भारतीय इतिहास का विकृतिकरण 8
भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
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भारत के प्राचीन विद्वानों को कालगणना-ज्ञान से अनभिज्ञमानकर पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास की प्राचीन तिथियों का निर्धारण करते समय यह बात बार-बार दुहराई है कि प्राचीन काल में भारतीय विद्वानों के पास तिथिक्रम निर्धारित करने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। कई पाश्चात्य विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्राचीन काल में भारतीयों का इतिहास-ज्ञान ही ‘शून्य‘ था। उन्हें तिथिक्रम का व्यवस्थित हिसाब रखना आता ही नहीं था। इसीलिए उन्हें सिकन्दर के भारत पर आक्रमण से पूर्व की विभिन्न घटनाओं के लिए भारतीय स्रोतों के आधार पर बनने वाली तिथियों को नकारना पड़ा किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है। कारण ऐसा तो उन्होंने जानबूझकर किया था क्योंकि, उन्हें अपनी काल्पनिक काल-गणना को मान्यता जो दिलानी थी।
यदि भारत के प्राचीन विद्वान इतिहास-ज्ञान से शून्य होते तो प्राचीन काल से सम्बंधित जो ताम्रपत्र या शिलालेख आज मिलते हैं, वे तैयार ही नहीं कराए जाते। ऐसे अभिलेखों की उपस्थिति में भारत के प्राचीन विद्वानों पर पाश्चात्य विद्वानों का कालगणना-ज्ञानया तिथिक्रम की गणना से अनभिज्ञ होने के कारण उसका व्यवस्थित हिसाब न रख पाने का दोषारोपण बड़ा ही हास्यस्पद लगता है। विशेषकर इसलिए भी कि भारत में तो कालमान का एक शास्त्र ही पृथक सेहैं, जिसमें एक सैकिंड के 30375वें भाग से कालगणना की व्यवस्था है। नक्षत्रों की गतियों के आधार पर निर्धारित भारतीय कालमान में परिवर्तन और अन्तर की बहुत ही कम संभावना रहती है। विभिन्न प्राचीनग्रन्थों यथा- अथर्ववेद, विभिन्न पुराण, श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि में काल-विभाजन और उसके गणनाक्रम पर बड़े विस्तार से विचार प्रकट किए गए हैं। कुछ के उदाहरण इस प्रकार हैं -
श्रीमद्भागवत- इसके 3.11.3 से 3.11.14 तक के श्लोकों में कालगणना पर विचार किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय कालगणना में सबसे छोटी इकाई ‘परमाणु‘ है। सूर्य की रश्मि परमाणु के भेदन में जितना समय लेती है, उसका नाम परमाणु है। परमाणु काल से आगे का काल-विभाजन इस प्रकार है - 2 परमाणु = 1 अणु, 3 अणु = 1 त्रसरेणु, 3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि, 100 त्रुटि = 1 वेध, 3 वेध = 1 लव, 3 लव = 1 निमेष, 3 निमेष = 1 क्षण (एक क्षणमें 1.6 सेकेंड अथवा 48600 परमाणु होते हैं), 5 क्षण = 1 काष्ठा, 15 काष्ठा = 1 लघु, 15 लघु = 1 नाड़िका (दण्ड), 2 नाड़िका = 1 मुहूर्त, 3 मुहूर्त = 1 प्रहर, 8 प्रहर = दिन-रात
इसी प्रकार से दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि का ज्ञान भी उस समय पूरी तरह से था।
महाभारत- इसके वन पर्व के 188वें अध्याय के 67वें श्लोक में सृष्टि-निर्माण, सृष्टि-प्रलय, युगों की वर्ष संख्या अर्थात कालगणना के संदर्भ में विचार किया गया है। इसमें लिखा है कि एक कल्प या एक हजार चतुर्युगी की समाप्ति पर आने वाले कलियुग के अन्त में सात सूर्य एक साथ उदित हो जाते हैं और तब ऊष्मा इतनी बढ़ जाती है कि पृथ्वी का सब जल सूख जाता है, आदि-आदि।
विभिन्न पुराण- पौराणिक कालगणना काल की भाँति अनन्त है। यह बहुत ही व्यापक है। इसके अनुसार कालगणना को दिन, रात, मास, वर्ष, युग, चतुर्युग, मन्वन्तर, कल्प, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की आयु आदि में विभाजित किया गया है। यही नहीं, इसमें मानव के दिन, मास आदि देवताओं के दिन, मास आदि तथा ब्रह्मा के दिन, मास आदि से भिन्न बताए गए हैं। एक कल्प में एक हजार चतुर्युगी होती हैं। एक हजार चतुर्युगियों में 14 मन्वन्तर, यथा- (1) स्वायंभुव, (2) स्वारोचिष, (3) उत्तम (4) तामस (5) रैवत (6) चाक्षुष (7) वैवस्वत (8) सार्वणिक (9) दक्षसावर्णिक (10) ब्रह्मसावर्णिक (11) धर्मसावर्णिक (12) रुद्रसावर्णिक (13) देवसावर्णिक (14) इन्द्रसावर्णिक होते हैं। हर मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। एक चतुर्युगी (सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) में 12 हजार दिव्य या देव वर्ष होते हैं। दिव्य वर्षों के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत के 3.11.18 में ‘दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः‘, मनुस्मृति के 1.71में ‘एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगम्‘, सूर्य सिद्धान्त के 1.13 में ‘मनुष्यों का वर्ष देवताओं का दिन-रात होता है‘ उल्लेखनीय हैं। कई भारतीय विद्वान भी दिव्य या देव वर्ष की गणना को उचित नहीं ठहराते। वे युगों के वर्षों की गणना को सामान्य वर्ष गणना के रूप में लेते हैं किन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि ऐसा होता तो आज कलि सम्वत 5109 कैसे हो सकता था ? क्योंकि कलि की आयु तो 1200 वर्ष की ही बताई गईहै। निश्चित ही यह (1200) दिव्य या देव वर्ष हैं।
उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त सूर्य सिद्धान्त, मुहूर्त चिन्तामणि, शतपथ ब्राह्मण आदि में भी कालगणना पर विस्तार में विचार किया गया है। यही नहीं, पाराशर संहिता, कश्यप संहिता, भृगु संहिता, मय संहिता, पालकाप्य महापाठ, वायुपुराण, दिव्यावदान, समरांगण सूत्रधार, अर्थशास्त्र, (कौटिल्य), सुश्रुत और विष्णु धर्मोत्तरपुराण भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थों में कालगणना के संदर्भ में चर्चा की गई है।
वस्तुतः भारत की कालगणना का विभाजन अत्यन्त प्राचीन काल में ही चालू हो चुका था। हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ईंटों पर चित्रित चिन्हों के आधार पर रूस के विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि हड़प्पा सभ्यता के समय में भारतीय पंचांग-पद्धति पूर्ण विकसित रूप में थी।
जिस देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही कालगणना-ज्ञान के सम्बन्ध में इतने अधिक विस्तार में जाकर विचार किया जाता रहा हो, वहाँ के विद्वानों के लिए यह कह देना कि वे कालगणना-ज्ञान से अपरिचित रहे, से अधिक हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है ? पं. भगवद्दत्त का स्पष्ट रूप में मानना है कि भारत की युगगणना को सही रूप में न समझ सकने के कारण ही यूरोपीय विद्वानों द्वारा अनेक भूलें हुई हैं। (‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास‘, भाग 1, पृ.209) फलतः इतिहास में तिथियों के संदर्भ में अनेक विसंगतियाँ आ गई हैं।
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रघुनन्दन प्रसाद शर्मा✍🏻
कल कुछ और बातें.........
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भारत के प्राचीन विद्वानों को कालगणना-ज्ञान से अनभिज्ञमानकर पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास की प्राचीन तिथियों का निर्धारण करते समय यह बात बार-बार दुहराई है कि प्राचीन काल में भारतीय विद्वानों के पास तिथिक्रम निर्धारित करने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। कई पाश्चात्य विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्राचीन काल में भारतीयों का इतिहास-ज्ञान ही ‘शून्य‘ था। उन्हें तिथिक्रम का व्यवस्थित हिसाब रखना आता ही नहीं था। इसीलिए उन्हें सिकन्दर के भारत पर आक्रमण से पूर्व की विभिन्न घटनाओं के लिए भारतीय स्रोतों के आधार पर बनने वाली तिथियों को नकारना पड़ा किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है। कारण ऐसा तो उन्होंने जानबूझकर किया था क्योंकि, उन्हें अपनी काल्पनिक काल-गणना को मान्यता जो दिलानी थी।
यदि भारत के प्राचीन विद्वान इतिहास-ज्ञान से शून्य होते तो प्राचीन काल से सम्बंधित जो ताम्रपत्र या शिलालेख आज मिलते हैं, वे तैयार ही नहीं कराए जाते। ऐसे अभिलेखों की उपस्थिति में भारत के प्राचीन विद्वानों पर पाश्चात्य विद्वानों का कालगणना-ज्ञानया तिथिक्रम की गणना से अनभिज्ञ होने के कारण उसका व्यवस्थित हिसाब न रख पाने का दोषारोपण बड़ा ही हास्यस्पद लगता है। विशेषकर इसलिए भी कि भारत में तो कालमान का एक शास्त्र ही पृथक सेहैं, जिसमें एक सैकिंड के 30375वें भाग से कालगणना की व्यवस्था है। नक्षत्रों की गतियों के आधार पर निर्धारित भारतीय कालमान में परिवर्तन और अन्तर की बहुत ही कम संभावना रहती है। विभिन्न प्राचीनग्रन्थों यथा- अथर्ववेद, विभिन्न पुराण, श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि में काल-विभाजन और उसके गणनाक्रम पर बड़े विस्तार से विचार प्रकट किए गए हैं। कुछ के उदाहरण इस प्रकार हैं -
श्रीमद्भागवत- इसके 3.11.3 से 3.11.14 तक के श्लोकों में कालगणना पर विचार किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय कालगणना में सबसे छोटी इकाई ‘परमाणु‘ है। सूर्य की रश्मि परमाणु के भेदन में जितना समय लेती है, उसका नाम परमाणु है। परमाणु काल से आगे का काल-विभाजन इस प्रकार है - 2 परमाणु = 1 अणु, 3 अणु = 1 त्रसरेणु, 3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि, 100 त्रुटि = 1 वेध, 3 वेध = 1 लव, 3 लव = 1 निमेष, 3 निमेष = 1 क्षण (एक क्षणमें 1.6 सेकेंड अथवा 48600 परमाणु होते हैं), 5 क्षण = 1 काष्ठा, 15 काष्ठा = 1 लघु, 15 लघु = 1 नाड़िका (दण्ड), 2 नाड़िका = 1 मुहूर्त, 3 मुहूर्त = 1 प्रहर, 8 प्रहर = दिन-रात
इसी प्रकार से दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदि का ज्ञान भी उस समय पूरी तरह से था।
महाभारत- इसके वन पर्व के 188वें अध्याय के 67वें श्लोक में सृष्टि-निर्माण, सृष्टि-प्रलय, युगों की वर्ष संख्या अर्थात कालगणना के संदर्भ में विचार किया गया है। इसमें लिखा है कि एक कल्प या एक हजार चतुर्युगी की समाप्ति पर आने वाले कलियुग के अन्त में सात सूर्य एक साथ उदित हो जाते हैं और तब ऊष्मा इतनी बढ़ जाती है कि पृथ्वी का सब जल सूख जाता है, आदि-आदि।
विभिन्न पुराण- पौराणिक कालगणना काल की भाँति अनन्त है। यह बहुत ही व्यापक है। इसके अनुसार कालगणना को दिन, रात, मास, वर्ष, युग, चतुर्युग, मन्वन्तर, कल्प, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की आयु आदि में विभाजित किया गया है। यही नहीं, इसमें मानव के दिन, मास आदि देवताओं के दिन, मास आदि तथा ब्रह्मा के दिन, मास आदि से भिन्न बताए गए हैं। एक कल्प में एक हजार चतुर्युगी होती हैं। एक हजार चतुर्युगियों में 14 मन्वन्तर, यथा- (1) स्वायंभुव, (2) स्वारोचिष, (3) उत्तम (4) तामस (5) रैवत (6) चाक्षुष (7) वैवस्वत (8) सार्वणिक (9) दक्षसावर्णिक (10) ब्रह्मसावर्णिक (11) धर्मसावर्णिक (12) रुद्रसावर्णिक (13) देवसावर्णिक (14) इन्द्रसावर्णिक होते हैं। हर मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। एक चतुर्युगी (सत्युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग) में 12 हजार दिव्य या देव वर्ष होते हैं। दिव्य वर्षों के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत के 3.11.18 में ‘दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः‘, मनुस्मृति के 1.71में ‘एतद् द्वादशसाहस्रं देवानां युगम्‘, सूर्य सिद्धान्त के 1.13 में ‘मनुष्यों का वर्ष देवताओं का दिन-रात होता है‘ उल्लेखनीय हैं। कई भारतीय विद्वान भी दिव्य या देव वर्ष की गणना को उचित नहीं ठहराते। वे युगों के वर्षों की गणना को सामान्य वर्ष गणना के रूप में लेते हैं किन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि यदि ऐसा होता तो आज कलि सम्वत 5109 कैसे हो सकता था ? क्योंकि कलि की आयु तो 1200 वर्ष की ही बताई गईहै। निश्चित ही यह (1200) दिव्य या देव वर्ष हैं।
उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त सूर्य सिद्धान्त, मुहूर्त चिन्तामणि, शतपथ ब्राह्मण आदि में भी कालगणना पर विस्तार में विचार किया गया है। यही नहीं, पाराशर संहिता, कश्यप संहिता, भृगु संहिता, मय संहिता, पालकाप्य महापाठ, वायुपुराण, दिव्यावदान, समरांगण सूत्रधार, अर्थशास्त्र, (कौटिल्य), सुश्रुत और विष्णु धर्मोत्तरपुराण भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त भी अनेक ग्रन्थों में कालगणना के संदर्भ में चर्चा की गई है।
वस्तुतः भारत की कालगणना का विभाजन अत्यन्त प्राचीन काल में ही चालू हो चुका था। हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ईंटों पर चित्रित चिन्हों के आधार पर रूस के विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि हड़प्पा सभ्यता के समय में भारतीय पंचांग-पद्धति पूर्ण विकसित रूप में थी।
जिस देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही कालगणना-ज्ञान के सम्बन्ध में इतने अधिक विस्तार में जाकर विचार किया जाता रहा हो, वहाँ के विद्वानों के लिए यह कह देना कि वे कालगणना-ज्ञान से अपरिचित रहे, से अधिक हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है ? पं. भगवद्दत्त का स्पष्ट रूप में मानना है कि भारत की युगगणना को सही रूप में न समझ सकने के कारण ही यूरोपीय विद्वानों द्वारा अनेक भूलें हुई हैं। (‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास‘, भाग 1, पृ.209) फलतः इतिहास में तिथियों के संदर्भ में अनेक विसंगतियाँ आ गई हैं।
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रघुनन्दन प्रसाद शर्मा✍🏻
कल कुछ और बातें.........
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