भारतीय इतिहास का विकृतिकरण7 माइथोलॉजी की कल्पना

भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
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माइथोलॉजी की कल्पना

आज के विद्वान प्राचीन काल की उन बातों को, जिनकी पुष्टि के लिए उन्हें पुरातात्त्विक आदि प्रमाण नहीं मिलते, मात्र ‘माइथोलॉजी‘ कहकर शान्त हो जाते हैं। वे उस बात की वास्तविकता को समझने के लिए उसकी गहराई में जाने का कष्ट नहीं करते। अंग्रेजी का ‘माइथोलॉजी‘ शब्द ‘मिथ‘ से बना है। मिथ का अर्थ है - जो घटना वास्तविक न हो अर्थात कल्पित या मनगढ़ंत ऐसा कथानक जिसमें लोकोत्तर व्यक्तियों, घटनाओं और कर्मों का सम्मिश्रण हो।

अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन ज्ञान-राशि, जिसमें पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं, को ‘मिथ‘ कहा है अर्थात उनकी दृष्टि में इन ग्रन्थोंमें जो कुछ लिखा है, वह सब कुछ कल्पित है, जबकि अनेक भारतीय विद्वानों का मानना है कि वे इन ग्रन्थोंको सही ढंग से समझने में असमर्थ रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि उनका संस्कृत ज्ञान सतही था जबकि भारत का सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय संस्कृत में था और जिसे पढ़ने तथा समझने के लिए संस्कृत भाषा का उच्चस्तरीय ज्ञान अपेक्षित था। अधकचरे ज्ञान पर आधारित अध्ययन कभी भी पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकता। वास्तव में तो पाश्चात्य विद्वानों ने ‘मिथ‘ के अन्तर्गत वह सभी भारतीय ज्ञान-राशि सम्मिलित कर दी, जिसे समझने में वे असमर्थ रहे। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण ही पर्याप्त होगा -

भारत के प्राचीन इतिहास में जलप्लावन की एक घटना का वर्णन आता है। इसमें बताया गया है कि इस जल प्रलय के समय ‘मनु‘ ने अगली सृष्टि के निर्माणके लिए ऋषियों सहित धान्य, ओषधि आदि आवश्यक सामग्री एक नाव में रखकर उसे एक ऊँचे स्थान परले जाकर प्रलय में नष्ट होने से बचा लिया था। यह प्रसंग बहुत कुछ इसी रूप में मिस्र, यूनान, दक्षिण-अमेरिका के कुछ देशों के प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। अन्तर मात्र यह है कि भारत का ‘मनु‘ मिस्रमें ‘मेनस‘ और यूनान में ‘नूह‘ हो गया किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा इस ऐतिहासिक ‘मनु‘ को ‘मिथ‘ बना दिया गया। ऐसा कर देना उचित नहीं रहा।

इसी प्रकार के ‘मिथों‘ के कारण भी भारतीय इतिहासके अनेक पृष्ठ आज खुलकर सामने आने से तो रह ही गए, साथ ही उसमें अनेक विकृतियाँ भी आ गईं।

विदेशी-साहित्य को अनावश्यक महत्व

पाश्चात्य इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय यूनान, चीन, अरब आदि देशों के साहित्यिक ग्रन्थों, यात्रा-विवरणों, जनश्रुतियों आदि का पर्याप्त सहयोग लिया है, इनमें से यहाँ यूनान देश के साहित्य आदि पर ही विचार किया जा रहा है, कारण सर विलियम जोन्स ने भारतीय इतिहास-लेखन की प्रेरणा देते समय जिन तीन मानदण्डों का निर्धारण किया था, वे मुख्यतः यूनानी साहित्य पर आधारित थे।

यूनान से समय-समय पर अनेक विद्वान भारत आते रहे हैं और उन्होंने भारत के संदर्भ में अपने-अपने ग्रन्थों में बहुत कुछ लिखा है किन्तु भारत के इतिहास को लिखते समय सर्वाधिक सहयोग मेगस्थनीज के ग्रन्थ से लिया गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए मेगस्थनीज ने भारत और अपने समय के भारतीय समाज के बारे में अपने संस्मरण ‘इण्डिका‘ नामक एक ग्रन्थ में लिखे थे किन्तु उसके दो या तीन शताब्दी बाद ही हुए यूनानी लेखकों, यथा- स्ट्रेबो ;ैजतंइवद्ध और एरियन ;।ततपंदद्धको न तो ‘इण्डिका‘ और न ही भारत के संदर्भ में किन्हीं अन्य प्राचीन लेखकों द्वारा लिखी पुस्तकें ही सुलभ हो सकी थीं। उन्हें यदि कुछ मिला था तो वह विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित वृत्तान्तों में उनके वे उद्धरण मात्र थे जो उन्हें भी पूर्व पुस्तकों के बचे हुए अंशों से ही सुलभ हो सके थे।

विभिन्न यूनानी लेखकों की पुस्तकों के वर्तमान में सुलभ विवरणों में से ऐसे कुछ विशेष उद्धरणों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनमें से कई को भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय विभिन्न-विद्वानों द्वारा प्रयोग में लाया गया है किन्तु यूनानी विवरण चाहे भौगोलिक हो या जीव-जन्तुओं के, तत्कालीन निवासियों की कुछ विशेष जातियों के हों या कुछ विशिष्ट व्यक्तियों, स्थानों आदि, यथा- सिकन्दर, सेंड्रोकोट्टस, पाटलिपुत्र आदि के ब्योरों के, यूनानियों द्वारा लड़े गए युद्धों के वर्णन हों या अन्य, उन्हें पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि उनमें सत्यता है और वे गम्भीरतापूर्वक लिखे गए हैं। सभी वर्णन अविश्वसनीय लगते हैं किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है किजिन विद्वानों को भारतीय पुराणों के वर्णन अविश्वसनीय लगे, उन्हें वे वर्णन प्रामाणिक कैसे लगे ? अतः उनकी निष्पक्षता विचारणीय है।

यूनानी ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखनीय ब्योरे मैकक्रिण्डलेकी अंग्रेजी पुस्तक के हिन्दी अनुवाद ‘मेगस्थनीज का भारत विवरण‘ (अनुवादक-बाबू अवध बिहारीशरण) के आधार पर इस प्रकार हैं, यथा -

(क) भारत की लम्बाई-चौड़ाई - हर विद्वान की माप पृथक-पृथक हैं -

लम्बाई - मेगस्थनीज-16 हजार स्टेडिया, प्लिनी-22,800 स्टेडिया, डायोडोरस-28 हजार स्टेडिया,

डायाइसेकस-कहीं 20 हजार और कहीं 30 हजार स्टेडिया, टालमी 16,800 स्टेडिया आदि और

चौड़ाई - मेगस्थनीज और ऐरेस्टनीज-16000 स्टेडिया, पैट्रोक्लीज-15,000 स्टेडिया, टीशियस - भारत एशिया के अवशिष्ट भाग से छोटा नहीं, ओनेसीक्राईटस- भारत संसार के तृतीयांश के तुल्य है आदि।

(ख) भारत के जीव-जन्तु

�* बन्दर कुत्तों से बड़े होते हैं, वे उजले रंग के होते हैं किन्तु मुँह काला होता है। वे बड़े सीधे होते हैं।

�हिन्द महासागर की व्हेल मछलियाँ बड़े-बड़े हाथियों से भी बड़ी होती हैं। �हाथी बड़े विशाल होते हैं। इनका जन्म 16 से 18 महीने में होता है। माता इन्हें 6 माह तक दूध पिलाती है।�अजगर, इतने बड़े होते हैं कि वे हरिण और सांड को सम्पूर्ण निगल जाते हैं। � * सोना खोदकर निकालने वाली चाटियाँ लोमड़ी के आकार की होती हैं।
(ग) भारत के तत्कालीन निवासियों के ब्योरे - यहाँ के मनुष्य अपने कानों में सोते हैं, मनुष्यों के मुख नहीं होते, मनुष्यों की नाक नहीं होती, मनुष्यों की एक ही आँख होती है, मनुष्यों के बड़े लम्बे पैर होते हैं, मनुष्यों के अंगूठे पीछे की ओर फिरेरहते हैं आदि।

(घ) युद्धों के वर्णन - एक ही युद्ध के वर्णन अलग-अलग यूनानी लेखकों द्वारा पृथक-पृथक रूप में किए गए हैं, यथा-

�* एरियन ने लिखा है कि ‘‘इस युद्ध में भारतीयों के 20,000 से कुछ न्यून पदाति और 300 अश्वारोही मरे तथा सिकन्दर के 80 पदाति, 10 अश्वारोही धनुर्धारी, 20 संरक्षक अश्वारोही और लगभग 200 दूसरे अश्वारोही गिरे।‘‘ �

एक अन्य यूनानी लेखक ने लिखा है कि ‘‘इस युद्ध में 12,000 से अधिक भारतीय मरे थे जबकि यूनानियों मेें से केवल 250 ही मरे थे।‘‘ �एरियन ने पुरु के साथ हुए इस युद्ध के बारे में एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘इसमें विजय किसी की भी नहीं हुई। सिकन्दर थक करविश्राम करने चला गया था। उसने पुरु को बुलाने के लिए अनेक आदमी भेजे थे। अन्त में ही पुरु सिकन्दर से उसके स्थान पर मिला था। (‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास‘, भाग-2,पृ. 317)प्लूटार्क ने सिकन्दर के प्रमाण से लिखा है कि ‘‘यह युद्ध हाथोंहाथ हुआ था। दिन का तब आठवाँ घण्टा था जब वे सर्वथा पराजित हुए।‘‘ दूसरे शब्दों में युद्ध आठ घण्टे चला था। प्रश्न उठता है कि क्या विश्व विजयी 8 घण्टे के युद्ध में ही थक गया था ?

वीरेन्द्र कुमार गुप्त ‘विष्णुगुप्त चाणक्य‘ की भूमिका के पृष्ठ 11 पर बताते हैं कि- कहा जाता है कि पुरु युद्ध में पराजित हुआ था और बन्दी बनाकर सिकन्दर के समक्ष पेश किया गया था। लेकिन इस संदर्भ में भी यूनानी लेखकों केभिन्न-भिन्न मत हैं -

�* जस्टिन और प्लुटार्क के अनुसार पुरु बन्दी बना लिया गया था।

�* डायोडोरस का कहना है कि घायल पुरु सिकन्दर के कब्जे में आ गया था और उसने उपचार के लिए उसे भारतीयों को लौटा दिया था।

�* कर्टियस का मत है कि घायल पुरु की वीरता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने सन्धि का प्रस्ताव रखा।

�* एरियन ने लिखा है कि घायल पुरु के साहस को देखकर सिकन्दर ने शान्ति दूत भेजा।

�* कुछ विद्वानों का मत है कि युद्ध अनिर्णीत रहा और पुरु के दबाव के सामने सिकन्दर ने सन्धि का मार्ग उचित समझा।

पुरु के संदर्भ में उक्त मत सिकन्दर के मेसीडोनिया से झेलम तक की यात्रा तक के इतिहास से मेल नहीं खाते। इससे पूर्व उसने कहीं भी ऐसी उदारतानहीं दिखाई थी। उसने तो अपने अनेक सहयोगियों को उनकी छोटी सी भूल से रुष्ट होकर तड़पा-तड़पा कर मारा था। इस दृष्टि से उसका योद्धा बेसस, उसकी अपनी धाय का भाई क्लीटोस, पर्मीनियन आदि उल्लेखनीय हैं। वह एक अत्यन्त ही क्रूर, नृशंस और अत्याचारी विजेता था। नगरों को जलाना, पराजितों को मौत के घाट उतारना, सैनिकों को रक्षा का वचन देकर धोखे से मरवा देना उसके स्वाभाविक कृत्य थे। ऐसा सिकन्दर पुरु के साथ अचानक ही इतना उदार कैसे बन गया कि जंजीरों में जकड़े पुरु को न केवल उसने छोड़ दिया वरन उसे बराबर बैठाकर राज्य वापस कर दिया, यह समझ में नहीं आता। ऐसा लगता है कि हारे हुए सिकन्दर का सम्मान और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए यूनानी लेखकों ने यह सारा वाक्जाल रचा है। वास्तव में पुरु की हस्थि सेना ने यूनानियों का जिस भयंकर रूप से संहार किया था, उससे सिकन्दर और उसके सैनिक आतंकित हो उठे। यूनानी सेना का ऐसा विनाश उसके अस्तित्व के लिए चुनौती था। अतः उसने बाध्य होकर सन्धि की होगी।

पुरु के साथ हुए सिकन्दर के युद्ध के यूनानी लेखकों ने जिस प्रकार के वर्णन किए हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि यूनानी लेखक अपने गुण गाने में ज्यादा विश्वास रखते थे और उसमें माहिर भी ज्यादा थे।

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि यूनानियों नेअपनी पुस्तकों में विवरण लिखने में अतिशयोक्ति से काम लिया है। हर बात को बढ़ा-चढ़ा करलिखा है। स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशी विद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात के संकेत दिएहैं कि मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं, सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है और अतिरंजित हैं। ऐसे विवरणों को अपनाने के कारण भी भारत के इतिहास में विकृतियाँ आई हैं।

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रघुनन्दन प्रसाद शर्मा✍🏻

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