भारतीय_इतिहास_का_विकृतीकरण भाग 4

# Ajesth Tripathi ji
#भारतीय_इतिहास_का_विकृतीकरण -
                             
                                   भाग - 4
                       ■ विविध ■ खण्ड (क)
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भारत के साहित्य, इतिहास आदि में उन्होंने अनेक विकृतियाँ की हैं, उन में से कुछ को निम्नलिखित चार खण्डों में विभाजित करके यहाँ दे रहा हूँ -

#प्राचीन_ग्रन्थो_अभिलेखों_में --

पाश्चात्य विद्वानों/इतिहासज्ञों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारतीय ग्रन्थों के मूल पाठों में कहीं अक्षरों में, कहीं शब्दों में और कहीं-कहीं वाक्यावली में अपनी मनमर्जी के परिवर्तन किए या करवाए। यही नहीं, वाक्यावली में परिवर्तन के साथ-साथ कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश जोड़ दिए तो कहीं-कहीं मूल अंश लुप्त भी करा दिए, यथा-

(#क) #अक्षर_परिवर्तन ---

विष्णु पुराण - इस पुराण में मौर्य वंश का राज्यकाल 337 वर्ष दियागया था किन्तु सम्बंधित श्लोक ‘त्र्यब्दशतंसप्तत्रिंशदुत्तरम्‘ में ‘त्र्य‘ को बदल कर ‘अ‘ अक्षर करके अर्थात ‘त्र्यब्द‘ को ‘अब्द‘ बनाकर 300 की जगह 100 करके वह काल 137 वर्ष का करवा दिया गया।

-- (पं. कोटावेंकटचलम, ‘दि प्लाट इन इण्डियन क्रोनोलोजी‘, पृ. 76)

आज के अधिकतर विद्वान 137 वर्ष को ही सही मानते हैं किन्तु कलिंग नरेश खारबेल के ‘हाथी गुम्फा‘ अभिलेख में मौर्य वंश के संदर्भ में ‘165वें वर्ष‘ का स्पष्ट उल्लेख होने से मौर्य वंश के राज्यकाल को 137 वर्षों में समेट पाना कठिन है। विशेषकर उस स्थिति में जबकि ‘हाथी गुम्फा‘ अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक माना जा चुका है।

‘मत्स्य पुराण‘, ‘एइहोल अभिलेख‘ आदि में भी ऐसाही किया गया है।

(#ख) #शब्द_परिवर्तन ---

पंचसिद्धान्तिका - प्रख्यात खगोल शास्त्री वराहमिहिर की ‘पंचसिद्धान्तिका‘ में एक पद इस प्रकार से आया है -

सप्ताश्विवेद संख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ ।
अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाद्य ।।
अर्थात 427 शक काल के चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा कोसौम्य दिवस अर्थात सोम का पुत्र बुध-बुधवार-था, जबकि यवनपुर में अर्द्ध सूर्यास्त हो रहा था। उक्त पद में यद्यपि स्पष्ट रूप से सौम्य अर्थात सोम के पुत्र ‘बुध‘ का उल्लेख है किन्तु गणना करने पर जब ज्ञात हुआ कि इस तिथि को बुधवार नहीं वरन् मंगलवार था तो कतिपय विद्वानों ने मूल पाठमें परिवर्तन करके ‘सौम्य‘ को ‘भौम‘ बनाकर काम चलाया। ‘भौम‘ का अर्थ भूमि का पुत्र मंगल होता है किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं रहा क्योंकि उक्त पद में उल्लिखित शक काल वर्तमान में प्रचलित शालिवाहन शक कावाचक नहीं है। वस्तुतः वह विक्रम पूर्व आरम्भ हुए शक सम्वत (शकनृपतिकाल) का वाचक है। इन दो शक कालोें में यथास्थान सही अन्तर न करने से बहुत सी घटनाओं के 500 से अधिक वर्ष पीछेहो जाने पर कालगणना में भ्रम का पर्दा पड़ गया है।

ऐसे ही परिवर्तन ‘चान्द्रव्याकरण‘, ‘खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख‘ आदि में भी किए गए हैं।

(#ग) #अर्थ_परिवर्तन ---

अलबेरूनी का यात्रा वृत्तान्त - अलबेरूनी ने अपने यात्रा वृत्तान्त में गुप्त सम्वत के प्रारम्भ होने के काल का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुप्त शासकों केसमाप्त हो जाने पर 241 शक में उनकी स्मृति में गुप्त सम्वत प्रचलित हुआ था। इसका अंग्रेजी अनुवाद ठीक यही भाव प्रकट करता था किन्तु फ्लीट के मन्तव्य को यह अनुवाद पूरा नहीं करता था। अतः उसने बार-बार एक-एक शब्द का अनुवाद कराया। उसे वही अनुवाद चाहिए था जो उसके उद्देश्य की पूर्ति कर सके।

(‘अलबेरूनी का भारत‘, भाग 3, पृ. 9 अनुवादक संतराम बी. ए.)

(#घ) #पाठ_परिवर्तन ---

पं. कोटावेंकटचलम के अनुसार सुधाकर द्विवेदी ने आर्यभट्ट के ग्रन्थ 'आर्यभटीयम्‘ के पद में छापते समय टी. एस. नारायण स्वामी के मना करने पर भी पाठ में परिवर्तन कर दिया, जो कि अवांछित था।

--(‘भारतीय इतिहास पर दासता की कालिमा‘, पृ. 38)

(#ङ) प्रक्षिप्त अंश जोड़ना ---

पार्जिटर तो स्वरचित एक पद पुराणों में घुसाना चाहते थे जबकि वे इसके अधिकारी नहीं थे।

--(‘दि प्लाट इन इण्डियन क्रोनोलोजी‘, पृ. 89)

(#च) #पाठ_विलुप्त_करना --

वेबर ने 1855 ई. में ‘शतपथ ब्राह्मण‘ का भाष्य, जिसके साथ हरिस्वामी का भाष्य और द्विवेदी का गंगा भाष्य भी था, वर्लिन से प्रकाशित कराया था किन्तु उसमें वे श्लोक विलुप्त हैं जिनमें विक्रमादित्य की प्रशंसा की गई है जबकि वैंकटेश्वर प्रेस, बम्बई द्वारा 1940 ई. में प्रकाशित इसी भाष्य में वे श्लोक विद्यमान हैं। यह पाठ जानबूझ कर विलुप्त कराए गए हैं क्योंकि विक्रमादित्य को भारत के इतिहास में दिखाना ही नहीं था।

-- (‘पं. कोटावेंकटचलम कृत क्रोनोलोजी ऑफ कश्मीर हिस्ट्री रिकन्सट्रक्टेड‘, पृ. 203-208)

#विशेष -
अंग्रेजी सत्ता के समक्ष भारत के इतिहास, धर्म और भाषा को बदलने की योजना को सार्थक बनाने में सबसे बड़ी बाधा यहाँ का अपार ज्ञान से युक्त बड़ी मात्रा में सुलभ साहित्य था। साहित्य के बल पर ही भारत के लोग बार-बार गिरकर भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भावना से भरकर पुनः संघर्षरत हो उठते थे। सदियों तक एक के बाद दूसरे युद्धों में लगे रहनेऔर सैंकड़ों वर्षों तक निरन्तर पराधीन बने रहने पर भी भारतीय न केवल अपने प्राचीन साहित्य के महत्त्व को ही वरन अपनी पुरातन संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, रहन-सहन और धर्म के स्वरूप को भी बहुत कुछ उसी रूप में अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ रह सके।

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अजेष्ठ त्रिपाठी

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