कपास की खेती, सूत की कताई और बुनाई विश्व-सभ्यता को भारत की देन हैं।

कपास की खेती, सूत की कताई और बुनाई विश्व-सभ्यता को भारत की देन हैं। दुनिया में सबसे पहले ‘सूत’ इस देश में काता गया और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। दूसरे शब्दों में,सूत कातना और कपड़ा बुनना यहां का उतना ही प्राचीन उद्योग है जितना कि स्वयं हिन्दुस्तान की सभ्यता। इसका प्रमाण है संसार  का सबसे पुराना ग्रंथ ऋग्वेद; जिसमें सूत  कातने और वस्त्र बुनने का उल्लेख मिलता है, जो निम्नलिखित मंत्र  है -
तंतु तन्वंरज्सो भानुमान्विहि, ज्योतिष्मतः  पयः  धिया  कृतान् ।
अनुल्बणं  वयत,  जोगुवामपो,  मनुर्भव, दैव्यं  जनम् ॥ (ऋ 10/53/6)
 अर्थात् -  सूत  बनाकर (तंतु  तन्वन्)  उस पर चढ़ाओ (रजसो भानुं अन्विहि) और  उसको  खराब  न  करते  हुए  कपड़ा  बुनो(अनुल्बणं वयत)  विचारशील  बनो(मनुः भव)  सुप्रजा निर्माण करो(दैव्यं जनं जनय)  और  तेजस्वियों  की  बुद्धिद्वारा  निश्चित  हुए  मार्गों  का  रक्षा  करो(ज्योतिष्मतः धिया  कृतान् पयः  रक्ष) यह कवियों  का ही  काम  है(जोगुवां अपः) । (सातवड़ेकर, 1922)
उक्त मंत्र से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र में  विचार का समावेश वैदिक काल में ही हो गया था साथ-ही-साथा यह भी स्पष्ट होता है कि सूत कातना और वस्त्र बुनना महान कार्य था । बाद के समय में यह कार्य वृद्ध, विधुर, कैदियों आदि का कार्य हो गया था । जैसा कि कौटिल्य-अर्थशास्त्र में स्पष्ट लिखा है, “ ‘ऊर्णावल्ककार्पासतूलशणक्षौमाणि च विधवान्यन्गाकन्याप्रव्रजितादण्डाप्रतिकारिणीभी रूपाजीवामातृकाभिर्वृद्धराजदासीभिव्-र्युपरतोपस्थानदेवदासीभिश्च कर्तयेत्।’ अर्थात् ऊन, बल्क, कपास, सेंमल, सन और जूट आदि को कतवाने के लिए विधवाओं, अंगहीन स्त्रियों, कन्याओं, सन्यासिनों, सजायाफ्ता स्त्रियों, वेश्याओं की खालाओं, बूढ़ी दासियों और मंदिर की दासियों को नियुक्त करना चाहिए ।” (गैरोला, 2000) गांधीजी का यह महती योगदान था कि उन्होंने वस्त्र से विचार के विस्थापन को खादी में समावेश किया, जिससे कहा जाने लगा कि ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’ ।
 गांधीजी के आध्यात्मिक  वारिस विनोबा ने मंत्रदृष्टा वैदिक ऋषि गुत्समद के बारे में लिखा  है कि गुत्समद हरफन मौला था । वह ज्ञानी, भक्त और कवि तो वह था ही, गणितज्ञ, विज्ञानवेत्ता, कृषिसंशोधक और कुशल बुनकर भी था । गुत्समद के जमाने में नर्मदा से गोदावरी तक का  सारा भू-प्रदेश जंगलों से भरा था । बीस-पच्चीस  मील पर एकाध छोटी-सी बस्ती होती थी । ... आसपास के निर्जन प्रदेश में बसी हुई गुत्समद की एकमात्र बड़ी बस्ती थी । इस बस्ती ने संसार की  कपास की खेती का सबसे सफल प्रयोग देखा । .... इस नई पैदावार को लोगों ने ‘गात्र्समदम्’ नाम दिया । इसी का लैटिन रूप  ‘गासिपियम’ हो  सकता  है ?
उसकी बस्ती के लोग ऊन कातना-बुनना अच्छी तरह जानते थे । यह  कार्य  मुख्यतः स्त्रियों  के  सुपुर्द था । ... वैदिक  काल में बुनकरों  का एक स्वतंत्र वर्ग नहीं  बना था । खेती  की तरह बुनना भी सभी  का  काम था । उस युग की ऐसी व्यवस्था थी कि सारे पुरुष खेती करते थे और सारी स्त्रियां घर का काम-काज संभालकर बुनाई करती थीं ।
गुत्समद के प्रयोग के फलस्वरूप कपास तो मिल गई, कपड़ा कैसे बनाया जाये ? यह महान प्रश्न  खड़ा हुआ । ऊन कातने की जो लकड़ी की तकली होती थी, उस पर सबने मिलकर कपास का सूत  कात  लिया । …  सूत तो निकला, लेकिन विल्कुल रद्दी । अब उसे बुने भी कैसे ?
गुत्समद  हिम्मत हारने वाला व्यक्ति नहीं था । अतः उसने खुद बुनना शुरू किया । बुनने की कला  की सारी प्रक्रियाओं का सांगोपांग अभ्यास किया । सारा सूत दोष सम्पन्न पाया, लेकिन उसमें ही थोड़ा  मजबूत था, उससे उसने ‘तंतु’ बनाया । तंतु के माने वैदिक भाषा में ताना है. बाकी बचे हुए सूत को  ‘ओतु’ कहकर  रख लिया । लेकिन  मांड़ी लगाने में कटाकट तार टूटने लगे । .... बाद में ताना करघे में  चढ़ाया गया । हत्थे की पहली चोट के साथ चार-पांच तार टूटे । उन्हें जोड़कर फिर  से ठोका, फिर टूटा । इस तरह कितने हफ्तों के बाद पहला थान बुना गया । इसके बाद सूत धीरे-धीरे सुधरता गया, फिर भी  शुरू के बारह वर्षों में बुनाई का काम बड़ा  ही  कष्टप्रद रहा । गुत्समद की  आयु  के ये बारह वर्ष यथार्थ तपश्चर्या के वर्ष थे । वह  इतना उत्साही और  तंतु-ब्रह्म, ओतु  ब्रह्म और टूट-ब्रह्म की  ब्रह्मवृत्ति से बुनाई का काम करने वाला था, तो वह सूत लगातार टूटने लगता, तो  वह भी कभी-कभी  पस्तहिम्मत हो जाता। ऐसे ही अवसर पर उसने ईश्वर से प्रार्थना कि - “मा तन्तुश्छेदि वयतः प्रभो बुनते वक्त तंतुटूटने न दें । ...‘माहं अन्यकृतेन भोजम्’ दूसरे के परिश्रम का उपभोग करना उचित नहीं है, यह उसका जीवन-सूत्र था । (विनोबा, 2001)
इससे भी स्पष्ट होता है कि  सूत  की कताई-बुनाई की शुरुआत ऋग्वैदिक काल में हुआ । इसके विकास  के  क्रम में अध्यात्म से जुड़ाव होते गया और जन समान्य के लिए आवश्यक क्रम बन गया । इसमें महिलाओं की  भूमिका अधिक है । यह नीचे के मंत्र से स्पष्ट होता है :-
वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयन्ति ॥ (ऋ. 5/47/6)
अर्थात्-  मातायें अपने पुत्र के लिए कपड़े बुनती हैं(मातरः पुत्राय वस्त्रा वयन्ति) और  इस बच्चे के लिए सुविचारों और सत्कर्मों का उपदेश देती  हैं (अस्मै धियः अपांसि  वि तन्वते) ।
यह मंत्र पुत्रविषयक अथवा संतानविषयक माताओं का कर्तव्य बता रहा है । मातायें अपने पुत्र के लिए कपड़ा बुनती हैं, इसमें प्रत्येक धागे  के साथ कितना प्रेम उस कपड़े के तंतुओं में बुना जाता है,  इसका विचार पाठक  ही  कर सकते हैं । वेद की शिक्षा है कि अपने पुत्र के लिए जो कपड़ा  चाहिए वह  मातायें स्वयं  बनावें और  स्वयं अपने मेहेनत से बना हुआ कपड़ा ही बच्चे को पहनायें । तथा साथ-साथ  माता  को  उचित है कि वे अपने  बच्चों को उत्तम  विचार और उत्तम सत्कर्म करने की शिक्षा दें ।” (सातवड़ेकर, 1922) आज के शिक्षाविद् भी मानते हैं कि जो शिक्षा  माता दे सकती है वह पिता नहीं दे सकता ।  बच्चों के  नैतिक शिक्षा की  आधारशिला माँ होती है और घर प्रथम पाठशाला होती है ।
गांधीजी ने अपनी बुनियादी शिक्षा में कताई-बुनाई को आवश्यक  बताया । यह भी कोई नयी बात नहीं थी, क्योंकि ऋग्वैदिक काल में भी पाठ्शालाओं में कताई-बुनाई की शिक्षा दी जाती थी । यह कक्षायें सामूहिक चलती थीं और एक गुरु सभी को क्रमबद्ध व व्यवस्थित रूप से सभी शिष्यों को बताते रहते थे। इसे यज्ञ की भी उपमा दी गई है । इस बात  की  सूचना निम्न मंत्र में है-
यो  यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मे भिरायतः ॥
इमे  वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते  तते ॥ (ऋ. 10/130/1)
अर्थात्- (य यज्ञः) जो  यज्ञ  (तन्तुभिः विश्वतः) तन्तुओं द्वारा सर्वत्र फैलाया गया है और (एकशतं देवकर्मेभि आयतः) एक सौ एक दिव्य  कर्मकर्ताओं के द्वारा विस्तृत किया गया है,  उसमें (इमे पितरः) ये रक्षक, की (ये आययुः) जो यहां पहुंचे हैं, (वयंति) कपड़ा बुनते  हैं,  वे (तते आसते) ताने के साथ  बैठते हैं, और  कहते हैं कि (प्र वय) आगे  बुनो, और (अप वय) पीछे का ठीक करो । (सातवड़ेकर, 1922)
यानी गुरु खुड्डी के समीप ताने  के  साथ  बैठते हैं और कहते हैं कि  हे शिष्यो ! अब आगे  का  कपड़ा बुनो, वहां का ठीक करो, इस स्थान पर तुमसे गलती हो गई है, उसको इस प्रकार ठीक करो, अब आगे बुनते  जाओ ।
 ऋग्वेद में काव्य से सुविचार फैलाने की तुलना जुलाहे के वस्त्र के साथ की गई है, वह भी यहां देखने योग्य है। उमा उ नूनं तदिदर्थयेते वितंवाथे धियो वस्त्रऽपसेव।। (ऋग्वेद-10/106/1) अर्थात् आप दोनों सचमुच वही चाहते हैं, आप स्तोत्र अथवा सुविचार का काव्य फैलाते हैं, जैसे जुलाहे वस्त्र फैलाते हैं। (सातवड़ेकर, 1922)
इस शोध-पत्र में वैदिक काल में वस्त्र का अस्तित्व, वस्त्र बुनने की विविध निहितार्थ को बताया गया है, जो  पाठक दिये हुए मंत्रों का भावार्थ और इंगितार्थ जानेंगे वे जान सकते हैं कि वैदिक काल में यह घरेलू व्यवसाय था । मातायें अपने पुत्र के लिए कपड़ा बुनती थीं, इससे गृहस्थ-धर्म का बोध होता है । वेदमंत्रों में अच्छे-बुरे कपड़े, वस्त्र-दान, धोबी का अस्तित्व, जुलाहों का अस्तित्व, कपड़ा बुनने  की विविध क्रिया, तीन गुण धागा, सूत पर लाशा लगाना, विविध रंगों के सूत आदि का भी वर्णन है, अध्ययन से  यह प्रतीत हुआ कि वैदिक काल के वस्त्रों पर एक ऐतिहासिक शोध हो सकता है ।
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संदर्भ-ग्रंथ सूची:-
Singh, S. (1997). Khadi Spinners and Weavers Do They Have Any Future. Jaipur: Khadi and Village Industries Board.
गैरोला, वा. (सं.). (2000). कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्. वाराणसी: चौखम्बा विद्याभवन.
विनोबा  (2001).  वैदिक  खादी. अखिल भारत चरखा संघ हीरक जयंती स्मारिका. पृ. 5-6.
सातवलेकर, श्री. दा. (1922). वेद में चरखा. सातारा: सातवलेकर औंध

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