सस्यवेद : भारतीय कृषि विज्ञान
नमस्कार
भारतीय कृषि विज्ञान की झलक
सस्यवेद : भारतीय कृषि विज्ञान
ऋषियों ने कृषि को हमारी आत्म निर्भरता के लिए बेहद जरुरी बताया है। उन्होंने कृषिकार्य को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास ही नहीं किया बल्कि स्वयं कृषि भी की। आश्रमों के आसपास के क्षेत्र को कृषि के लिए उपयोगी बनाया। ये 'क्षेत्र' ही 'खेत' कहे गए। मिट्टी की प्रकृति काे पहले जाना गया...।
इस खेत की उपज-निपज के रूप में जो कुछ बीज पाये वे परिश्रम की धन्यता के फलस्वरूप धान या धान्य कहे गये। ये धन्य करने वाले बीज आज तक भारतीयों के प्रत्येक अनुष्ठान व कर्मकांड के लिए सजने वाले थाल में शोभित होते हैं। चावल अक्षत रूप में है तो यव के जौ या जव के नाम से जाना जाता है। रसरूप गुड़ के साथ धनिया तो पहला प्रसाद ही स्वीकारा गया है। ऋषिधान्य सांवा है जो शायद पहले पहल आहार के योग्य बना और जिसकी पहचान महिलाओं ने पहले की क्योंकि वे आज भी ऋषिपंचमी पर उसकी पूजा करती हैं।
इन खेतों के कार्यों से जो कुछ अनुभव अर्जित हुआ, वह सस्यवेद के प्रणयन का आधार बना। यह ज्ञान संग्रह से अधिक वितरण के योग्य माना गया। इसीलिये जो कुछ ज्ञान हासिल हुआ, उसे सीखा भी गया तो लिखा भी। सस्यवेद के इस प्रचार को दानकृत्य की तरह स्वीकार किया गया।
'कृत्यकल्पतरु' में सस्यवेद के दान की महत्ता लिखी गई है। पराशर का जोर कृषि के लिए मौसम के अध्ययन पर रहा तो काश्यप ने जल की उपलब्धि वाले इलाकों में खेती के उपाय करने को कहा। शाश्वत मुनि ने भूमिगत स्रोतों की खोज के लिए उचित लक्षणों को 'दकार्गल' नाम से प्रचारित किया। काश्यप ने पेड़ों की शाखाओं को भी द्रुमोत्पादन क्षेत्र के रूप में स्वीकारा और कलम लगाने के प्रयोग किए। कोविदार एेसे ही बना... है न रोचक सस्यवेद की परंपराएं।
एेसे उपाय लोक के गलि़यारे में बहुत हैं। आपको भी कुछ तो याद होंगे ही... पारंपरिक बातों, विशेष कर देशी खाद की बातें तो याद होंगी ही।
खेत-खेत में खाद
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कार्तिक में फसल समेटने और नवीन फसल के लिए खेतों में खाद बिखरने का काम देखकर भारतीय कृषि संस्कृति की वे परंपराएं याद आती हैं जबकि खेत के आधार पूरी तरह वृष्टि, वृक्षजात पल्लव प्रसूत पवन और वृषभबल थे।
किसान जुताई करने के बाद गोबर का खाद बिखेर देते और बीजादि की बुवाई कर उपज का पुरुषार्थ अनुष्ठान करते। काश्यप ने यही देखकर लिखा - प्रथमं भू कर्षणं द्वितीयं गोशकृत्कणम्। तत्र क्षिपेश्च भूसार कलनार्थमिदं विदु:।।
खाद या उर्वरक का महत्व कब समझ में आया, मालूम नहीं लेकिन वे महिलाएं सबसे पहले जानी होंगी जिन्हें गोबर के ढेर के आसपास वर्षा काल में अच्छी हरियाली और फलन फूलन नज़र आया होगा। लक्ष्मी के लिये "करीषिणीम्" का मूल कई बार खेती देखकर याद आता है । और, यह भी लगता है : कृषिं यत्नेन कारयेत्।
खाद को हम उर्वरक कह रहे हैं और अथर्ववेद में कहा है : करीषिणीं फलवतीं स्वधाम्। तब करीष्, शकृत, शकन जैसे शब्द भी चलन में थे क्योंकि दीर्घतमा को भी ज्ञान था - आ निम्रच: शकृदेको अपाभरत्।
इनको हम अब देशी खाद कह रहे हैं मगर ये ही जीवनोपयोगी, निरापद और निरांतकी रहे हैं। सस्यवैदिक ग्रंथों में इस खाद की महिमा लिखी है और विशिष्ट प्रयोग में "कुणप जल" का विधान किया गया है।
हमारे पास वे अथर्ववैदिक संदर्भ भी है जिनके अनुसार अर्जुन, यव की बाल व तिल सहित उसकी मंजरी से रोगनाशकर पोषण दिया जा सकता है। मत्स्य खाद व थूहर के दूध सिंचने के नियम भी बताये गये हैं ।
मगर, क्याकर हम उपज बढ़ाने के नाम पर खेत व खेती को घटिया करते जा रहे हैं। हमारे पास अपनी तकनीकें रही हैं लेकिन हर बार नया करने का तरीका हमें अपनी जड़ों से दूर ले जा रहा है।
- श्रीकृष्ण "जुगनू"
केदारकल्प : जानकारी अपेक्षित
कृषि विद्या के संबंध में जो ग्रंथ भारत की निधि रहे हैं, उनमें 'केदारकल्प' का नाम भी कतिपय ग्रंथ सूचियों में मिलता है। कृषि विद्या को हमारे यहां सस्यवेद भी कहा गया है और इस कर्म की महत्ता अनेकत्र मिलती है - सुभिक्षं कृषिके नित्यम्। इससे संबंधित काश्यप, सारस्वत, पराशर आदि के नाम से कुछ ग्रंथ मिलते हैं। जीवन में कृषि कार्य की उपयोगिता, कृषि का माहात्म्य, खेतों व कृषि भूमि के प्रकार, सिंचाई आदि के उपाय, कृषि से संबंधित बैल, हल आदि औजारों का परिचय और उनके प्रयोग, वृक्षायुर्वेद तथा मौसम विज्ञान आदि के बारे में इन ग्रंथों में जानकारी मिलती है, जैसा कि कुछ ग्रंथों का संपादन करके मुझे ज्ञात हुआ। इनमें कृषि से जुडे देवी देवताओं की स्तुतियां भी हो सकती है।
प्रो. ज्यूअल वोजतिला द्वारा संपादित और हंगरी से प्रकाशित History of krishishastra से ज्ञात हुआ कि केदार कल्प नामक एक ग्रंथ भी मिलता है, संभवत: यह बांग्ला में हाेना चाहिए। श्री आर. पी. दास ने 1988 में वृक्षायुर्वेद के संबंध में अपनी एक टिप्पणि में ऐसा लिखा है। प्रो. वोजतिला की सूचना है कि यह संभवत: स्कंदपुराण या नांदिपुराण के कृषि विषय का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रंथ होना चाहिए!
धन्यवाद
भारतीय कृषि विज्ञान की झलक
सस्यवेद : भारतीय कृषि विज्ञान
ऋषियों ने कृषि को हमारी आत्म निर्भरता के लिए बेहद जरुरी बताया है। उन्होंने कृषिकार्य को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास ही नहीं किया बल्कि स्वयं कृषि भी की। आश्रमों के आसपास के क्षेत्र को कृषि के लिए उपयोगी बनाया। ये 'क्षेत्र' ही 'खेत' कहे गए। मिट्टी की प्रकृति काे पहले जाना गया...।
इस खेत की उपज-निपज के रूप में जो कुछ बीज पाये वे परिश्रम की धन्यता के फलस्वरूप धान या धान्य कहे गये। ये धन्य करने वाले बीज आज तक भारतीयों के प्रत्येक अनुष्ठान व कर्मकांड के लिए सजने वाले थाल में शोभित होते हैं। चावल अक्षत रूप में है तो यव के जौ या जव के नाम से जाना जाता है। रसरूप गुड़ के साथ धनिया तो पहला प्रसाद ही स्वीकारा गया है। ऋषिधान्य सांवा है जो शायद पहले पहल आहार के योग्य बना और जिसकी पहचान महिलाओं ने पहले की क्योंकि वे आज भी ऋषिपंचमी पर उसकी पूजा करती हैं।
इन खेतों के कार्यों से जो कुछ अनुभव अर्जित हुआ, वह सस्यवेद के प्रणयन का आधार बना। यह ज्ञान संग्रह से अधिक वितरण के योग्य माना गया। इसीलिये जो कुछ ज्ञान हासिल हुआ, उसे सीखा भी गया तो लिखा भी। सस्यवेद के इस प्रचार को दानकृत्य की तरह स्वीकार किया गया।
'कृत्यकल्पतरु' में सस्यवेद के दान की महत्ता लिखी गई है। पराशर का जोर कृषि के लिए मौसम के अध्ययन पर रहा तो काश्यप ने जल की उपलब्धि वाले इलाकों में खेती के उपाय करने को कहा। शाश्वत मुनि ने भूमिगत स्रोतों की खोज के लिए उचित लक्षणों को 'दकार्गल' नाम से प्रचारित किया। काश्यप ने पेड़ों की शाखाओं को भी द्रुमोत्पादन क्षेत्र के रूप में स्वीकारा और कलम लगाने के प्रयोग किए। कोविदार एेसे ही बना... है न रोचक सस्यवेद की परंपराएं।
एेसे उपाय लोक के गलि़यारे में बहुत हैं। आपको भी कुछ तो याद होंगे ही... पारंपरिक बातों, विशेष कर देशी खाद की बातें तो याद होंगी ही।
खेत-खेत में खाद
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कार्तिक में फसल समेटने और नवीन फसल के लिए खेतों में खाद बिखरने का काम देखकर भारतीय कृषि संस्कृति की वे परंपराएं याद आती हैं जबकि खेत के आधार पूरी तरह वृष्टि, वृक्षजात पल्लव प्रसूत पवन और वृषभबल थे।
किसान जुताई करने के बाद गोबर का खाद बिखेर देते और बीजादि की बुवाई कर उपज का पुरुषार्थ अनुष्ठान करते। काश्यप ने यही देखकर लिखा - प्रथमं भू कर्षणं द्वितीयं गोशकृत्कणम्। तत्र क्षिपेश्च भूसार कलनार्थमिदं विदु:।।
खाद या उर्वरक का महत्व कब समझ में आया, मालूम नहीं लेकिन वे महिलाएं सबसे पहले जानी होंगी जिन्हें गोबर के ढेर के आसपास वर्षा काल में अच्छी हरियाली और फलन फूलन नज़र आया होगा। लक्ष्मी के लिये "करीषिणीम्" का मूल कई बार खेती देखकर याद आता है । और, यह भी लगता है : कृषिं यत्नेन कारयेत्।
खाद को हम उर्वरक कह रहे हैं और अथर्ववेद में कहा है : करीषिणीं फलवतीं स्वधाम्। तब करीष्, शकृत, शकन जैसे शब्द भी चलन में थे क्योंकि दीर्घतमा को भी ज्ञान था - आ निम्रच: शकृदेको अपाभरत्।
इनको हम अब देशी खाद कह रहे हैं मगर ये ही जीवनोपयोगी, निरापद और निरांतकी रहे हैं। सस्यवैदिक ग्रंथों में इस खाद की महिमा लिखी है और विशिष्ट प्रयोग में "कुणप जल" का विधान किया गया है।
हमारे पास वे अथर्ववैदिक संदर्भ भी है जिनके अनुसार अर्जुन, यव की बाल व तिल सहित उसकी मंजरी से रोगनाशकर पोषण दिया जा सकता है। मत्स्य खाद व थूहर के दूध सिंचने के नियम भी बताये गये हैं ।
मगर, क्याकर हम उपज बढ़ाने के नाम पर खेत व खेती को घटिया करते जा रहे हैं। हमारे पास अपनी तकनीकें रही हैं लेकिन हर बार नया करने का तरीका हमें अपनी जड़ों से दूर ले जा रहा है।
- श्रीकृष्ण "जुगनू"
केदारकल्प : जानकारी अपेक्षित
कृषि विद्या के संबंध में जो ग्रंथ भारत की निधि रहे हैं, उनमें 'केदारकल्प' का नाम भी कतिपय ग्रंथ सूचियों में मिलता है। कृषि विद्या को हमारे यहां सस्यवेद भी कहा गया है और इस कर्म की महत्ता अनेकत्र मिलती है - सुभिक्षं कृषिके नित्यम्। इससे संबंधित काश्यप, सारस्वत, पराशर आदि के नाम से कुछ ग्रंथ मिलते हैं। जीवन में कृषि कार्य की उपयोगिता, कृषि का माहात्म्य, खेतों व कृषि भूमि के प्रकार, सिंचाई आदि के उपाय, कृषि से संबंधित बैल, हल आदि औजारों का परिचय और उनके प्रयोग, वृक्षायुर्वेद तथा मौसम विज्ञान आदि के बारे में इन ग्रंथों में जानकारी मिलती है, जैसा कि कुछ ग्रंथों का संपादन करके मुझे ज्ञात हुआ। इनमें कृषि से जुडे देवी देवताओं की स्तुतियां भी हो सकती है।
प्रो. ज्यूअल वोजतिला द्वारा संपादित और हंगरी से प्रकाशित History of krishishastra से ज्ञात हुआ कि केदार कल्प नामक एक ग्रंथ भी मिलता है, संभवत: यह बांग्ला में हाेना चाहिए। श्री आर. पी. दास ने 1988 में वृक्षायुर्वेद के संबंध में अपनी एक टिप्पणि में ऐसा लिखा है। प्रो. वोजतिला की सूचना है कि यह संभवत: स्कंदपुराण या नांदिपुराण के कृषि विषय का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रंथ होना चाहिए!
धन्यवाद
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