भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास

भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास

Sumit Pandey

सभी प्रारंभिक सभ्यताओं में भौतिक विज्ञानों का अध्ययन न तो परिभाषित था और न ही ज्ञान की अन्य शाखाओं से प्रथक था। प्रारंभ में जो नवीनशिल्प और कार्य व्यवहारतः विकसित हुए जिनमें वैज्ञानिक सिद्धांतों के प्रयोग की जरूरत थी परंतु उनसे अलग हटकर विज्ञान के सिद्धांतों का स्वतंत्रा अध्ययन करने के प्रयास नहीं के बराबर हुए। अधिकांश मामलों में जो तकनीकी अनुसंधान हुए उनमें निहित वैज्ञानिक सिद्धांतों की कोई जानकारी नहीं थी और ये अनुसंधान अटकलपच्चू विधि और पूर्व अनुभव के जरिए हुए। कभी-कभी विज्ञान के प्रति एक अस्पष्ट जागरूकता आती थी मगर तकनीक के व्यवहारिक पक्ष और उनकी व्यवहारिक सफलता पर ही ध्यान अधिक केंद्रित था न कि इस बात पर कि कैसे और क्यों कभी सफलता मिलती थी और कभी क्यों नहीं मिलती थी ?

भारत में रसायन के प्रारंभिक प्रयोग, औषधि, धातुकर्म, निर्माणशिल्प जैसे सीमेंट और रंगों के उत्पादन, वस्त्रा उत्पादन और रंगाई के संदर्भ में हुए। रासायनिक प्रक्रियाओं को समझने के दौरान पदार्थ के मूल तत्वों की व्याख्या करने में भी रुचि उत्पन्न हुई कि वे किन वस्तुओं के मेल से बने और किस प्रकार उनके आपसी मेल से नई वस्तुयें बनती थीं। समुद्री ज्वार, वृष्टिपात, सूर्य का स्वरूप, चंद्रमा और तारों के निर्माण, मौसम में परिवर्तन, ऋतुओं की रूपरेखा और कृषि आदि के संदर्भ में प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन हुआ। उदाहरणार्थ – वैदिक साहित्य में वर्णित है कि किस प्रकार सूर्य के ताप से समुद्र और सागरों से जल का वाष्पीकरण और संघनन होकर बादलों का निर्माण और वर्षा होती है। स्पष्ट है कि इनसे भौतिक प्रक्रियाओं और प्राकृतिक शक्तियों के बारे में उन सिद्धांतों तक पहुंचा जा सका जिनका रसायन और भौतिकी के क्षेत्रा में विशिष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है।

दर्शन और भौतिक विज्ञान

यह कहना कठिन है कि पहले सिद्धांत आया या उसका उपयोग। स्पष्टतः दोनों में एक द्वंदात्मक संबंध है और दोनों में से किसी की भी अवहेलना करने से विज्ञान की इति हो जाती है। धार्मिक विश्वास, विशेषतः धार्मिक निषेध और रहस्यात्मक या जादुई घटनाओं के लिए प्रतिपादित अबौद्धिक सिद्धांत या गलत अंधविश्वासों के प्रति लगाव प्रायः विज्ञान की प्रगति में गंभीर रूप से बाधक हो सकते हैं और भौतिक घटनाओं के क्यों और कैसे की खोज में महत्वपूर्ण योगदान करने से रोक सकते हैं।

वे समाज जिनका विश्वास था कि प्रकृति के रहस्यों को केवल देवता ही जान सकते हैं अतएव मनुष्य द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास निरर्थक है, स्पष्ट है कि वे समाज विज्ञान की दुनिया में कोई उल्लेखनीय प्रगति करने में असमर्थ रहे हैं। उन समाजों में भी जहां विश्व की वास्तविक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीके से समझने के मार्ग में कोई धार्मिक निषेध नहीं था, पुरोहितों की सत्ता और प्रभाव वैज्ञानिक प्रगति के मार्ग में अवरोध बन सकती थी। उदाहरणार्थ ऐसे समाज में जहां अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने के लिए केवल कर्मकाण्डीय गतिविधियां पर्याप्त समझी जाती हों, स्वाभाविक है कि प्रकृति के गुणों और नियमों के बारे में गंभीर गंवेषणा करने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

प्राचीन भारत लगभग पहले प्रकार के दुर्भाग्य – विज्ञान का धर्म द्वारा विरोध से पीड़ित नहीं था परंतु दूसरे प्रकार की त्राुटि – कर्मकाण्डों और अंधविश्वासों के प्रसार से ग्रस्त था। इस प्रकार भारत में विज्ञान का प्रसार अनिवार्य रूप से पुरोहितों के वर्चस्व को चुनौती देता था और कर्मकाण्डों और बलिप्रथा के प्रसार के रास्ते में बाधक था। कम से कम यह तर्क प्रस्तुत करना जरूरी था कि अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए कर्मकाण्ड अपर्याप्त थे और यह कि मानव की नियति को आकार देने के लिए विश्व का विवेक सम्मत निरीक्षण कुछ हद तक आवश्यक था। इसलिए यह कोई संयोग नहीं था कि विज्ञान और तकनीक का विकास, भारत में विवेकवादी दर्शन के विकास के समानान्तर हुआ। देखिएः ’’प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और वैज्ञानिक तरीकों का विकास’’।

प्राचीनतम वैज्ञानिक ग्रंथों, जैसे कि विशेषिक में, जो 6 वीं सदी ई.पू. या संभवतः और पहले की रचना है – देेखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’ – में विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राकृतिक वस्तुओं के भौतिक गुणों को लिपिबद्ध करने का प्रारंभिक प्रयास किया गया। प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण करके उनका वर्गीकरण और संक्षेप में उनका वर्णन करने का भी प्रयास किया गया। उसके बाद पदार्थ की संरचना और उनके भौतिक व्यवहार के बारे में सिद्धांत प्रतिपादित किया गया और उनके लिए सूत्रा विकसित किए गए। इस प्रकार यद्यपि भारत में भौतिकी और रसायन के प्राचीनतम प्रयोग – जैसा कि अन्य प्राचीन समाजों में भी हुआ, विज्ञान की इन शाखाओं के सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी के अभाव में ही हुए। इन प्रारंभिक विवेक सम्मत ग्रंथों में वैज्ञानिक गवेषणा और वैज्ञानिक दस्तावेजीकरण के तत्व विद्यमान थे। यद्यपि ये कदम प्रारंभिक और काम चलाउ थे, फिर भी, भौतिकी, रसायन, उद्भिज विज्ञान, जीव विज्ञान और अन्य भौतिक विज्ञानांे में आज के स्तर के ज्ञान तक मानवता को पहुंचने के लिए बहुत ही आवश्यक थे।


कल पढिये ......
कणभौतिकी

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