भारतीय इतिहास का विकृतिकरण5
भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
====================
द्वितीय खण्ड : साहित्यिक विकृतियां
भारतीय दृष्टि से इतिहास एक विद्या विशेष है। विद्या केरूप में इतिहास का उल्लेख सर्वप्रथम अथर्ववेद में किया गया है। अथर्ववेद सृष्टि निर्माता ब्रह्मा जी की देन है, ऐसा माना जाता है। अतः भारत में ऐतिहासिक सामग्री की प्राचीनता असंदिग्ध है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि भारत में ऐतिहासिक सामग्री का अभाव था, वास्तविकता को जानबूझकर नकारने के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। व्यास शिष्य लोमहर्षण के अनुसार प्रत्येक राजा को अपने समय का काफी बड़ा भाग इतिहास के अध्ययन में लगाना चाहिए और राजमंत्री को तो इतिहास तत्त्व का विद्वान होना ही चाहिए। राजा के लिए प्रतिदिन इतिहास सुनना एक अनिवार्य कार्य था। यदि प्राचीन काल में ऐतिहासिक सामग्री नहीं थी तो वे लोग क्या सुनते थे?
भारत के इतिहास का आधुनिक रूप में लेखन करते समय मुख्य बात तो यह रही कि सत्ताधारी और उनके समर्थक इतिहासकार भारत की प्राचीन सामग्री को सही रूप से प्रकाश में लाना ही नहीं चाहते थे। इसीलिए उसको प्रकाश में लाने के लिए जितने श्रम और लगन से खोज करने की आवश्यकता थी, वह नहीं की गई। इस संदर्भ में कर्नल टॉड का ‘राजस्थान‘ नामक ग्रन्थ की भूमिका में यह कहना सर्वथा उपयुक्त लगता है कि-
जब सर विलियम जोन्स ने संस्कृत साहित्य की खोज शुरू की तो बड़ी आशा बंधी थी कि इससे संसार के इतिहास को बहुत कुछ प्राप्त होगा किन्तु वह आशा अब तक पूर्ण नहीं हुई। इससे उत्साह के स्थान पर निराशा और उदासीनता व्याप्त हो गई। सभी मानने लगे कि भारतवर्ष का कोई जातीय इतिहास है ही नहीं। इसके उत्तर में एक फ्रान्सीसी ओरिएन्टलिस्ट के कथन को रख सकते हैं जिसने बड़ी चतुराई से पूछा कि ‘अबुलफजल‘ ने हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास के लिए सामग्री कहाँ से प्राप्त की थी ?वास्तव में विल्सन ने कश्मीर के ‘राजतरंगिणी‘ नामक इतिहास का अनुवाद करते समय इस अविचार को बहुत कुछ घटाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास लिखने की नियमबद्ध परिपार्टी भारतवर्ष में अविदित नहीं थी और ऐसा निश्चित करनेके लिए सन्तोषजनक प्रमाण मिलते हैं कि किसी समय में इतिहास की पुस्तकें वर्तमान समय की अपेक्षा अधिक मात्रा में उपलब्ध थीं ...।
जहाँ तक भारत में ऐतिहासिक ग्रन्थों का प्रश्न है, इस दृष्टि से निराशा की इतनी बात नहीं है, जितनी कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने दर्शाई है। मूल ऐतिहासिक ग्रन्थों के अभाव के इस युग में भी एक दो नहीं अनेक ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें बड़ी मात्रा में भारत की ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है। मुख्य प्रश्न तो संस्कृत आदि भाषाओं के ग्रन्थों में इतस्ततः बिखरी सामग्री को खोजकर निकालने और उसे सही परिप्रेक्ष्य में तथा उचित ढंग से सामने लाने का था, जो कि सही रूप में नहीं किया गया।
संस्कृत वाङ्मय
संस्कृत वाङ्मय में से वैदिक और ललित साहित्य के कुछ ऐसे ग्रन्थों के नामों के साथ ज्योतिष, आयुर्वेद तथा व्याकरण के कुछ ग्रन्थों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है, जिनमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उल्लेख सुलभ हैं।
वैदिक साहित्य - विभिन्न संहिताओं, उपसद्, ऐतरेय, जैमनीय, गोपथ, शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों, विभिन्न आरण्यकों, उपनिषदों, वेदांग साहित्य, कल्पसूत्र, ग्रह्य सूत्र, स्मृति ग्रन्थों आदि में महाभारत काल से लाखों-लाखों वर्ष पूर्व की प्राचीन ऐतिहासिक घटनाएँ यथा- इन्द्र द्वारा किए गए विभिन्न युद्धों के वर्णन, इन्द्र-त्वष्टा संघर्ष, विश्वामित्र-वसिष्ठ की शत्रुता, इन्द्र द्वारा नहुष और दिवोदास को बल प्रदान करने जैसी विविध कथाएँ तथा अन्य विविध ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है।
ललित साहित्य - महाकाव्य/काव्य ग्रन्थों, यथा- विभिन्न रामायणों, महाभारत, रघुवंश, जानकीहरण, शिशुपाल वध, दशावतार चरित आदि, विभिन्न ऐतिहासिक नाटकों, यथा- अमृतमन्थन समवकार, लक्ष्मी स्वयंवर, वैणीसंहार, स्वप्नवासवदत्ता आदि, विविध कथा ग्रन्थों, यथा- बन्धुमति, भैमरथी, सुमनोत्तरा, बृहदकथा, शूद्रककथा, तरंगवती, त्रैलोक्यसुन्दरी, चारुमति, मनोवती, विलासमती, अवन्तिसुन्दरी, कादम्बरी आदि के साथ क्षेमेन्द्र की बृहदकथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर तथा चरित ग्रन्थों, यथा- प्राचीन काल के पुरुरवा चरित, ययाति चरित, देवर्षि चरित और बाद के बुद्ध चरित, शूद्रक चरित, साहसांकचरित, हर्षचरित, विक्रमांकचरित, पृथ्वीराज रासो आदि में पर्याप्त मात्रा में ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है।
ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रन्थ - कश्यप, वशिष्ठ, पराशर, देवल आदि तथा इनसे पूर्व के ज्योतिष से सम्बंधित विद्वानों की रचनाएँ ऐतिहासिक काल निर्धारण के संदर्भ में बड़े महत्व की हैं। गर्ग संहिता, चरक संहिता में भी अनेक ऐतिहासिक सूत्र विद्यमान हैं।
अर्थ शास्त्र - कौटिल्य के ‘अर्थ शास्त्र‘ में चार स्थानों पर, यथा- अध्याय 6, 13, 20 और 95 में प्राचीन आर्य राजाओं के संदर्भ में बहुत सी उपयोगी बातें लिखी हैं जिनसे भारत के प्राचीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
व्याकरण ग्रन्थ - ये ग्रन्थ केवल भाषा निर्माण के सिद्धान्तों तक ही सीमित नहीं रहे हैं, उनमें तत्कालीन ही नहीं, उससे पूर्व के समय के भी धर्म, दर्शन, राजनीति शास्त्र, राजनीतिक संस्थाओं आदि के ऐतिहासिक विकास पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, जिससेवे इतिहास विषय पर लेखन करने वालों के लिए परम उपयोगी बन गए हैं। पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी‘, पतंजलि का महाभाष्य इस दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ हैं। उत्तरवर्ती वैयाकरणों में ‘चान्द्रव्याकरण‘ और पं. युधिष्ठिर मीमांसक का ‘संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास‘, भी इस दृष्टि से उल्लेखनीयहै।
उक्त वैदिक और ललित साहित्य तथा ज्योतिष, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, व्याकरण आदि के ग्रन्थों के अलावा भी संस्कृत भाषा के बहुत से उल्लेखनीय ग्रन्थ हमारे यहाँ आज भी इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं कि उन सबका ब्योरा यहाँ दे पाना कठिन ही नहीं, असंभवहै।
कल पढिये उनमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थों के बारे में...........
----------------
लेखक :-
रघुनन्दन प्रसाद शर्मा
धन्यवाद
====================
द्वितीय खण्ड : साहित्यिक विकृतियां
भारतीय दृष्टि से इतिहास एक विद्या विशेष है। विद्या केरूप में इतिहास का उल्लेख सर्वप्रथम अथर्ववेद में किया गया है। अथर्ववेद सृष्टि निर्माता ब्रह्मा जी की देन है, ऐसा माना जाता है। अतः भारत में ऐतिहासिक सामग्री की प्राचीनता असंदिग्ध है। ऐसी स्थिति में यह कहना कि भारत में ऐतिहासिक सामग्री का अभाव था, वास्तविकता को जानबूझकर नकारने के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। व्यास शिष्य लोमहर्षण के अनुसार प्रत्येक राजा को अपने समय का काफी बड़ा भाग इतिहास के अध्ययन में लगाना चाहिए और राजमंत्री को तो इतिहास तत्त्व का विद्वान होना ही चाहिए। राजा के लिए प्रतिदिन इतिहास सुनना एक अनिवार्य कार्य था। यदि प्राचीन काल में ऐतिहासिक सामग्री नहीं थी तो वे लोग क्या सुनते थे?
भारत के इतिहास का आधुनिक रूप में लेखन करते समय मुख्य बात तो यह रही कि सत्ताधारी और उनके समर्थक इतिहासकार भारत की प्राचीन सामग्री को सही रूप से प्रकाश में लाना ही नहीं चाहते थे। इसीलिए उसको प्रकाश में लाने के लिए जितने श्रम और लगन से खोज करने की आवश्यकता थी, वह नहीं की गई। इस संदर्भ में कर्नल टॉड का ‘राजस्थान‘ नामक ग्रन्थ की भूमिका में यह कहना सर्वथा उपयुक्त लगता है कि-
जब सर विलियम जोन्स ने संस्कृत साहित्य की खोज शुरू की तो बड़ी आशा बंधी थी कि इससे संसार के इतिहास को बहुत कुछ प्राप्त होगा किन्तु वह आशा अब तक पूर्ण नहीं हुई। इससे उत्साह के स्थान पर निराशा और उदासीनता व्याप्त हो गई। सभी मानने लगे कि भारतवर्ष का कोई जातीय इतिहास है ही नहीं। इसके उत्तर में एक फ्रान्सीसी ओरिएन्टलिस्ट के कथन को रख सकते हैं जिसने बड़ी चतुराई से पूछा कि ‘अबुलफजल‘ ने हिन्दुओं के प्राचीन इतिहास के लिए सामग्री कहाँ से प्राप्त की थी ?वास्तव में विल्सन ने कश्मीर के ‘राजतरंगिणी‘ नामक इतिहास का अनुवाद करते समय इस अविचार को बहुत कुछ घटाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास लिखने की नियमबद्ध परिपार्टी भारतवर्ष में अविदित नहीं थी और ऐसा निश्चित करनेके लिए सन्तोषजनक प्रमाण मिलते हैं कि किसी समय में इतिहास की पुस्तकें वर्तमान समय की अपेक्षा अधिक मात्रा में उपलब्ध थीं ...।
जहाँ तक भारत में ऐतिहासिक ग्रन्थों का प्रश्न है, इस दृष्टि से निराशा की इतनी बात नहीं है, जितनी कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने दर्शाई है। मूल ऐतिहासिक ग्रन्थों के अभाव के इस युग में भी एक दो नहीं अनेक ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें बड़ी मात्रा में भारत की ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है। मुख्य प्रश्न तो संस्कृत आदि भाषाओं के ग्रन्थों में इतस्ततः बिखरी सामग्री को खोजकर निकालने और उसे सही परिप्रेक्ष्य में तथा उचित ढंग से सामने लाने का था, जो कि सही रूप में नहीं किया गया।
संस्कृत वाङ्मय
संस्कृत वाङ्मय में से वैदिक और ललित साहित्य के कुछ ऐसे ग्रन्थों के नामों के साथ ज्योतिष, आयुर्वेद तथा व्याकरण के कुछ ग्रन्थों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है, जिनमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उल्लेख सुलभ हैं।
वैदिक साहित्य - विभिन्न संहिताओं, उपसद्, ऐतरेय, जैमनीय, गोपथ, शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों, विभिन्न आरण्यकों, उपनिषदों, वेदांग साहित्य, कल्पसूत्र, ग्रह्य सूत्र, स्मृति ग्रन्थों आदि में महाभारत काल से लाखों-लाखों वर्ष पूर्व की प्राचीन ऐतिहासिक घटनाएँ यथा- इन्द्र द्वारा किए गए विभिन्न युद्धों के वर्णन, इन्द्र-त्वष्टा संघर्ष, विश्वामित्र-वसिष्ठ की शत्रुता, इन्द्र द्वारा नहुष और दिवोदास को बल प्रदान करने जैसी विविध कथाएँ तथा अन्य विविध ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है।
ललित साहित्य - महाकाव्य/काव्य ग्रन्थों, यथा- विभिन्न रामायणों, महाभारत, रघुवंश, जानकीहरण, शिशुपाल वध, दशावतार चरित आदि, विभिन्न ऐतिहासिक नाटकों, यथा- अमृतमन्थन समवकार, लक्ष्मी स्वयंवर, वैणीसंहार, स्वप्नवासवदत्ता आदि, विविध कथा ग्रन्थों, यथा- बन्धुमति, भैमरथी, सुमनोत्तरा, बृहदकथा, शूद्रककथा, तरंगवती, त्रैलोक्यसुन्दरी, चारुमति, मनोवती, विलासमती, अवन्तिसुन्दरी, कादम्बरी आदि के साथ क्षेमेन्द्र की बृहदकथामंजरी, सोमदेव का कथासरित्सागर तथा चरित ग्रन्थों, यथा- प्राचीन काल के पुरुरवा चरित, ययाति चरित, देवर्षि चरित और बाद के बुद्ध चरित, शूद्रक चरित, साहसांकचरित, हर्षचरित, विक्रमांकचरित, पृथ्वीराज रासो आदि में पर्याप्त मात्रा में ऐतिहासिक सामग्री सुलभ है।
ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रन्थ - कश्यप, वशिष्ठ, पराशर, देवल आदि तथा इनसे पूर्व के ज्योतिष से सम्बंधित विद्वानों की रचनाएँ ऐतिहासिक काल निर्धारण के संदर्भ में बड़े महत्व की हैं। गर्ग संहिता, चरक संहिता में भी अनेक ऐतिहासिक सूत्र विद्यमान हैं।
अर्थ शास्त्र - कौटिल्य के ‘अर्थ शास्त्र‘ में चार स्थानों पर, यथा- अध्याय 6, 13, 20 और 95 में प्राचीन आर्य राजाओं के संदर्भ में बहुत सी उपयोगी बातें लिखी हैं जिनसे भारत के प्राचीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
व्याकरण ग्रन्थ - ये ग्रन्थ केवल भाषा निर्माण के सिद्धान्तों तक ही सीमित नहीं रहे हैं, उनमें तत्कालीन ही नहीं, उससे पूर्व के समय के भी धर्म, दर्शन, राजनीति शास्त्र, राजनीतिक संस्थाओं आदि के ऐतिहासिक विकास पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, जिससेवे इतिहास विषय पर लेखन करने वालों के लिए परम उपयोगी बन गए हैं। पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी‘, पतंजलि का महाभाष्य इस दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ हैं। उत्तरवर्ती वैयाकरणों में ‘चान्द्रव्याकरण‘ और पं. युधिष्ठिर मीमांसक का ‘संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास‘, भी इस दृष्टि से उल्लेखनीयहै।
उक्त वैदिक और ललित साहित्य तथा ज्योतिष, आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, व्याकरण आदि के ग्रन्थों के अलावा भी संस्कृत भाषा के बहुत से उल्लेखनीय ग्रन्थ हमारे यहाँ आज भी इतनी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं कि उन सबका ब्योरा यहाँ दे पाना कठिन ही नहीं, असंभवहै।
कल पढिये उनमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थों के बारे में...........
----------------
लेखक :-
रघुनन्दन प्रसाद शर्मा
धन्यवाद
Comments
Post a Comment