भारतीय इतिहास का विकृतिकरण 3
भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
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कल के पोस्ट से आगे ......
यूरोपवासी आर्यवंशी
अंग्रेजी सत्ता के उद्देश्य की पूर्ति में लगे न केवल अंग्रेज विद्वान ही वरन उनसे प्रभावित और उनकी योजना में सहयोगी बने अन्य पाश्चात्य विद्वान, यथा- मैक्समूलर, वेबर, विंटर्निट्ज आदि भी शुरू-शुरू में भारत के इतिहास और साहित्य तथा सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता, महानता और श्रेष्ठता को नकारते ही रहे तथा भारत के प्रति बड़ी अनादर और तिरस्कार की भावना भी दिखाते रहे किन्तु जब उन्होंने देखा कि यूरोप के ही काउन्ट जार्नस्टर्जना, जैकालियट, हम्बोल्ट आदि विद्वानों ने भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति की प्रभावी रूप में सराहना करनी शुरू कर दी है तो इन लेखकों ने इस डर से कि कहीं उनको दुराग्रही न मान लिया जाए, भारत की सराहनाकरनी शुरू कर दी। इन्होंने यह भी सोचा कि यदि हम यूँ ही भारतीय ज्ञान-भण्डार का निरादर करते रहेतो विश्व समाज में हमें अज्ञानी माना जाने लगेगा अतः इन्होंने भी भारत के गौरव, ज्ञान और गरिमा का बखान करना शुरू कर दिया। कारण यह रहा हो या अन्य कुछ, विचार परिवर्तन की दृष्टि से पाश्चात्य विद्वानों के लेखन में क्रमशः आने वाला अन्तर एकदम स्पष्ट रूप से दिखाई देता है -
पहली स्थिति में इन विद्वानों ने भारत की निन्दा की, दूसरी स्थिति में सराहना की और बाद में तीसरी स्थिति में गुण-ग्राहकता दिखाई। इनके विचार किस प्रकार बदले हैं, यह बात निम्नलिखित उद्धरणों से अधिक स्पष्ट हो जाती है -
पहली स्थिति: तिरस्कार और निन्दा
(1) India has been conquered once but India must be conquered again and the second conquest should be attained by education. .. भारत को एक बार जीता जा चुका है, अवश्य ही इसे पुनः जीतना होगा, किन्तु इस बार शिक्षा के माध्यम से।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 95 पर उद्धृत)
(2) Large number of Vedic hymns are childish in the extreme, tedious, low, common place (वेद की अधिकांश ऋचाएँ बचकानी, क्लिष्ट, निम्न और अतिसामान्य है।)
(‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 21 परउद्धृत)
दूसरी स्थिति: सराहना : ‘‘जिसने बर्कले का दर्शन, उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्रोंका समान रूप से अध्ययन किया है वह विश्वास के साथ कहेगा कि उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्रोंके सामने वर्कले का दर्शन नितान्त अधूरा और बौना है।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 46 पर उद्धृत)
तीसरी स्थिति: गुणग्राहकता
(1) ‘‘यूरोपीय राष्ट्रों के विचार, वाङ्मय और संस्कृति के स्रोत तीन ही रहे हैं- ग्रीस, रोम तथा इज्राइल। अतः उनका आध्यात्मिक जीवन अधूरा है, संकीर्णहै। यदि उसे परिपूर्ण, भव्य, दिव्य और मानवीय बनाना है तो मेरे विचार में भाग्यशाली भरतखण्ड का ही आधार लेना पड़ेगा।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 51 पर उद्धृत)
(2) ‘‘आचार्य (शंकर) भाष्य का जब तक किसी यूरोपीय भाषा में सुचारु अनुवाद नहीं हो जाता तब तक दर्शन का इतिहास पूरा हो ही नहीं सकता। भाष्य की महिमा गाते हुए साक्षात सरस्वती भी थक जाएगी।
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 46-47 पर उद्धृत)
किन्तु इस तीसरी स्थिति के बावजूद भी यूरोपीय लेखकयह स्वीकार करने में असमर्थ रहे कि यूरोप वाले आर्यों (भारतीयों) से निचले स्तर पर रहे थे। अतः उन्होंने संस्कृत और लैटिन आदि भाषाओं के शब्दों की समानता को लेकर ‘‘एक ही भाषा के बोलनेवाले एक ही स्थान पर रहे होंगे‘‘ के सिद्धान्त की स्थापना की और इस प्रकार आर्यों से यूरोप वालों का रक्त सम्बन्ध स्थापित कर दिया। मैक्समूलर आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने पहले तो आर्यों को एक जाति विशेष बनाया और धीरे-धीरे एक के बाद एक कई ऐसे यूरोपीय विद्वान आए जिन्होंने आर्यों के गुणों से आकृष्ट होकर यूरोपीय लोगों को इस जाति विशेष से ही जोड़ दिया। इस संदर्भ में मैक्समूलर का कहना है कि-
‘‘आर्यवर्त्त का प्राचीन देश ही गोरी जाति का उत्पत्ति स्थान है। भारत भूमि ही मानव जाति की माता और विश्व की समस्त परम्पराओं का उद्गम-स्थल है।उत्तर भारत से ही आर्यों का अभियान फारस की ओर गया था।‘‘ (‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘)
मैक्समूलर ने यह भी कहा है कि -
यह निश्चित हो चुका है कि हम सब पूर्व की ओर से आए हैं। इतना ही नहीं हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएं तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोए हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।
(‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘, पृ. 29)
कर्जन तो स्पष्ट रूप से कहता है कि- ‘‘गोरी जाति वालों का उद्गम स्थान भारत ही है।‘‘ (जनरल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी‘, खण्ड 16, पृ.172-200)
भारतीय मनीषी तो चाहे प्राचीन काल के रहे हों या अर्वाचीन काल के, यही मानते हैं कि आर्य कोई जाति विशेष नहीं है।
उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों सहित समस्त प्राचीन भारतीय साहित्य में जहाँ भी ‘आर्य‘ शब्द का प्रयोग किया गया है, वहाँ ‘श्रेष्ठ व्यक्ति‘ के लिए ही किया गया है। इस श्रेष्ठत्त्व से भारतवासी ही आवेष्टित क्यों हों यूरोप वाले क्यों नहीं, अतः उन्होंने इस श्रेष्ठत्त्व से यूरोपवालों को महिमामंडित करने का सुअवसर हाथ से खोना नहीं चाहा और उन्हें भी आर्यवंशी बना दिया।
इस संदर्भ में जार्ज ग्रियर्सन का अपनी रिपोर्ट ‘ऑन दिलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया‘ में उल्लिखित यह कथन दर्शनीय है - ‘‘भारतीय मानव स्कन्ध में उत्पन्न भारत-तूरानी अपने को वास्तविक अर्थ में साधिकार ‘आर्य‘ कह सकते हैं किन्तु हम अंग्रेजों को अपने को ‘आर्य‘ कहने का अधिकार नहीं हैं।
भारत की सभ्यता विश्व में सर्वाधिक प्राचीन नहीं
भारत के पुराण तथा अन्य पुरातन साहित्य में स्थान-स्थान पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि भारत में मानव सभ्यता का जन्म सृष्टि-निर्माण के लगभग साथ-साथ ही हो चुका था और धीरे-धीरे उसका विस्तार विश्व के अन्य क्षेत्रों में भीहोता रहा अर्थात भारतीय सभ्यता विश्व में सर्वाधिक प्राचीन तो है ही वह विश्वव्यापिनी भी रही है किन्तु आज का इतिहासकार इस तथ्य से सहमत नहीं है। वह तो इसे 2500 से 3000 वर्ष ई. पू. के बीच की मानता रहा है। साथ ही वह भारतीयों को घर घुस्सु और ज्ञान-विज्ञान से विहीन भी मानता रहा है किन्तु भारत मेंऔर उसकी वर्तमान सीमाओं के बाहर विभिन्न स्थानों पर हो रहे उत्खननों में मिली सामग्री के पुरातात्त्विक विज्ञान के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष उसे प्राचीन से प्राचीनतर बनाते जा रहे हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खोजों से वह 4000 ई. पू. तक पहुँ च ही चुकी थी। मोतीहारी (मध्यप्रदेश) लोथल और रंगपुर (गुजरात) बहादुराबाद और आलमगीरपुर (उत्तरप्रदेश) आदि में हुए उत्खननों में मिली सामग्रीउसे 5000 ई. पू. से पुरानी घोषित कर रही है। तिथ्यांकन की कार्बन और दूसरी प्रणालियाँ इस काल सीमाको आगे से आगे ले जा रही हैं। इस संदर्भ में बिलोचिस्तान के मेहरगढ़ तथा भारत के धौलावीरा आदि की खुराइयाँ भी उल्लेखनीय हैं, जो भारतीय सभ्यता को 10000 ई. पूर्व की सिद्ध कर रही है। गुजरात के पास खम्भात की खाड़ी में पानी के नीचे मिले नगर के अवशेष इसे 10000 ई. पू. से भी प्राचीन बताने जा रहे हैं।
दूसरी ओर प्रो. डब्ल्यु ड्रेपर के कथन के अनुसार स्काटलैण्ड में 1.40 लाख वर्ष पूर्व के प्राचीन हाथियों आदि जानवरों के अवशेषों के साथ मानव की हड्डियाँ भी मिली हैं। केन्या के संग्रहालय के डॉ.लीके ने 1.70 लाख वर्ष पूर्व विद्यमान मानव का अस्थि पिंजर खोज निकाला है। अमेरिका के येल विद्यालय के प्रो. इ. एल. साइमन्स ने ऐसे मनुष्य के जबड़े की अस्थियों का पता लगाया है जो 1.40 करोड़ वर्ष पुरानी हैं।
ईसाई धर्म के अनुसार यह भले ही माना जा रहा हो किमानव सृष्टि का निर्माण कुछ हजार वर्ष पूर्व ही हुआ है किन्तु आज की नई-नई वैज्ञानिक खोजें इस काल को लाखों-लाखों वर्ष पूर्व तक ले जा रही हैं। पाश्चात्य जगत के एक-दो नहीं, अनेक विद्वानों का मानना है कि सृष्टि का प्रथम मानव भारत में ही पैदा हुआ है कारण वहाँ की जलवायु ही मानव की उत्पत्ति के लिए सर्वाधिक अनुकूल रही है। भारतीय पुरातन साहित्य में उल्लिखित इस तथ्य की कि भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता है, पुष्टि यहाँ पुरातत्त्व विज्ञान द्वारा की जा रही है।
आदि मानव जंगली और मांसाहारीसंपादित करें
मानव जाति का इतिहास लिखते समय आधुनिक इतिहासकारों, विशेषकर पाश्चात्यों के सामने जहाँ डार्बिन जैसे वैज्ञानिकों का मानव जीवन के विकास को दर्शाने वाले ‘विकासवाद‘ का सिद्धान्त था, जिसके अनुसार मानव का पूर्वज वनमानुष था और उसका पूर्वज बन्दर था और इस प्रकार पूर्वजों की गाथा को आगे बढ़ाकर कीड़े-मकौड़े ही नहीं एक लिजलिजी झिल्ली तक पहुँचा दिया जाता है, वहीं उनके सामने इंग्लैण्ड आदि देशों के पूर्वजों के जीवनयापन का ढंगभी था, जिसमें वे लोग जंगलों में रहते थे, पेड़ों पर सोते थे, पशुओं का शिकार करते थे और उनके मांस आदि का आहार करते थे। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा यह मान लिया जाना अत्यन्त स्वाभाविक था कि आदि काल में मानव अत्यन्त ही अविकसित स्थिति में था। उसे न तो ठीक प्रकार से रहना आता था और न हीखाना-पीना। वह खुले आकाश के नीचे नदियों के किनारे अथवा पहाड़ों की गुफाओं में रहता था और आखेट में मारे पशु-पक्षियों के मांस से वह अपने जीवन का निर्वाह करता था। दूसरे शब्दों में इन इतिहासकारों की दृष्टि में आदि मानव जंगली और मांसाहारी था।
प्राचीन भारतीय वाङ्मयसंपादित करें
भारत के प्राचीन वाङ्मय में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, पुराण, चरकसंहिता आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें इस संदर्भ में आए ब्योरे इस प्रकार हैं -
ऋग्वेद - इस वेद में यज्ञ के संदर्भ में जितने भी शब्दों का प्रयोग किया गया है, उनमें से किसी के भी अर्थ का पशुवध या हिंसा से दूर तक का भी सम्बन्ध नहीं है। प्रत्युत ‘अध्वर‘ जैसे शब्दों से अहिंसा की ध्वनि निकलती है। यज्ञों में ‘अध्वर्यू‘ की नियुक्ति अहिंसा के उद्देश्य से ही की जाती है। वह इस बात का ध्यान रखता है कि यज्ञ में कायिक, वाचिक और मानसिककिसी भी प्रकार की हिंसा न हो। यही नहीं, ऋग्वेद के मंत्र 10.87.16 में तो मांसभक्षी का सर कुचल देने की बात भी कही गई है।
यजुर्वेद - इस वेद में पशु हत्या का निषेध करते हुए उनके पालन पर जोर दिया गया है। जब उनकी हत्या ही वर्जित है तो उनको खाने के लिए कैसे स्वीकारा जा सकता है ?
अथर्ववेद - इस वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मांसाहारी, शराबी और व्यभिचारी एक समान ही मार डालने योग्य हैं। इसी वेद के मंत्र सं. 9.6.9 में तो और भी स्पष्ट रूप में कहा गया है - ‘गाय का दूध, दही, घी खाने योग्य है मांस नहीं।‘
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि वेदों में पशुओं को मारने और मांस खाने के लिए मना किया गया है अर्थात वैदिक आर्य लोग न तो मांस खाते थे और न ही पशुओं को मारते थे। दूसरे शब्दों में आदि कालीन मानव मांसाहारी नहीं था।
चरक संहिता - ‘चरक संहिता‘ के चिकित्सा स्थान 19.4 में लिखा हुआ है कि आदिकाल में यज्ञों में पशुओं का स्पर्श मात्र होता था। वे आलम्भ थे यानि उनका वध नहीं किया जाता था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आदिकाल में पशुओं को मार कर खा जाना तो दूर यज्ञों में भी पशुओं का वध नहीं किया जाता था।
महाभारत के अनुशासन पर्व और मत्स्य पुराण में भी इस प्रकार के तथ्यों के उल्लेख आए हैं। ‘‘वाशिष्ट धर्मसूत्र‘‘ का अध्याय 21 भी इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके अनुसार उस काल में भी वृथा मांस भक्षण निषिद्ध था।
प्राचीन विदेशी वाङ्मयसंपादित करें
यहूदी और यवन - आर्यों की भाँति ही यहूदी और यवन लोग भी कालमान में चतुर्युगी में विश्वास करते थे। उनके यहाँ प्राचीन ग्रन्थों में लिखा मिलता है कि सुवर्ण युग (सत्युग) में मनुष्य निरामिष भोजी था। पं. भगवद्दत्त ने इन संदर्भ में एक उदाहरण दियाहै जिसमें बताया गया है कि-
Among the Greaks and Semities, therefore, the idea of a Golden age and the trait that in that age man was vegetarian in his diet ...(‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास‘, भाग-1, पृष्ठ 211)
हेरोडोटस- प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस ने अपने ग्रन्थ के भाग-1 के पृष्ठ 173 पर लिखा है कि मिस्र के पुरोहितों का यह धार्मिक सिद्धान्त था कि वे यज्ञ के अतिरिक्त किसी जीवित पशु को नहीं मारते थे। स्पष्ट है कि यज्ञ के अलावा पशु हत्या वहाँ भी नहीं होती थी।
मेगस्थनीज- मेगस्थनीज के अनुसार आदिकाल में मानव पृथ्वी से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न आहार पर निर्भर था। (फ्रेग्मेन्ट्स, पृष्ठ 34)
भारतीय और विदेशी वाङ्मय के आधार पर दिए गए उक्त विवरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आदिकालीन मानव मांसाहारी नहीं वरन निरामिष भोजी था। क्रमशः...........
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
धन्यवाद
सत्य ही सुसंस्कृत है।
धन्यवाद
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कल के पोस्ट से आगे ......
यूरोपवासी आर्यवंशी
अंग्रेजी सत्ता के उद्देश्य की पूर्ति में लगे न केवल अंग्रेज विद्वान ही वरन उनसे प्रभावित और उनकी योजना में सहयोगी बने अन्य पाश्चात्य विद्वान, यथा- मैक्समूलर, वेबर, विंटर्निट्ज आदि भी शुरू-शुरू में भारत के इतिहास और साहित्य तथा सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता, महानता और श्रेष्ठता को नकारते ही रहे तथा भारत के प्रति बड़ी अनादर और तिरस्कार की भावना भी दिखाते रहे किन्तु जब उन्होंने देखा कि यूरोप के ही काउन्ट जार्नस्टर्जना, जैकालियट, हम्बोल्ट आदि विद्वानों ने भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति की प्रभावी रूप में सराहना करनी शुरू कर दी है तो इन लेखकों ने इस डर से कि कहीं उनको दुराग्रही न मान लिया जाए, भारत की सराहनाकरनी शुरू कर दी। इन्होंने यह भी सोचा कि यदि हम यूँ ही भारतीय ज्ञान-भण्डार का निरादर करते रहेतो विश्व समाज में हमें अज्ञानी माना जाने लगेगा अतः इन्होंने भी भारत के गौरव, ज्ञान और गरिमा का बखान करना शुरू कर दिया। कारण यह रहा हो या अन्य कुछ, विचार परिवर्तन की दृष्टि से पाश्चात्य विद्वानों के लेखन में क्रमशः आने वाला अन्तर एकदम स्पष्ट रूप से दिखाई देता है -
पहली स्थिति में इन विद्वानों ने भारत की निन्दा की, दूसरी स्थिति में सराहना की और बाद में तीसरी स्थिति में गुण-ग्राहकता दिखाई। इनके विचार किस प्रकार बदले हैं, यह बात निम्नलिखित उद्धरणों से अधिक स्पष्ट हो जाती है -
पहली स्थिति: तिरस्कार और निन्दा
(1) India has been conquered once but India must be conquered again and the second conquest should be attained by education. .. भारत को एक बार जीता जा चुका है, अवश्य ही इसे पुनः जीतना होगा, किन्तु इस बार शिक्षा के माध्यम से।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 95 पर उद्धृत)
(2) Large number of Vedic hymns are childish in the extreme, tedious, low, common place (वेद की अधिकांश ऋचाएँ बचकानी, क्लिष्ट, निम्न और अतिसामान्य है।)
(‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 21 परउद्धृत)
दूसरी स्थिति: सराहना : ‘‘जिसने बर्कले का दर्शन, उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्रोंका समान रूप से अध्ययन किया है वह विश्वास के साथ कहेगा कि उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्रोंके सामने वर्कले का दर्शन नितान्त अधूरा और बौना है।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 46 पर उद्धृत)
तीसरी स्थिति: गुणग्राहकता
(1) ‘‘यूरोपीय राष्ट्रों के विचार, वाङ्मय और संस्कृति के स्रोत तीन ही रहे हैं- ग्रीस, रोम तथा इज्राइल। अतः उनका आध्यात्मिक जीवन अधूरा है, संकीर्णहै। यदि उसे परिपूर्ण, भव्य, दिव्य और मानवीय बनाना है तो मेरे विचार में भाग्यशाली भरतखण्ड का ही आधार लेना पड़ेगा।‘‘
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 51 पर उद्धृत)
(2) ‘‘आचार्य (शंकर) भाष्य का जब तक किसी यूरोपीय भाषा में सुचारु अनुवाद नहीं हो जाता तब तक दर्शन का इतिहास पूरा हो ही नहीं सकता। भाष्य की महिमा गाते हुए साक्षात सरस्वती भी थक जाएगी।
(‘विश्वव्यापिनी संस्कृति‘, पृ. 46-47 पर उद्धृत)
किन्तु इस तीसरी स्थिति के बावजूद भी यूरोपीय लेखकयह स्वीकार करने में असमर्थ रहे कि यूरोप वाले आर्यों (भारतीयों) से निचले स्तर पर रहे थे। अतः उन्होंने संस्कृत और लैटिन आदि भाषाओं के शब्दों की समानता को लेकर ‘‘एक ही भाषा के बोलनेवाले एक ही स्थान पर रहे होंगे‘‘ के सिद्धान्त की स्थापना की और इस प्रकार आर्यों से यूरोप वालों का रक्त सम्बन्ध स्थापित कर दिया। मैक्समूलर आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने पहले तो आर्यों को एक जाति विशेष बनाया और धीरे-धीरे एक के बाद एक कई ऐसे यूरोपीय विद्वान आए जिन्होंने आर्यों के गुणों से आकृष्ट होकर यूरोपीय लोगों को इस जाति विशेष से ही जोड़ दिया। इस संदर्भ में मैक्समूलर का कहना है कि-
‘‘आर्यवर्त्त का प्राचीन देश ही गोरी जाति का उत्पत्ति स्थान है। भारत भूमि ही मानव जाति की माता और विश्व की समस्त परम्पराओं का उद्गम-स्थल है।उत्तर भारत से ही आर्यों का अभियान फारस की ओर गया था।‘‘ (‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘)
मैक्समूलर ने यह भी कहा है कि -
यह निश्चित हो चुका है कि हम सब पूर्व की ओर से आए हैं। इतना ही नहीं हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण बातें हैं, सबकी सब हमें पूर्व से मिली हैं। ऐसी स्थिति में जब हम पूर्व की ओर जाएं तब हमें यह सोचना चाहिए कि पुरानी स्मृतियों को संजोए हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।
(‘इण्डिया, व्हाट इट कैन टीच अस‘, पृ. 29)
कर्जन तो स्पष्ट रूप से कहता है कि- ‘‘गोरी जाति वालों का उद्गम स्थान भारत ही है।‘‘ (जनरल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी‘, खण्ड 16, पृ.172-200)
भारतीय मनीषी तो चाहे प्राचीन काल के रहे हों या अर्वाचीन काल के, यही मानते हैं कि आर्य कोई जाति विशेष नहीं है।
उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेदों सहित समस्त प्राचीन भारतीय साहित्य में जहाँ भी ‘आर्य‘ शब्द का प्रयोग किया गया है, वहाँ ‘श्रेष्ठ व्यक्ति‘ के लिए ही किया गया है। इस श्रेष्ठत्त्व से भारतवासी ही आवेष्टित क्यों हों यूरोप वाले क्यों नहीं, अतः उन्होंने इस श्रेष्ठत्त्व से यूरोपवालों को महिमामंडित करने का सुअवसर हाथ से खोना नहीं चाहा और उन्हें भी आर्यवंशी बना दिया।
इस संदर्भ में जार्ज ग्रियर्सन का अपनी रिपोर्ट ‘ऑन दिलिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया‘ में उल्लिखित यह कथन दर्शनीय है - ‘‘भारतीय मानव स्कन्ध में उत्पन्न भारत-तूरानी अपने को वास्तविक अर्थ में साधिकार ‘आर्य‘ कह सकते हैं किन्तु हम अंग्रेजों को अपने को ‘आर्य‘ कहने का अधिकार नहीं हैं।
भारत की सभ्यता विश्व में सर्वाधिक प्राचीन नहीं
भारत के पुराण तथा अन्य पुरातन साहित्य में स्थान-स्थान पर ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि भारत में मानव सभ्यता का जन्म सृष्टि-निर्माण के लगभग साथ-साथ ही हो चुका था और धीरे-धीरे उसका विस्तार विश्व के अन्य क्षेत्रों में भीहोता रहा अर्थात भारतीय सभ्यता विश्व में सर्वाधिक प्राचीन तो है ही वह विश्वव्यापिनी भी रही है किन्तु आज का इतिहासकार इस तथ्य से सहमत नहीं है। वह तो इसे 2500 से 3000 वर्ष ई. पू. के बीच की मानता रहा है। साथ ही वह भारतीयों को घर घुस्सु और ज्ञान-विज्ञान से विहीन भी मानता रहा है किन्तु भारत मेंऔर उसकी वर्तमान सीमाओं के बाहर विभिन्न स्थानों पर हो रहे उत्खननों में मिली सामग्री के पुरातात्त्विक विज्ञान के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष उसे प्राचीन से प्राचीनतर बनाते जा रहे हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खोजों से वह 4000 ई. पू. तक पहुँ च ही चुकी थी। मोतीहारी (मध्यप्रदेश) लोथल और रंगपुर (गुजरात) बहादुराबाद और आलमगीरपुर (उत्तरप्रदेश) आदि में हुए उत्खननों में मिली सामग्रीउसे 5000 ई. पू. से पुरानी घोषित कर रही है। तिथ्यांकन की कार्बन और दूसरी प्रणालियाँ इस काल सीमाको आगे से आगे ले जा रही हैं। इस संदर्भ में बिलोचिस्तान के मेहरगढ़ तथा भारत के धौलावीरा आदि की खुराइयाँ भी उल्लेखनीय हैं, जो भारतीय सभ्यता को 10000 ई. पूर्व की सिद्ध कर रही है। गुजरात के पास खम्भात की खाड़ी में पानी के नीचे मिले नगर के अवशेष इसे 10000 ई. पू. से भी प्राचीन बताने जा रहे हैं।
दूसरी ओर प्रो. डब्ल्यु ड्रेपर के कथन के अनुसार स्काटलैण्ड में 1.40 लाख वर्ष पूर्व के प्राचीन हाथियों आदि जानवरों के अवशेषों के साथ मानव की हड्डियाँ भी मिली हैं। केन्या के संग्रहालय के डॉ.लीके ने 1.70 लाख वर्ष पूर्व विद्यमान मानव का अस्थि पिंजर खोज निकाला है। अमेरिका के येल विद्यालय के प्रो. इ. एल. साइमन्स ने ऐसे मनुष्य के जबड़े की अस्थियों का पता लगाया है जो 1.40 करोड़ वर्ष पुरानी हैं।
ईसाई धर्म के अनुसार यह भले ही माना जा रहा हो किमानव सृष्टि का निर्माण कुछ हजार वर्ष पूर्व ही हुआ है किन्तु आज की नई-नई वैज्ञानिक खोजें इस काल को लाखों-लाखों वर्ष पूर्व तक ले जा रही हैं। पाश्चात्य जगत के एक-दो नहीं, अनेक विद्वानों का मानना है कि सृष्टि का प्रथम मानव भारत में ही पैदा हुआ है कारण वहाँ की जलवायु ही मानव की उत्पत्ति के लिए सर्वाधिक अनुकूल रही है। भारतीय पुरातन साहित्य में उल्लिखित इस तथ्य की कि भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता है, पुष्टि यहाँ पुरातत्त्व विज्ञान द्वारा की जा रही है।
आदि मानव जंगली और मांसाहारीसंपादित करें
मानव जाति का इतिहास लिखते समय आधुनिक इतिहासकारों, विशेषकर पाश्चात्यों के सामने जहाँ डार्बिन जैसे वैज्ञानिकों का मानव जीवन के विकास को दर्शाने वाले ‘विकासवाद‘ का सिद्धान्त था, जिसके अनुसार मानव का पूर्वज वनमानुष था और उसका पूर्वज बन्दर था और इस प्रकार पूर्वजों की गाथा को आगे बढ़ाकर कीड़े-मकौड़े ही नहीं एक लिजलिजी झिल्ली तक पहुँचा दिया जाता है, वहीं उनके सामने इंग्लैण्ड आदि देशों के पूर्वजों के जीवनयापन का ढंगभी था, जिसमें वे लोग जंगलों में रहते थे, पेड़ों पर सोते थे, पशुओं का शिकार करते थे और उनके मांस आदि का आहार करते थे। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा यह मान लिया जाना अत्यन्त स्वाभाविक था कि आदि काल में मानव अत्यन्त ही अविकसित स्थिति में था। उसे न तो ठीक प्रकार से रहना आता था और न हीखाना-पीना। वह खुले आकाश के नीचे नदियों के किनारे अथवा पहाड़ों की गुफाओं में रहता था और आखेट में मारे पशु-पक्षियों के मांस से वह अपने जीवन का निर्वाह करता था। दूसरे शब्दों में इन इतिहासकारों की दृष्टि में आदि मानव जंगली और मांसाहारी था।
प्राचीन भारतीय वाङ्मयसंपादित करें
भारत के प्राचीन वाङ्मय में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, पुराण, चरकसंहिता आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें इस संदर्भ में आए ब्योरे इस प्रकार हैं -
ऋग्वेद - इस वेद में यज्ञ के संदर्भ में जितने भी शब्दों का प्रयोग किया गया है, उनमें से किसी के भी अर्थ का पशुवध या हिंसा से दूर तक का भी सम्बन्ध नहीं है। प्रत्युत ‘अध्वर‘ जैसे शब्दों से अहिंसा की ध्वनि निकलती है। यज्ञों में ‘अध्वर्यू‘ की नियुक्ति अहिंसा के उद्देश्य से ही की जाती है। वह इस बात का ध्यान रखता है कि यज्ञ में कायिक, वाचिक और मानसिककिसी भी प्रकार की हिंसा न हो। यही नहीं, ऋग्वेद के मंत्र 10.87.16 में तो मांसभक्षी का सर कुचल देने की बात भी कही गई है।
यजुर्वेद - इस वेद में पशु हत्या का निषेध करते हुए उनके पालन पर जोर दिया गया है। जब उनकी हत्या ही वर्जित है तो उनको खाने के लिए कैसे स्वीकारा जा सकता है ?
अथर्ववेद - इस वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मांसाहारी, शराबी और व्यभिचारी एक समान ही मार डालने योग्य हैं। इसी वेद के मंत्र सं. 9.6.9 में तो और भी स्पष्ट रूप में कहा गया है - ‘गाय का दूध, दही, घी खाने योग्य है मांस नहीं।‘
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि वेदों में पशुओं को मारने और मांस खाने के लिए मना किया गया है अर्थात वैदिक आर्य लोग न तो मांस खाते थे और न ही पशुओं को मारते थे। दूसरे शब्दों में आदि कालीन मानव मांसाहारी नहीं था।
चरक संहिता - ‘चरक संहिता‘ के चिकित्सा स्थान 19.4 में लिखा हुआ है कि आदिकाल में यज्ञों में पशुओं का स्पर्श मात्र होता था। वे आलम्भ थे यानि उनका वध नहीं किया जाता था। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आदिकाल में पशुओं को मार कर खा जाना तो दूर यज्ञों में भी पशुओं का वध नहीं किया जाता था।
महाभारत के अनुशासन पर्व और मत्स्य पुराण में भी इस प्रकार के तथ्यों के उल्लेख आए हैं। ‘‘वाशिष्ट धर्मसूत्र‘‘ का अध्याय 21 भी इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके अनुसार उस काल में भी वृथा मांस भक्षण निषिद्ध था।
प्राचीन विदेशी वाङ्मयसंपादित करें
यहूदी और यवन - आर्यों की भाँति ही यहूदी और यवन लोग भी कालमान में चतुर्युगी में विश्वास करते थे। उनके यहाँ प्राचीन ग्रन्थों में लिखा मिलता है कि सुवर्ण युग (सत्युग) में मनुष्य निरामिष भोजी था। पं. भगवद्दत्त ने इन संदर्भ में एक उदाहरण दियाहै जिसमें बताया गया है कि-
Among the Greaks and Semities, therefore, the idea of a Golden age and the trait that in that age man was vegetarian in his diet ...(‘भारतवर्ष का बृहद इतिहास‘, भाग-1, पृष्ठ 211)
हेरोडोटस- प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस ने अपने ग्रन्थ के भाग-1 के पृष्ठ 173 पर लिखा है कि मिस्र के पुरोहितों का यह धार्मिक सिद्धान्त था कि वे यज्ञ के अतिरिक्त किसी जीवित पशु को नहीं मारते थे। स्पष्ट है कि यज्ञ के अलावा पशु हत्या वहाँ भी नहीं होती थी।
मेगस्थनीज- मेगस्थनीज के अनुसार आदिकाल में मानव पृथ्वी से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न आहार पर निर्भर था। (फ्रेग्मेन्ट्स, पृष्ठ 34)
भारतीय और विदेशी वाङ्मय के आधार पर दिए गए उक्त विवरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आदिकालीन मानव मांसाहारी नहीं वरन निरामिष भोजी था। क्रमशः...........
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
धन्यवाद
सत्य ही सुसंस्कृत है।
धन्यवाद
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