भारतीय इतिहास का विकृतिकरण4
भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
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कल से आगे का भाग......
भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार वेदों के संकलन कासृष्टि निर्माण से बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। कारण, उसका मानना है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जीने सृष्टि का निर्माण करके उसके संचालन के लिए जो विधान दिया है, वह वेद ही है। भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान सृष्टि को प्रारम्भ हुए 1.97 अरब वर्ष से अधिक हो गए हैं, जबकि बाइबिल के आधारपर पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि वर्तमान सृष्टि को बने 6000 वर्ष से अधिक नहीं हुए हैं अर्थात इससे पूर्व कहीं भी कुछ भी नहीं था। इस संदर्भ में पाश्चात्य विद्वान एच. जी. वेल्स का ‘आउटलाइन ऑफ वर्ड हिस्ट्री (1934 ई.) के पृष्ठ 15 पर लिखा निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है-
‘‘केवल दो सौ वर्ष पूर्व मनुष्योत्पत्ति की आयु 6000वर्ष तक मानी जाती थी परन्तु अब पर्दा हटा है तो मनुष्य अपनी प्राचीनता लाखों वर्ष तक आंकने लगा है।‘‘
आज भारत के ही नहीं, विश्व के अनेक देशों के विद्वान यह मानने लगे हैं कि मानव सभ्यता का इतिहास लाखों-लाखों वर्ष पुराना है और वह भारतसे ही प्रारम्भ होता है। विगत दो शताब्दियों में अनेक स्थानों पर हुए भू-उत्खननों में जो पुरानी से पुरानी सामग्री मिली है, उससे भी यही स्पष्ट होता है कि मानव सभ्यता लाखों-लाखों वर्ष पुरानी है। इसकी पुष्टि स्काटलैण्ड में मिली 1.40 लाख वर्ष पुरानी और अमेरिका में मिली 2 लाख वर्ष पुरानी मानव-हड्डियाँ कर रही हैं। अन्य अनेक स्थलों पर इनसे भी और अधिक प्राचीन सामग्री मिली है। जहाँ तक भारत में ही सृष्टि के प्रारम्भ होने की बात है तो इस विषय में प्राणी शास्त्र के ज्ञाता मेडलीकट और ब्लम्फर्ड, इतिहास विषय के विद्वान थोर्टन, कर्नल टॉड और सर वाल्टर रेले, भूगर्भशास्त्री डॉ. डान (अमेरिका) तथा जेकालियट, रोम्यांरोलां, रैनेग्वानां जैसे अन्य विद्वानों का भी मानना है कि सृष्टि का प्रारम्भ भारत में ही हुआ था क्योंकि मानव के जन्म और विकास के लिए आवश्यक समशीतोषण तापमान के चिह्न प्राचीनकाल में भारत में ही मिलते हैं। इन प्रमाणों के समक्ष पाश्चात्य जगत के उन विद्वानों के निष्कर्ष, जो 17वीं से19वीं शताब्दी के बीच विश्व के विभिन्न देशों में गए हैं और जिन्हें किसी भी देश का इतिहास तीन से पाँच हजार वर्ष पूर्व से अधिक नहीं लगा, कहाँ ठहरेंगे ?
आज यह सर्वमान्य तथ्य है कि ऋग्वेद भारत का ही नहीं विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना के लिए पाश्चात्य विद्वानों, यथा- मैक्समूलर, मैक्डोनल आदि ने 1500-1000 ई. पू. का काल निर्धारित किया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पाश्चात्य विद्वानों ने विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ की रचना का काल आज से मात्र 3000-3500 वर्ष पूर्वही निर्धारित किया है। यदि ऐसा है तो क्या लाखों वर्ष पूर्व से चलती आई मानव सभ्यता के पास अपना कोई लिखित साहित्य 3500 वर्ष से पूर्व था ही नहीं ? यह बात प्रामाणिक नहीं लगती, विशेषकर उस स्थिति में जबकि भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान सृष्टि का निर्माण हुए एक अरब 97 करोड़ 29 लाख से अधिक वर्ष हो गए हैं और आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी पृथ्वी की आयु 2 अरब वर्ष या इससे अधिक की निश्चित की जा रही है। यदि भारत के सृष्टि सम्वत, वैवस्वत मनु सम्वत आदि की बात छोड़ भी दें तो भी कल्याण के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक के पृष्ठ 755 पर दी गई विदेशी सम्वतों की जानकारी के अनुसार चीनी सम्वत 9 करोड़ 60 लाख वर्ष से ऊपर का है, खताई सम्वत 8 करोड़ 88 लाख वर्ष से ऊपर का है, पारसी सम्वत एक लाख 89 हजार वर्ष से ऊपर का है, मिस्री सम्वत (इस सभ्यता को आज के विद्वान सर्वाधिक प्राचीन मानते हैं) 27 हजार वर्ष से ऊपर का है, तुर्की और आदम सम्वत 7-7 हजार वर्ष से ऊपर के हैं, ईरानी और यहूदी सम्वत क्रमशः 6 हजार और 5 हजार वर्ष से ऊपर के हैं। इतने दीर्घकाल में क्या किसी भी देश में कुछ भी नहीं लिखा गया?
यह ठीक है कि मैक्समूलर ने वेदों की संरचना के लिए जो काल निर्धारित किया था, उसे पाश्चात्य विद्वानों ने तो मान्यता दी ही, भारत के भी अनेक विद्वानों ने थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ उसे ही मान्यता प्रदान कर दी किन्तु ऐसे विदेशी और देशी विद्वानों की संख्या भी काफी रही है और अब निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो 1500 ई. पू. में वेदों की रचना हुई है, ऐसा मान लेने को तैयार नहीं हैं। अलग-अलग विद्वानों ने वेदों के संकलन के लिए अलग-अलग काल निर्धारण किया है। कुछ विद्वानों का काल निर्धारण इस प्रकार है -
मेक्डोनल आदि विभिन्न पाश्चात्य विद्वान - 1200 से 1000 ई. पू.कीथ - 1200 ई. पू.बुहलर - 1500 ई. पू.मैक्समूलर - 1500 ई. पू. से 1200 ई. पू.हॉग, व्हिटने, विल्सन ग्रिफिथ, रमेशचन्द्र दत्त - 2000 ई. पू.विंटर्निट्स - 2500 ई. पू.शंकर बालकृष्ण दीक्षित - 3000 ई. पू.जैकोबी - 3000-4000 ई. पू.बाल गंगाधर तिलक - 6000 से 10,000 ई. पू.हड़प्पा की प्राचीनता के आधार पर@ - 6000 ई. पू. के आसपासजे. एफ. जेरिग @@ - 10,000 ई. पू. से अधिकडॉ. डेविड फ्राउले - 12,000 वर्ष से अधिकडॉ. सम्पूर्णानन्द - 18,000 से 30,000 ई. पू.डॉ. विष्णु श्रीधर बाकणकर@@@ - 25,000 वर्ष से अधिकअविनाशचन्द्र दास एवं देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय - 25,000 से 50,000 ई. पू.भारतीय पौराणिक आधार पर - सृष्टि निर्माण के प्रारम्भिक काल में
@ नवीनतम शोधों के अनुसार 3500 ई. पू. से आगे की मानी जा रही है
@@बिलोचिस्तान में बोलन दर्रे के निकट मेहरगढ़ की खुदाई में मिली सामग्री के लिए दी गई 7500-8000 ई. पू. की तिथि के आधार पर
@@@सरस्वती-नदी के आधार पर जिसके किनारों पर वेदों कासंकलन हुआ था।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जैसे-जैसे नए-नए पुरातात्त्विक उत्खनन होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे भारतीय सभ्यता प्राचीन से प्राचीनतर सिद्ध होती जा रही है और वैसे-वैसे ही विश्व के सर्वप्रथम लिखित ग्रन्थ वेद की प्राचीनता भी बढ़ती जा रही है क्योंकि यह भारत का सर्वप्रथम ग्रन्थ है।
भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों की हेरा-फेरी
भारतीय इतिहास का आधुनिक रूप में लेखन करने वाले पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास लिखते समय भारतीय वाङ्मय के स्थान पर भारत के सम्बन्ध में विदेशियों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों को मुख्य रूप में आधार बनाया है। ऐसा करके उन्होंने अपने लेखन के क्षेत्र के आधार को सीमित करके उसे एकांगी बना लिया। भारतीय ग्रन्थों को उन्होंने या तो पढ़ा ही नहीं, यदि पढ़ा भी तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया और गहराई में जाए बिना ही उन्हें अप्रामाणिकता की कोटि में डाल दिया। इसी कारण भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ पैदा हो गईं। उन भ्रान्तियों के निराकरण के लिए अर्थात अपने असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए उन लोगों को जबरन नई-नई और विचित्र कल्पनाएँ करनी पड़ीं, जो स्थिति का सही तौर पर निदान प्रस्तुत करने के स्थान पर उसे और अधिक उलझाने में ही सहायक हुईं।
भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियाँ- भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों में अशुद्धता, मुख्यतः विंटर्निट्ज जैसे पाश्चात्य लेखकों केस्पष्ट रूप में यह मान लेने पर कि भारत के इतिहास के संदर्भ में भारतीयों द्वारा बताई गईं तिथियों की तुलना में चीनियों द्वारा बताई गई तिथियाँ आश्चर्यजनक रूप से उपयुक्त एवं विश्वसनीय है, अर्थात भारतीय आधारों का निरादर करके उनके स्थान पर चीन, यूनान, आदि देशों के लेखकों द्वारा भारत के संदर्भ में लिखे गए ग्रन्थों में उल्लिखित अप्रामाणिक तिथियों के अपनाने से आई हैं। इसी कारण जोन्स आदि को भारत के ऐतिहासिक तिथिक्रम में ऐसी कोई तिथि नहीं मिली, जिसके आधार पर वे भारत के प्राचीनइतिहास के तिथिक्रम का निर्धारण कर पाते। यह आश्चर्य की बात ही है कि भारतीय पुराणों में उल्लिखित एक ठोस तिथिक्रम के होते हुए भी जोन्स ने यूनानी साहित्य के आधार पर 327 ई. पू. में सेंड्रोकोट्टस के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य को जीवित मानकर 320 ई. पू. में उसके राज्यारोहण की कल्पना कर डाली और इसी तिथि को आधार बनाकर भारत का एक ऐसा पूरा ऐतिहासिक तिथिक्रम निर्धारित कर दिया जो कि भारतीय स्रोतों के आधार पर कहीं टिक ही नहीं पाता। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि एक देश विशेष का इतिहास लिखते समय विदेशी साहित्य का सहयोग लेना तो उचित माना जा सकता है किन्तु उसके आधार पर उस देश का ऐतिहासिक तिथिक्रम तैयार करना किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। 320 ई. पू. के आधार पर भारत के ऐतिहासिक तिथिक्रम का निर्धारण करके और वह भी भारतीय स्रोतों को न केवल नकार कर वरन उसे कपोल-कल्पित तथा अप्रामाणिक बताकर पाश्चात्य लेखकों ने भारत की भावी संतति के साथ अन्याय ही नहीं किया, वरन विश्वासघात भी किया है।
विदेशी आधारों पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भारतीयइतिहास की घटनाओं की जो तिथियाँ निर्धारित की गईं, उनकी पुष्टि किसी भी भारतीय स्रोत के आधार पर नहीं हो पाती। कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ इस प्रकार हैं -
भारतीय इतिहास अधिक से अधिक 3000-2500 ई. पू. से प्रारम्भ होता है।वेदों की रचना 1500 से 1000 ई. पू. के बीच में हुई थी।महाभारत अधिक से अधिक 800 ई. पू. में हुआ था।स्मृतियों का रचनाक्रम अधिक से अधिक 200 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था।
आज की तथाकथित शुद्ध ऐतिहासिक परम्परा में यदि किसीघटना से सम्बंधित तिथि ही गलत हो तो अन्य विवरणों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जबकि भारत के इतिहास में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक-दो नहीं अनेक स्थानों पर ऐसा किया गया है। ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने से ही नहीं उनके अशुद्ध काल-निर्धारण करने के कारण भी अनेक स्थानों पर घटनाओं की श्रृंखलाएँ टूट गई हैं। टूटी हुई श्रृंखलाओं को मिलाने के लिए आधुनिक इतिहासकारों को बे-सिर-पैर की विचित्र-विचित्र कल्पनाएँ करनी पड़ीं, जिससे स्थिति बड़ी ही हास्यास्पद बन गई, यथा- भारतीय इतिहास के कई लेखकों को भिन्न-भिन्न कालों में हुए दो-दो और कई कोतीन-तीन कालीदासों की कल्पना करनी पड़़ी है। इसी प्रकार से कई विद्वानों को दो-दो भास्कराचार्य ही नहीं प्रभाकर भी दो-दो मानने पड़े हैं। श्री चन्द्रकान्त बाली ने तो एक शूद्रक की जगह तीन-तीन शूद्रक बना दिएहैं (सरस्वती, मई 1973)। स्व. बालकृष्ण दीक्षित ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय ज्योतिष‘ के पृष्ठ 294पर दो बराहमिहिर हुए माने हैं। यही नहीं, कुछ विद्वानों ने शौनक ऋषि के समकालीन आश्वलायन को बुद्धका समकालीन आस्सलायन बता दिया है। इसी प्रकार प्रद्योत वंश के संस्थापक को अवन्ती का चण्ड प्रद्योत समझ लिया है। ऐसी कल्पनाओं के फलस्वरूप भारतीय इतिहास में विद्यमान भ्रान्तियों की लम्बी सूची दी जा सकती है। ये भ्रान्तियाँ इस बात की स्पष्ट प्रमाण हैं कि अशुद्ध और अप्रामाणिक तिथियों के आधार पर लिखा गया किसी देश का इतिहास कितनी मात्रा में विकृत हो जाता है।
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
कल इसके दूसरे पक्ष पर लिखेंगे
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कल से आगे का भाग......
भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार वेदों के संकलन कासृष्टि निर्माण से बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। कारण, उसका मानना है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जीने सृष्टि का निर्माण करके उसके संचालन के लिए जो विधान दिया है, वह वेद ही है। भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान सृष्टि को प्रारम्भ हुए 1.97 अरब वर्ष से अधिक हो गए हैं, जबकि बाइबिल के आधारपर पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि वर्तमान सृष्टि को बने 6000 वर्ष से अधिक नहीं हुए हैं अर्थात इससे पूर्व कहीं भी कुछ भी नहीं था। इस संदर्भ में पाश्चात्य विद्वान एच. जी. वेल्स का ‘आउटलाइन ऑफ वर्ड हिस्ट्री (1934 ई.) के पृष्ठ 15 पर लिखा निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है-
‘‘केवल दो सौ वर्ष पूर्व मनुष्योत्पत्ति की आयु 6000वर्ष तक मानी जाती थी परन्तु अब पर्दा हटा है तो मनुष्य अपनी प्राचीनता लाखों वर्ष तक आंकने लगा है।‘‘
आज भारत के ही नहीं, विश्व के अनेक देशों के विद्वान यह मानने लगे हैं कि मानव सभ्यता का इतिहास लाखों-लाखों वर्ष पुराना है और वह भारतसे ही प्रारम्भ होता है। विगत दो शताब्दियों में अनेक स्थानों पर हुए भू-उत्खननों में जो पुरानी से पुरानी सामग्री मिली है, उससे भी यही स्पष्ट होता है कि मानव सभ्यता लाखों-लाखों वर्ष पुरानी है। इसकी पुष्टि स्काटलैण्ड में मिली 1.40 लाख वर्ष पुरानी और अमेरिका में मिली 2 लाख वर्ष पुरानी मानव-हड्डियाँ कर रही हैं। अन्य अनेक स्थलों पर इनसे भी और अधिक प्राचीन सामग्री मिली है। जहाँ तक भारत में ही सृष्टि के प्रारम्भ होने की बात है तो इस विषय में प्राणी शास्त्र के ज्ञाता मेडलीकट और ब्लम्फर्ड, इतिहास विषय के विद्वान थोर्टन, कर्नल टॉड और सर वाल्टर रेले, भूगर्भशास्त्री डॉ. डान (अमेरिका) तथा जेकालियट, रोम्यांरोलां, रैनेग्वानां जैसे अन्य विद्वानों का भी मानना है कि सृष्टि का प्रारम्भ भारत में ही हुआ था क्योंकि मानव के जन्म और विकास के लिए आवश्यक समशीतोषण तापमान के चिह्न प्राचीनकाल में भारत में ही मिलते हैं। इन प्रमाणों के समक्ष पाश्चात्य जगत के उन विद्वानों के निष्कर्ष, जो 17वीं से19वीं शताब्दी के बीच विश्व के विभिन्न देशों में गए हैं और जिन्हें किसी भी देश का इतिहास तीन से पाँच हजार वर्ष पूर्व से अधिक नहीं लगा, कहाँ ठहरेंगे ?
आज यह सर्वमान्य तथ्य है कि ऋग्वेद भारत का ही नहीं विश्व का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना के लिए पाश्चात्य विद्वानों, यथा- मैक्समूलर, मैक्डोनल आदि ने 1500-1000 ई. पू. का काल निर्धारित किया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पाश्चात्य विद्वानों ने विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ की रचना का काल आज से मात्र 3000-3500 वर्ष पूर्वही निर्धारित किया है। यदि ऐसा है तो क्या लाखों वर्ष पूर्व से चलती आई मानव सभ्यता के पास अपना कोई लिखित साहित्य 3500 वर्ष से पूर्व था ही नहीं ? यह बात प्रामाणिक नहीं लगती, विशेषकर उस स्थिति में जबकि भारतीय कालगणना के अनुसार वर्तमान सृष्टि का निर्माण हुए एक अरब 97 करोड़ 29 लाख से अधिक वर्ष हो गए हैं और आज के वैज्ञानिकों द्वारा भी पृथ्वी की आयु 2 अरब वर्ष या इससे अधिक की निश्चित की जा रही है। यदि भारत के सृष्टि सम्वत, वैवस्वत मनु सम्वत आदि की बात छोड़ भी दें तो भी कल्याण के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक के पृष्ठ 755 पर दी गई विदेशी सम्वतों की जानकारी के अनुसार चीनी सम्वत 9 करोड़ 60 लाख वर्ष से ऊपर का है, खताई सम्वत 8 करोड़ 88 लाख वर्ष से ऊपर का है, पारसी सम्वत एक लाख 89 हजार वर्ष से ऊपर का है, मिस्री सम्वत (इस सभ्यता को आज के विद्वान सर्वाधिक प्राचीन मानते हैं) 27 हजार वर्ष से ऊपर का है, तुर्की और आदम सम्वत 7-7 हजार वर्ष से ऊपर के हैं, ईरानी और यहूदी सम्वत क्रमशः 6 हजार और 5 हजार वर्ष से ऊपर के हैं। इतने दीर्घकाल में क्या किसी भी देश में कुछ भी नहीं लिखा गया?
यह ठीक है कि मैक्समूलर ने वेदों की संरचना के लिए जो काल निर्धारित किया था, उसे पाश्चात्य विद्वानों ने तो मान्यता दी ही, भारत के भी अनेक विद्वानों ने थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ उसे ही मान्यता प्रदान कर दी किन्तु ऐसे विदेशी और देशी विद्वानों की संख्या भी काफी रही है और अब निरन्तर बढ़ती जा रही है, जो 1500 ई. पू. में वेदों की रचना हुई है, ऐसा मान लेने को तैयार नहीं हैं। अलग-अलग विद्वानों ने वेदों के संकलन के लिए अलग-अलग काल निर्धारण किया है। कुछ विद्वानों का काल निर्धारण इस प्रकार है -
मेक्डोनल आदि विभिन्न पाश्चात्य विद्वान - 1200 से 1000 ई. पू.कीथ - 1200 ई. पू.बुहलर - 1500 ई. पू.मैक्समूलर - 1500 ई. पू. से 1200 ई. पू.हॉग, व्हिटने, विल्सन ग्रिफिथ, रमेशचन्द्र दत्त - 2000 ई. पू.विंटर्निट्स - 2500 ई. पू.शंकर बालकृष्ण दीक्षित - 3000 ई. पू.जैकोबी - 3000-4000 ई. पू.बाल गंगाधर तिलक - 6000 से 10,000 ई. पू.हड़प्पा की प्राचीनता के आधार पर@ - 6000 ई. पू. के आसपासजे. एफ. जेरिग @@ - 10,000 ई. पू. से अधिकडॉ. डेविड फ्राउले - 12,000 वर्ष से अधिकडॉ. सम्पूर्णानन्द - 18,000 से 30,000 ई. पू.डॉ. विष्णु श्रीधर बाकणकर@@@ - 25,000 वर्ष से अधिकअविनाशचन्द्र दास एवं देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय - 25,000 से 50,000 ई. पू.भारतीय पौराणिक आधार पर - सृष्टि निर्माण के प्रारम्भिक काल में
@ नवीनतम शोधों के अनुसार 3500 ई. पू. से आगे की मानी जा रही है
@@बिलोचिस्तान में बोलन दर्रे के निकट मेहरगढ़ की खुदाई में मिली सामग्री के लिए दी गई 7500-8000 ई. पू. की तिथि के आधार पर
@@@सरस्वती-नदी के आधार पर जिसके किनारों पर वेदों कासंकलन हुआ था।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जैसे-जैसे नए-नए पुरातात्त्विक उत्खनन होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे भारतीय सभ्यता प्राचीन से प्राचीनतर सिद्ध होती जा रही है और वैसे-वैसे ही विश्व के सर्वप्रथम लिखित ग्रन्थ वेद की प्राचीनता भी बढ़ती जा रही है क्योंकि यह भारत का सर्वप्रथम ग्रन्थ है।
भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों की हेरा-फेरी
भारतीय इतिहास का आधुनिक रूप में लेखन करने वाले पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास लिखते समय भारतीय वाङ्मय के स्थान पर भारत के सम्बन्ध में विदेशियों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों को मुख्य रूप में आधार बनाया है। ऐसा करके उन्होंने अपने लेखन के क्षेत्र के आधार को सीमित करके उसे एकांगी बना लिया। भारतीय ग्रन्थों को उन्होंने या तो पढ़ा ही नहीं, यदि पढ़ा भी तो उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया और गहराई में जाए बिना ही उन्हें अप्रामाणिकता की कोटि में डाल दिया। इसी कारण भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ पैदा हो गईं। उन भ्रान्तियों के निराकरण के लिए अर्थात अपने असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए उन लोगों को जबरन नई-नई और विचित्र कल्पनाएँ करनी पड़ीं, जो स्थिति का सही तौर पर निदान प्रस्तुत करने के स्थान पर उसे और अधिक उलझाने में ही सहायक हुईं।
भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियाँ- भारत की ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों में अशुद्धता, मुख्यतः विंटर्निट्ज जैसे पाश्चात्य लेखकों केस्पष्ट रूप में यह मान लेने पर कि भारत के इतिहास के संदर्भ में भारतीयों द्वारा बताई गईं तिथियों की तुलना में चीनियों द्वारा बताई गई तिथियाँ आश्चर्यजनक रूप से उपयुक्त एवं विश्वसनीय है, अर्थात भारतीय आधारों का निरादर करके उनके स्थान पर चीन, यूनान, आदि देशों के लेखकों द्वारा भारत के संदर्भ में लिखे गए ग्रन्थों में उल्लिखित अप्रामाणिक तिथियों के अपनाने से आई हैं। इसी कारण जोन्स आदि को भारत के ऐतिहासिक तिथिक्रम में ऐसी कोई तिथि नहीं मिली, जिसके आधार पर वे भारत के प्राचीनइतिहास के तिथिक्रम का निर्धारण कर पाते। यह आश्चर्य की बात ही है कि भारतीय पुराणों में उल्लिखित एक ठोस तिथिक्रम के होते हुए भी जोन्स ने यूनानी साहित्य के आधार पर 327 ई. पू. में सेंड्रोकोट्टस के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य को जीवित मानकर 320 ई. पू. में उसके राज्यारोहण की कल्पना कर डाली और इसी तिथि को आधार बनाकर भारत का एक ऐसा पूरा ऐतिहासिक तिथिक्रम निर्धारित कर दिया जो कि भारतीय स्रोतों के आधार पर कहीं टिक ही नहीं पाता। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि एक देश विशेष का इतिहास लिखते समय विदेशी साहित्य का सहयोग लेना तो उचित माना जा सकता है किन्तु उसके आधार पर उस देश का ऐतिहासिक तिथिक्रम तैयार करना किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। 320 ई. पू. के आधार पर भारत के ऐतिहासिक तिथिक्रम का निर्धारण करके और वह भी भारतीय स्रोतों को न केवल नकार कर वरन उसे कपोल-कल्पित तथा अप्रामाणिक बताकर पाश्चात्य लेखकों ने भारत की भावी संतति के साथ अन्याय ही नहीं किया, वरन विश्वासघात भी किया है।
विदेशी आधारों पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भारतीयइतिहास की घटनाओं की जो तिथियाँ निर्धारित की गईं, उनकी पुष्टि किसी भी भारतीय स्रोत के आधार पर नहीं हो पाती। कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ इस प्रकार हैं -
भारतीय इतिहास अधिक से अधिक 3000-2500 ई. पू. से प्रारम्भ होता है।वेदों की रचना 1500 से 1000 ई. पू. के बीच में हुई थी।महाभारत अधिक से अधिक 800 ई. पू. में हुआ था।स्मृतियों का रचनाक्रम अधिक से अधिक 200 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था।
आज की तथाकथित शुद्ध ऐतिहासिक परम्परा में यदि किसीघटना से सम्बंधित तिथि ही गलत हो तो अन्य विवरणों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जबकि भारत के इतिहास में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा एक-दो नहीं अनेक स्थानों पर ऐसा किया गया है। ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने से ही नहीं उनके अशुद्ध काल-निर्धारण करने के कारण भी अनेक स्थानों पर घटनाओं की श्रृंखलाएँ टूट गई हैं। टूटी हुई श्रृंखलाओं को मिलाने के लिए आधुनिक इतिहासकारों को बे-सिर-पैर की विचित्र-विचित्र कल्पनाएँ करनी पड़ीं, जिससे स्थिति बड़ी ही हास्यास्पद बन गई, यथा- भारतीय इतिहास के कई लेखकों को भिन्न-भिन्न कालों में हुए दो-दो और कई कोतीन-तीन कालीदासों की कल्पना करनी पड़़ी है। इसी प्रकार से कई विद्वानों को दो-दो भास्कराचार्य ही नहीं प्रभाकर भी दो-दो मानने पड़े हैं। श्री चन्द्रकान्त बाली ने तो एक शूद्रक की जगह तीन-तीन शूद्रक बना दिएहैं (सरस्वती, मई 1973)। स्व. बालकृष्ण दीक्षित ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय ज्योतिष‘ के पृष्ठ 294पर दो बराहमिहिर हुए माने हैं। यही नहीं, कुछ विद्वानों ने शौनक ऋषि के समकालीन आश्वलायन को बुद्धका समकालीन आस्सलायन बता दिया है। इसी प्रकार प्रद्योत वंश के संस्थापक को अवन्ती का चण्ड प्रद्योत समझ लिया है। ऐसी कल्पनाओं के फलस्वरूप भारतीय इतिहास में विद्यमान भ्रान्तियों की लम्बी सूची दी जा सकती है। ये भ्रान्तियाँ इस बात की स्पष्ट प्रमाण हैं कि अशुद्ध और अप्रामाणिक तिथियों के आधार पर लिखा गया किसी देश का इतिहास कितनी मात्रा में विकृत हो जाता है।
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
कल इसके दूसरे पक्ष पर लिखेंगे
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