भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास: भाग 2

भारत में भौतिक विज्ञान का इतिहास: भाग 2

By -
Sumit Pandey

कणभौतिकी

यद्यपि कणभौतिकी आधुनिक भौतिकी की सर्वाधिक विकसित और सर्वाधिक जटिल शाखाओं में से एक है, प्राचीनतम परमाणु सिद्धांत कम से कम 2500 वर्ष पुराना है। भारत में दर्शन की लगभग हर विवेकसम्मत विचारधारा में चाहे वह हिंदू, जैन या बौद्ध हो, मूलकणों की प्रकृति के संबंध में कुछ न कुछ आख्यान है और इन विभिन्न विचारधाराओं ने इस विचार को प्रसारित किया कि पदार्थ परमाणुओं द्वारा संरचित है जो अविभाज्य और अनश्वर है। देखिएः ’’उपनिषादिक तत्व मीमांसा से वैज्ञानिक यथार्थवादः दार्शनिक विकास’’। परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को और आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादित किया कि परमाणु केवल जोड़े में ही नहीं वरन् तिकड़ी में भी संयुक्त हो सकते थे और यह कि युग्म और तिकड़ी में उनकी पास-पास सजावट ही प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं के विभिन्न भौतिक गुणों के लिए जिम्मेवार थी। जैनों ने यह भी प्रतिपादित किया कि परमाणुओं के संयोजन के लिए संयुक्त होने वाले परमाणुओं में विशिष्ट गुणों की आवश्यकता है तथा आवश्यकता है अलग से एक उत्प्रेरक परमाणु की। इस प्रकार प्रारंभिक परमाणु सिद्धांत पदार्थ के अणु सिद्धांत में परिवर्तित हो गए। यद्यपि इन सिद्धांतों के कई वर्णन वैज्ञानिक यथार्थ की कसौटी पर आज खरे नहीं उतरते तथापि इन सूत्रों में बहुत कुछ ऐसा है जो अपने समय से काफी आगे है और परिमार्जित है।

/यद्यपि यह महज एक संयोग हो सकता है, लेकिन जैनों का आणविक सिद्धांत भैषज या धातुकर्म जैसे अन्य क्षेत्रों में हुई व्यवहारिक उन्नतियों के समानान्तर हुआ। धातुओं में उप्प्रेरकों के महत्वपूर्ण योग में देखा गया और सावधानी से लिपिबद्ध हुआ। भारतीय भैषज ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया कि मानव शरीर में समुचित पाचन के लिए और औषधियों तथा काढ़ों के सफल अवशोषण के लिए भी उत्प्रेरक वस्तुओं की आवश्यकता है। भैषज विज्ञान और शल्य उपयोगों के संदर्भ में अम्लों और क्षारों के निर्माण हेतु उत्प्रेरक वस्तुओं की जरूरत को रेखांकित किया गया, ठीक वैसे ही जैसे कि धातुकर्म की प्रक्रियाओं और पक्के रंग वाले रोगनों के निर्माण में उपयुक्त उत्प्रेरकों के योगदान को। /आज उत्प्रेरकों की मदद से होने वाली प्रक्रियाओं के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं; विविध प्रकार के खनिजों, विटामिनों और एंजाइमों की पहचान कर ली गई है जो हमारे शरीर के अंदर होने वाली महत्वपूर्ण रासायनिक प्रक्रियाओं की श्रंृखला में उत्प्रेरकों के रूप में महत्वपूर्ण योगदान उसी प्रकार करते हैं जैसे कि अन्य भौतिक प्रक्रियाओं में उत्प्रेरक यौगिक करते हैं।/

उष्मा द्वारा होने वाले रासायनिक परिवर्तनों की व्याख्या करने के लिए भी परमाणु तथा अणु सिद्धांतों का उपयोग किया गया यद्यपि ऐसा अनुमानतः किया गया। प्रशस्तपाद ने प्रस्तावित किया कि तेजस /उष्मा/ अवयव अणु-व्यूहों को प्रभावित करता है जिससे रासायनिक परिवर्तन होते हैं। इस प्रक्रिया की विस्तृत व्याख्या के लिए दो प्रतिस्पर्धी सिद्धांत प्रस्तुत हुए जिसका प्रयोग मृदभाण्डों को अग्नि द्वारा पकाने / रंगने की प्रक्रिया की व्याख्या में किया गयाः पीलुपाकवाद सिद्धांत जिसका प्रस्ताव वैशेषिकों ने रखा मानता था कि उष्मा के प्रयोग से परमाणु की व्यूह रचना बदल जाती है जिससे नए अणुओं और भिन्न रंग का निर्माण होता है। पीठारपादवाद सिद्धांत जिसे न्यायदर्शन के अनुयायियों ने विकसित किया इससे असहमत होते हुए कहता था कि आणुविक परिवर्तन अथवा नई संरचना होती अवश्य है परंतु बिना प्रारंभिक अणुओं के मूल-परमाणुओं में विघटित हुए, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मृदभाण्ड भी विघटित हो जाता; परंतु मृदभाण्ड तो समूचा रहता है, केवल रंग में ही परिवर्तन होता है।

गतिज उर्जा की एक अवचेतनात्मक समझ प्रशस्तपाद और न्याय-वैशेषिकों के ग्रंथों में मिलती है जिसके अनुसार सारे परमाणु निरंतर गतिशील अवस्था में रहते हैं। ऐसी आणविक-परमाणविक गतियां, चाहे वह घूर्णन हो या वृत्ताकार गति या हारमोनिक गति, के वर्णन के लिए उन्होंने परिस्पंद की परिकल्पना प्रस्तुत की।

प्रकाश और ध्वनि

प्रारंभिक भारतीय विवेकवादियों ने प्रकाश और ध्वनि के स्वभाव के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। प्राचीन यूनानियों की भांति प्राचीन भारतीय दार्शनिक भी आंख को प्रकाश का स्त्रोत् मानते थे और यह गलतफहमी पहली सदी तक कायम रही जब तक सुश्रुत ने यह प्रतिपादित नहीं कर दिया कि किसी बाहरी स्त्रोत से आने वाला प्रकाश हमारे चक्षु-पटल पर पड़कर हमारे चारों ओर के विश्व को प्रकाशित करता है। 5 वीं सदी में आर्यभट ने भी इसकी पुष्टि की। अन्य मामलों में, प्रारंभिक दार्शनिकों की बातें बहुत सटीक थीं। चक्रपाणि ने बताया कि ध्वनि और प्रकाश दोनों की गति लहरों के रूप में होती है परंतु प्रकाश की गति अपेक्षाकृत बहुत तीव्र होती है। अन्य लोगों ने, जैसे कि मीमांसकों ने कल्पना की कि प्रकाश बहुत सूक्ष्म कणों से बना है /आजकल उसे फोटान कहते हैं/ जो निरंतर गतिमान रहते हैं और मूल-स्त्रोत से उनका निरंतर विकिरण और डिफ्यूजन होता रहता है।

ध्वनि का लहर जैसा स्वभाव प्रशस्तपाद द्वारा भी वर्णित किया गया है। उन्होंने परिकल्पित किया कि जिस प्रकार पानी में लहरों की गति होती है वैसे ही ध्वनि हवा में बढ़ते हुए वृत्तों के रूप में चलती है। ध्वनि का परावर्तन अपने ढंग का ही होता है जिसे प्रतिध्वनि कहा जाता है। संगीत की श्रुतियों के बारे में कहा गया है कि इनका कारण कंपन का परिणाम और बारंबारता है। स्वर के बारे में विश्वास किया जाता था कि यह श्रुति /मूल स्वर/ और कुछ अनुरनन /आंशिक स्वरों या हारमोनिक्स/ के संयोग से बनते हैं। कुछ परिकल्पनाओं यथा जाति व्यक्तोखि तादात्म्यस् /स्वर के प्रकार और जातियां/ परिणाम /मूलभूत बारंबारता का परिवर्तन/, व्यंजना /ओवरटोन का प्रदर्शन, विवतर््न /ध्वनि का परावर्तन/ और कार्यकारण भाव /ध्वनि का कारण और प्रभाव/ के आधार पर संगीत सिद्धांत की व्याख्या की गई।

6 वीं सदी में वाराहमिहिर ने परावर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि प्रकाश के कण किसी वस्तु पर पड़कर वापिस छिटक जाते हैं जिसे किरण विघट्टन या मूच्र्छना कहा जाता हैः यही प्रकाश का परावर्तन है। वात्स्यायन ने इस घटना को रश्मि परावर्तन का नाम दिया। इस धारणा को अंगीकार करके छाया बनने और वस्तुओं की अपारदर्शिता की व्याख्या की गई। आवर्तन के बारे में यह कहा गया कि इसका कारण अर्धपारदर्शी और पारदर्शी वस्तुओं के अंतः स्थानों को भेदने की प्रकाश की क्षमता है और उद्दोतकार ने इसकी तुलना उन द्रव्यों से की जो छिद्रयुक्त वस्तुओं से गुजरते हैं – तत्रा परिस्पंदः तिर्यग्गमनम् परिश्रवः पातयति।

/अल हयाथम् ने जो बसरा में जन्मा था और जिसने 10 वीं सदी में काहिरा को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था संभवतः आर्यभट की रचनाओं से परिचित था। उसने आप्टिक्स के बारे में एक और अधिक उन्नत सिद्धांत प्रस्तुत करते हुए प्रकाश किरणों की मदद से चित्रा द्वारा परावर्तन और आवर्तन की अभिकल्पनाओं की व्याख्या की। आवर्तन के नियमों की व्याख्या के लिए तथा प्रकाश किरणें विभिन्न पदार्थाें में अलग अलग गति से चलतीं हैं जिसके कारण आवर्तन की घटना होती है इस बात को समझाने के लिए वह विशेष तौर पर जाना जाता है।/


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ज्योतिर्विज्ञान और भौतिकी

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