बारे में अब कहते हैं कि यह आर्यों का मुख्य देवता था जो पश्चिम से (अंग्रेजों की तरह) आये थे। कहानी बनायी है कि पश्चिम उत्तर से आकर आर्यों ने वेद को दक्षिण भारत पर थोप दिया। पर पिछले ५००० वर्षों से भागवत माहात्म्य में पढ़ते आ रहे हैं कि ज्ञान विज्ञान का जन्म दक्षिण से हुआ और उसका उत्तर में प्रसार हुआ।
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यह समझने पर भारत और वैदिक परम्परा के विषय में समझा जा सकता है। सृष्टि का मूल रूप अव्यक्त रस था। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) में इसका रूप अप् (जल जैसा) हुआ। तरंग-युक्त अप् सलिल या सरिर (शरीर, पिण्ड रूप) है। निर्माण-रत अप् को अम्भ कहते हैं, इसके साथ चेतन तत्त्व शिव मिलने से साम्ब (स + अम्भ)-सदाशिव है। भारत में दक्षिण समुद्र तट से ज्ञान का आरम्भ हुआ। द्रव से उत्पन्न होने के कारण यह द्रविड़ हुआ। सृष्टि का आरम्भ आकाश से हुआ, पर भाषा का आरम्भ पृथ्वी से हुआ। कर्म और गुण के अनुसार ब्रह्मा ने नाम दिये थे, इन अर्थों का आकाश (आधिदैविक) और शरीर के भीतर (अध्यात्म) में विस्तार करने से वेद का विस्तार हुआ। आगम की २ धारा हैं। प्रकृति (निसर्ग) से निकला ज्ञान वेद निगम है। उसका प्रयोग गुरु से सीखना पड़ता है, वह आगम है। अतः निगम वेद श्रुति कहा है। श्रुति का अर्थ है शब्द आदि ५ माध्यमों से प्रकृति के विषय में ज्ञान। इसका ग्रहण कर्ण से होता है, अतः जहां भौतिक अर्थों का आकाश और अध्यात्म में विस्तार हुआ वह क्षेत्र कर्णाटक है। ब्रह्म की व्याख्या के लिये जो लिपि बनी वह ब्राह्मी लिपि है। इसमें ६३ या ६४ अक्षर होते हैं क्योंकि दृश्य जगत् (तपः लोक) का विस्तार पृथ्वी व्यास को ६३.५ बार २ गुणा करने से मिलता है (आधुनिक अनुमान ८ से १८ अरब प्रकाश वर्ष)। इस दूरी ८.६४ अरब प्रकाश वर्ष को ब्रह्मा का दिन-रात कहा है। ध्वनि के आधार पर इन्द्र और मरुत् ने इसका वर्गीकरण किया वह देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के ३३ वर्ण ३३ देवों का चिह्न रूप में नगर (चिति = city) है। १६ स्वरों को मिलाने पर ४९ मरुत् हैं। ध्वनि रूप में लिपि का प्रचार का दायित्व जिस पर दिया गया उसे ऋग्वेद (१०/७१) में गणपति कहा है। इस रूप में वेद का जहां तक प्रभाव फैला वह महाराष्ट्र है। महर् = प्रभाव क्षेत्र। उसके बाद गुजरात तक वेद का प्रचार हुआ। कालक्रम में लुप्त हो गया था। भगवान् कृष्ण का अवतार होने पर पुनः उत्तर भारत से प्रचार हुआ। वर्तमान रूप कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा निर्धारित है।
महर् = प्रभाव क्षेत्र दीखता नहीं है। पृथ्वी दीखती है पर इसका गुरुत्व क्षेत्र नहीं दीखता है। अतः महः को अचिन्त्य कहा है। महाराष्ट्र में अचिन्त्य = अजिंक्या नाम प्रचलित है। उसका केवल भाव हो सकता है, अतः भाऊ सम्मान सूचक सम्बोधन है।
पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण को अप्-पति कहा है अतः पश्चिमी भाग महाराष्ट्र में अप्पा साहब सम्मान सूचक शब्द है। विट् = विश् या समाज का संगठन जहां होता है वह विट्-स्थल = विट्ठल है। विश् का पालन कर्त्ता वैश्य है।
अष्ट वर्षे चतुर्वेदी, द्वादशे सर्व शास्त्रवित्।
षोडशे कृतवान् भाष्यं, द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्।।
इससे लगता है कि केवल शंकराचार्य ही अवतारी पुरुष थे जो 8 वर्ष में 4 वेद और 12 वर्ष में सभी शास्त्र पढ सकते थे। पर 200 वर्षों के अंग्रेजी प्रभाव के बाद लगता है कि बिना पढा व्यक्ति भी सरकारी विद्वानों से अधिक योग्य हो सकता है। ऐसी एक उक्ति भी प्रचलित है- अनपढ जाट पढे के बराबर, पढा लिखा खुदा के बराबर। अनपढ औरतें सभी चिह्नों की पूजा एक ही ब्रह्म मानकर करती हैं पर सरकारी विद्वान वेद में बहुदेववाद अंर उसके अंग उपनिषद में एकेश्वरवाद मानते हैं। बाल्यकाल में उपनयन के समय वेदारम्भ संस्कार होता है जिसमें गायत्री मंत्र पढाते है। 7 वर्ष की अवस्था में यह पढने पर पूछा कि 7 लोकों की माप कहाँ है? उसके लिए भागवत पुराण पढ कर गणना की। केवल कर्मकांड के मन्त्रों से आकाश गंगा के आकार की गणना की। पर पूरा शास्त्र पढे लोग इनको अशिक्षित चरवाहों के गीत मानकर स्वयं अशिक्षित बने रहने में गर्व करते हैं। 8 वर्ष की आयु में जब इतिहास की पहली पुस्तक पढी तो देखा कि केवल ग्रीक लेखकों ने भारत का इतिहास लिखना शुरू किया। मेगास्थनीज की पुस्तक में देखा कि पलिबोथ्रि यमुना के किनारे है और वहां स्तम्भ है। उसे गंगा तट पर स्थित पटना मान लिया। सम्मान स्तर की पूरी पुस्तक में कहीं भी शक या सम्वत्सर शब्द नहीं मिला। पूछा कि मेगास्थनीज को कैसे पता चला कि सिकन्दर आक्रमण के 326 वर्ष बाद इसवी सन शुरू होगा। अभी तक सरकारी इतिहासकार पंचांग देखना पाप मानते हैं जिसे भारत के हर गाँव में 10-15 व्यक्ति जानते हैं।
-------
अरुण उपाध्याय ✍🏻
आदि शङ्कराचार्य जी ने चार पीठ स्थापित किये ।
1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ ...
स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2641-2645
2. पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ - यु.सं. 2648
3.दक्षिण शृङ्गेरी पीठ - 2648 Y.S.
4. पूर्व दिशा जगन्नाथ पुरी गोवर्द्धन पीठ 2655 Y.S.
आदि शंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे ।
शारदा पीठ में लिखा है -
"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाख शुक्लापञ्चम्यां श्रीमच्ठछङ्करावतार: |
……तदनु 2663 कार्तिक शुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति ।
अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं. 2663 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ |
[युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था ]
जैनराजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिका पीठ के एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है --
'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्रमरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्यपरिप्राप्तभारतवर्षस्याञ्जलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15 |
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था । उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिका शारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम -मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं । इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है ।
सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमञ्जरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा" में कुछ श्लोक हैं ।
उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-
तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे,
ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि |
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ।।
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5, नेत्र=2 ,
अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियम से अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलि संवत् बना |
[कलि संवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ]
तदनुसार 3102-2593= 509 BC में शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।
कुमारिलभट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -
ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात् ।
एकीकृत्य लभेताङ्क: क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर: ।।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन: ।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके ।।
जैनलोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलि संवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं ।
श्लोकार्थ- ऋषि=7, वार=7, पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2,
7702 "अंकानांवामतोगति"
2077 युधिष्ठिर संवत् आया
अर्थात् 557 B.C.
कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्म वर्ष सिद्ध होता है ।
"जिनविजय" में शंकराचार्य जी के देहावसान के विषय में लिखा है --
ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात् |
एकत्वेन लभेताङ्कस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ||
2157 यु. सं. (जैन)
476 B.C. में आचार्यशंकर दिवंगत हुए !
बृहत्शङ्करविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--
षड्विंशके शतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे ।।
………………………………|
प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम् ।।
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 मे अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गया है ।
वर्तमान इतिहासज्ञ जिन शंकराचार्य को 788 - 820 A.D. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठ के 38वें आचार्य श्री अभिनव शंकर जी थे |
वे 787 से 840 ईसवी सन् तक विद्यमान थे |
वे चिदम्बरमवासी श्री विश्वजी के पुत्र थे । इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे।
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यह समझने पर भारत और वैदिक परम्परा के विषय में समझा जा सकता है। सृष्टि का मूल रूप अव्यक्त रस था। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) में इसका रूप अप् (जल जैसा) हुआ। तरंग-युक्त अप् सलिल या सरिर (शरीर, पिण्ड रूप) है। निर्माण-रत अप् को अम्भ कहते हैं, इसके साथ चेतन तत्त्व शिव मिलने से साम्ब (स + अम्भ)-सदाशिव है। भारत में दक्षिण समुद्र तट से ज्ञान का आरम्भ हुआ। द्रव से उत्पन्न होने के कारण यह द्रविड़ हुआ। सृष्टि का आरम्भ आकाश से हुआ, पर भाषा का आरम्भ पृथ्वी से हुआ। कर्म और गुण के अनुसार ब्रह्मा ने नाम दिये थे, इन अर्थों का आकाश (आधिदैविक) और शरीर के भीतर (अध्यात्म) में विस्तार करने से वेद का विस्तार हुआ। आगम की २ धारा हैं। प्रकृति (निसर्ग) से निकला ज्ञान वेद निगम है। उसका प्रयोग गुरु से सीखना पड़ता है, वह आगम है। अतः निगम वेद श्रुति कहा है। श्रुति का अर्थ है शब्द आदि ५ माध्यमों से प्रकृति के विषय में ज्ञान। इसका ग्रहण कर्ण से होता है, अतः जहां भौतिक अर्थों का आकाश और अध्यात्म में विस्तार हुआ वह क्षेत्र कर्णाटक है। ब्रह्म की व्याख्या के लिये जो लिपि बनी वह ब्राह्मी लिपि है। इसमें ६३ या ६४ अक्षर होते हैं क्योंकि दृश्य जगत् (तपः लोक) का विस्तार पृथ्वी व्यास को ६३.५ बार २ गुणा करने से मिलता है (आधुनिक अनुमान ८ से १८ अरब प्रकाश वर्ष)। इस दूरी ८.६४ अरब प्रकाश वर्ष को ब्रह्मा का दिन-रात कहा है। ध्वनि के आधार पर इन्द्र और मरुत् ने इसका वर्गीकरण किया वह देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के ३३ वर्ण ३३ देवों का चिह्न रूप में नगर (चिति = city) है। १६ स्वरों को मिलाने पर ४९ मरुत् हैं। ध्वनि रूप में लिपि का प्रचार का दायित्व जिस पर दिया गया उसे ऋग्वेद (१०/७१) में गणपति कहा है। इस रूप में वेद का जहां तक प्रभाव फैला वह महाराष्ट्र है। महर् = प्रभाव क्षेत्र। उसके बाद गुजरात तक वेद का प्रचार हुआ। कालक्रम में लुप्त हो गया था। भगवान् कृष्ण का अवतार होने पर पुनः उत्तर भारत से प्रचार हुआ। वर्तमान रूप कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा निर्धारित है।
महर् = प्रभाव क्षेत्र दीखता नहीं है। पृथ्वी दीखती है पर इसका गुरुत्व क्षेत्र नहीं दीखता है। अतः महः को अचिन्त्य कहा है। महाराष्ट्र में अचिन्त्य = अजिंक्या नाम प्रचलित है। उसका केवल भाव हो सकता है, अतः भाऊ सम्मान सूचक सम्बोधन है।
पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण को अप्-पति कहा है अतः पश्चिमी भाग महाराष्ट्र में अप्पा साहब सम्मान सूचक शब्द है। विट् = विश् या समाज का संगठन जहां होता है वह विट्-स्थल = विट्ठल है। विश् का पालन कर्त्ता वैश्य है।
अष्ट वर्षे चतुर्वेदी, द्वादशे सर्व शास्त्रवित्।
षोडशे कृतवान् भाष्यं, द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात्।।
इससे लगता है कि केवल शंकराचार्य ही अवतारी पुरुष थे जो 8 वर्ष में 4 वेद और 12 वर्ष में सभी शास्त्र पढ सकते थे। पर 200 वर्षों के अंग्रेजी प्रभाव के बाद लगता है कि बिना पढा व्यक्ति भी सरकारी विद्वानों से अधिक योग्य हो सकता है। ऐसी एक उक्ति भी प्रचलित है- अनपढ जाट पढे के बराबर, पढा लिखा खुदा के बराबर। अनपढ औरतें सभी चिह्नों की पूजा एक ही ब्रह्म मानकर करती हैं पर सरकारी विद्वान वेद में बहुदेववाद अंर उसके अंग उपनिषद में एकेश्वरवाद मानते हैं। बाल्यकाल में उपनयन के समय वेदारम्भ संस्कार होता है जिसमें गायत्री मंत्र पढाते है। 7 वर्ष की अवस्था में यह पढने पर पूछा कि 7 लोकों की माप कहाँ है? उसके लिए भागवत पुराण पढ कर गणना की। केवल कर्मकांड के मन्त्रों से आकाश गंगा के आकार की गणना की। पर पूरा शास्त्र पढे लोग इनको अशिक्षित चरवाहों के गीत मानकर स्वयं अशिक्षित बने रहने में गर्व करते हैं। 8 वर्ष की आयु में जब इतिहास की पहली पुस्तक पढी तो देखा कि केवल ग्रीक लेखकों ने भारत का इतिहास लिखना शुरू किया। मेगास्थनीज की पुस्तक में देखा कि पलिबोथ्रि यमुना के किनारे है और वहां स्तम्भ है। उसे गंगा तट पर स्थित पटना मान लिया। सम्मान स्तर की पूरी पुस्तक में कहीं भी शक या सम्वत्सर शब्द नहीं मिला। पूछा कि मेगास्थनीज को कैसे पता चला कि सिकन्दर आक्रमण के 326 वर्ष बाद इसवी सन शुरू होगा। अभी तक सरकारी इतिहासकार पंचांग देखना पाप मानते हैं जिसे भारत के हर गाँव में 10-15 व्यक्ति जानते हैं।
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अरुण उपाध्याय ✍🏻
आदि शङ्कराचार्य जी ने चार पीठ स्थापित किये ।
1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ ...
स्थापना- युधिष्ठिर संवत् 2641-2645
2. पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ - यु.सं. 2648
3.दक्षिण शृङ्गेरी पीठ - 2648 Y.S.
4. पूर्व दिशा जगन्नाथ पुरी गोवर्द्धन पीठ 2655 Y.S.
आदि शंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे ।
शारदा पीठ में लिखा है -
"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाख शुक्लापञ्चम्यां श्रीमच्ठछङ्करावतार: |
……तदनु 2663 कार्तिक शुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति ।
अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं. 2663 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ |
[युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था ]
जैनराजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिका पीठ के एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है --
'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्रमरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्यपरिप्राप्तभारतवर्षस्याञ्जलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15 |
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था । उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिका शारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम -मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं । इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है ।
सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमञ्जरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा" में कुछ श्लोक हैं ।
उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-
तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे,
ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि |
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ।।
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5, नेत्र=2 ,
अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियम से अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलि संवत् बना |
[कलि संवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ]
तदनुसार 3102-2593= 509 BC में शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।
कुमारिलभट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -
ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात् ।
एकीकृत्य लभेताङ्क: क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर: ।।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन: ।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके ।।
जैनलोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलि संवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं ।
श्लोकार्थ- ऋषि=7, वार=7, पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2,
7702 "अंकानांवामतोगति"
2077 युधिष्ठिर संवत् आया
अर्थात् 557 B.C.
कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्म वर्ष सिद्ध होता है ।
"जिनविजय" में शंकराचार्य जी के देहावसान के विषय में लिखा है --
ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात् |
एकत्वेन लभेताङ्कस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ||
2157 यु. सं. (जैन)
476 B.C. में आचार्यशंकर दिवंगत हुए !
बृहत्शङ्करविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--
षड्विंशके शतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे ।।
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प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम् ।।
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 मे अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गया है ।
वर्तमान इतिहासज्ञ जिन शंकराचार्य को 788 - 820 A.D. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठ के 38वें आचार्य श्री अभिनव शंकर जी थे |
वे 787 से 840 ईसवी सन् तक विद्यमान थे |
वे चिदम्बरमवासी श्री विश्वजी के पुत्र थे । इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे।
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