भारतीय इतिहास का विकृतिकरण 2
भारतीय इतिहास का विकृतिकरण
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कल के पोस्ट से आगे ......
भारत के मूल निवासी द्रविड़
अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में यह कोई जानताही नहीं था कि द्रविड़ और आर्य दो अलग-अलग जातियाँ हैं। यह बात तो देश में अंग्रेजों के आने के बाद ही सामने लाई गई। अंग्रेजों को यह कहना भी इसलिए पड़ा क्योंकि वे आर्यों को भारत में हमलावर बनाकर लाए थे। हमलावर के लिए कोई हमला सहने वाला भी तो चाहिए था। बस, यहीं से मूल निवासी की कथा चलाई गई और इसे सही सिद्ध करने के उद्देश्य से ‘द्रविड़‘ की कल्पना की गई। अन्यथाभारत के किसी भी साहित्यिक, धार्मिक या अन्य प्रकार के ग्रन्थ में इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य कहीं बाहर से आए थे। यदि थोड़ी देर के लिए इस बात को मान भी लियाजाए कि आर्यों ने विदेशों से आकर यहाँ के मूल निवासियों को युद्धों में हराया था तो पहले यह बताना होगा कि उन मूल निवासियों के समय इस देश का नाम क्या था ? क्योंकि जो भी व्यक्ति जहाँ रहते हैं, वे उस स्थान का नाम अवश्य रखते हैं। जबकि किसी भी प्राचीन भारतीय ग्रन्थ या तथाकथित मूल निवासियों की किसी परम्परा या मान्यता में ऐसे किसी भी नाम का उल्लेख नहीं मिलता।
संस्कृति के चार अध्याय‘ ग्रन्थ के पृष्ठ 25 पर रामधारीसिंह ‘दिनकर‘ का कहना है कि जाति या रेस (race) का सिद्धान्त भारत में अंग्रेजों के आने के बाद ही प्रचलित हुआ, इससे पूर्व इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य जाति के लोग एक दूसरे को विजातीय समझते थे। वस्तुतः द्रविड़ आर्यों के ही वंशज हैं। मैथिल, गौड़, कान्यकुब्ज आदि की तरह द्रविड़ शब्द भी यहाँ भौगोलिक अर्थ देने वाला है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि आर्यों के बाहरसे आने वाली बात को प्रचारित करने वालों में मि. म्यूर, जो सबके अगुआ थे, को भी अन्त में निराश होकर यह स्वीकार करना पड़ा है कि - ‘‘किसी भी प्राचीन पुस्तक या प्राचीन गाथा से यह बात सिद्ध नहीं की जा सकती कि आर्य किसी अन्य देश से यहाँ आए।‘‘ (‘म्यूर संस्कृत टेक्स्ट बुक‘ भाग-2, पृष्ठ 523)
इस संदर्भ में टामस बरो नाम के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता का ‘क्लारानडन प्रेस, ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित और ए. एल. भाषम द्वारा सम्पादित ‘कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इण्डिया‘ में छपे ‘दि अर्ली आर्यन्स‘ में उद्धृत यह कथन उल्लेखनीय है कि- ‘‘आर्यों के भारत पर आक्रमण का न कहीं इतिहास में उल्लेख मिलता है और न इसे पुरातात्त्विक आधारों पर सिद्ध किया जा सकता है‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृष्ठ-126 पर उद्धृत)
इस संदर्भ में रोमिला थापर का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि ‘‘आर्यों के संदर्भ में बनी हमारी धारणाएँ कुछ भी क्यों न हों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों से बड़े पैमाने पर किसी आक्रमण या आव्रजन का कोई संकेत नहीं मिलता ...... गंगा की उपत्यका के पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह प्रकट नहीं होता कि यहाँ के पुराने निवासियों को कभी भागना या पराजित होना पड़ा था।‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 113 पर उद्धृत)
अंग्रेजों ने इस बात को भी बड़े जोर से उछाला है कि ‘आक्रान्ता आर्यों‘ ने द्रविड़ों के पूर्वजों पर नृशंस अत्याचार किए थे। वाशम, नीलकंठ शास्त्री आदि विद्वान यद्यपि अनेक बार यह लिख चुके हैं कि ‘आर्य‘ और ‘द्रविड़‘ शब्द नस्लवाद नहीं है फिर भी संस्कृत के अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर बने लेखक, साम्राज्यवादी प्रचारक और राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धिको सर्वोपरि मानने वाले नेता इस विवाद को आँख मींच कर बढ़ावा देते रहे हैं। पाश्चात्य विद्वानोंने द्रविड़ों की सभ्यता को आर्यों की सभ्यता से अलग बताने के लिए ‘हड़प्पा कालीन सभ्यता‘ को एक बड़े सशक्तहथियार के रूप में लिया था। पहले तो उन्होंने हड़प्पाकालीन सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता बताया किन्तु जब विभिन्न विद्वानों की नई खोजों से उनका यह कथन असत्य हो गया तो वे कहने लगे कि हड़प्पा के लोग वर्तमान ‘द्रविड़‘ नहीं, वे तो भूमध्य सागरीय ‘द्रविड़‘ थे - अर्थात वे कुछ भी थे किन्तु आर्य नहीं थे। इस प्रकार की भ्रान्तियाँ जान-बूझकर फैलाई गई थीं। जबकि सत्य तो यह है कि हड़प्पा की सभ्यता भी आर्य सभ्यता का ही अंश थी और आर्य सभ्यता वस्तुतः इससे भी हजारों-हजारों वर्ष पुरानी है।
इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य और द्रविड़ अलग नहीं थे। जब अलग थे ही नहीं तो यह कहना कि भारत के मूल निवासी आर्य नहीं द्रविड़ थे, ठीक नहीं है। अब समय आ गया है कि आर्यों के आक्रमण और आर्य-द्रविड़ भिन्नता वाली इस मान्यता को विभिन्न नई पुरातात्विक खोजों और शोधपरक अध्ययनों के प्रकाश में मात्र राजनीतिक ‘मिथ‘ मानकर त्याग दिया जाना चाहिए।
दासों या दस्युओं को आर्यों ने अनार्य बनाकर शूद्रकी कोटि में डाला
भारतीय समाज को जाति, मत, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर बांटकर उसकी एकात्मता छिन्न-भिन्न करने के लिए ही अंग्रेजी सत्ता ने यह भ्रान्ति फैलाई थी कि आर्यों ने बाहर से आकर यहाँ पर पहले से रह रहीं जातियों को युद्धों में हराकर दास या दस्यु बनाकर बाद में अपनी संस्कृति में दीक्षित कर उन्हें शूद्र की कोटि में डाल दिया। इस संदर्भ मेंकई प्रश्न उठते हैं कि क्या दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं, यदि नहीं, तो इन्हें अनार्य घोषित करने के पीछे अभिप्राय क्या था और क्या शूद्र कोटि भारतीय समाज में उस समय घृणित या अस्पृश्य अथवा छोटी मानी जाती थी ? इन प्रश्नों पर पृथक-पृथक विचार करना होगा।
क्या दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं? - दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं या नहीं, यह जानने के लिए पहले यह देखना होगा कि आर्य वाङ्मय में दास या दस्यु शब्द का प्रयोग किस-किस अर्थ में अथवा किस अभिप्राय से किया गया है। आर्यों के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के मंत्र संख्या 1. 5. 19 तथा 9. 41. 2 में दास या दस्यु शब्द का प्रयोग अयाज्ञिकऔर अव्रतों के लिए और मंत्र संख्या 1. 51. 8 में इसका प्रयोग शत्रु, चोर, डाकू अथवा धार्मिक क्रियाओंका विनाश करने वालों के लिए किया गया है। मनुस्मृति के 10.4 में कम्बोज आदि जातियों के पतित हो जाने वाले लोगों को दास या दस्यु कहा गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में निष्क्रिय व्यक्तियों को दास या दस्यु शब्द से अभिहित किया गया है। स्पष्ट है कि इन शब्दों का प्रयोग सभी जगह कुछ विशिष्ट प्रकार के लोगों के लिए ही किया गया है, किसी जाति विशेष के रूप में नहीं।
इनको अनार्य बनाने के पीछे क्या अभिप्राय रहा? -आर्य वाङ्मय में स्थान-स्थान पर ‘अनार्य‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। वाल्मीकि रामायणके 2. 18. 31 में दशरथ की पत्नी कैकेई के लिए ‘अनार्या‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में ‘‘अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन‘‘ के माध्यम से अकीर्तिकर कार्यों के लिए ‘अनार्यजुष्ट‘ जैसे शब्दोंका प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद के मंत्र संख्या 7. 6. 3 के अनुसार अव्रतियों, अयाज्ञिकों, दंभिओं, अपूज्यों और दूषित भाषा का प्रयोग करने वालों के लिए ‘मृघ्रवाच‘ शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात किसी भी आर्य ग्रन्थ में ‘अनार्य‘ शब्द जातिवाचक के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। स्पष्ट है कि ऋग्वेद आदि में स्थान-स्थान पर आए अनार्य, दस्यु, कृष्णगर्भा, मृघ्रवाच आदि शब्द आर्यों से भिन्न जातियों के लिए न होकर आर्य कर्मों से च्युत व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुए हैं अर्थात ‘अनार्य‘ शब्द जातिवाचक रूप में कहीं भी प्रयोगमें नहीं लाया गया।
क्या शूद्र कोटि भारतीय समाज में उस समय घृणित या अस्पृश्य अथवा छोटी मानी जाती थी? - प्राचीन काल में भारतीय समाज के चारों वर्ण यथा- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र परस्पर सहयोगी थे। एक वर्ण दूसरे में जा सकता था। उस समय वर्ण नहीं समाज में उसकी उपयोगिता कर्म की प्रमुखता से थी। भारत के किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, जहाँ कहा गया हो कि शूद्र घृणित या अस्पृश्य या छोटा होता है या उच्च वर्ग बड़े होते हैं। समाज में सभी का समान महत्त्व था।
चारों वर्णों को समाज रूपी शरीर के चार प्रमुख अंग माना गया था, यथा- ब्राह्मण-सिर, क्षत्रिय-बाहु, वैश्य-उदर और शूद्र-चरण। चारों वर्णों की समान रूप से अपनी-अपनी उपयोगिता होते हुए भी शूद्र की उपयोगिता समाज के लिए सर्वाधिक रही है।समाज रूपी शरीर को चलाने, उसे गतिशील बनाने और सभी कार्य व्यवहार सम्पन्न कराने का सम्पूर्ण भार वहन करने का कार्य पैरों का होता है। भारतीय समाज में शूद्रों के साथ छुआछूत या भेदभाव का व्यवहार, जैसा कि आजकल प्रचारित किया जाता है, प्राचीन काल में नहीं था। वैदिक साहित्य से तो यहभी प्रमाणित होता है कि ‘शूद्र‘ मंत्रद्रष्टा ऋषि भी बन सकते थे। ‘कवष ऐलुषु‘ दासीपुत्र अर्थात शूद्र थे किन्तु उनकी विद्वत्ता को परख कर ऋषियों ने उन्हें अपने में समा लिया था। वे ऋग्वेद की कई ऋचाओं के द्रष्टा थे। सत्यकाम जाबालि शूद्र होते हुए भी यजुर्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक थे। (छान्दोगय 4.4) इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘शूद्रो को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है‘‘, ऐसा कहने वाले झूठे हैं। कारण शूद्रों द्वारा वेद-पाठ की तो बात ही क्या वे तो वेद के मंत्र द्रष्टा भी थे। सामाजिक दृष्टि से यह भेदभाव तो मुख्यतः मुसलमानों और अंग्रेजों द्वारा अपने-अपने राज्यकालों में इस देश के समाज को तोड़ने के लिए पैदा किया गया था।
वस्तुतः वर्ण व्यवस्था समाज में अनुशासन लाने के लिए,उसकी उन्नति के लिए और उसके आर्थिक विकास के लिए बनाई गई थी।
डॉ. अम्बेडकर ने अपनी रचना ‘शूद्र पूर्वी कोण होते‘ के पृष्ठ 66 और 74-75 पर बड़े प्रबल प्रमाणों से सिद्ध किया है कि शूद्र वर्ण समाज से भिन्न नहीं है अपितु क्षत्रियों का ही एक भेद है। संस्कृत साहित्य में सदाचरण या असदाचरण के आधार पर ही ‘आर्य‘, ‘अनार्य‘, ‘दस्यु‘, ‘दास‘ आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। वास्तव में ‘आर्य‘ शब्द को सुसंस्कारों से सम्पन्न धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया गया है।
अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज को तोड़ने के लिए फैलाई गई एक भ्रान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्रमशः...........
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
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धन्यवाद
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कल के पोस्ट से आगे ......
भारत के मूल निवासी द्रविड़
अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में यह कोई जानताही नहीं था कि द्रविड़ और आर्य दो अलग-अलग जातियाँ हैं। यह बात तो देश में अंग्रेजों के आने के बाद ही सामने लाई गई। अंग्रेजों को यह कहना भी इसलिए पड़ा क्योंकि वे आर्यों को भारत में हमलावर बनाकर लाए थे। हमलावर के लिए कोई हमला सहने वाला भी तो चाहिए था। बस, यहीं से मूल निवासी की कथा चलाई गई और इसे सही सिद्ध करने के उद्देश्य से ‘द्रविड़‘ की कल्पना की गई। अन्यथाभारत के किसी भी साहित्यिक, धार्मिक या अन्य प्रकार के ग्रन्थ में इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य कहीं बाहर से आए थे। यदि थोड़ी देर के लिए इस बात को मान भी लियाजाए कि आर्यों ने विदेशों से आकर यहाँ के मूल निवासियों को युद्धों में हराया था तो पहले यह बताना होगा कि उन मूल निवासियों के समय इस देश का नाम क्या था ? क्योंकि जो भी व्यक्ति जहाँ रहते हैं, वे उस स्थान का नाम अवश्य रखते हैं। जबकि किसी भी प्राचीन भारतीय ग्रन्थ या तथाकथित मूल निवासियों की किसी परम्परा या मान्यता में ऐसे किसी भी नाम का उल्लेख नहीं मिलता।
संस्कृति के चार अध्याय‘ ग्रन्थ के पृष्ठ 25 पर रामधारीसिंह ‘दिनकर‘ का कहना है कि जाति या रेस (race) का सिद्धान्त भारत में अंग्रेजों के आने के बाद ही प्रचलित हुआ, इससे पूर्व इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य जाति के लोग एक दूसरे को विजातीय समझते थे। वस्तुतः द्रविड़ आर्यों के ही वंशज हैं। मैथिल, गौड़, कान्यकुब्ज आदि की तरह द्रविड़ शब्द भी यहाँ भौगोलिक अर्थ देने वाला है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि आर्यों के बाहरसे आने वाली बात को प्रचारित करने वालों में मि. म्यूर, जो सबके अगुआ थे, को भी अन्त में निराश होकर यह स्वीकार करना पड़ा है कि - ‘‘किसी भी प्राचीन पुस्तक या प्राचीन गाथा से यह बात सिद्ध नहीं की जा सकती कि आर्य किसी अन्य देश से यहाँ आए।‘‘ (‘म्यूर संस्कृत टेक्स्ट बुक‘ भाग-2, पृष्ठ 523)
इस संदर्भ में टामस बरो नाम के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता का ‘क्लारानडन प्रेस, ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित और ए. एल. भाषम द्वारा सम्पादित ‘कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इण्डिया‘ में छपे ‘दि अर्ली आर्यन्स‘ में उद्धृत यह कथन उल्लेखनीय है कि- ‘‘आर्यों के भारत पर आक्रमण का न कहीं इतिहास में उल्लेख मिलता है और न इसे पुरातात्त्विक आधारों पर सिद्ध किया जा सकता है‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृष्ठ-126 पर उद्धृत)
इस संदर्भ में रोमिला थापर का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि ‘‘आर्यों के संदर्भ में बनी हमारी धारणाएँ कुछ भी क्यों न हों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों से बड़े पैमाने पर किसी आक्रमण या आव्रजन का कोई संकेत नहीं मिलता ...... गंगा की उपत्यका के पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह प्रकट नहीं होता कि यहाँ के पुराने निवासियों को कभी भागना या पराजित होना पड़ा था।‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 113 पर उद्धृत)
अंग्रेजों ने इस बात को भी बड़े जोर से उछाला है कि ‘आक्रान्ता आर्यों‘ ने द्रविड़ों के पूर्वजों पर नृशंस अत्याचार किए थे। वाशम, नीलकंठ शास्त्री आदि विद्वान यद्यपि अनेक बार यह लिख चुके हैं कि ‘आर्य‘ और ‘द्रविड़‘ शब्द नस्लवाद नहीं है फिर भी संस्कृत के अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर बने लेखक, साम्राज्यवादी प्रचारक और राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धिको सर्वोपरि मानने वाले नेता इस विवाद को आँख मींच कर बढ़ावा देते रहे हैं। पाश्चात्य विद्वानोंने द्रविड़ों की सभ्यता को आर्यों की सभ्यता से अलग बताने के लिए ‘हड़प्पा कालीन सभ्यता‘ को एक बड़े सशक्तहथियार के रूप में लिया था। पहले तो उन्होंने हड़प्पाकालीन सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता बताया किन्तु जब विभिन्न विद्वानों की नई खोजों से उनका यह कथन असत्य हो गया तो वे कहने लगे कि हड़प्पा के लोग वर्तमान ‘द्रविड़‘ नहीं, वे तो भूमध्य सागरीय ‘द्रविड़‘ थे - अर्थात वे कुछ भी थे किन्तु आर्य नहीं थे। इस प्रकार की भ्रान्तियाँ जान-बूझकर फैलाई गई थीं। जबकि सत्य तो यह है कि हड़प्पा की सभ्यता भी आर्य सभ्यता का ही अंश थी और आर्य सभ्यता वस्तुतः इससे भी हजारों-हजारों वर्ष पुरानी है।
इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य और द्रविड़ अलग नहीं थे। जब अलग थे ही नहीं तो यह कहना कि भारत के मूल निवासी आर्य नहीं द्रविड़ थे, ठीक नहीं है। अब समय आ गया है कि आर्यों के आक्रमण और आर्य-द्रविड़ भिन्नता वाली इस मान्यता को विभिन्न नई पुरातात्विक खोजों और शोधपरक अध्ययनों के प्रकाश में मात्र राजनीतिक ‘मिथ‘ मानकर त्याग दिया जाना चाहिए।
दासों या दस्युओं को आर्यों ने अनार्य बनाकर शूद्रकी कोटि में डाला
भारतीय समाज को जाति, मत, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर बांटकर उसकी एकात्मता छिन्न-भिन्न करने के लिए ही अंग्रेजी सत्ता ने यह भ्रान्ति फैलाई थी कि आर्यों ने बाहर से आकर यहाँ पर पहले से रह रहीं जातियों को युद्धों में हराकर दास या दस्यु बनाकर बाद में अपनी संस्कृति में दीक्षित कर उन्हें शूद्र की कोटि में डाल दिया। इस संदर्भ मेंकई प्रश्न उठते हैं कि क्या दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं, यदि नहीं, तो इन्हें अनार्य घोषित करने के पीछे अभिप्राय क्या था और क्या शूद्र कोटि भारतीय समाज में उस समय घृणित या अस्पृश्य अथवा छोटी मानी जाती थी ? इन प्रश्नों पर पृथक-पृथक विचार करना होगा।
क्या दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं? - दास या दस्यु आर्येतर जातियाँ थीं या नहीं, यह जानने के लिए पहले यह देखना होगा कि आर्य वाङ्मय में दास या दस्यु शब्द का प्रयोग किस-किस अर्थ में अथवा किस अभिप्राय से किया गया है। आर्यों के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के मंत्र संख्या 1. 5. 19 तथा 9. 41. 2 में दास या दस्यु शब्द का प्रयोग अयाज्ञिकऔर अव्रतों के लिए और मंत्र संख्या 1. 51. 8 में इसका प्रयोग शत्रु, चोर, डाकू अथवा धार्मिक क्रियाओंका विनाश करने वालों के लिए किया गया है। मनुस्मृति के 10.4 में कम्बोज आदि जातियों के पतित हो जाने वाले लोगों को दास या दस्यु कहा गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में निष्क्रिय व्यक्तियों को दास या दस्यु शब्द से अभिहित किया गया है। स्पष्ट है कि इन शब्दों का प्रयोग सभी जगह कुछ विशिष्ट प्रकार के लोगों के लिए ही किया गया है, किसी जाति विशेष के रूप में नहीं।
इनको अनार्य बनाने के पीछे क्या अभिप्राय रहा? -आर्य वाङ्मय में स्थान-स्थान पर ‘अनार्य‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। वाल्मीकि रामायणके 2. 18. 31 में दशरथ की पत्नी कैकेई के लिए ‘अनार्या‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में ‘‘अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन‘‘ के माध्यम से अकीर्तिकर कार्यों के लिए ‘अनार्यजुष्ट‘ जैसे शब्दोंका प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद के मंत्र संख्या 7. 6. 3 के अनुसार अव्रतियों, अयाज्ञिकों, दंभिओं, अपूज्यों और दूषित भाषा का प्रयोग करने वालों के लिए ‘मृघ्रवाच‘ शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात किसी भी आर्य ग्रन्थ में ‘अनार्य‘ शब्द जातिवाचक के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। स्पष्ट है कि ऋग्वेद आदि में स्थान-स्थान पर आए अनार्य, दस्यु, कृष्णगर्भा, मृघ्रवाच आदि शब्द आर्यों से भिन्न जातियों के लिए न होकर आर्य कर्मों से च्युत व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुए हैं अर्थात ‘अनार्य‘ शब्द जातिवाचक रूप में कहीं भी प्रयोगमें नहीं लाया गया।
क्या शूद्र कोटि भारतीय समाज में उस समय घृणित या अस्पृश्य अथवा छोटी मानी जाती थी? - प्राचीन काल में भारतीय समाज के चारों वर्ण यथा- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र परस्पर सहयोगी थे। एक वर्ण दूसरे में जा सकता था। उस समय वर्ण नहीं समाज में उसकी उपयोगिता कर्म की प्रमुखता से थी। भारत के किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में कहीं भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, जहाँ कहा गया हो कि शूद्र घृणित या अस्पृश्य या छोटा होता है या उच्च वर्ग बड़े होते हैं। समाज में सभी का समान महत्त्व था।
चारों वर्णों को समाज रूपी शरीर के चार प्रमुख अंग माना गया था, यथा- ब्राह्मण-सिर, क्षत्रिय-बाहु, वैश्य-उदर और शूद्र-चरण। चारों वर्णों की समान रूप से अपनी-अपनी उपयोगिता होते हुए भी शूद्र की उपयोगिता समाज के लिए सर्वाधिक रही है।समाज रूपी शरीर को चलाने, उसे गतिशील बनाने और सभी कार्य व्यवहार सम्पन्न कराने का सम्पूर्ण भार वहन करने का कार्य पैरों का होता है। भारतीय समाज में शूद्रों के साथ छुआछूत या भेदभाव का व्यवहार, जैसा कि आजकल प्रचारित किया जाता है, प्राचीन काल में नहीं था। वैदिक साहित्य से तो यहभी प्रमाणित होता है कि ‘शूद्र‘ मंत्रद्रष्टा ऋषि भी बन सकते थे। ‘कवष ऐलुषु‘ दासीपुत्र अर्थात शूद्र थे किन्तु उनकी विद्वत्ता को परख कर ऋषियों ने उन्हें अपने में समा लिया था। वे ऋग्वेद की कई ऋचाओं के द्रष्टा थे। सत्यकाम जाबालि शूद्र होते हुए भी यजुर्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक थे। (छान्दोगय 4.4) इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘शूद्रो को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है‘‘, ऐसा कहने वाले झूठे हैं। कारण शूद्रों द्वारा वेद-पाठ की तो बात ही क्या वे तो वेद के मंत्र द्रष्टा भी थे। सामाजिक दृष्टि से यह भेदभाव तो मुख्यतः मुसलमानों और अंग्रेजों द्वारा अपने-अपने राज्यकालों में इस देश के समाज को तोड़ने के लिए पैदा किया गया था।
वस्तुतः वर्ण व्यवस्था समाज में अनुशासन लाने के लिए,उसकी उन्नति के लिए और उसके आर्थिक विकास के लिए बनाई गई थी।
डॉ. अम्बेडकर ने अपनी रचना ‘शूद्र पूर्वी कोण होते‘ के पृष्ठ 66 और 74-75 पर बड़े प्रबल प्रमाणों से सिद्ध किया है कि शूद्र वर्ण समाज से भिन्न नहीं है अपितु क्षत्रियों का ही एक भेद है। संस्कृत साहित्य में सदाचरण या असदाचरण के आधार पर ही ‘आर्य‘, ‘अनार्य‘, ‘दस्यु‘, ‘दास‘ आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। वास्तव में ‘आर्य‘ शब्द को सुसंस्कारों से सम्पन्न धर्माचरण करने वाले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया गया है।
अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज को तोड़ने के लिए फैलाई गई एक भ्रान्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्रमशः...........
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अजेष्ठ त्रिपाठी लिखित
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धन्यवाद
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