कुछ लोग तानाशाही को लोकतंत्र पर तरजीह देते है, तथा मानते है कि तानाशाह या दबंग नेता देश की समस्याओ का तेजी से निपटारा कर सकते है। लेकिन ऐसा बिलकुल भी नही है
स्टालिन सफल रहे, माओ को आंशिक सफलता मिली, इंदिरा जी ने भी भारत को एक सीमा तक अपने पैरो पर खड़ा किया, लेकिन अन्य तानाशाह या 'वन मेन आर्मी' नुमा अन्य नेता जैसे सद्दाम, गद्दाफी, हिटलर, मुसोलिनी आदि अपने देश को बचाने में असफल रहे।
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कुछ लोग तानाशाही को लोकतंत्र पर तरजीह देते है, तथा मानते है कि तानाशाह या दबंग नेता देश की समस्याओ का तेजी से निपटारा कर सकते है। लेकिन ऐसा बिलकुल भी नही है। दरअसल तानाशाही देश को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है जबकि 'सच्चे लोकतंत्र' द्वारा ही देश को सबसे निरापद और तेजी से अपने पैरो पर खड़ा किया जा सकता है। इस स्तम्भ में तानाशाही और सच्चे लोकतंत्र के सन्दर्भ में किसी देश के विकास करने और भविष्य में 'टिके रहने' के पहलुओ पर चर्चा की गयी है।
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अध्याय
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1. सच्चे लोकतंत्र और तानाशाही से आशय।
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2. तानाशाही के अपने खतरे है जबकि सच्चा लोकतंत्र निरापद है।
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3. क्यों किसी देश के बहुधा राष्ट्रवादी/सच्चे कार्यकर्ता लोकतंत्र की जगह तानाशाही को तरजीह देने लगते है ?
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4. कैसे अमेरिका और ब्रिटेन बिना किसी तानाशाह के भी सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे ?
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5. स्टालिन और माओ क्रमश: रूस और चीन को बचाकर ले जाने में सफल रहे, लेकिन अब वे अमेरिका की तुलना में लगातार पिछड़ रहे है।
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6. देवी इंदिरा गांधी, हिटलर और मुसोलिनी प्राथमिक दौर में सफल लेकिन अंतिम दौर में असफल रहे।
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7. सद्दाम और गद्दाफी ने अपने देशो को तबाही दी जबकि नागरिको के सामूहिक प्रयासों ने इस्राएल को आत्मनिर्भर बनाया।
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8. भारत जैसे पिछड़े हुए देश को अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए किस व्यवस्था का आश्रय लेना चाहिए ?
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9. भारत को मजबूत बनाने के लिए आम नागरिक क्या कर सकते है ?
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1. तानाशाही और लोकतंत्र से आशय।
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लोकतंत्र : मेरे विचार में सच्चे लोकतंत्र से मायने ऐसे लोकतंत्र से है --- "जिस व्यवस्था में नागरिको के पास अपने प्रतिनिधियों और सेवको को बहुमत के प्रयोग द्वारा नौकरी से निकलने का अधिकार हो, दंड देने की सर्वोच्च शक्ति नागरिको के अधीन हो, संविधान की व्याख्या करने वाली अंतिम शक्ति नागरिको का बहुमत हो तथा 'आवश्यक' रूप से नागरिको के पास ऐसी प्रक्रिया भी हो जिसका प्रयोग करके नागरिक देश में लागू किये जाने वाले कानूनो पर अपनी राय रख सके"।
उदाहरण के लिए भारत में मतदाताओ के पास एक बार वोट करने के बाद पांच वर्ष से पहले अपने प्रतिनिधियों को नौकरी से निकालने का अधिकार नही है। यदि प्रतिनिधि प्रजा को नुकसान पहुंचाने वाले कानूनो को लागू करते है तो नागरिको के पास उन कानूनो पर अपनी असहमति दर्ज करवाने की भी कोई प्रक्रिया नही है। इतना ही नही, यदि पुलिस या अन्य शासकीय अधिकारियों द्वारा गलत तरीके से नागरिको का उत्पीड़न किया जाता है या न्यायधीशों द्वारा उन्हें गैर वाजिब तरीके से दंड दिया जाता है तब भी भारत के करोड़ो नागरिको के पास इन अधिकारियों या न्यायधीशों को पद से हटाने या उन्हें दंड देने की शक्ति नही है। इस प्रकार अधिकारी, प्रतिनिधि और न्यायधीशों पर नागरिको का कोई अंकुश नही रह जाता। अत: भारत में लोकतंत्र का विकृत रूप है, किन्तु लोकतंत्र नहीं है।
इसीलिए शब्द लोकतंत्र की जगह 'सच्चे लोकतंत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। शेष आलेख में 'लोकतंत्र' शब्द से आशय उस व्यवस्था से ग्रहण किया गया है, जिस व्यवस्था में उपरोक्त वर्णित प्रक्रियाएं है, तथा उपरोक्त प्रक्रियाओ से विहीन लोकतंत्र के लिए 'विकृत लोकतंत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है।
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तानाशाही : तानाशाही से मेरा आशय उन सभी व्यवस्थाओ से है जिनमें नागरिको के सामान्य अधिकारों का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निलंबन कर दिया गया हो। यह निलंबन लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आये प्रतिनिधियों द्वारा कर दिए जाने से भी तानाशाही की श्रेणी में आता है। उदाहरण के लिए देवी इंदिरा जी ने लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आने के बाद आपातकाल लगाकर नागरिको के अधिकारों में कटौती कर दी थी। इस बारे में कैफियत अलग से दी जा सकती है कि उन्होंने ऐसा किन परिस्थितियों में किया, लेकिन आपातकाल लगाने का कृत्य तानाशाही की श्रेणी में आता है।
तानाशाही में उन शासको को भी शामिल किया गया है जिन्हें मजबूत नेता या मौजूदा व्यवस्था के दायरे से बाहर जाकर 'देशहित' में ताबड़तोड़ फैसले लेने के लिए जाना जाता है। इस लिहाज से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस श्रेणी में नही रखा गया है।
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2. तानाशाही के अपने खतरे है जबकि सच्चा लोकतंत्र निरापद है।
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मेरे नजरिये में सैन्य ताकत जुटाना किसी देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि किसी देश के सैन्य रूप से आत्मनिर्भर न होने का निश्चित परिणाम यह होगा कि उसे अन्य शक्तिशाली देश द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुलाम बना लिया जाएगा। और सैन्य दृष्टी से कमजोर देश द्वारा इस परिस्थिति को टाला नही जा सकता। तो किसी भी देश को यदि गुलामी से बचना है तो उसे ऐसे फैसले लेने या ऐसी व्यवस्था को अंगीकार करने की जरुरत है जिससे देश को सैन्य रूप से मजबूत बनाया जा सके। किन्तु जब कोई देश अपनी सेना को मजबूत करने के प्रयास करता है तो उसे पूरी दुनिया के देशो और आंतरिक स्तर पर भी भीषण प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। इसीलिए यह कोई इत्तिफ़ाक़ नही है कि सभी तानाशाहों या मजबूत नेताओ ने देश की सेना को मजबूत बनाने के प्रयास किये, लेकिन एक आध अपवाद की अनदेखी करे तो सभी ने मुहँ की खायी।
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किसी भी देश की शासन व्यवस्था को चार अंग धारण करते है :
१) विधायिका - ये अंग देश के संचालन के लिए क़ानून बनाता है। क़ानूनो का समुच्चय ही शासन है। अच्छे कानूनो का समुच्चय और उनका पालन करवाने की व्यवस्था अच्छे शासन की स्थापना करती है, तथा बेहतर शासन से ही देश को बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ अच्छे क़ानून ही अच्छी शासन व्यवस्था की स्थापना नही कर सकते, क्योंकि इन कानूनो के पालन और क़ानून तोड़ने वालो को दंड देने की व्यवस्था भी बेहतर होनी चाहिए। भारत में क़ानून बनाने का काम सांसद और विधायक करते है।
२) कार्यपालिका - कार्यपालिका का काम बनाये गए कानूनो का पालन करवाना है। कार्यपालिका की तकनिकी परिभाषा जो भी हो, मैं इस अंग में पुलिस, जांच अधिकारी, कर अधिकारी, तहसीलदार, कलेक्टर आदि को शामिल करता हूँ। यदि किसी देश की कार्यपालिका अच्छे से कार्य नही करेगी तो बनाये गए कानूनो का कोई महत्त्व नही रह जाएगा।
३) न्यायपालिका - जो कोई कानून तोड़ता है, न्यायपालिका उन्हें दंड देती है। यदि कानून तोड़ने वालो को त्वरित दंड नही दिया जाए तो बनाये गए सभी क़ानून मिट्टी हो जाते है। क्योंकि क़ानून होने लेकिन उनके तोड़ने पर विलम्ब से दंड होने के कारण ज्यादा से ज्यादा नागरिक क़ानून तोड़ने के लिए प्रेरित होते है।
४) खबरपालिका - शासन द्वारा लिए गए फैसलो और उनके प्रभाव के बारे में नागरिको को सूचित करती है।
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तो जब कोई मजबूत नेता देश की समस्याओ को हल करने के प्रयास तेज करता है, और उसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है तो वह इन चारो अंगो को नियंत्रित करने का प्रयास करता है। असल में जो इन्हें कमोबेश नियंत्रित कर लेता है उसे ही तानाशाह कह कर सम्बोधित किया जाता है। लेकिन शासन पर पूर्ण नियंत्रण करने के बावजूद तानाशाह देश को मजबूत बनाने में असफल रहते है, बल्कि वे समस्याओ को और भी बढ़ा देते है। कैसे ?
शासक नियंत्रण हासिल करने के लिए कठोर क़ानून बनाते है। लेकिन कठोर कानूनो का परिणाम यह होता है कि कार्यपालिका द्वारा नागरिको का गैर जरुरी उत्पीड़न शुरू हो जाता है। चूंकि घूस खाने का सबसे आसान शिकार कारोबारी होते है, अत: सबसे अधिक मार कारोबारियों को ही झेलनी होती है। उद्योग शुरू करने और उन्हें जारी रखना मुश्किल हो जाता है, जिससे उत्पादकता गिरती है। निर्माण उद्योग चौपट होने से तकनिकी विकास अवरूद्ध हो जाता है, जो कि हथियारों के निर्माण और विकास के लिए सबसे अनिवार्य तत्व है। इस स्थिति में जब नागरिको द्वारा विरोध किया जाता है तो उनका दमन कर दिया जाता है, जिससे हालात और भी बदतर हो जाते है। देश में कुछ इस तरह का माहौल खड़ा हो जाता है कि सरकार और उसके अंग देश को आगे बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे है तथा सरकार का विरोध करने वाले शेष नागरिक राष्ट्र विरोधी है।
यह सामान्य समझ का विषय है कि किसी भी देश के विकास में देश की सभी संस्थाओं/संगठनों/कम्पनियों/नागरिकों आदि का योगदान होता है, सिर्फ सरकार का नहीं। किसी भी देश की 99% उत्पादकता निजी क्षेत्र से ही आती है। सरकारी क्षेत्र महज 1% होता है। 1% वर्ग चाह कर भी किसी देश की नियति नहीं बदल सकता। सरकार सिर्फ ऐसी व्यवस्था दे सकती है जिससे निजी क्षेत्र फले फूले। लेकिन कठोर शासन निजी संगठनों और निर्माण इकाइयों की रचनात्मकता में बाधा उत्पन्न करता है।
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कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कि मुख्य नियंता के ईमानदार होने के बावजूद शासन के अन्य अंगो और उसके विश्वस्त सहयोगियों द्वारा जनता पर दमन बढ़ जाता है, जिससे 2 क्षेत्रो में देश विकास करता किन्तु 100 क्षेत्रो में पिछड़ जाता है। मतलब तानाशाही दो धारी तलवार है। तथा देश को हमेशा इसकी कीमत चुकानी होती है। प्राथमिक दौर में देश को आंशिक फायदा होता है लेकिन अंतिम दौर में देश को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ईराक, लीबिया, भारत, पाकिस्तान, इटली, जर्मनी, चीन और एक हद तक रूस भी इसका उदाहरण है।
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तानाशाही के उलट लोकतंत्र निरापद है, और लोकतंत्र देश को लगातार मजबूत करता है। बिना कोई नुकसान पहुंचाए। अमेरिका और ब्रिटेन इसका उदाहरण है, जिन्होंने लोकतंत्र का आश्रय लेकर अपने देश को एक निश्चित पद्धति द्वारा मजबूत बनाया।
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3. क्यों किसी देश के बहुधा राष्ट्रवादी/सच्चे कार्यकर्ता लोकतंत्र की जगह तानाशाही को तरजीह देने लगते है ?
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बावजूद इस तथ्य के कि ; अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशो ने लोकतंत्र के चलते अपना विकास किया, और आज ये देश सैन्य-आर्थिक दृष्टी से दुनिया के सबसे ताकतवर देश है। जबकि तानाशाही के कारण ज्यादातर देश या तो तबाह हो गए या तुलनात्मक रूप से पिछड़ गए, आखिर क्यों किसी देश के कार्यकर्ता देश की समस्याओ के समाधान के लिए लोकतंत्र की जगह तानाशाही का समर्थन करने लगते है ?
भारत के सन्दर्भ में तानाशाही के समर्थक कार्यकर्ताओ द्वारा एक लोकप्रिय कारण यह दिया जाता है कि --- भारत के लोगो में शऊर नही है, भारतीय अवाम लोकतंत्र के लायक नही है, सभी बेवकूफ और भ्रष्ट है आदि, तथा इनकी अक्ल ठिकाने लगाने या इन्हें सुधारने के लिए कठोर शासन यानी तानाशाही आवश्यक है। लेकिन यह एक पोचा तर्क है, क्योंकि बहुधा इन्ही कार्यकर्ताओ को अधिकतर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि , भारत एक महान देश है , हमारी संस्कृति महान है, भारत में काबलियत है, भारतीय किसी भी देश की योग्यता को टक्कर दे सकते है आदि आदि।
हालांकि पूरी दुनिया में बुद्धिमान या योग्य नागरिको का वितरण समान है, अत: यह तर्क गले नही उतरता कि भारत के लोग अन्य की तुलना में ज्यादा कम अक्ल या भ्रष्ट है। बल्कि ऐतिहासिक रूप से जो बर्बरता, धर्मान्धता और स्वार्थान्धता अन्य पश्चिमी देशो में देखने को आयी है उनकी तुलना में भारतीय कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और बुद्धिमान रहे है। इसीलिए यह सिर्फ कहने भर की बात है कि भारतीय लोकतंत्र के नही बल्कि तानाशाही के लायक है।
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जहां तक मैं इसका कारण देखता हूँ वह यह है कि -- भारत के ज्यादातर तानाशाही समर्थक राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओ को यह जानकारी नही है कि, देश को सैन्य दृष्टि से मजबूत बनाने और अन्य समस्याओ के निराकरण के लिए लोकतंत्र सबसे बेहतर और निरापद विकल्प है। लेकिन चूंकि वे भारत के 'विकृत लोकतंत्र' को ही लोकतंत्र की परिभाषा के अंतर्गत रखते है अत: उनका विश्वास लोकतंत्र से विश्वास उठ चुका है। दरअसल पूरी तरह से नाउम्मीद हो जाने के कारण वे समस्याओ को हल करने के लिए तानाशाही के खतरों को जानते हुए भी यह जोखिम उठाने को तैयार है।
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लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा करके वे भारत को नए खतरे की और धकेलने का खतरा उठा रहे है , और दिन के दिन मोदी साहेब में विश्वास खोने के साथ तानाशाही के इन समर्थको की संख्या बढ़ते जाने की संभावनाएं प्रबल होती जायेगी।
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4. कैसे अमेरिका और ब्रिटेन बिना किसी तानाशाह के भी सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे ?
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जब ब्रिटेन में लोकतंत्र आया तो इसमें ज्यूरी प्रक्रियाएं शामिल थी, जिसने वहाँ के नागरिको को ताकतवर बना दिया। फलस्वरूप राष्ट्र ताकतवर बना। 13 वी शताब्दी में मैग्नाकार्टा अधिकार पत्र के लागू होने से दंड देने की शक्ति मुट्ठी भर जजो के हाथ से निकलकर नागरिको के हाथो में आ गयी और राजा और उसके कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न में कमी आयी। इससे उद्योग और निर्माण उद्योग को बढ़ावा मिला, अत: ब्रिटेन ने नए आविष्कार किये और तकनिकी विकास ने उन्हें सबसे बेहतर हथियाए बनाने में सक्षम बना दिया। 16 वीं शती में यूरोपीय पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रान्ति ज्यूरी सिस्टम की ही देन थी। और एक बार यदि कोई देश अपनी सेना को मजबूत बना लेता है तो देश की लगभग सभी समस्याएं आसानी से हल की जा सकती है।
सेना मजबूत हो जाने के कारण ब्रिटेन ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया जिसने उनके लिए अन्य देशो के प्राकृतिक संसाधनो को लूट लेने के मार्ग खोल दिए। सस्ते प्राकृतिक संसाधनो ने निर्माण को और भी सस्ता बना दिया, जिसने निर्माण उद्योग को प्रोत्साहन दिया, अत: वस्तुओ की कीमतें तथा बेरोजगारी घटी। निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्माण उद्योग के पनपने से तकनिकी विकास में और भी तेजी आयी जिससे ब्रिटेन सैन्य और आर्थिक रूप से और भी मजबूत होता चला गया।
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अमेरिका में ज्यूरी सिस्टम 1750 ईस्वी में आया। 1774 में अमेरिका ब्रिटेन की दासता से मुक्त हुआ, और आज अमेरिका सैन्य और आर्थिक दृष्टी से ब्रिटेन से भी ताकतवर देश बन चुका है। दरअसल आजादी के बाद अमेरिका ने ब्रिटेन का अनुसरण करते हुए राईट टू रिकॉल ज्यूरी सिस्टम प्रक्रियाओ पर आधारित लोकतंत्र लागू किया। आज दुनिया में सबसे ताकतवर राईट टू रिकॉल और ज्यूरी प्रक्रियाएं अमेरिका में है, और यह कतई इत्तिफ़ाक़ नही है कि अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश है।
असल में देश की सेना को ताकतवर बनाने का सारा दारोमदार हथियारों के तकनिकी विकास पर टिका होता है। तकनीक और निर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के दो उपाय है -- १) सरकारी क्षेत्र २) निजी क्षेत्र। सरकारी क्षेत्र निर्माण तो कर सकता है, लेकिन आविष्कार करने में पिछड़ जाता है। तकनीक का आविष्कार निजी क्षेत्र में ही किया जा सकता है, अत: निजी क्षेत्र के पिछड़ने से देश तकनीक में पिछड़ जाता है। उदाहरण के लिए हथियारों की तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका रूस से मीलो आगे निकल गया, क्योंकि अमेरिका में हथियार उद्योग निजी क्षेत्र के पास है जबकि रूस हथियारों और तकनीक में सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है। और जहां तक भारत की बात है --- भारत के निजी क्षेत्र को हथियारों के उत्पादन की इजाजत ही नही है, और सरकारी क्षेत्र का हाल हमसे छिपा हुआ नही है। नतीजा हमारे सामने है।
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कहने का आशय यह है कि, निर्माण उद्योग में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए हमें ऐसी शासन व्यवस्था चाहिए जिसमे नागरिको का कम उत्पीड़न हो, और उन्हें उद्योग शुरू करने एवं उन्हें संचालित करने के लिए न्यूनतम प्रतिरोध का सामना करना पड़े। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ऐसे ही शासन की रचना करती है। लोकतंत्र में न्यायधीशों को नौकरी से निकालने का अधिकार और दंड देने की शक्ति नागरिको के बहुमत के पास होती है, जिससे विवादों का निष्पक्ष और त्वरित निपटारा होता है, और उत्पादकता में तेजी आती है। इसी तरह राइट टू रिकॉल प्रक्रियाऐं यह सुनिश्चित करती है कि कारोबारियों का उत्पीड़न करने वाले अधिकारियों पर अंकुश रहे, और उन्हें नागरिको के बहुमत द्वारा नौकरी से निकाला जा सके। इसके अलावा क़ानून बनाने के लिए ऐसी जनमत संग्रह प्रक्रियाएं आवश्यक है जिनसे नागरिक उन कानूनो पर अपना समर्थन दर्ज कर सके जो वे देश में लागू करवाना चाहते है।
अमेरिका में वहाँ के नागरिको के पास ये सभी प्रक्रियाएं मौजूद है, जिससे शक्ति 1% नेताओ, अधिकारियों और न्यायधीशों के हाथो से निकल कर नागरिको के हाथो में चली आई है। इससे वहाँ का 'लोक' (लोग का बहुवचन 'लोक' होता है) नेताओ, अधिकारियों, धनिकों, न्यायधीशों आदि की तुलना में ज्यादा मजबूत हो गया, और 99% लोक के मजबूत हो जाने से देश मजबूत हुआ। भारतवर्ष जैसे देशो में स्थिति इसके उलट है। भारत में 'विकृत लोकतंत्र' होने के कारण न्यायपालिका, विधायिका, खबरपालिका और कार्यपालिका लोक की तुलना में ज्यादा मजबूत हो गयी, अत: इन 1% लोगो ने 99% की तुलना में ज्यादा "विकास" किया। इससे लोक कमजोर हुआ फलस्वरूप राष्ट्र कमजोर हो गया।
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तो इस प्रकार तानाशाही एक ऐसा तरीका है, जिसमें एक नेता अपने 1000-500 विश्वस्त सहयोगियों की सहायता से देश को मजबूत बनाने और समस्याओं को हल करने का प्रयास करता है, तथा शेष जनता को खेल से बाहर कर दिया जाता है या वे तमाशबीन बन जाते है। जबकि लोकतंत्र में देश के 100% नागरिको की भागीदारी होती है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशो ने नागरिको की भागीदारी बढ़ाने वाले क़ानून लागू किये और बिना किसी तानाशाही के सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे। जबकि अन्य देश लोकतंत्र के अभाव या तानाशाही के चलते तबाह हो गए, या पिछड़ गए, या लगाताार पिछड़ते जा रहे है, या तुलनात्मक रूप से पीछे रहे।
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5. स्टालिन और माओ क्रमश: सोवियत संघ और चीन को बचाकर ले जाने में सफल रहे, लेकिन अब वे अमेरिका की तुलना में लगातार पिछड़ रहे है।
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जोसेफ स्टालिन 1922 से 1953 तक सोवियत संघ और माओ 1949 से 1976 तक चीन के मुख्य नीति नियंता बने रहे। स्टालिन और माओ दोनों ही अपने देशो की सेना को मजबूत बनाने में सफल हुए। लेकिन दोनों ही देश आज अमेरिका की तुलना में पिछड़े हुए है। दोनों देशो को अपनी सेना मजबूत करने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। लाखों नागरिको को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, नागरिक अधिकारों को कुचला गया और देश के बड़े तबके को दमन का सामना करना पड़ा। कारण यही था कि दोनों नेताओ ने निर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया, जिससे लागत बढ़ी और तकनिकी आविष्कार में कमी आयी। राईट टू रिकॉल और ज्यूरी प्रक्रियाओ की कमी ने स्थिति और भी बदतर कर दी, तथा सरकारी विभाग बड़े पैमाने पर भ्रस्टाचार के शिकार हो गए, जिससे निर्माण लागत और भी बढ़ी, तकनिकी कुशलता में कमी आयी और निर्माण "प्रोद्योगिकी" उतना विकास नही कर सकी, जितना कि अमेरिका ने किया।
हालांकि स्टालिन राईट टू रिकॉल कानूनो के मौखिक समर्थक थे और उन्होंने 1937 में दिए अपने वक्तव्य में कहा था कि :
"इसके अलावा, कामरेडों, मैं आपको कुछ सलाह देना चाहूँगा, एक प्रत्याशी की उसके मतदाताओं को सलाह --- यदि तुम पूंजीवादी देशों का उदाहरण लोगे तो तुम विशेष कर पाओगे कि, उन देशों में प्रतिनिधियों और मतदाताओं के बीच अत्यंत विचित्र संबंध मौजूद है। जब तक चुनाव की कार्रवाई चल रही होती है तब तक प्रतिनिधि मतदाताओं को रिझाते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, कृतज्ञता की सौगंध खाते हैं और हर तरह के वायदों का ढेर लगा देते है। ऐसा लगता है मानों ये प्रतिनिधि मतदाताओं पर पूरी तरह आश्रित है। लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होता है और ये प्रत्याशी प्रतिनिधि बन जाते है, तो संबंधों में पूरी तरह से बदलाव आ जाता है। मतदाताओं पर निर्भर होने की बजाए ये प्रतिनिधि पूरी तरह निरंकुश हो जाते है। अगले चार या पांच वर्षों के लिए, अर्थात अगले चुनाव तक ये प्रतिनिधि जनता से और अपने मतदाताओं से भी निरंकुश बने रहते है, और बिलकुल स्वछन्द व्यवहार करते है। वे एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जा सकते है। सही रास्ते से गलत रास्ते पर जा सकते है। वे जितनी चाहे उतनी कलाबाजियां खा सकते है। क्योंकि वे निरंकुश है। क्या ऐसे संबंध सामान्य माने जा सकते है। कामरेडों, नहीं, किसी भी तरह से नहीं। इस परिस्थिति पर हमारे संविधान द्वारा विचार किया गया था। और इसमें एक कानून बनाया गया कि, मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को उनके पद की अवधि समाप्त होने के पहले ही तब वापस बुलाने का अधिकार होगा जब ये प्रतिनिधि तिकड़मबाजी करना शुरू कर दें, यदि वे रास्ते से भटक जाएं और वे भूल जाएं कि वे जनता पर, मतदाताओं पर निर्भर है"
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हालांकि स्टालिन ने रूस में कभी भी राईट टू रेकलल प्रक्रियाएं लागू नहीं की, और वे केवल इसका मौखिक समर्थन ही करते रहे।
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यहां इस बात को समझना भी जरुरी है कि क्यों स्टालिन और माओ अपने देश को मजबूत बना सके। क्योंकि इन दो तानाशाहों के अलावा अन्य कोई भी तानाशाह अपने देश को बचाने में सफल नही हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और अमेरिका की सैन्य-आर्थिक शक्ति कमजोर हो चुकी थी और वे युद्ध लड़ने की स्थिति में नही थे। और इसी समय का इस्तेमाल स्टालिन ने परमाणु बम के निर्माण में किया। 1949 में सोवियत संघ अपना पहला परमाणु परिक्षण कर चुका था, और उसने अमेरिका-ब्रिटेन के प्रतिरोध का सामना करने के लिए लगातार अपनी परमाणु और सैन्य ताकत बढ़ायी। परमाणु अस्त्रों से लैस हो जाने के कारण अमेरिका और रूस के बीच युद्ध की संभावना टल गयी और अगले दो 2 दशक तक शीत युद्ध ही एक मात्र विकल्प बना रहा। लेकिन जहां एक तरफ अमेरिका लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण प्रोद्योगिकी और निर्माण में तेजी से विकास कर रहा था, वहीँ दूसरी तरफ सोवियत संघ मुट्ठी भर व्यक्तियों और खासकर स्टालिन पर टिका हुआ था। व्यक्ति नश्वर और व्यवस्था सतत होती है, अत: नतीजा यह हुआ कि 1976 में स्टालिन की मृत्यु के उपरान्त अमेरिका सोवियत रूस के टुकड़े करने में सफल हो गया।
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माओ को भी इस परिस्थिति का लाभ मिला। माओ ने जब सैन्य और आर्थिक सुधार करने शुरू किये तो अमेरिका-ब्रिटेन चीन को रोक पाने में सक्षम नही थे। क्योंकि उस समय एक स्तर तक ख्रुश्चेव का माओ से सहयोगात्मक रवैया था। इसी से चीन अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा पाया, और 1964 में पहले परमाणु विस्फोट के बाद चीन भी आसान शिकार नही रह गया था। और जब अमेरिका ने चीन पर शिकंजा कसना शुरू किया तो चीन भारी मात्रा में परमाणु हथियारों का उत्पादन कर लेने के कारण प्रतिरोध करने लायक हो चुका था। जब अमेरिका ने चीन को घेरने के प्रयास शुरू किये तो चीन ने अपने परमाणु हथियार ईरान और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों को देने की धमकी दी, जिससे अमेरिका को पीछे हटना पड़ा।
इसमें कोई संदेह नही है कि स्टालिन के कारण आज रूस इतना शक्तिशाली है कि अमेरिका या अन्य कोई भी देश कभी भी रूस को पराजित नही कर सकेगा, लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिए कि यदि रूस के पास इतने विपुल प्राकृतिक संसाधन नही होते, यदि सोवियत संघ समय रहते अपनी परमाणु क्षमता नही बढ़ा पाता तो स्टालिन जैसे नेता के होते हुए भी रूस के हालात ईराक जैसे हो सकते थे। बावजूद इसके आज रूस प्रोद्योगिकी और निर्माण के क्षेत्र में अमेरिका की तुलना में पिछड़ा हुआ है, तथा लगातार पिछड़ रहा है। और जहां तक चीन की बात है, चीन अमेरिका-ब्रिटेन से इतना पिछड़ा हुआ है कि वह इन देशो की जद में है और कभी भी अमेरिका-ब्रिटेन का शिकार हो सकता है।
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6. देवी इंदिरा गांधी, हिटलर और मुसोलिनी प्राथमिक दौर में सफल लेकिन अंतिम दौर में असफल रहे।
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देवी इंदिरा गांधी तानाशाह नही थी, और लोकतांत्रिक तरीके से चुन कर आयी थी। उन्हें देवी कहना इसीलिए यथोचित है क्योंकि आज भारत की जो भी हैसियत है वह उनकी ही देन है। कमोबेश उन्होंने भारत के लिए वही भूमिका निभायी जो स्टालिन ने सोवियत रूस के लिए निभायी थी। लेकिन उन्हें काल के कारण वे लाभ नही मिल सके हो स्टालिन को मिले थे।
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जैसे ही इंदिरा जी ने भारत की सेना को मजबूत करने के प्रयास शुरू किये, अमेरिका ने बाधाएं डालना शुरू कर दिया था। 1967 में उन्होंने रॉ का गठन कर दिया था और परमाणु कार्यक्रम को भी तेजी से आगे बढ़ाना शुरू किया। पाकिस्तान के दो टुकड़े करने के बाद उन्हें रूकना पड़ा क्योंकि अमेरिका ने भारत-पाकिस्तान के बीच सामरिक हस्तक्षेप कर दिया था। लेकिन 1974 में पोकरण में किये गए परमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका ने उन्हें गिराने के प्रयास तेज कर दिए, और वे मिडिया, विपक्ष, न्यायपालिका और आंतरिक विद्रोहों से घिरती चली गयी। यदि उस समय उन्होंने इन द्रोहियों को कंट्रोल करने के लिए राईट टू रिकॉल, ज्यूरी प्रक्रियाएं लागू कर दी होती तो इन तत्वों को भारत के नागरिको द्वारा सिर्फ 6 महीने में ही काबू किया जा सकता था। लेकिन अन्य तानाशाहों की तरह वे भी यहां चूक गयी और उन्होंने शासन पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए आपातकाल का सहारा लिया।
ज्ञातव्य है कि, उस समय देश इंदिरा जी पूजा करता था, गले गले पानी तक उनके साथ खड़ा था। आज मोदी साहेब की लोकप्रियता उनके पासंग भी नही है। यदि वे देश की सेना को मजबूत बनाने वाले फैसलों में रोड़े डालने वाले इन तत्वों को ठिकाने का अधिकार नागरिको को दे देती तो इससे उन्हें हानि होने की संभावना शून्य थी। लेकिन आपातकाल ने उल्टे प्रजा पर दमन को बढ़ा दिया और 77 के चुनावो में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन नागरिको ने आपातकाल के लिए उन्हें माफ़ कर दिया था और वे फिर से प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। लेकिन सत्ता वापसी के बावजूद उन्होंने लोकतंत्र को बढ़ावा नही दिया, फलस्वरूप सीआईए द्वारा करायी गयी उनकी हत्या के बाद भारत की सेना को मजबूत करने का कार्यक्रम हमेशा के लिए बंद हो गया। 15 वर्ष बाद वाजपेयी ने अपने पहले संक्षिप्त कार्यकाल में फिर से परमाणु कार्यक्रम और सेना को मजबूत करने की और कदम बढ़ाने की इच्छा शक्ति दिखाई लेकिन अमेरिका के दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा। बस तब से हमारी सेना को 'आत्मनिर्भर' बनाने के रास्ते हमेशा के लिए बंद है।
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हिटलर ने 1933 से 1945 और मुसोलिनी ने 1925 से 1945 तक क्रमश: जर्मनी और इटली की कमान संभाली, लेकिन दोनों ही अपने देशो को तबाही के कगार पर ले आये। दोनों ही शासको ने बलात् रूप से सत्ता हथियायी थी और ताउम्र तानाशाह बने रहे। हिटलर ने हालांकि अपनी सैन्य ताकत काफी हद तक बढ़ा ली थी लेकिन हथियारों की निर्णायक प्रोद्योगिकी में जर्मनी अमेरिका से मात खा गया। यदि हाइजेनबर्ग ओपेनहाइमर से पहले परमाणु विस्फोट कर पाते तो शायद विश्व युद्ध की दिशा बदल जाती, और जर्मनी-जापान का विनाश टल जाता। लेकिन जर्मनी यह प्रोद्योगिकी नही जुटा पाया। सिर्फ परमाणु हथियारो की ही बात नही है, तब भी अमेरिका के हथियार जर्मनी की तुलना में ज्यादा आधुनिक और मारक थे। कारण वही था -- ज्यूरी सिस्टम और राईट टू रिकॉल प्रक्रियाओ से लैस लोकतंत्र के चलते प्रोद्योगिकी और निर्माण 'तकनीक' में अमेरिका जर्मनी की तुलना में कहीं आगे था, और इसीलिए अमेरिकी ज्यादा बेहतर हथियार बेतहाशा बना पा रहे थे।
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मतलब कोई तानाशाह सरकार को काबू में करके निर्माण को तो बढ़ावा दे सकता है, लेकिन मुक्त शासन व्यवस्था के अभाव में आधुनिक प्रोद्योगिकी का विकास नही कर सकता। और अंततोगत्वा गुणवत्ता संख्या पर भारी पड़ती है।
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7. सद्दाम और गद्दाफी ने अपने देशो को तबाही दी जबकि नागरिको के सामूहिक प्रयासों ने इस्राएल को आत्मनिर्भर बनाया।
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सद्दाम हुसैन ने 1980 से 2003 तक ईराक पर और गद्दाफी ने लीबिया पर 1969 से 2011 तक शासन किया। दोनों ही देश निरन्तर अन्य देशो के आयातित हथियारों पर निर्भर बने रहे। दोनों ने ही सैन्य शक्ति जुटाने के लिए लम्बा संघर्ष किया लेकिन कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सके। इतने लम्बे शासन के बावजूद। असल में दोनों ही देश तेल से आयी समृद्धि का उपभोग कर रहे थे। किसी भी देश की ताकत खुद के बनाये गए हथियारों से तय होती है, क्योंकि अंतिम फैसला युद्ध के मैदान में ही होता है। लोकतंत्र के अभाव में इनका निर्माण उद्योग पिछड़ गया, जिससे ये हथियारों के उत्पादन की तकनीक नहीं जुटा सके और अंत में इनका पतन हुआ।
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सद्दाम ने 1980 में परमाणु रियेक्टर की तकनीक देने के लिए फ्रांस को राजी कर लिया था। हालांकि रियेक्टर शांतिपूर्ण कार्यक्रम के लिए डिजाइन किया गया था किन्तु इस्राएल ने 1981 में हमला करके रिएक्टर को तबाह कर दिया और ईराक का परमाणु कार्यक्रम हमेशा के लिए बंद हो गया। दोनों देशो ने अपनी सारी ऊर्जा हथियार 'कबाड़ने' में लगाईं, लेकिन अपने देश में हथियारों की प्रौद्योगिकी के विकास के लिए आवश्यक कानूनों को कभी तरजीह नहीं दी। कारण -- तानाशाह हमेशा सारे अधिकार अपने पास रखना चाहते है। चाहे कीमत पूरे देश को ही क्यों न चुकानी पड़े। .
यह भी उल्लेखनीय है कि ईराक और लीबिया चीन, रूस, अमेरिका आदि देशो की तुलना में अपेक्षाकृत छोटे देश है, किन्तु इनसे भी छोटे देश इस्राएल ने अपने आपको हथियारों की प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भर बनाया है। लेकिन इस्राएल की निति का अनुसरण नहीं किया जा सकता, और उनके उत्कर्ष में कई ऐतिहासिक कारण है। दरअसल इस्राएल का विकास वहाँ के नागरिकों के समग्र प्रयासों का नतीजा है, न कि किसी तानाशाह या मजबूत नेता के प्रयासों का। निरन्तर युद्धरत रहने और अस्तित्व को बचाए रखने के खतरे का सामना करने के कारण इस्राएल के नागरिकों ने सेना एवं हथियारों का महत्त्व समझा और हथियारों की तकनीक को वरीयता दी। पूरे देश के नागरिकों के इस सामूहिक एजेंडे के कारण ही लीबिया और ईराक़ जैसे देशो की तुलना में बेहद छोटा देश होने के बावजूद इस्राएल टिका हुआ है जबकि किसी एक नेता पर निर्भर होने के चलते आज ईराक और लीबिया तबाह हो चुके है।
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जब किसी देश के पास लड़ने या आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए पर्याप्त और आधुनिक खुद के हथियार न हो तो अंतिम उपाय हथियार बंद नागरिक समाज की रचना करना है। दोनों ही देशो के आंशिक नागरिकों के पास हथियार थे, लेकिन वे देश बचाने में असफल रहे। जब सद्दाम ने तेल के कारोबार के लिए अलग से नई मुद्रा 'पेट्रो दीनार' चलन में लाने की कोशिश की तो अमेरिका के लिए सद्दाम को हटाना जरुरी हो गया था। चूंकि ईराक की सेना पूरी तरह से आयातित हथियारों पर निर्भर थी अत: युद्ध लड़ने की जिम्मेदारी नागरिकों पर आ गयी। 2003 में ईराक में लगभग 30 प्रतिशत नागरिकों के पास बन्दुके थी। लेकिन ईराक की भौगोलिक परिस्थितियां गुरिल्ला युद्ध लड़ते हुए अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनुकूल नहीं थी, अत: वे अमेरिकी सेना के सामने टिक नहीं पाए। और अमेरिका की सेना ने एक के बाद एक ईराक के शहरो को नियंत्रण में ले लिया। इसके अलावा जैसा कि तानाशाही शासन में होता है, एक वर्ग सद्दाम के शासन से तंग आ चुका था और उन्होंने निर्णायक संघर्ष में रुचि नहीं ली। लीबिया में भी लगभग 15 प्रतिशत नागरिकों के पास हथियार थे किन्तु एक बड़ा तबका गद्दाफी के खिलाफ था। अत: अमेरिका को आंतरिक गृहयुद्ध भड़काने में किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।
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8. भारत जैसे पिछड़े हुए देश को अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए किस व्यवस्था का आश्रय लेना चाहिए ?
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पहली बात तो यह है कि तानाशाही किसी भी स्थिति में हमारे लिए कोई विकल्प ही नहीं है। क्यों ?
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दीगर विषयों को जाने दीजिये। सबसे बड़ा विषय है कि ऐसे किसी कथित चमत्कारिक नायक या मजबूत नेता को व्यवहारिक रूप से हासिल नहीं किया जा सकता। ऐसी कोई विधि या तरीका अब तक ज्ञात नहीं है जिससे हम ऐसे नेता को खोज सके। दरअसल यह एक दांव या लाटरी है। जो कि देश के नाम लग जाती है। अच्छी या बुरी अलग विषय है। क्या कोई बता सकता है कि स्टालिन, माओ, हिटलर या इंदिरा जी जैसे नेता किस झाड़ पर लगते है ? कैसी मिट्टी में यह झाड़ पनपता है ? कोई जवाब नहीं। तो हम देश की व्यवस्था और विकास को किसी काल्पनिक आशावाद के हवाले नहीं कर सकते। हमें किसी ठोस व्यवस्था का आश्रय लेना होगा, ताकि हम देश की व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से दुरुस्त कर सके, वरना हम दशकों तक ऐसे किसी घटना के घटित होने का इन्तजार करते रहेंगे। ऐसी हालत में लोकतंत्र ही एक मात्र विकल्प बचता है।
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कैसे हम राईट टू रिकॉल, ज्यूरी सिस्टम और जनमत प्रक्रियाएं आधारित लोकतंत्र को लागू करके भारत में स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास कर अपनी सेना को मजबूत बना सकते है ?
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इस प्रश्न के दो हिस्से है, और दोनों हिस्सों को समझना बेहद जरुरी है --- १) 'स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास करके सेना को मजबूत बनाना', तथा ; २) 'राईट टू रिकॉल, ज्यूरी सिस्टम और जनमत प्रक्रियाएं आधारित लोकतंत्र को लागू करना'।
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१) स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास करके सेना को मजबूत बनाना क्यों आवश्यक है ?
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किसी भी देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी सेना को 'मजबूत' और 'आत्मनिर्भर' बनाना है। किसी देश की सेना को मजबूत बनाने की प्रक्रिया के दौरान ज्यादातर समस्याएं या तो इस प्रक्रिया के दौरान स्वत: हल हो जाती है तथा सेना के मजबूत होने से शेष समस्याओ को आसानी से हल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आप किसी भी विकसित देश की मिसाल ले सकते है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ़्रांस, चीन आदि देशो में भारत के मुकाबले काफी कम नागरिक समस्याएं है क्योंकि उनकी सेना भारत की तुलना में बेहद मजबूत है। कोई भी देश तभी विकसित हो सकता है जब वह अपनी सेना को विकसित बनाने पर काम करे। सेना विहीन विकास थोथा है।
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सेना का मतलब आधुनिक हथियार होता है, वर्दीधारी जवान नहीं। वर्दी 300 रूपये में सिलवाई जा सकती है और यदि भारत रंगरूटों की भर्ती प्रारम्भ करे तो 2 महीनो में भारत की सेना की संख्या 12 लाख से बढ़कर 52 लाख हो जायेगी। लेकिन यदि इन सैनिकों के पास हथियार नहीं है तो यह सेना नहीं है। सेना को 'मजबूत' बनाने का आशय है कि सेना के पास आधुनिक हथियार हो। लेकिन यदि हथियार आयातित है या फिर विदेशी कम्पनियों द्वारा बनाये गए है तो ऐसी सेना को 'आत्मनिर्भर' नहीं कहा जा सकता। इसीलिए 'आत्मनिर्भर' सेना के लिए यह अनिवार्य है कि अमुक देश अपने आधुनिक हथियारों तथा इन हथियारों के 'सभी' पुर्जो का उत्पादन भी खुद करे। अब यह काम कितना चुनौतीपूर्ण है, इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते है कि दुनिया में 200 देश है, लेकिन सिर्फ 5 देश ही अपनी सेना को पर्याप्त प्रतिरोध सहने लायक 'मजबूत' और 'आत्मनिर्भर' बना सके है। और भारत इन 5 देशो में शामिल भी नहीं है, और निकट भविष्य में इस सूची में शामिल होने की कोई सम्भावना भी नहीं है। सम्भावना इसीलिए नहीं है कि ये 5 देश इस बात का पूरे से भी ज्यादा ख़याल रखते है कि इस सूची में कोई छठा देश शामिल न हो पाये। स्टालिन और माओ को छोड़कर सभी तानाशाहों का हश्र इसीलिए बुरा हुआ क्योंकि वे इस सूची में शामिल होने की कोशिश में मसरूफ थे।
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निर्माण प्रौद्योगिकी के विकास का सेना को मजबूत और 'आत्मनिर्भर' बनाने से क्या सम्बन्ध है ?
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सेना हथियारों से बनती है। हथियार बनाने के लिए प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। स्वदेशी प्रौद्योगिकी से ही स्वदेशी हथियार बनाये जा सकते है। मतलब यदि हमें स्वदेशी आधुनिक हथियारों का खुद के बुते उत्पादन करना है तो हमें निर्माण की भारतीय प्रौद्योगिकी का विकास करना होगा। लेकिन दिक्कत यह है कि हम सीधे हथियारों की प्रौद्योगिकी नहीं जुटा सकते। हथियारों की प्रौद्योगिकी जुटाने के लिए हमें अन्य तकनिकी उपकरणों की प्रौद्योगिकी भी जुटानी होगी। उदाहरण के लिए हम जब हम स्वदेशी कंप्यूटर, स्वदेशी मोबाईल, स्वदेशी, सेमी कंडक्टर चिप्स, स्वदेशी रेल/कार आदि के इंजन बना पाएंगे तब ही हम एक स्वदेशी लड़ाकू विमान बना सकेंगे। इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रिक, आटोमोबाईल, संचार, केमिकल आदि इंजीनियरिंग में कुशलता हासिल किये बिना हथियार बनाना सम्भव नहीं है। क्योंकि एक आधुनिक हथियार में इन सभी तकनीकों के बेहतरीन तालमेल की जरुरत होती है। फिलहाल हम पंखें और ट्यूबलाइटें भी चीन से आयात कर रहे है। इसीलिए स्वदेशी हथियारों को बनाने की बात करना सिर्फ हवा बांधना है।
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यदि हम विदेशी कम्पनियों को भारत में बुलाकर उनसे हथियार बनाने को कहेंगे और साथ में यह भी खुशफहमी भी बनाए रखेंगे कि इससे भारत में तकनीक आएगी तो हमारा मालिक भगवान् भी नहीं है। क्योंकि ये बड़ी कम्पनिया भारत में हथियार निर्माण पर अपनी तकनीक के बूते एकाधिकार कर लेगी जिससे स्वदेशी इकाइयां बंद हो जायेगी, और जब हमारी कम्पनियां ही बाजार में नहीं रहेगी तो तकनीक किसे ट्रांसफर जायेगी, मुझे नहीं पता। साथ ही ये विदेशी कम्पनियां जो हथियार बनाएगी उनमे 'कील स्विच' होंगे, जिन्हें एक्टिवेट करके ये कम्पनियां हमारे हथियारों को बेकाम कर सकेगी।
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दूसरे शब्दों में हमें हजारों की संख्या में ऐसी स्वदेशी निर्माण इकाइयां चाहिए जिनमे लाखों की संख्या में इंजीनियर्स/तकनीशियन प्रौद्योगिकीय निर्माण कर रहे हो। हमें लाखों छोटी बड़ी स्वदेशी इकाइयां चाहिए जो पूरी तरह स्वदेशी मोबाइल, कंप्यूटर, सेमी कंडक्टर चिप्स, कार/जेसीबी/रेल के इंजन, धातु उपकरण, भारी मशीने आदि का निर्माण करे, और उनमे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो। यदि इन सभी उत्पादों का निर्माण सिर्फ 100-50 विशाल कम्पनियां ही कर रही हो तो प्रतिस्पर्धा की जगह एकाधिकार स्थापित हो जाएगा और हम तकनिकी आविष्कार में पिछड़ जाएंगे।
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दरअसल सारा खेल एकाधिकार बनाम स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का है। बड़ी कम्पनियां ऐसे क़ानून चाहती है जिससे छोटी छोटी कम्पनिया नहीं पनप सके, ताकि उन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़े। एक बार प्रतिस्पर्धा का अंत हो जाने के बाद वे उपभोक्ताओं से भारी मुनाफा वसूल पाते है और उनका तकनीक पर एकाधिकार भी बना रहता है। किसी देश की ताकत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि -- अमुक देश की कौनसी बड़ी कम्पनी कितने आधुनिक और तकनीकी सामान का उत्पादन कर रही है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि अमुक देश में कितनी कम्पनियां आधुनिक तकनीकी सामान का उत्पादन कर रही है।
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हम कैसे कानूनों की सहायता से यह सुनिश्चित कर सकते है कि देश में ज्यादा से ज्यादा इंजीनियर्स/व्यवसायी अपनी स्वतंत्र इकाइयों को शुरू करने और उन्हें संचालित करने के लिए प्रोत्साहित हो ? तथा उन्हें किसी प्रकार के उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़े ?
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इस बिंदु की व्याख्या करने के लिए मैं कुछ उदाहरण प्रस्तुत करूंगा, जिनसे यह समझा जा सकता है कि किस तरह 'विकृत लोकतंत्र' देश के निर्माण उद्योग का गला घोंट देता है जबकि 'लोकतंत्र' स्वेशी छोटी इकाइयों को सरंक्षण प्रदान करके उन्हें पनपने का अवसर देता है।
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१. जमीनो के दाम बढ़ने से निर्माण इकाइयां (फैक्ट्रियां) शुरू करना मुश्किल हो जाता है :
हर कारखाने के लिए पहली जरुरत जमीन की होती है। यदि जमीन के दाम ऊँचे होंगे तो धंधा शुरू करने की लागत बढ़ जायेगी। लेकिन जिसके पास जमीन है वह आसानी से कम कीमत में कारखाना शुरू कर सकेगा। भारत में मंत्री, न्यायधीश, अधिकारी आदि भ्रष्टाचार से जितना काला धन कमाते है उसे जमीनों में निवेश कर देते है और उद्योगपति भी भूमि बैंक बना कर बैठे है। ये सारी जमीने उन्होंने 'भविष्य' के लिए रोक रखी है। वे इन जमीनों पर कोई कारोबार नहीं करते। इससे देश की उत्पादकता गिरती है और जमीन महंगी होती जाती है। ये लोग पैसा कमाते है और जमीने खरीद कर बैठ जाते है।
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अब हमें ऐसा क़ानून चाहिए जिससे जमीनों पर वार्षिक रूप से सम्पत्ति कर लगाया जा सके और देश की सभी जमीनों के स्वामियों के नाम सार्वजनिक किये जा सके। ऐसा क़ानून आने से जमीनों को रोकने की प्रवृति कम होगी और जमीनों के दामों में लगभग 80% की गिरावट आएगी। इससे आम नागरिकों के लिए जमीन खरीदना और कारखाने लगाना सुलभ हो जाएगा।
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लेकिन लोकतंत्र के अभाव में ऐसा क़ानून नहीं लाया जा सकता। क्योंकि धनिक वर्ग, अधिकारी, न्यायधीश, नेता आदि इस क़ानून का विरोध करेंगे। चूंकि भारत में क़ानून बनाने की शक्ति इन 1% लोगो के पास ही है इसीलिए 80% नागरिकों के हित में होते हुए भी यह क़ानून भारत में कभी लागू नहीं हो सकता। अब मान लीजिए कि भारत के करोडो नागरिकों के पास ईएसआई कोई प्रक्रिया है जिससे भारत के नागरिक किसी क़ानून पर अपनी हाँ या ना दर्ज कर सके तो 90% नागरिक इस क़ानून पर अपना समर्थन दर्ज करवा देंगे। यही कारण है कि भारत के धनिक वर्ग, अधिकारी, न्यायधीश, नेता आदि नागरिकों को ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं देना चाहते जिससे लोकतंत्र की स्थापना हो।
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२) विज्ञान-गणित की शिक्षा का ढांचा टूटने से देश में निर्माण प्रौद्योगिकी के विकास के अवसर ख़त्म हो जाते है :
इतिहास, नागरिक शास्त्र, ललित कला और अर्थशास्त्र पढ़ने वाले छात्र तकनिकी विकास में योगदान नहीं दे सकते। किसी देश का विज्ञानं और गणित का ढांचा जितना मजबूत और प्रतिष्पर्धी होगा अमुक देश उतने ज्यादा इंजीनियर्स और टेक्नोक्रेट पैदा करेगा। विज्ञान गणित के यही छात्र आगे चलकर तकनिकी विकास में योगदान देते है। दुर्भाग्य से यदि ए पी जे भी सचिन की तरह बल्ला पकड़ लेते तो एक और बेहद प्रतिभाशाली व्यक्ति देश के विकास में योगदान देने की जगह हमारा मनोरंजन कर रहा होता। कुल मिलाकर हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जो हमारी प्रतिभाओं को गणित-विज्ञान की किताबों की और धकेल सके। वरना हमारे देश के सभी प्राकृतिक संसाधन और सस्ती जमीने आदि बेकार सिद्ध होगी।
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अब देश के 80% नागरिक ऐसा क़ानून चाहते है जिससे देश के सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों से बेहतर हो, तथा मूल्य-तकनीक परक शिक्षा सभी तबके के छात्रों को निशुल्क मिल सके। इस समस्या के समाधान के लिए हमें अमेरिका की तरह ऐसी प्रक्रिया चाहिए जिससे जिले के नागरिक मतदाता बहुमत का प्रयोग करके भ्रष्ट जिला शिक्षा अधिकारी को नौकरी से निकाल सके। लेकिन बड़ी समस्या यह है कि मिशनरीज, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और निजी स्कूल शिक्षा माफिया नहीं चाहता कि ऐसा कोई क़ानून भारत में लागू हो। क्योंकि इससे गरीबी कम होगी और मिशनरीज के धर्मांतरण के अवसर सिकुड़ जाएंगे। सरकारी स्कूलों का स्तर सुधरने से निजी स्कूल शिक्षा माफिया की दुकाने बंद हो जायेगी और तकनिकी शिक्षा के विकास से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर भारत की निर्भरता ख़त्म हो जायेगी। इसीलिए ये वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि देश में सरकारी स्कूलों को ढांचा सुधारने और गणित-विज्ञान की शिक्षा का आधार मजबूत करने वाले कानून लागू हो।
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किन्तु यदि भारत के नागरिकों को ऐसी प्रक्रिया मिल जाती है जिससे वे तय सके कि नागरिकों को अपने जिले के शिक्षा अधिकारी को नौकरी से निकालने का अधिकार होना चाहिए या नहीं, तो 80% नागरिक ऐसे क़ानून का समर्थन करेंगे जिससे भारत के सरकारी स्कूल बेहतर बने और मूल्य-तकनिकी परक शिक्षा प्रणाली की स्थापना हो।
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३) मुकदमों की सुनवाई और दण्ड देने की शक्ति नागरिकों को दिए बिना स्वदेशी और छोटी इकाइंयों को बचाना लगभग असम्भव है :
सस्ती जमीन, प्राकृतिक संसाधन और इंजीनियर्स जुटाने के बाद सबसे जरुरी है ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना जिससे उन छोटे और स्वदेशी कारखानों को सरंक्षण दिया जा सके जो बड़ी कम्पनियों के सामने चुनौती पेश करती है। आज भारत के कारखाने कई प्रकार के कर विभागों जैसे उत्पाद शुल्क, प्रदुषण बोर्ड, श्रम विभाग आदि पर आश्रित है। किसी भी प्रकार के विवाद की सुनवाई अदालतों में जज करते है, और जज बड़ी कम्पनियों से पैसा खाकर छोटी कम्पनियों के खिलाफ फैसले देता है। घूस देने और जजों को प्रभावित करके जब फैसलों को अपने पक्ष में मोड़ा जा सके तो जीत हमेशा बड़ी कम्पनियों की ही होगी। इसके अलावा धीमी अदालती प्रक्रिया में वर्षो तक मामले घिसटते रहते है जिससे छोटी इकाइयों की लागत बढ़ती और उत्पादकता घटती है।
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इस समस्या के समाधान के लिए हमें ऐसे क़ानून की आवश्यकता है जिससे औद्योगिक विवादों का निपटारा नागरिकों की ज्यूरी करें। प्रत्येक मुकदमे की सुनवाई के लिए जिले की मतदाता सूचियों में से 12 नागरिकों का रेंडमली चयन किया जाएगा और यह ज्यूरी मुकदमे की नियमित सुनवाई करेगी। इससे बड़ी कम्पनियों द्वारा जजों को घूस खिलाकर अपने पक्ष में फैसले करवाना लगभग असम्भव हो जाएगा और मुकदमों के निपटारे में तेजी आएगी। दरअसल अमेरिका और ब्रिटेन के औद्योगिक विकास के पीछे सबसे अहम कारण ज्यूरी सिस्टम का होना रहा है। ज्यूरी सिस्टम स्वदेशी और छोटी इकाइयों को सरंक्षण प्रदान करता है।
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अब समस्या यह है कि सभी नेता, अधिकारी, धनिक, न्यायधीश, मिडिया हाउस, मिशनरीज, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदि ज्यूरी सिस्टम के सख्त खिलाफ है। वे हमेशा यही चाहते है कि दण्ड देने की शक्ति मुट्ठी भर लोगो (जजों) के पास ही रहे, करोडो नागरिकों के पास नहीं। ताकि वे जजों को घूस देकर फैसले अपने पक्ष में करवा सके। लेकिन देश के 80% नागरिक ऐसे क़ानून का समर्थन करेंगे जिससे दण्ड देने की शक्ति नागरिकों के अधीन रहे। पर चूंकि भारत के 'विकृत लोकतंत्र' में करोड़ो नागरिकों के पास ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है जिससे वे यह तय कर सके कि भारत में ज्यूरी सिस्टम लागू किया जाना चाहिए या नहीं।
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कुल मिलाकर हमें एक ऐसे लोकतंत्र का आश्रय लेना चाहिए जिस लोकतंत्र में जनमत संग्रह, राईट टू रिकॉल तथा ज्यूरी सिस्टम जैसी प्रक्रियाएं हो। अब तक के इतिहास में शासन चलाने की जितनी भी पद्धतियां सामने आयी है, उनमे लोकतंत्र सबसे निरापद और सबसे बेहतर व्यवस्था है। लेकिन भारत में लोकतंत्र नहीं बल्कि 'विकृत लोकतंत्र' है, और यही भारत की सभी समस्याओं की जड़ है।
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जैसे जैसे वक्त गुजर रहा है, वैसे वैसे हम पर खतरा बढ़ता जा रहा है। हम अपना कीमती वक्त उल जलूल सिद्धांतो में जाया कर रहे है जबकि हमारे दुश्मन देश लगातार अपनी ताकत सेना को मजबूत बनाने में लगा रहे है। और जब यह शक्ति संतुलन ज्यादा बिगड़ जाएगा तो युद्ध को टाला नहीं जा सकेगा। और जब युद्ध होगा तो टीवी पर नजर आने वाले सारे सफेदपोश चेहरे अगली फ्लाइट से देश छोड़ देंगे एवं किसी सुरक्षित देश में बैठकर भारत की तबाही का सजीव प्रसारण देखेंगे। इसीलिए उन्हें आने वाले युद्ध की चिंता नहीं है। कुल मिलाकर यदि हमने जल्दी ही भारत की सेना को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवश्यक कानूनों को लागू नहीं किया तो हमें फिर से अपनी आजादी गंवानी पड़ सकती है । और तब हम शायद फिर से किसी तानाशाह की जगह भगत सिंह की तलाश शुरू करेंगे।
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9. भारत को मजबूत बनाने के लिए आम नागरिक क्या कर सकते है ?
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हम आम नागरिकों को अहिंसामूर्ती महात्मा उधम सिंह प्रेरित राईट टू रिकॉल-ज्यूरी सिस्टम क़ानून ड्राफ्ट आधारित एक ऐसा जन आंदोलन खड़ा करने की जरुरत है जिससे सांसदों पर दबाव बनाकर लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक कानूनों को लागू करवाया जा सके।
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कैसे आप देश में लोकतंत्र स्थापित करने में सहयोग कर सकते है ?
सारा खेल कानूनों पर टिका हुआ है। अच्छे क़ानून अच्छा देश बनाते है और बुरे कानून बुरा। इसीलिए कार्यकर्ताओ को समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक कानून ड्राफ्ट्स का अध्ययन करना चाहिए और अपने सांसद को अच्छे कानूनों को गैजेट में प्रकाशित करने के लिए एसएमएस द्वारा आदेश भेजने चाहिए। मैं जिन क़ानून ड्राफ्ट्स का समर्थन करता हूँ, उनकी सूची इस लिंक पर देखी जा सकती है --- https://web.facebook.com/photo.php?fbid=911238535661050&set=a.227009877417256.48763.100003247365514&type=3&theater
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कुछ लोग तानाशाही को लोकतंत्र पर तरजीह देते है, तथा मानते है कि तानाशाह या दबंग नेता देश की समस्याओ का तेजी से निपटारा कर सकते है। लेकिन ऐसा बिलकुल भी नही है। दरअसल तानाशाही देश को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है जबकि 'सच्चे लोकतंत्र' द्वारा ही देश को सबसे निरापद और तेजी से अपने पैरो पर खड़ा किया जा सकता है। इस स्तम्भ में तानाशाही और सच्चे लोकतंत्र के सन्दर्भ में किसी देश के विकास करने और भविष्य में 'टिके रहने' के पहलुओ पर चर्चा की गयी है।
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अध्याय
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1. सच्चे लोकतंत्र और तानाशाही से आशय।
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2. तानाशाही के अपने खतरे है जबकि सच्चा लोकतंत्र निरापद है।
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3. क्यों किसी देश के बहुधा राष्ट्रवादी/सच्चे कार्यकर्ता लोकतंत्र की जगह तानाशाही को तरजीह देने लगते है ?
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4. कैसे अमेरिका और ब्रिटेन बिना किसी तानाशाह के भी सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे ?
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5. स्टालिन और माओ क्रमश: रूस और चीन को बचाकर ले जाने में सफल रहे, लेकिन अब वे अमेरिका की तुलना में लगातार पिछड़ रहे है।
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6. देवी इंदिरा गांधी, हिटलर और मुसोलिनी प्राथमिक दौर में सफल लेकिन अंतिम दौर में असफल रहे।
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7. सद्दाम और गद्दाफी ने अपने देशो को तबाही दी जबकि नागरिको के सामूहिक प्रयासों ने इस्राएल को आत्मनिर्भर बनाया।
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8. भारत जैसे पिछड़े हुए देश को अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए किस व्यवस्था का आश्रय लेना चाहिए ?
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9. भारत को मजबूत बनाने के लिए आम नागरिक क्या कर सकते है ?
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1. तानाशाही और लोकतंत्र से आशय।
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लोकतंत्र : मेरे विचार में सच्चे लोकतंत्र से मायने ऐसे लोकतंत्र से है --- "जिस व्यवस्था में नागरिको के पास अपने प्रतिनिधियों और सेवको को बहुमत के प्रयोग द्वारा नौकरी से निकलने का अधिकार हो, दंड देने की सर्वोच्च शक्ति नागरिको के अधीन हो, संविधान की व्याख्या करने वाली अंतिम शक्ति नागरिको का बहुमत हो तथा 'आवश्यक' रूप से नागरिको के पास ऐसी प्रक्रिया भी हो जिसका प्रयोग करके नागरिक देश में लागू किये जाने वाले कानूनो पर अपनी राय रख सके"।
उदाहरण के लिए भारत में मतदाताओ के पास एक बार वोट करने के बाद पांच वर्ष से पहले अपने प्रतिनिधियों को नौकरी से निकालने का अधिकार नही है। यदि प्रतिनिधि प्रजा को नुकसान पहुंचाने वाले कानूनो को लागू करते है तो नागरिको के पास उन कानूनो पर अपनी असहमति दर्ज करवाने की भी कोई प्रक्रिया नही है। इतना ही नही, यदि पुलिस या अन्य शासकीय अधिकारियों द्वारा गलत तरीके से नागरिको का उत्पीड़न किया जाता है या न्यायधीशों द्वारा उन्हें गैर वाजिब तरीके से दंड दिया जाता है तब भी भारत के करोड़ो नागरिको के पास इन अधिकारियों या न्यायधीशों को पद से हटाने या उन्हें दंड देने की शक्ति नही है। इस प्रकार अधिकारी, प्रतिनिधि और न्यायधीशों पर नागरिको का कोई अंकुश नही रह जाता। अत: भारत में लोकतंत्र का विकृत रूप है, किन्तु लोकतंत्र नहीं है।
इसीलिए शब्द लोकतंत्र की जगह 'सच्चे लोकतंत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। शेष आलेख में 'लोकतंत्र' शब्द से आशय उस व्यवस्था से ग्रहण किया गया है, जिस व्यवस्था में उपरोक्त वर्णित प्रक्रियाएं है, तथा उपरोक्त प्रक्रियाओ से विहीन लोकतंत्र के लिए 'विकृत लोकतंत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है।
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तानाशाही : तानाशाही से मेरा आशय उन सभी व्यवस्थाओ से है जिनमें नागरिको के सामान्य अधिकारों का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निलंबन कर दिया गया हो। यह निलंबन लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आये प्रतिनिधियों द्वारा कर दिए जाने से भी तानाशाही की श्रेणी में आता है। उदाहरण के लिए देवी इंदिरा जी ने लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आने के बाद आपातकाल लगाकर नागरिको के अधिकारों में कटौती कर दी थी। इस बारे में कैफियत अलग से दी जा सकती है कि उन्होंने ऐसा किन परिस्थितियों में किया, लेकिन आपातकाल लगाने का कृत्य तानाशाही की श्रेणी में आता है।
तानाशाही में उन शासको को भी शामिल किया गया है जिन्हें मजबूत नेता या मौजूदा व्यवस्था के दायरे से बाहर जाकर 'देशहित' में ताबड़तोड़ फैसले लेने के लिए जाना जाता है। इस लिहाज से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस श्रेणी में नही रखा गया है।
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2. तानाशाही के अपने खतरे है जबकि सच्चा लोकतंत्र निरापद है।
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मेरे नजरिये में सैन्य ताकत जुटाना किसी देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि किसी देश के सैन्य रूप से आत्मनिर्भर न होने का निश्चित परिणाम यह होगा कि उसे अन्य शक्तिशाली देश द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुलाम बना लिया जाएगा। और सैन्य दृष्टी से कमजोर देश द्वारा इस परिस्थिति को टाला नही जा सकता। तो किसी भी देश को यदि गुलामी से बचना है तो उसे ऐसे फैसले लेने या ऐसी व्यवस्था को अंगीकार करने की जरुरत है जिससे देश को सैन्य रूप से मजबूत बनाया जा सके। किन्तु जब कोई देश अपनी सेना को मजबूत करने के प्रयास करता है तो उसे पूरी दुनिया के देशो और आंतरिक स्तर पर भी भीषण प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। इसीलिए यह कोई इत्तिफ़ाक़ नही है कि सभी तानाशाहों या मजबूत नेताओ ने देश की सेना को मजबूत बनाने के प्रयास किये, लेकिन एक आध अपवाद की अनदेखी करे तो सभी ने मुहँ की खायी।
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किसी भी देश की शासन व्यवस्था को चार अंग धारण करते है :
१) विधायिका - ये अंग देश के संचालन के लिए क़ानून बनाता है। क़ानूनो का समुच्चय ही शासन है। अच्छे कानूनो का समुच्चय और उनका पालन करवाने की व्यवस्था अच्छे शासन की स्थापना करती है, तथा बेहतर शासन से ही देश को बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ अच्छे क़ानून ही अच्छी शासन व्यवस्था की स्थापना नही कर सकते, क्योंकि इन कानूनो के पालन और क़ानून तोड़ने वालो को दंड देने की व्यवस्था भी बेहतर होनी चाहिए। भारत में क़ानून बनाने का काम सांसद और विधायक करते है।
२) कार्यपालिका - कार्यपालिका का काम बनाये गए कानूनो का पालन करवाना है। कार्यपालिका की तकनिकी परिभाषा जो भी हो, मैं इस अंग में पुलिस, जांच अधिकारी, कर अधिकारी, तहसीलदार, कलेक्टर आदि को शामिल करता हूँ। यदि किसी देश की कार्यपालिका अच्छे से कार्य नही करेगी तो बनाये गए कानूनो का कोई महत्त्व नही रह जाएगा।
३) न्यायपालिका - जो कोई कानून तोड़ता है, न्यायपालिका उन्हें दंड देती है। यदि कानून तोड़ने वालो को त्वरित दंड नही दिया जाए तो बनाये गए सभी क़ानून मिट्टी हो जाते है। क्योंकि क़ानून होने लेकिन उनके तोड़ने पर विलम्ब से दंड होने के कारण ज्यादा से ज्यादा नागरिक क़ानून तोड़ने के लिए प्रेरित होते है।
४) खबरपालिका - शासन द्वारा लिए गए फैसलो और उनके प्रभाव के बारे में नागरिको को सूचित करती है।
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तो जब कोई मजबूत नेता देश की समस्याओ को हल करने के प्रयास तेज करता है, और उसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है तो वह इन चारो अंगो को नियंत्रित करने का प्रयास करता है। असल में जो इन्हें कमोबेश नियंत्रित कर लेता है उसे ही तानाशाह कह कर सम्बोधित किया जाता है। लेकिन शासन पर पूर्ण नियंत्रण करने के बावजूद तानाशाह देश को मजबूत बनाने में असफल रहते है, बल्कि वे समस्याओ को और भी बढ़ा देते है। कैसे ?
शासक नियंत्रण हासिल करने के लिए कठोर क़ानून बनाते है। लेकिन कठोर कानूनो का परिणाम यह होता है कि कार्यपालिका द्वारा नागरिको का गैर जरुरी उत्पीड़न शुरू हो जाता है। चूंकि घूस खाने का सबसे आसान शिकार कारोबारी होते है, अत: सबसे अधिक मार कारोबारियों को ही झेलनी होती है। उद्योग शुरू करने और उन्हें जारी रखना मुश्किल हो जाता है, जिससे उत्पादकता गिरती है। निर्माण उद्योग चौपट होने से तकनिकी विकास अवरूद्ध हो जाता है, जो कि हथियारों के निर्माण और विकास के लिए सबसे अनिवार्य तत्व है। इस स्थिति में जब नागरिको द्वारा विरोध किया जाता है तो उनका दमन कर दिया जाता है, जिससे हालात और भी बदतर हो जाते है। देश में कुछ इस तरह का माहौल खड़ा हो जाता है कि सरकार और उसके अंग देश को आगे बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे है तथा सरकार का विरोध करने वाले शेष नागरिक राष्ट्र विरोधी है।
यह सामान्य समझ का विषय है कि किसी भी देश के विकास में देश की सभी संस्थाओं/संगठनों/कम्पनियों/नागरिकों आदि का योगदान होता है, सिर्फ सरकार का नहीं। किसी भी देश की 99% उत्पादकता निजी क्षेत्र से ही आती है। सरकारी क्षेत्र महज 1% होता है। 1% वर्ग चाह कर भी किसी देश की नियति नहीं बदल सकता। सरकार सिर्फ ऐसी व्यवस्था दे सकती है जिससे निजी क्षेत्र फले फूले। लेकिन कठोर शासन निजी संगठनों और निर्माण इकाइयों की रचनात्मकता में बाधा उत्पन्न करता है।
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कुल मिलाकर परिणाम यह होता है कि मुख्य नियंता के ईमानदार होने के बावजूद शासन के अन्य अंगो और उसके विश्वस्त सहयोगियों द्वारा जनता पर दमन बढ़ जाता है, जिससे 2 क्षेत्रो में देश विकास करता किन्तु 100 क्षेत्रो में पिछड़ जाता है। मतलब तानाशाही दो धारी तलवार है। तथा देश को हमेशा इसकी कीमत चुकानी होती है। प्राथमिक दौर में देश को आंशिक फायदा होता है लेकिन अंतिम दौर में देश को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ईराक, लीबिया, भारत, पाकिस्तान, इटली, जर्मनी, चीन और एक हद तक रूस भी इसका उदाहरण है।
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तानाशाही के उलट लोकतंत्र निरापद है, और लोकतंत्र देश को लगातार मजबूत करता है। बिना कोई नुकसान पहुंचाए। अमेरिका और ब्रिटेन इसका उदाहरण है, जिन्होंने लोकतंत्र का आश्रय लेकर अपने देश को एक निश्चित पद्धति द्वारा मजबूत बनाया।
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3. क्यों किसी देश के बहुधा राष्ट्रवादी/सच्चे कार्यकर्ता लोकतंत्र की जगह तानाशाही को तरजीह देने लगते है ?
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बावजूद इस तथ्य के कि ; अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशो ने लोकतंत्र के चलते अपना विकास किया, और आज ये देश सैन्य-आर्थिक दृष्टी से दुनिया के सबसे ताकतवर देश है। जबकि तानाशाही के कारण ज्यादातर देश या तो तबाह हो गए या तुलनात्मक रूप से पिछड़ गए, आखिर क्यों किसी देश के कार्यकर्ता देश की समस्याओ के समाधान के लिए लोकतंत्र की जगह तानाशाही का समर्थन करने लगते है ?
भारत के सन्दर्भ में तानाशाही के समर्थक कार्यकर्ताओ द्वारा एक लोकप्रिय कारण यह दिया जाता है कि --- भारत के लोगो में शऊर नही है, भारतीय अवाम लोकतंत्र के लायक नही है, सभी बेवकूफ और भ्रष्ट है आदि, तथा इनकी अक्ल ठिकाने लगाने या इन्हें सुधारने के लिए कठोर शासन यानी तानाशाही आवश्यक है। लेकिन यह एक पोचा तर्क है, क्योंकि बहुधा इन्ही कार्यकर्ताओ को अधिकतर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि , भारत एक महान देश है , हमारी संस्कृति महान है, भारत में काबलियत है, भारतीय किसी भी देश की योग्यता को टक्कर दे सकते है आदि आदि।
हालांकि पूरी दुनिया में बुद्धिमान या योग्य नागरिको का वितरण समान है, अत: यह तर्क गले नही उतरता कि भारत के लोग अन्य की तुलना में ज्यादा कम अक्ल या भ्रष्ट है। बल्कि ऐतिहासिक रूप से जो बर्बरता, धर्मान्धता और स्वार्थान्धता अन्य पश्चिमी देशो में देखने को आयी है उनकी तुलना में भारतीय कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और बुद्धिमान रहे है। इसीलिए यह सिर्फ कहने भर की बात है कि भारतीय लोकतंत्र के नही बल्कि तानाशाही के लायक है।
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जहां तक मैं इसका कारण देखता हूँ वह यह है कि -- भारत के ज्यादातर तानाशाही समर्थक राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओ को यह जानकारी नही है कि, देश को सैन्य दृष्टि से मजबूत बनाने और अन्य समस्याओ के निराकरण के लिए लोकतंत्र सबसे बेहतर और निरापद विकल्प है। लेकिन चूंकि वे भारत के 'विकृत लोकतंत्र' को ही लोकतंत्र की परिभाषा के अंतर्गत रखते है अत: उनका विश्वास लोकतंत्र से विश्वास उठ चुका है। दरअसल पूरी तरह से नाउम्मीद हो जाने के कारण वे समस्याओ को हल करने के लिए तानाशाही के खतरों को जानते हुए भी यह जोखिम उठाने को तैयार है।
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लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा करके वे भारत को नए खतरे की और धकेलने का खतरा उठा रहे है , और दिन के दिन मोदी साहेब में विश्वास खोने के साथ तानाशाही के इन समर्थको की संख्या बढ़ते जाने की संभावनाएं प्रबल होती जायेगी।
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4. कैसे अमेरिका और ब्रिटेन बिना किसी तानाशाह के भी सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे ?
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जब ब्रिटेन में लोकतंत्र आया तो इसमें ज्यूरी प्रक्रियाएं शामिल थी, जिसने वहाँ के नागरिको को ताकतवर बना दिया। फलस्वरूप राष्ट्र ताकतवर बना। 13 वी शताब्दी में मैग्नाकार्टा अधिकार पत्र के लागू होने से दंड देने की शक्ति मुट्ठी भर जजो के हाथ से निकलकर नागरिको के हाथो में आ गयी और राजा और उसके कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न में कमी आयी। इससे उद्योग और निर्माण उद्योग को बढ़ावा मिला, अत: ब्रिटेन ने नए आविष्कार किये और तकनिकी विकास ने उन्हें सबसे बेहतर हथियाए बनाने में सक्षम बना दिया। 16 वीं शती में यूरोपीय पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रान्ति ज्यूरी सिस्टम की ही देन थी। और एक बार यदि कोई देश अपनी सेना को मजबूत बना लेता है तो देश की लगभग सभी समस्याएं आसानी से हल की जा सकती है।
सेना मजबूत हो जाने के कारण ब्रिटेन ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया जिसने उनके लिए अन्य देशो के प्राकृतिक संसाधनो को लूट लेने के मार्ग खोल दिए। सस्ते प्राकृतिक संसाधनो ने निर्माण को और भी सस्ता बना दिया, जिसने निर्माण उद्योग को प्रोत्साहन दिया, अत: वस्तुओ की कीमतें तथा बेरोजगारी घटी। निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्माण उद्योग के पनपने से तकनिकी विकास में और भी तेजी आयी जिससे ब्रिटेन सैन्य और आर्थिक रूप से और भी मजबूत होता चला गया।
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अमेरिका में ज्यूरी सिस्टम 1750 ईस्वी में आया। 1774 में अमेरिका ब्रिटेन की दासता से मुक्त हुआ, और आज अमेरिका सैन्य और आर्थिक दृष्टी से ब्रिटेन से भी ताकतवर देश बन चुका है। दरअसल आजादी के बाद अमेरिका ने ब्रिटेन का अनुसरण करते हुए राईट टू रिकॉल ज्यूरी सिस्टम प्रक्रियाओ पर आधारित लोकतंत्र लागू किया। आज दुनिया में सबसे ताकतवर राईट टू रिकॉल और ज्यूरी प्रक्रियाएं अमेरिका में है, और यह कतई इत्तिफ़ाक़ नही है कि अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश है।
असल में देश की सेना को ताकतवर बनाने का सारा दारोमदार हथियारों के तकनिकी विकास पर टिका होता है। तकनीक और निर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के दो उपाय है -- १) सरकारी क्षेत्र २) निजी क्षेत्र। सरकारी क्षेत्र निर्माण तो कर सकता है, लेकिन आविष्कार करने में पिछड़ जाता है। तकनीक का आविष्कार निजी क्षेत्र में ही किया जा सकता है, अत: निजी क्षेत्र के पिछड़ने से देश तकनीक में पिछड़ जाता है। उदाहरण के लिए हथियारों की तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका रूस से मीलो आगे निकल गया, क्योंकि अमेरिका में हथियार उद्योग निजी क्षेत्र के पास है जबकि रूस हथियारों और तकनीक में सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है। और जहां तक भारत की बात है --- भारत के निजी क्षेत्र को हथियारों के उत्पादन की इजाजत ही नही है, और सरकारी क्षेत्र का हाल हमसे छिपा हुआ नही है। नतीजा हमारे सामने है।
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कहने का आशय यह है कि, निर्माण उद्योग में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए हमें ऐसी शासन व्यवस्था चाहिए जिसमे नागरिको का कम उत्पीड़न हो, और उन्हें उद्योग शुरू करने एवं उन्हें संचालित करने के लिए न्यूनतम प्रतिरोध का सामना करना पड़े। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ऐसे ही शासन की रचना करती है। लोकतंत्र में न्यायधीशों को नौकरी से निकालने का अधिकार और दंड देने की शक्ति नागरिको के बहुमत के पास होती है, जिससे विवादों का निष्पक्ष और त्वरित निपटारा होता है, और उत्पादकता में तेजी आती है। इसी तरह राइट टू रिकॉल प्रक्रियाऐं यह सुनिश्चित करती है कि कारोबारियों का उत्पीड़न करने वाले अधिकारियों पर अंकुश रहे, और उन्हें नागरिको के बहुमत द्वारा नौकरी से निकाला जा सके। इसके अलावा क़ानून बनाने के लिए ऐसी जनमत संग्रह प्रक्रियाएं आवश्यक है जिनसे नागरिक उन कानूनो पर अपना समर्थन दर्ज कर सके जो वे देश में लागू करवाना चाहते है।
अमेरिका में वहाँ के नागरिको के पास ये सभी प्रक्रियाएं मौजूद है, जिससे शक्ति 1% नेताओ, अधिकारियों और न्यायधीशों के हाथो से निकल कर नागरिको के हाथो में चली आई है। इससे वहाँ का 'लोक' (लोग का बहुवचन 'लोक' होता है) नेताओ, अधिकारियों, धनिकों, न्यायधीशों आदि की तुलना में ज्यादा मजबूत हो गया, और 99% लोक के मजबूत हो जाने से देश मजबूत हुआ। भारतवर्ष जैसे देशो में स्थिति इसके उलट है। भारत में 'विकृत लोकतंत्र' होने के कारण न्यायपालिका, विधायिका, खबरपालिका और कार्यपालिका लोक की तुलना में ज्यादा मजबूत हो गयी, अत: इन 1% लोगो ने 99% की तुलना में ज्यादा "विकास" किया। इससे लोक कमजोर हुआ फलस्वरूप राष्ट्र कमजोर हो गया।
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तो इस प्रकार तानाशाही एक ऐसा तरीका है, जिसमें एक नेता अपने 1000-500 विश्वस्त सहयोगियों की सहायता से देश को मजबूत बनाने और समस्याओं को हल करने का प्रयास करता है, तथा शेष जनता को खेल से बाहर कर दिया जाता है या वे तमाशबीन बन जाते है। जबकि लोकतंत्र में देश के 100% नागरिको की भागीदारी होती है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशो ने नागरिको की भागीदारी बढ़ाने वाले क़ानून लागू किये और बिना किसी तानाशाही के सबसे मजबूत देशो के रूप में उभरे। जबकि अन्य देश लोकतंत्र के अभाव या तानाशाही के चलते तबाह हो गए, या पिछड़ गए, या लगाताार पिछड़ते जा रहे है, या तुलनात्मक रूप से पीछे रहे।
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5. स्टालिन और माओ क्रमश: सोवियत संघ और चीन को बचाकर ले जाने में सफल रहे, लेकिन अब वे अमेरिका की तुलना में लगातार पिछड़ रहे है।
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जोसेफ स्टालिन 1922 से 1953 तक सोवियत संघ और माओ 1949 से 1976 तक चीन के मुख्य नीति नियंता बने रहे। स्टालिन और माओ दोनों ही अपने देशो की सेना को मजबूत बनाने में सफल हुए। लेकिन दोनों ही देश आज अमेरिका की तुलना में पिछड़े हुए है। दोनों देशो को अपनी सेना मजबूत करने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। लाखों नागरिको को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, नागरिक अधिकारों को कुचला गया और देश के बड़े तबके को दमन का सामना करना पड़ा। कारण यही था कि दोनों नेताओ ने निर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया, जिससे लागत बढ़ी और तकनिकी आविष्कार में कमी आयी। राईट टू रिकॉल और ज्यूरी प्रक्रियाओ की कमी ने स्थिति और भी बदतर कर दी, तथा सरकारी विभाग बड़े पैमाने पर भ्रस्टाचार के शिकार हो गए, जिससे निर्माण लागत और भी बढ़ी, तकनिकी कुशलता में कमी आयी और निर्माण "प्रोद्योगिकी" उतना विकास नही कर सकी, जितना कि अमेरिका ने किया।
हालांकि स्टालिन राईट टू रिकॉल कानूनो के मौखिक समर्थक थे और उन्होंने 1937 में दिए अपने वक्तव्य में कहा था कि :
"इसके अलावा, कामरेडों, मैं आपको कुछ सलाह देना चाहूँगा, एक प्रत्याशी की उसके मतदाताओं को सलाह --- यदि तुम पूंजीवादी देशों का उदाहरण लोगे तो तुम विशेष कर पाओगे कि, उन देशों में प्रतिनिधियों और मतदाताओं के बीच अत्यंत विचित्र संबंध मौजूद है। जब तक चुनाव की कार्रवाई चल रही होती है तब तक प्रतिनिधि मतदाताओं को रिझाते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, कृतज्ञता की सौगंध खाते हैं और हर तरह के वायदों का ढेर लगा देते है। ऐसा लगता है मानों ये प्रतिनिधि मतदाताओं पर पूरी तरह आश्रित है। लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होता है और ये प्रत्याशी प्रतिनिधि बन जाते है, तो संबंधों में पूरी तरह से बदलाव आ जाता है। मतदाताओं पर निर्भर होने की बजाए ये प्रतिनिधि पूरी तरह निरंकुश हो जाते है। अगले चार या पांच वर्षों के लिए, अर्थात अगले चुनाव तक ये प्रतिनिधि जनता से और अपने मतदाताओं से भी निरंकुश बने रहते है, और बिलकुल स्वछन्द व्यवहार करते है। वे एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जा सकते है। सही रास्ते से गलत रास्ते पर जा सकते है। वे जितनी चाहे उतनी कलाबाजियां खा सकते है। क्योंकि वे निरंकुश है। क्या ऐसे संबंध सामान्य माने जा सकते है। कामरेडों, नहीं, किसी भी तरह से नहीं। इस परिस्थिति पर हमारे संविधान द्वारा विचार किया गया था। और इसमें एक कानून बनाया गया कि, मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को उनके पद की अवधि समाप्त होने के पहले ही तब वापस बुलाने का अधिकार होगा जब ये प्रतिनिधि तिकड़मबाजी करना शुरू कर दें, यदि वे रास्ते से भटक जाएं और वे भूल जाएं कि वे जनता पर, मतदाताओं पर निर्भर है"
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हालांकि स्टालिन ने रूस में कभी भी राईट टू रेकलल प्रक्रियाएं लागू नहीं की, और वे केवल इसका मौखिक समर्थन ही करते रहे।
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यहां इस बात को समझना भी जरुरी है कि क्यों स्टालिन और माओ अपने देश को मजबूत बना सके। क्योंकि इन दो तानाशाहों के अलावा अन्य कोई भी तानाशाह अपने देश को बचाने में सफल नही हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और अमेरिका की सैन्य-आर्थिक शक्ति कमजोर हो चुकी थी और वे युद्ध लड़ने की स्थिति में नही थे। और इसी समय का इस्तेमाल स्टालिन ने परमाणु बम के निर्माण में किया। 1949 में सोवियत संघ अपना पहला परमाणु परिक्षण कर चुका था, और उसने अमेरिका-ब्रिटेन के प्रतिरोध का सामना करने के लिए लगातार अपनी परमाणु और सैन्य ताकत बढ़ायी। परमाणु अस्त्रों से लैस हो जाने के कारण अमेरिका और रूस के बीच युद्ध की संभावना टल गयी और अगले दो 2 दशक तक शीत युद्ध ही एक मात्र विकल्प बना रहा। लेकिन जहां एक तरफ अमेरिका लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण प्रोद्योगिकी और निर्माण में तेजी से विकास कर रहा था, वहीँ दूसरी तरफ सोवियत संघ मुट्ठी भर व्यक्तियों और खासकर स्टालिन पर टिका हुआ था। व्यक्ति नश्वर और व्यवस्था सतत होती है, अत: नतीजा यह हुआ कि 1976 में स्टालिन की मृत्यु के उपरान्त अमेरिका सोवियत रूस के टुकड़े करने में सफल हो गया।
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माओ को भी इस परिस्थिति का लाभ मिला। माओ ने जब सैन्य और आर्थिक सुधार करने शुरू किये तो अमेरिका-ब्रिटेन चीन को रोक पाने में सक्षम नही थे। क्योंकि उस समय एक स्तर तक ख्रुश्चेव का माओ से सहयोगात्मक रवैया था। इसी से चीन अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा पाया, और 1964 में पहले परमाणु विस्फोट के बाद चीन भी आसान शिकार नही रह गया था। और जब अमेरिका ने चीन पर शिकंजा कसना शुरू किया तो चीन भारी मात्रा में परमाणु हथियारों का उत्पादन कर लेने के कारण प्रतिरोध करने लायक हो चुका था। जब अमेरिका ने चीन को घेरने के प्रयास शुरू किये तो चीन ने अपने परमाणु हथियार ईरान और अन्य मुस्लिम राष्ट्रों को देने की धमकी दी, जिससे अमेरिका को पीछे हटना पड़ा।
इसमें कोई संदेह नही है कि स्टालिन के कारण आज रूस इतना शक्तिशाली है कि अमेरिका या अन्य कोई भी देश कभी भी रूस को पराजित नही कर सकेगा, लेकिन हमें यह नही भूलना चाहिए कि यदि रूस के पास इतने विपुल प्राकृतिक संसाधन नही होते, यदि सोवियत संघ समय रहते अपनी परमाणु क्षमता नही बढ़ा पाता तो स्टालिन जैसे नेता के होते हुए भी रूस के हालात ईराक जैसे हो सकते थे। बावजूद इसके आज रूस प्रोद्योगिकी और निर्माण के क्षेत्र में अमेरिका की तुलना में पिछड़ा हुआ है, तथा लगातार पिछड़ रहा है। और जहां तक चीन की बात है, चीन अमेरिका-ब्रिटेन से इतना पिछड़ा हुआ है कि वह इन देशो की जद में है और कभी भी अमेरिका-ब्रिटेन का शिकार हो सकता है।
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6. देवी इंदिरा गांधी, हिटलर और मुसोलिनी प्राथमिक दौर में सफल लेकिन अंतिम दौर में असफल रहे।
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देवी इंदिरा गांधी तानाशाह नही थी, और लोकतांत्रिक तरीके से चुन कर आयी थी। उन्हें देवी कहना इसीलिए यथोचित है क्योंकि आज भारत की जो भी हैसियत है वह उनकी ही देन है। कमोबेश उन्होंने भारत के लिए वही भूमिका निभायी जो स्टालिन ने सोवियत रूस के लिए निभायी थी। लेकिन उन्हें काल के कारण वे लाभ नही मिल सके हो स्टालिन को मिले थे।
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जैसे ही इंदिरा जी ने भारत की सेना को मजबूत करने के प्रयास शुरू किये, अमेरिका ने बाधाएं डालना शुरू कर दिया था। 1967 में उन्होंने रॉ का गठन कर दिया था और परमाणु कार्यक्रम को भी तेजी से आगे बढ़ाना शुरू किया। पाकिस्तान के दो टुकड़े करने के बाद उन्हें रूकना पड़ा क्योंकि अमेरिका ने भारत-पाकिस्तान के बीच सामरिक हस्तक्षेप कर दिया था। लेकिन 1974 में पोकरण में किये गए परमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका ने उन्हें गिराने के प्रयास तेज कर दिए, और वे मिडिया, विपक्ष, न्यायपालिका और आंतरिक विद्रोहों से घिरती चली गयी। यदि उस समय उन्होंने इन द्रोहियों को कंट्रोल करने के लिए राईट टू रिकॉल, ज्यूरी प्रक्रियाएं लागू कर दी होती तो इन तत्वों को भारत के नागरिको द्वारा सिर्फ 6 महीने में ही काबू किया जा सकता था। लेकिन अन्य तानाशाहों की तरह वे भी यहां चूक गयी और उन्होंने शासन पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए आपातकाल का सहारा लिया।
ज्ञातव्य है कि, उस समय देश इंदिरा जी पूजा करता था, गले गले पानी तक उनके साथ खड़ा था। आज मोदी साहेब की लोकप्रियता उनके पासंग भी नही है। यदि वे देश की सेना को मजबूत बनाने वाले फैसलों में रोड़े डालने वाले इन तत्वों को ठिकाने का अधिकार नागरिको को दे देती तो इससे उन्हें हानि होने की संभावना शून्य थी। लेकिन आपातकाल ने उल्टे प्रजा पर दमन को बढ़ा दिया और 77 के चुनावो में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन नागरिको ने आपातकाल के लिए उन्हें माफ़ कर दिया था और वे फिर से प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। लेकिन सत्ता वापसी के बावजूद उन्होंने लोकतंत्र को बढ़ावा नही दिया, फलस्वरूप सीआईए द्वारा करायी गयी उनकी हत्या के बाद भारत की सेना को मजबूत करने का कार्यक्रम हमेशा के लिए बंद हो गया। 15 वर्ष बाद वाजपेयी ने अपने पहले संक्षिप्त कार्यकाल में फिर से परमाणु कार्यक्रम और सेना को मजबूत करने की और कदम बढ़ाने की इच्छा शक्ति दिखाई लेकिन अमेरिका के दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा। बस तब से हमारी सेना को 'आत्मनिर्भर' बनाने के रास्ते हमेशा के लिए बंद है।
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हिटलर ने 1933 से 1945 और मुसोलिनी ने 1925 से 1945 तक क्रमश: जर्मनी और इटली की कमान संभाली, लेकिन दोनों ही अपने देशो को तबाही के कगार पर ले आये। दोनों ही शासको ने बलात् रूप से सत्ता हथियायी थी और ताउम्र तानाशाह बने रहे। हिटलर ने हालांकि अपनी सैन्य ताकत काफी हद तक बढ़ा ली थी लेकिन हथियारों की निर्णायक प्रोद्योगिकी में जर्मनी अमेरिका से मात खा गया। यदि हाइजेनबर्ग ओपेनहाइमर से पहले परमाणु विस्फोट कर पाते तो शायद विश्व युद्ध की दिशा बदल जाती, और जर्मनी-जापान का विनाश टल जाता। लेकिन जर्मनी यह प्रोद्योगिकी नही जुटा पाया। सिर्फ परमाणु हथियारो की ही बात नही है, तब भी अमेरिका के हथियार जर्मनी की तुलना में ज्यादा आधुनिक और मारक थे। कारण वही था -- ज्यूरी सिस्टम और राईट टू रिकॉल प्रक्रियाओ से लैस लोकतंत्र के चलते प्रोद्योगिकी और निर्माण 'तकनीक' में अमेरिका जर्मनी की तुलना में कहीं आगे था, और इसीलिए अमेरिकी ज्यादा बेहतर हथियार बेतहाशा बना पा रहे थे।
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मतलब कोई तानाशाह सरकार को काबू में करके निर्माण को तो बढ़ावा दे सकता है, लेकिन मुक्त शासन व्यवस्था के अभाव में आधुनिक प्रोद्योगिकी का विकास नही कर सकता। और अंततोगत्वा गुणवत्ता संख्या पर भारी पड़ती है।
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7. सद्दाम और गद्दाफी ने अपने देशो को तबाही दी जबकि नागरिको के सामूहिक प्रयासों ने इस्राएल को आत्मनिर्भर बनाया।
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सद्दाम हुसैन ने 1980 से 2003 तक ईराक पर और गद्दाफी ने लीबिया पर 1969 से 2011 तक शासन किया। दोनों ही देश निरन्तर अन्य देशो के आयातित हथियारों पर निर्भर बने रहे। दोनों ने ही सैन्य शक्ति जुटाने के लिए लम्बा संघर्ष किया लेकिन कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सके। इतने लम्बे शासन के बावजूद। असल में दोनों ही देश तेल से आयी समृद्धि का उपभोग कर रहे थे। किसी भी देश की ताकत खुद के बनाये गए हथियारों से तय होती है, क्योंकि अंतिम फैसला युद्ध के मैदान में ही होता है। लोकतंत्र के अभाव में इनका निर्माण उद्योग पिछड़ गया, जिससे ये हथियारों के उत्पादन की तकनीक नहीं जुटा सके और अंत में इनका पतन हुआ।
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सद्दाम ने 1980 में परमाणु रियेक्टर की तकनीक देने के लिए फ्रांस को राजी कर लिया था। हालांकि रियेक्टर शांतिपूर्ण कार्यक्रम के लिए डिजाइन किया गया था किन्तु इस्राएल ने 1981 में हमला करके रिएक्टर को तबाह कर दिया और ईराक का परमाणु कार्यक्रम हमेशा के लिए बंद हो गया। दोनों देशो ने अपनी सारी ऊर्जा हथियार 'कबाड़ने' में लगाईं, लेकिन अपने देश में हथियारों की प्रौद्योगिकी के विकास के लिए आवश्यक कानूनों को कभी तरजीह नहीं दी। कारण -- तानाशाह हमेशा सारे अधिकार अपने पास रखना चाहते है। चाहे कीमत पूरे देश को ही क्यों न चुकानी पड़े। .
यह भी उल्लेखनीय है कि ईराक और लीबिया चीन, रूस, अमेरिका आदि देशो की तुलना में अपेक्षाकृत छोटे देश है, किन्तु इनसे भी छोटे देश इस्राएल ने अपने आपको हथियारों की प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भर बनाया है। लेकिन इस्राएल की निति का अनुसरण नहीं किया जा सकता, और उनके उत्कर्ष में कई ऐतिहासिक कारण है। दरअसल इस्राएल का विकास वहाँ के नागरिकों के समग्र प्रयासों का नतीजा है, न कि किसी तानाशाह या मजबूत नेता के प्रयासों का। निरन्तर युद्धरत रहने और अस्तित्व को बचाए रखने के खतरे का सामना करने के कारण इस्राएल के नागरिकों ने सेना एवं हथियारों का महत्त्व समझा और हथियारों की तकनीक को वरीयता दी। पूरे देश के नागरिकों के इस सामूहिक एजेंडे के कारण ही लीबिया और ईराक़ जैसे देशो की तुलना में बेहद छोटा देश होने के बावजूद इस्राएल टिका हुआ है जबकि किसी एक नेता पर निर्भर होने के चलते आज ईराक और लीबिया तबाह हो चुके है।
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जब किसी देश के पास लड़ने या आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए पर्याप्त और आधुनिक खुद के हथियार न हो तो अंतिम उपाय हथियार बंद नागरिक समाज की रचना करना है। दोनों ही देशो के आंशिक नागरिकों के पास हथियार थे, लेकिन वे देश बचाने में असफल रहे। जब सद्दाम ने तेल के कारोबार के लिए अलग से नई मुद्रा 'पेट्रो दीनार' चलन में लाने की कोशिश की तो अमेरिका के लिए सद्दाम को हटाना जरुरी हो गया था। चूंकि ईराक की सेना पूरी तरह से आयातित हथियारों पर निर्भर थी अत: युद्ध लड़ने की जिम्मेदारी नागरिकों पर आ गयी। 2003 में ईराक में लगभग 30 प्रतिशत नागरिकों के पास बन्दुके थी। लेकिन ईराक की भौगोलिक परिस्थितियां गुरिल्ला युद्ध लड़ते हुए अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनुकूल नहीं थी, अत: वे अमेरिकी सेना के सामने टिक नहीं पाए। और अमेरिका की सेना ने एक के बाद एक ईराक के शहरो को नियंत्रण में ले लिया। इसके अलावा जैसा कि तानाशाही शासन में होता है, एक वर्ग सद्दाम के शासन से तंग आ चुका था और उन्होंने निर्णायक संघर्ष में रुचि नहीं ली। लीबिया में भी लगभग 15 प्रतिशत नागरिकों के पास हथियार थे किन्तु एक बड़ा तबका गद्दाफी के खिलाफ था। अत: अमेरिका को आंतरिक गृहयुद्ध भड़काने में किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।
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8. भारत जैसे पिछड़े हुए देश को अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए किस व्यवस्था का आश्रय लेना चाहिए ?
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पहली बात तो यह है कि तानाशाही किसी भी स्थिति में हमारे लिए कोई विकल्प ही नहीं है। क्यों ?
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दीगर विषयों को जाने दीजिये। सबसे बड़ा विषय है कि ऐसे किसी कथित चमत्कारिक नायक या मजबूत नेता को व्यवहारिक रूप से हासिल नहीं किया जा सकता। ऐसी कोई विधि या तरीका अब तक ज्ञात नहीं है जिससे हम ऐसे नेता को खोज सके। दरअसल यह एक दांव या लाटरी है। जो कि देश के नाम लग जाती है। अच्छी या बुरी अलग विषय है। क्या कोई बता सकता है कि स्टालिन, माओ, हिटलर या इंदिरा जी जैसे नेता किस झाड़ पर लगते है ? कैसी मिट्टी में यह झाड़ पनपता है ? कोई जवाब नहीं। तो हम देश की व्यवस्था और विकास को किसी काल्पनिक आशावाद के हवाले नहीं कर सकते। हमें किसी ठोस व्यवस्था का आश्रय लेना होगा, ताकि हम देश की व्यवस्था को सुनियोजित तरीके से दुरुस्त कर सके, वरना हम दशकों तक ऐसे किसी घटना के घटित होने का इन्तजार करते रहेंगे। ऐसी हालत में लोकतंत्र ही एक मात्र विकल्प बचता है।
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कैसे हम राईट टू रिकॉल, ज्यूरी सिस्टम और जनमत प्रक्रियाएं आधारित लोकतंत्र को लागू करके भारत में स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास कर अपनी सेना को मजबूत बना सकते है ?
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इस प्रश्न के दो हिस्से है, और दोनों हिस्सों को समझना बेहद जरुरी है --- १) 'स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास करके सेना को मजबूत बनाना', तथा ; २) 'राईट टू रिकॉल, ज्यूरी सिस्टम और जनमत प्रक्रियाएं आधारित लोकतंत्र को लागू करना'।
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१) स्वदेशी निर्माण प्रौद्योगिकी का विकास करके सेना को मजबूत बनाना क्यों आवश्यक है ?
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किसी भी देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनी सेना को 'मजबूत' और 'आत्मनिर्भर' बनाना है। किसी देश की सेना को मजबूत बनाने की प्रक्रिया के दौरान ज्यादातर समस्याएं या तो इस प्रक्रिया के दौरान स्वत: हल हो जाती है तथा सेना के मजबूत होने से शेष समस्याओ को आसानी से हल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आप किसी भी विकसित देश की मिसाल ले सकते है। अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ़्रांस, चीन आदि देशो में भारत के मुकाबले काफी कम नागरिक समस्याएं है क्योंकि उनकी सेना भारत की तुलना में बेहद मजबूत है। कोई भी देश तभी विकसित हो सकता है जब वह अपनी सेना को विकसित बनाने पर काम करे। सेना विहीन विकास थोथा है।
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सेना का मतलब आधुनिक हथियार होता है, वर्दीधारी जवान नहीं। वर्दी 300 रूपये में सिलवाई जा सकती है और यदि भारत रंगरूटों की भर्ती प्रारम्भ करे तो 2 महीनो में भारत की सेना की संख्या 12 लाख से बढ़कर 52 लाख हो जायेगी। लेकिन यदि इन सैनिकों के पास हथियार नहीं है तो यह सेना नहीं है। सेना को 'मजबूत' बनाने का आशय है कि सेना के पास आधुनिक हथियार हो। लेकिन यदि हथियार आयातित है या फिर विदेशी कम्पनियों द्वारा बनाये गए है तो ऐसी सेना को 'आत्मनिर्भर' नहीं कहा जा सकता। इसीलिए 'आत्मनिर्भर' सेना के लिए यह अनिवार्य है कि अमुक देश अपने आधुनिक हथियारों तथा इन हथियारों के 'सभी' पुर्जो का उत्पादन भी खुद करे। अब यह काम कितना चुनौतीपूर्ण है, इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते है कि दुनिया में 200 देश है, लेकिन सिर्फ 5 देश ही अपनी सेना को पर्याप्त प्रतिरोध सहने लायक 'मजबूत' और 'आत्मनिर्भर' बना सके है। और भारत इन 5 देशो में शामिल भी नहीं है, और निकट भविष्य में इस सूची में शामिल होने की कोई सम्भावना भी नहीं है। सम्भावना इसीलिए नहीं है कि ये 5 देश इस बात का पूरे से भी ज्यादा ख़याल रखते है कि इस सूची में कोई छठा देश शामिल न हो पाये। स्टालिन और माओ को छोड़कर सभी तानाशाहों का हश्र इसीलिए बुरा हुआ क्योंकि वे इस सूची में शामिल होने की कोशिश में मसरूफ थे।
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निर्माण प्रौद्योगिकी के विकास का सेना को मजबूत और 'आत्मनिर्भर' बनाने से क्या सम्बन्ध है ?
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सेना हथियारों से बनती है। हथियार बनाने के लिए प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। स्वदेशी प्रौद्योगिकी से ही स्वदेशी हथियार बनाये जा सकते है। मतलब यदि हमें स्वदेशी आधुनिक हथियारों का खुद के बुते उत्पादन करना है तो हमें निर्माण की भारतीय प्रौद्योगिकी का विकास करना होगा। लेकिन दिक्कत यह है कि हम सीधे हथियारों की प्रौद्योगिकी नहीं जुटा सकते। हथियारों की प्रौद्योगिकी जुटाने के लिए हमें अन्य तकनिकी उपकरणों की प्रौद्योगिकी भी जुटानी होगी। उदाहरण के लिए हम जब हम स्वदेशी कंप्यूटर, स्वदेशी मोबाईल, स्वदेशी, सेमी कंडक्टर चिप्स, स्वदेशी रेल/कार आदि के इंजन बना पाएंगे तब ही हम एक स्वदेशी लड़ाकू विमान बना सकेंगे। इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रिक, आटोमोबाईल, संचार, केमिकल आदि इंजीनियरिंग में कुशलता हासिल किये बिना हथियार बनाना सम्भव नहीं है। क्योंकि एक आधुनिक हथियार में इन सभी तकनीकों के बेहतरीन तालमेल की जरुरत होती है। फिलहाल हम पंखें और ट्यूबलाइटें भी चीन से आयात कर रहे है। इसीलिए स्वदेशी हथियारों को बनाने की बात करना सिर्फ हवा बांधना है।
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यदि हम विदेशी कम्पनियों को भारत में बुलाकर उनसे हथियार बनाने को कहेंगे और साथ में यह भी खुशफहमी भी बनाए रखेंगे कि इससे भारत में तकनीक आएगी तो हमारा मालिक भगवान् भी नहीं है। क्योंकि ये बड़ी कम्पनिया भारत में हथियार निर्माण पर अपनी तकनीक के बूते एकाधिकार कर लेगी जिससे स्वदेशी इकाइयां बंद हो जायेगी, और जब हमारी कम्पनियां ही बाजार में नहीं रहेगी तो तकनीक किसे ट्रांसफर जायेगी, मुझे नहीं पता। साथ ही ये विदेशी कम्पनियां जो हथियार बनाएगी उनमे 'कील स्विच' होंगे, जिन्हें एक्टिवेट करके ये कम्पनियां हमारे हथियारों को बेकाम कर सकेगी।
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दूसरे शब्दों में हमें हजारों की संख्या में ऐसी स्वदेशी निर्माण इकाइयां चाहिए जिनमे लाखों की संख्या में इंजीनियर्स/तकनीशियन प्रौद्योगिकीय निर्माण कर रहे हो। हमें लाखों छोटी बड़ी स्वदेशी इकाइयां चाहिए जो पूरी तरह स्वदेशी मोबाइल, कंप्यूटर, सेमी कंडक्टर चिप्स, कार/जेसीबी/रेल के इंजन, धातु उपकरण, भारी मशीने आदि का निर्माण करे, और उनमे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो। यदि इन सभी उत्पादों का निर्माण सिर्फ 100-50 विशाल कम्पनियां ही कर रही हो तो प्रतिस्पर्धा की जगह एकाधिकार स्थापित हो जाएगा और हम तकनिकी आविष्कार में पिछड़ जाएंगे।
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दरअसल सारा खेल एकाधिकार बनाम स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का है। बड़ी कम्पनियां ऐसे क़ानून चाहती है जिससे छोटी छोटी कम्पनिया नहीं पनप सके, ताकि उन्हें प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़े। एक बार प्रतिस्पर्धा का अंत हो जाने के बाद वे उपभोक्ताओं से भारी मुनाफा वसूल पाते है और उनका तकनीक पर एकाधिकार भी बना रहता है। किसी देश की ताकत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि -- अमुक देश की कौनसी बड़ी कम्पनी कितने आधुनिक और तकनीकी सामान का उत्पादन कर रही है, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि अमुक देश में कितनी कम्पनियां आधुनिक तकनीकी सामान का उत्पादन कर रही है।
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हम कैसे कानूनों की सहायता से यह सुनिश्चित कर सकते है कि देश में ज्यादा से ज्यादा इंजीनियर्स/व्यवसायी अपनी स्वतंत्र इकाइयों को शुरू करने और उन्हें संचालित करने के लिए प्रोत्साहित हो ? तथा उन्हें किसी प्रकार के उत्पीड़न का सामना नहीं करना पड़े ?
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इस बिंदु की व्याख्या करने के लिए मैं कुछ उदाहरण प्रस्तुत करूंगा, जिनसे यह समझा जा सकता है कि किस तरह 'विकृत लोकतंत्र' देश के निर्माण उद्योग का गला घोंट देता है जबकि 'लोकतंत्र' स्वेशी छोटी इकाइयों को सरंक्षण प्रदान करके उन्हें पनपने का अवसर देता है।
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१. जमीनो के दाम बढ़ने से निर्माण इकाइयां (फैक्ट्रियां) शुरू करना मुश्किल हो जाता है :
हर कारखाने के लिए पहली जरुरत जमीन की होती है। यदि जमीन के दाम ऊँचे होंगे तो धंधा शुरू करने की लागत बढ़ जायेगी। लेकिन जिसके पास जमीन है वह आसानी से कम कीमत में कारखाना शुरू कर सकेगा। भारत में मंत्री, न्यायधीश, अधिकारी आदि भ्रष्टाचार से जितना काला धन कमाते है उसे जमीनों में निवेश कर देते है और उद्योगपति भी भूमि बैंक बना कर बैठे है। ये सारी जमीने उन्होंने 'भविष्य' के लिए रोक रखी है। वे इन जमीनों पर कोई कारोबार नहीं करते। इससे देश की उत्पादकता गिरती है और जमीन महंगी होती जाती है। ये लोग पैसा कमाते है और जमीने खरीद कर बैठ जाते है।
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अब हमें ऐसा क़ानून चाहिए जिससे जमीनों पर वार्षिक रूप से सम्पत्ति कर लगाया जा सके और देश की सभी जमीनों के स्वामियों के नाम सार्वजनिक किये जा सके। ऐसा क़ानून आने से जमीनों को रोकने की प्रवृति कम होगी और जमीनों के दामों में लगभग 80% की गिरावट आएगी। इससे आम नागरिकों के लिए जमीन खरीदना और कारखाने लगाना सुलभ हो जाएगा।
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लेकिन लोकतंत्र के अभाव में ऐसा क़ानून नहीं लाया जा सकता। क्योंकि धनिक वर्ग, अधिकारी, न्यायधीश, नेता आदि इस क़ानून का विरोध करेंगे। चूंकि भारत में क़ानून बनाने की शक्ति इन 1% लोगो के पास ही है इसीलिए 80% नागरिकों के हित में होते हुए भी यह क़ानून भारत में कभी लागू नहीं हो सकता। अब मान लीजिए कि भारत के करोडो नागरिकों के पास ईएसआई कोई प्रक्रिया है जिससे भारत के नागरिक किसी क़ानून पर अपनी हाँ या ना दर्ज कर सके तो 90% नागरिक इस क़ानून पर अपना समर्थन दर्ज करवा देंगे। यही कारण है कि भारत के धनिक वर्ग, अधिकारी, न्यायधीश, नेता आदि नागरिकों को ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं देना चाहते जिससे लोकतंत्र की स्थापना हो।
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२) विज्ञान-गणित की शिक्षा का ढांचा टूटने से देश में निर्माण प्रौद्योगिकी के विकास के अवसर ख़त्म हो जाते है :
इतिहास, नागरिक शास्त्र, ललित कला और अर्थशास्त्र पढ़ने वाले छात्र तकनिकी विकास में योगदान नहीं दे सकते। किसी देश का विज्ञानं और गणित का ढांचा जितना मजबूत और प्रतिष्पर्धी होगा अमुक देश उतने ज्यादा इंजीनियर्स और टेक्नोक्रेट पैदा करेगा। विज्ञान गणित के यही छात्र आगे चलकर तकनिकी विकास में योगदान देते है। दुर्भाग्य से यदि ए पी जे भी सचिन की तरह बल्ला पकड़ लेते तो एक और बेहद प्रतिभाशाली व्यक्ति देश के विकास में योगदान देने की जगह हमारा मनोरंजन कर रहा होता। कुल मिलाकर हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जो हमारी प्रतिभाओं को गणित-विज्ञान की किताबों की और धकेल सके। वरना हमारे देश के सभी प्राकृतिक संसाधन और सस्ती जमीने आदि बेकार सिद्ध होगी।
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अब देश के 80% नागरिक ऐसा क़ानून चाहते है जिससे देश के सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों से बेहतर हो, तथा मूल्य-तकनीक परक शिक्षा सभी तबके के छात्रों को निशुल्क मिल सके। इस समस्या के समाधान के लिए हमें अमेरिका की तरह ऐसी प्रक्रिया चाहिए जिससे जिले के नागरिक मतदाता बहुमत का प्रयोग करके भ्रष्ट जिला शिक्षा अधिकारी को नौकरी से निकाल सके। लेकिन बड़ी समस्या यह है कि मिशनरीज, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और निजी स्कूल शिक्षा माफिया नहीं चाहता कि ऐसा कोई क़ानून भारत में लागू हो। क्योंकि इससे गरीबी कम होगी और मिशनरीज के धर्मांतरण के अवसर सिकुड़ जाएंगे। सरकारी स्कूलों का स्तर सुधरने से निजी स्कूल शिक्षा माफिया की दुकाने बंद हो जायेगी और तकनिकी शिक्षा के विकास से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर भारत की निर्भरता ख़त्म हो जायेगी। इसीलिए ये वर्ग कभी नहीं चाहेगा कि देश में सरकारी स्कूलों को ढांचा सुधारने और गणित-विज्ञान की शिक्षा का आधार मजबूत करने वाले कानून लागू हो।
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किन्तु यदि भारत के नागरिकों को ऐसी प्रक्रिया मिल जाती है जिससे वे तय सके कि नागरिकों को अपने जिले के शिक्षा अधिकारी को नौकरी से निकालने का अधिकार होना चाहिए या नहीं, तो 80% नागरिक ऐसे क़ानून का समर्थन करेंगे जिससे भारत के सरकारी स्कूल बेहतर बने और मूल्य-तकनिकी परक शिक्षा प्रणाली की स्थापना हो।
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३) मुकदमों की सुनवाई और दण्ड देने की शक्ति नागरिकों को दिए बिना स्वदेशी और छोटी इकाइंयों को बचाना लगभग असम्भव है :
सस्ती जमीन, प्राकृतिक संसाधन और इंजीनियर्स जुटाने के बाद सबसे जरुरी है ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना जिससे उन छोटे और स्वदेशी कारखानों को सरंक्षण दिया जा सके जो बड़ी कम्पनियों के सामने चुनौती पेश करती है। आज भारत के कारखाने कई प्रकार के कर विभागों जैसे उत्पाद शुल्क, प्रदुषण बोर्ड, श्रम विभाग आदि पर आश्रित है। किसी भी प्रकार के विवाद की सुनवाई अदालतों में जज करते है, और जज बड़ी कम्पनियों से पैसा खाकर छोटी कम्पनियों के खिलाफ फैसले देता है। घूस देने और जजों को प्रभावित करके जब फैसलों को अपने पक्ष में मोड़ा जा सके तो जीत हमेशा बड़ी कम्पनियों की ही होगी। इसके अलावा धीमी अदालती प्रक्रिया में वर्षो तक मामले घिसटते रहते है जिससे छोटी इकाइयों की लागत बढ़ती और उत्पादकता घटती है।
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इस समस्या के समाधान के लिए हमें ऐसे क़ानून की आवश्यकता है जिससे औद्योगिक विवादों का निपटारा नागरिकों की ज्यूरी करें। प्रत्येक मुकदमे की सुनवाई के लिए जिले की मतदाता सूचियों में से 12 नागरिकों का रेंडमली चयन किया जाएगा और यह ज्यूरी मुकदमे की नियमित सुनवाई करेगी। इससे बड़ी कम्पनियों द्वारा जजों को घूस खिलाकर अपने पक्ष में फैसले करवाना लगभग असम्भव हो जाएगा और मुकदमों के निपटारे में तेजी आएगी। दरअसल अमेरिका और ब्रिटेन के औद्योगिक विकास के पीछे सबसे अहम कारण ज्यूरी सिस्टम का होना रहा है। ज्यूरी सिस्टम स्वदेशी और छोटी इकाइयों को सरंक्षण प्रदान करता है।
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अब समस्या यह है कि सभी नेता, अधिकारी, धनिक, न्यायधीश, मिडिया हाउस, मिशनरीज, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदि ज्यूरी सिस्टम के सख्त खिलाफ है। वे हमेशा यही चाहते है कि दण्ड देने की शक्ति मुट्ठी भर लोगो (जजों) के पास ही रहे, करोडो नागरिकों के पास नहीं। ताकि वे जजों को घूस देकर फैसले अपने पक्ष में करवा सके। लेकिन देश के 80% नागरिक ऐसे क़ानून का समर्थन करेंगे जिससे दण्ड देने की शक्ति नागरिकों के अधीन रहे। पर चूंकि भारत के 'विकृत लोकतंत्र' में करोड़ो नागरिकों के पास ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है जिससे वे यह तय कर सके कि भारत में ज्यूरी सिस्टम लागू किया जाना चाहिए या नहीं।
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कुल मिलाकर हमें एक ऐसे लोकतंत्र का आश्रय लेना चाहिए जिस लोकतंत्र में जनमत संग्रह, राईट टू रिकॉल तथा ज्यूरी सिस्टम जैसी प्रक्रियाएं हो। अब तक के इतिहास में शासन चलाने की जितनी भी पद्धतियां सामने आयी है, उनमे लोकतंत्र सबसे निरापद और सबसे बेहतर व्यवस्था है। लेकिन भारत में लोकतंत्र नहीं बल्कि 'विकृत लोकतंत्र' है, और यही भारत की सभी समस्याओं की जड़ है।
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जैसे जैसे वक्त गुजर रहा है, वैसे वैसे हम पर खतरा बढ़ता जा रहा है। हम अपना कीमती वक्त उल जलूल सिद्धांतो में जाया कर रहे है जबकि हमारे दुश्मन देश लगातार अपनी ताकत सेना को मजबूत बनाने में लगा रहे है। और जब यह शक्ति संतुलन ज्यादा बिगड़ जाएगा तो युद्ध को टाला नहीं जा सकेगा। और जब युद्ध होगा तो टीवी पर नजर आने वाले सारे सफेदपोश चेहरे अगली फ्लाइट से देश छोड़ देंगे एवं किसी सुरक्षित देश में बैठकर भारत की तबाही का सजीव प्रसारण देखेंगे। इसीलिए उन्हें आने वाले युद्ध की चिंता नहीं है। कुल मिलाकर यदि हमने जल्दी ही भारत की सेना को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवश्यक कानूनों को लागू नहीं किया तो हमें फिर से अपनी आजादी गंवानी पड़ सकती है । और तब हम शायद फिर से किसी तानाशाह की जगह भगत सिंह की तलाश शुरू करेंगे।
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9. भारत को मजबूत बनाने के लिए आम नागरिक क्या कर सकते है ?
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हम आम नागरिकों को अहिंसामूर्ती महात्मा उधम सिंह प्रेरित राईट टू रिकॉल-ज्यूरी सिस्टम क़ानून ड्राफ्ट आधारित एक ऐसा जन आंदोलन खड़ा करने की जरुरत है जिससे सांसदों पर दबाव बनाकर लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक कानूनों को लागू करवाया जा सके।
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कैसे आप देश में लोकतंत्र स्थापित करने में सहयोग कर सकते है ?
सारा खेल कानूनों पर टिका हुआ है। अच्छे क़ानून अच्छा देश बनाते है और बुरे कानून बुरा। इसीलिए कार्यकर्ताओ को समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक कानून ड्राफ्ट्स का अध्ययन करना चाहिए और अपने सांसद को अच्छे कानूनों को गैजेट में प्रकाशित करने के लिए एसएमएस द्वारा आदेश भेजने चाहिए। मैं जिन क़ानून ड्राफ्ट्स का समर्थन करता हूँ, उनकी सूची इस लिंक पर देखी जा सकती है --- https://web.facebook.com/photo.php?fbid=911238535661050&set=a.227009877417256.48763.100003247365514&type=3&theater
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