भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास: भाग 3
भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास: भाग 3
Sumit Pandey
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई – त्रासरेणु से मेल खाती है – जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति – गमन, परिक्रमा वाली गति – भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये – सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए – जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
कल पढिये...
भौतिक विज्ञान की सामाजिक पृष्ठभूमि
Sumit Pandey
ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी
ठीक जैसे गणित के अध्ययन को ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से बल मिला वैसे ही भौतिकी के अध्ययन को भी मिला। जैसा कि गणित वाले लेख में बताया गया है, आर्यभट ने 5 वीं सदी से 6 वीं सदी में ग्रहों की गति के क्षेत्रा में गवेषणा का मार्ग प्रशस्त किया। इससे आकाश और काल-मापक इकाईयों की परिभाषा और गुरूत्वाकर्षण, गति और वेग की अवधारणाओं की बेहतर समझ का विकास हुआ।
/उदाहरणार्थ यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति में, जो 6 वीं सदी में रची गई थी, काल और दूरी माप के लिए विभिन्न इकाईयों का वर्णन है और असीम काल की माप के लिए भी एक प्रणाली का वर्णन है। इससे भी महत्वपूर्ण है वाचस्पति मिश्र द्वारा लगभग 840 ई. के आसपास ठोस ज्यामिति / त्रिविमीय अक्षीय ज्यामिति की अभिकल्पना, जिसका अविष्कार दे कार्तस ने 1644 ई. में किया था। न्याय शुचि निबंध में वे लिखते हैं कि आकाश में किसी भी कण की स्थिति की एक दूसरे कण की स्थिति के संदर्भ में तीन काल्पनिक अक्षों के सहारे गणना की जा सकती है।/
ज्योतिर्विज्ञान के अध्ययन से काल और आकाश की बहुत बड़ी और बहुत छोटी इकाईयों की रचना में काफी रुचि जागृत हुई। एक सौर दिन 1944000 क्षणांे के बराबर होता है, यह न्याय-वैशेषिकों का कथन था। इस प्रकार एक क्षण 0.044 सेकिंड के बराबर हुआ। काल के न्यूनतम माप त्राुटि को परिभाषित किया गया जो 2.9623 गुणा 10 वर्ग 4 के बराबर थी। शिल्पशास्त्रा में लम्बाई की न्यूनतम माप परमाणु मानी गई है जो 1 बटा 349525 इंच के बराबर है। यह माप न्याय-वैशेषिक की न्यूनतम मुटाई – त्रासरेणु से मेल खाती है – जो अंधेरे कमरे में चमकने वाली धूप के पुंज की सूक्ष्मतम कण के बराबर है। 6 वीं सदी के आसपास वाराहमिहिर ने अभिकल्पित किया था कि 86 त्रासरेणु मिलकर एक अंगुलि अर्थात् 3/4 इंच के बराबर हैं। उसने यह भी बताया कि 64 त्रासरेणु मिलकर बाल की मोटाई के बराबर हैं।/
गति के नियम
यद्यपि वैशेषिकों ने विभिन्न प्रकार की गतियों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया, 7 वीं सदी में प्रशस्तपाद ने इस विषय पर अध्ययन को काफी आगे बढ़ाया। उसकी दी गई कई परिभाषाओं से प्रतीत होता है कि उसकी कुछ अभिकल्पनायें ग्रहों की गति से उपजी हैं। रैखिक गति के अतिरिक्त प्रशस्तपाद ने वक्रीय गति – गमन, परिक्रमा वाली गति – भ्रमण और कंपन गति का भी वर्णन किया है। उसने गुरूत्वशक्ति या द्रव्यों के बहाव के फलस्वरूप होने वाली गति तथा किसी बाहय् क्रिया के फलस्वरूप होने वाली गति में अंतर भी बताया है।
वह लचीलापन या संवेग के फलस्वरूप होने वाली गति से या बाहय् बल की प्रतिक्रिया के कारण होने वाली गति से भी परिचित था। उसने यह भी नोट किया कि कुछ प्रकार की क्रियाओं से एक जैसी गति होती है, कुछ प्रकार की क्रियाओं से विपरीत दिशा में गति होती है और कभी-कभी कोई गति नहीं होती तथा इन विभिन्नताओं का कारण है परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करने वाली वस्तुओं के अंदर निहित गुण।
प्रशस्तपाद ने यह भी पाया कि किसी भी एक काल में एक कण में एक ही गति हो सकती है /यद्यपि एक वस्तु उदाहरणार्थ कंपायमान पत्रा /ब्लोइंग लीफ/ जिसमें कणों की बड़ी संख्या होती है, में होने वाली गति अधिक जटिल प्रकार की होगी क्योंकि विभिन्न कण अलग-अलग प्रकार से गति कर रहे होंगे। यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा थी जिससे आगे चलकर गति के नियमों को गणित के सूत्रों में बांधने में मदद मिली।
10 वीं सदी में श्रीधर ने प्रशस्तपाद के निरीक्षणों की पुष्टि की और उसने जो कुछ निरीक्षण के बाद लिखा था उसका विस्तार किया। 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी कृतियों, सिद्धांत शिरोमणि और गणिताध्याय में गणितीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया और औसत वेग की माप इस प्रकार की अ त्र े ध् ज /जहां अ त्र औसत वेग, े त्र चली गई कुल दूरी और ज त्र समय।/
अपने समय के हिसाब से, प्रशस्तपाद के कार्य और बाद में, श्रीधर और भास्कराचार्य द्वारा उनकी व्याख्या को बहुत महत्वपूर्ण मानना चाहिए था। मगर, भारतीय ग्रंथों की एक बड़ी कमजोरी थी कि बाद में उनका गणितीकरण और अवधारणाओं की व्याख्या का आगे प्रयास न करना। उदाहरणार्थ गति के कई प्रकार के लिए अज्ञात कारणों को जिम्मेवार माना गया। परंतु इन समस्याओं को हल करने की कोई कोशिश आगे नहीं हुई और न यह अनुभव किया गया कि गति के विभिन्न प्रकारों के पीछे अदृश्य कारणों के लिए सामान्य तौर पर कोई अवधारणा प्रस्तुत करने की जरूरत है, विधिक तौर पर उन्हें परिभाषित करने और एक मौलिक तरीके से उन्हें प्रगट करने की आवश्यकता है, जैसा कि कुछ सदियों बाद न्यूटन ने एक गणितीय सू़त्रा के माध्यम से किया।
प्रयोग बनाम सहजज्ञान
वास्तव में, गति के अध्ययन में अगला बड़ा कदम इंग्लेंड में उठना था, जहां वैज्ञानिक गवेषणा के लिए रोजर बेकन, 13 वीं सदी, जैसे लोगों ने जमीन तैयार की थी। उसने शिक्षा प्राप्ति के रास्ते में रोड़े गिनाये – सत्ता के प्रति /आवश्यकता से अधिक/ सम्मान, अभ्यस्तता का बल, आध्यात्मविद्या संबंधी दुराग्रह और ज्ञान की गलत अवधारणा। एक सदी बाद आक्सफोर्ड के मर्टन विद्वानों ने त्वारित गति की अवधारणा विकसित की। यह अवधारणा बल को समझने के लिए सूत्रा की, बल त्र संहति ग त्वरण अग्रदूत थी। इन विद्वानों ने एक छड़ में उष्मा की मात्रा के मापने के लिए और उसे गणित की भाषा में प्रकट करने के लिए आदिम मगर महत्वपूर्ण कदम उठाये। ब्रिटिश तथा यूरोपीय विज्ञान की एक महत्वपूर्ण कसौटी सिद्धांत और अभ्यास /प्रयोग/ का समीकरण था जबकि भारतीय वैज्ञानिक ज्योतिर्विज्ञान के सिवाय अन्य क्षेत्रों की गवेषणा करने में सहजज्ञान पर भरोसा करते थे।
उदाहरण के लिए ठीक 16 वीं सदी तक भारतीय वैज्ञानिकों ने उपयोगी वैज्ञानिक निरीक्षणों को दर्ज करना जारी रखा परंतु गंभीरता से उन्हें गणितीय रूप से प्रकट करने की चेष्टा नहीं की, न अपने निरीक्षणों से प्राप्त फलों के भौतिक या रासायनिक कारणों को गहराई से खोजने की चेष्टा की। 10 वीं-11 वीं सदी में भोज ने तथा बाद में शंकर मिश्र ने चुम्बकत्व का संदर्भ दिया। 10 वीं-11 वीं सदी में उदयन ने सारे रासायनिक परिवर्तनों का उर्जा स्त्रोत सौर उष्मा को माना और गुब्बारों की चर्चा करते हुए हवा में भार होने की चर्चा अपनी कृति किरणावली में की है। 13 वीं सदी में वल्लभाचार्य ने अपनी कृति न्यायलीलावती में किसी डूबती वस्तु के प्रति जल द्वारा प्रतिरोध लगाने की ओर इशारा किया है मगर इसके आगे कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं की। 15 वी -16 वीं सदी में शंकर मिश्र ने स्थिर-वैद्युतिक आकर्षण के तथ्य का अवलोकन किया जब उन्होंने देखा कि घास और तिनके किस प्रकार अंबर द्वारा आकर्षित होते हैं। मगर उन्होंने इसका कारण अदृष्ट बताया। उन्होंने गतिज उर्जा की अवधारणा में भी कुछ हलचलें दर्ज कीं और अपने उपस्कर नामक ग्रंथ में उष्मा के गुणांे पर चर्चा की और क्वथन प्रक्रिया को वाष्पीकरण क्रिया से संबंधित बताने का प्रयास किया। शंकर मिश्र ने उसी पुस्तक में केश नली में द्रव की गति के उदाहरण दिए – जैसे किसी पौधे में जड़ से तने तक रस का आरोह और छिद्रमय पात्रों के भेदन की द्रवों की क्षमता। उन्होंने पृष्ठ तनाव के बारे में भी लिखा और जल के अणुओं की संसक्ति और जल के स्वयं चिकनापन का कारण उसके गाढ़ेपन को बताया।
कल पढिये...
भौतिक विज्ञान की सामाजिक पृष्ठभूमि
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