मेवाड़ योद्धा बप्पा रावल और आदित्यनाथ का सम्बन्ध
मेवाड़ योद्धा बप्पा रावल और आदित्यनाथ का सम्बन्ध
Written by :- desiCNNमेवाड़ योद्धा बप्पा रावल और आदित्यनाथ का सम्बन्ध
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जब से योगी आदित्यनाथ ने यूपी की कमान संभाली है, तभी से वे अचानक विश्व की प्रेस में चर्चाओं के केन्द्र बन गए हैं. मीडिया में विशेषतः योगीजी के परिवार के बारे में खोजबीन की जा रही है, साथ ही गोरक्षनाथ पीठ तथा नाथ सम्प्रदाय के बारे में भी खासे सर्च-रिसर्च चालू हो गए हैं.
भले ही योगी जी को संन्यास और दीक्षा लिए अर्थात अपनी जाति छोड़े एक अरसा हो गया, लेकिन “मीडिया के हेडलाइन भूखों” को अभी भी वे राजपूत दिखाई दे रहे हैं. बहरहाल... इस लेख में आपको एक अलग किस्म की जानकारी मिलेगी, और वह ये है कि मेवाड़ (राजस्थान) के अपराजेय योद्धा बप्पा रावल कौन हैं? और इनका योगी आदित्यनाथ के नाथ सम्प्रदाय से क्या सम्बन्ध है?
जैसा कि प्रचलित है, नाथ सम्प्रदाय “हठयोग” की एक शाखा है. इस परंपरा का पालन करने वाले संतों और योगियों ने स्थानीय भाषाओं में अपना तमाम साहित्य तैयार किया तथा इसे पूरे देश में फैलाया. इस परंपरा ने हजारों महान संत भारत भूमि को दिए हैं. यहाँ तक कि सुदूर तमिलनाडु में भी गोरखनाथ की परंपरा ने अपनी पीठ स्थापित की है, वहाँ तमिल भाषा में इन्हें “गोरक्कर” कहा जाता है. गोरक्षनाथ पीठ के साधुओं ने उन सभी राजाओं से अपने मधुर सम्बन्ध बनाए जिन्होंने अरब देशों से आने वाले आक्रमणकारियों से लोहा लिया. “एकलिंग महात्म्य” के अनुसार राजस्थान में गुहिलोत वंश (गुहा) के नौंवें शासक बप्पा रावल को जब सत्ता से बेदखल किया गया तब ये गोरक्षनाथ ही थे, जिन्होंने बप्पा रावल को एक तलवार भेंट की तथा उन्हें इस बारे में शिक्षित किया कि वे दूसरे हिन्दू राजाओं को एकत्रित करके बाहरी हमलावरों से मुकाबला करें. ग्रंथों के अनुसार गुरु गोरक्षनाथ ने बप्पा रावल से कहा कि वे और उनके वंशज “गोरख” कहे जाएँगे जिन्होंने अफगानिस्तान को इस्लामिक शासन से मुक्त किया. न केवल मेवाड़ वंश, बल्कि पाकिस्तान की रावल-पिण्डी को भी बप्पा रावल ने ही स्थापित किया था. नेपाल के जिन गोरखाओं की बहादुरी की तारीफ़ पूरी दुनिया करती है, वे भी गोरक्षनाथ परंपरा से ही हैं. कई कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि काबुल, ईरान, तूरान, बलूचिस्तान इत्यादि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ कई गोरखनाथ मंदिर स्थापित किए गए थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं. हालाँकि अधिकाँश वामपंथी इतिहासकार “बप्पा रावल” को एक काल्पनिक चरित्र मानते हैं और उनके अनुसार ऐसा कोई योद्धा हुआ ही नहीं जो उस जमाने में पश्चिम दिशा में इतनी दूर अफगानिस्तान तक गया हो. लेकिन क्या आप “बप्पा रावल” के बारे में जानते हैं?? नहीं जानते होंगे क्योंकि उन्हीं वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात आपसे छिपकर रखी थी... खैर आज संक्षेप में जान लीजिए कि बप्पा रावल कौन थे...
हमारे देश पर अरबों, मुगलों, अंग्रेजों द्वारा आक्रमण और शासन किए जाने की कहानी तो हम पढ़ते ही हैं परंतु हमें यह नहीं बताया जाता, कि इन आक्रांताओं के आक्रमण के कालखंडों में जो अंतर है, वह भारतीय योद्धाओं के विजय का काल रहा है। उदाहरण के लिए हम सभी जानते हैं कि वर्ष 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। परंतु उसके बाद सीधे बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी का आक्रमण मिलता है। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक क्या अरब आक्रमणकारी उस एक जीत का जश्न मना रहे थे? नहीं... वास्तव में इस पूरे कालखण्ड में अरब आक्रमणकारियों को भारतीय योद्धा जमकर खदेड़े हुए थे। उस कालखंड में अरबों को पराजित करने वाले ऐसे ही एक महानायक योद्धा थे, बप्पा रावल।
यह एक इतिहास है कि मेवाड़ के राजवंश गुहिलोत और उसी की शाखा सिसोदिया ने राष्ट्र रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। शौर्य और बलिदान के धराधाम मेवाड़ पर अपने अतुलनीय शौर्य से वीर रस को साकार करने वाले गुहिलोत वंश का दावा है कि वे यहां पर सातवीं सदी से शासन कर रहे हैं। आखिर इस वंश का पहला शासक कौन था? वह कहां से आया था? और उससे पहले यहां पर शासक कौन हुआ होगा? अब तक प्राप्त हुए विदीर्ण शिलालेखों और जनश्रुतियों से जो कथा या कहानी सामने आती है, वह न केवल काफी आश्चर्यजनक है, बल्कि गौरवपूर्ण और प्रेरणास्पद भी है। यह तो सभी जानते हैं कि वीर प्रसूता मेवाड़ की धरा शक्ति, भक्ति और त्याग का अनूठा संगम है। लोककथाओं में अत्यंत प्रसिद्ध बप्पा के शौर्य, राणा प्रताप के पराक्रम और धाय पन्ना के बलिदान की साक्षी यह धरती देश में नई ऊर्जा का संचार करती है। मेवाड़ राजवंश के सबसे प्रतापी शासक कुम्भकर्ण उर्फ राणा कुम्भा जिनका शासनकाल सन् 1433 से 1468 तक रहा है, के समय से यहां का इतिहासक्रम व्यवस्थित हो जाता है, लेकिन उससे पहले का इतिहास अभिलेखों और जनश्रुतियों पर आधारित है। 712 ईस्वी में जब सिंध पर अरबों का भीषण आक्रमण होता है और राजा दाहिर सेन पराजित होने से खलीफा का राज्य सिंध की घाटी पर स्थापित हो जाता है, ऐसे में तब अरब की आंधी का सीधा सामना भीनमाल और मण्डोर के गुर्जर-प्रतिहारों और मेवाड़ के मौर्य व गुहिलोतों से होता है। उस समय मेवाड़ के सैनिकों और शासकों ने देश के सीमारक्षक की भूमिका निभाई और भारतवर्ष के सम्मान की रक्षा की, अन्यथा देश इस्लाम की आंधी में नेस्तनाबूद हो जाता और सनातन धर्म जिसे आज हिन्दू कहा जाता है, वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पारसियों और यहूदियों की भांति मातृभूमि से पृथक हो चुका होता। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भला हो मेवाड़ के गुहिलोतों और भीनमाल के प्रतिहारों का, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखता है। परंतु इस पर शोध किया जाना अभी बाकी है कि जब राजस्थान की सीमा पर अरबी सेना खड़ी थी, तो मेवाड़ का सैन्य संचालन कौन कर रहा था? यहां पर शासक कौन था? स्थानीय श्रुतियों और कुछ सिक्कों के आधार पर माना गया है कि 733 ईस्वी में किसी बप्प, बप्पा, वाष्प या बोप्पक नामक गुहिलवंषी का शासन यहां पर था।
अब तक प्राप्त जानकारियों के अनुसार, बप्पा रावल, बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु यह एक प्रकार की उपाधि है। आदरसूचक ‘बापा’ शब्द भी मेवाड़ के एक कुछ विशेष राजाओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। समझा जाता है कि मेवाड़ के गुहिल वंश के बप्पा उपाधि प्राप्त राजा अपराजित ही बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों (बप्पा और अपराजित) का ही समय आस-पास का है। राजा अपराजित का वर्णन 661 ईस्वी का कैटभरिपु मंदिर जो उदयपुर शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर है, के अभिलेख में मिलता है। यह वही स्थान है जहां कभी मेवाड़ की पहली राजधानी नागदा बसी हुई थी। दूसरी ओर, बप्पा का सोने का सिक्का अजमेर से मिला है, जो 733 ईस्वी का माना जाता है। इसका वजन 115 ग्रेन या 65.7 रत्ती है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प अंकित है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर शिवलिंग की ओर मुख किए नंदी बैठे हैं। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ चंवर, सूर्य और छत्रा के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गऊ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं। बप्पा रावल के प्रजा संरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवतः जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बप्पा का राज्यकाल 30 साल का भी रखा जाए तो वे सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होंगे। उनसे पहले भी उस वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। जनश्रुति से यह प्रसिद्ध है कि हारित ‘राशि’ (राशि लकुलिश मठों के मठाधीशों को कहते हैं) की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। राजस्थान का इतिहास के लेखक कर्नल टॉड को यहीं पर राजा मान का वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। उदयपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर बसा नागदा एक समृद्ध नगर और बप्पा के समय गुहिलों की राजधानी था। सन् 1234-35 में ममलुक सुल्तान इल्तमश ने हमला कर इस नगर को नष्ट कर दिया। इसके बाद इसी के निकट पहाड़ी क्षेत्र में इल्तमश नागदा के शासक जेत्रासिंह से पराजित हुआ। दिल्ली लौटने पर सन् 1236 में इल्तमश का निधन हो गया। इसके बाद मेवाड़ की राजधानी स्थायी रूप से चित्तौड़ स्थानान्तरित हो गई।
अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई थी। सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों और गुर्जरों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएं छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए राजस्थान में कुछ महान विभूतियों का जन्म हुआ, जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट्ट प्रथम और बापा ने मिलकर अरबों को मेवाड़, पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया।
बप्पा का प्रसिद्ध अरब संघर्ष
जन श्रुतियों में प्रसिद्ध अरबों के आक्रमणों ने 8वीं सदी में राजस्थान की सीमाओं को रक्त से लाल करना शुरू किया तो चित्तौड़ के मोरी और नागदा के गुहिलोतों ने मिलकर तत्कालीन उत्तरापथस्वामिन और गुर्जर-प्रतिहार वंष के शासक नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में खलीफा की सेनाओं से संघर्ष किया। इनका साथ दक्षिण भारत के चालुक्यवंशी सम्राट विक्रमादित्य-2 के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी ने दिया। माना जाता है कि नागदा के बप्पा रावल ने इस युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्व किया और अरबों पर गजनी तक धावे बोले। यह सभी युद्ध 724 से 740 ईस्वी के बीच लड़े गए। इसके बाद तत्कालीन ब्राह्मणाबाद (वर्तमान करांची) को केन्द्र बनाकर भारतीय शासकों ने एक शासन व्यवस्था भी बनाई। इससे यहां पर तलवार के बल पर इस्लाम कबूल चुके क्षत्रियों को पुनः हिन्दू बनाकर मुस्लिम राजपूत वंश का गठन किया गया। इनके वंशज आज भी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में नजर आते हैं। सिंध में अरबी आक्रमण की सबसे भीषण आंधी उम्मायद खलीफा अल वालिद-1 के काल में 692-718 ईस्वी के बीच चली। इसमें सन् 712 में खलीफा के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के ब्राह्मण वंषी शासक अलोर के दाहिर सेन को पराजित कर उसकी राजधानी अलोर और फिर प्रमुख शहर ब्राह्मणाबाद पर कब्जा कर लिया। अब वह सीधे गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की सीमा पर खड़ा था।
इसके बाद खलीफा और उसके सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम के विवाद के कारण यह आक्रमण कमजोर हो गया और अरब सेनाएं आगे नहीं बढ़ सकी। आठ वर्ष बाद खलीफा अल यजीद के काल में सेनापति हाशिम के नेतृत्व में सेना फिर से गठित हुई और प्रतिहार व चालुक्य साम्राज्य की ओर बढ़ने लगी। इस बार इस क्षेत्रा के राजाओं ने एक संगठन बनाया। इसमें नागदा के शासक बप्पा रावल चित्तौड़ के मोरियों के साथ संगठन में शामिल हुए। संगठन का नेतृत्व प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम ने किया। वह अपनी राजधानी कन्नौज से भीनमाल ले आया जो सिन्ध की सीमा पर थी। अन्हिलवाड़ा से चालुक्य सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी भी संगठन में शामिल हुआ। संगठन की सेनाओं का सेनापति बप्पा रावल को चुना गया। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से प्राप्त होता है।
इसके बाद 723 ईस्वी में अल जुनैद खलीफा का प्रतिनिधि बनकर भारत आया और भारत को खिलाफत के झण्डे के नीचे लाने के अभियान ने गति पकड़ी। उसने मारवाड़ (उस समय जैसलमेर और मण्डोर अर्थात् जोधपुर) भीनमाल और अन्हिलवाड़ (गुजरात) को अपना निशाना बनाया। तब बप्पा के नेतृत्व में गठबंधन सेना भीनमाल से बढ़ी और ब्राह्मणाबाद के निकट जुनैद की सेना को हराया और आगे बढ़कर अलोर को भी जीत लिया। इसके प्रमाण हमें चचनामा से मिलते हैं। पराजित जुनैद ने कष्मीर का रास्ता पकड़ा लेकिन वहां भी उसे तत्कालीन कष्मीर के कार्कोट वंश के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ की प्रबल सेनाओं से परास्त होना पड़ा। इसका वर्णन कल्हण द्वारा लिखित कश्मीर के इतिहास राजतरंगिणी से प्राप्त होता है। इस प्रकार बप्पा के प्रबल आवेग और ललितादित्य के पराक्रम से जुनैद को सिन्धू नदी के पूर्वी तट पर शरण लेनी पड़ी और उसने वहां पर अल-मंसूर नाम से राजधानी बनाई।
ईस्वी 731 में अल-हकीम सिंध की राजधानी अल-मंसूर का गवर्नर बना कर आया। उसने आगे बढ़कर ईस्वी 736 में भीनमाल और अन्हिलवाड़ पर हमला किया। इस बार फिर बप्पा रावल के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अल-हकीम को हराया। यह हार इतनी प्रबल थी कि आने वाले 200 वर्षों तक कोई इस्लामी सेना भारत पर हमले का प्रयास नहीं कर सकी। इसका वर्णन भीनमाल के अभिलेख से मिलता है। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से भी मिलता है कि कच्छेला, सैंधव, सौराष्ट्र, कावोटक, मौर्य और गुर्जर सेनाओं ने मिलकर ताजिकों की सेना को करारी मात दी। चूंकि मौर्य उस काल में मेवाड़ के स्थापित शासक हैं, समझा जाता है कि इसलिए नागदा की सेनाएं भी सम्भवतः उनके नेतृत्व में ही आई हो और बप्पा रावल उनके सेनापति हों। दूसरी ओर नंदीपुरी (भड़ोच) के गुर्जर शासक जयभट्ट-4 के 736 ईस्वी के अभिलेख में लिखा गया है वह वल्लभी के राजा के साथ अपनी सेना लेकर ताजिकों (अरबों) से युद्ध करने गया। एक जैन प्रबंध के अनुसार भीनमाल के निकट जालौर में अपने वंष का पहला शासक नाहड़ था। उसने अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं को युद्ध में पराजित किया। नाहड़ को नागभट्ट प्रथम के रूप में स्वीकार किया गया है। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम का काल एक ही था। एक ओर गुर्जर-प्रतिहार अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे और दूसरी ओर बप्पा मेवाड़ में अपनी धाक।
बप्पा की विजयों का प्रभाव
बप्पा के विजयी अभियानों के कारण अरब-आक्रमणों में काफी कमी आई। अल-हकीम की मृत्यु के बाद अरबों के हमले भारत में और भी कम हो गए। इस प्रकार भारत पर आने वाले 300 वर्षों तक मुसलमान के शासन में आने से बचा रहा, जो कि बप्पा का ही प्रताप माना जा सकता है। इस बीच गुर्जर-प्रतिहार उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बनकर उभरे और गंगा की घाटी से सिंध तक उनका साम्राज्य फैल गया। युद्ध में सहयोग के चलते नागदा का शासन सम्भवतः स्वतंत्र रूप से बप्पा के पास रहा होगा। गुजरात में राष्ट्रकूट अपने संस्थापक दंतिदुर्ग के नेतृत्व में चालुक्यों को कमजोर करने में सफल रहे और दक्षिण की प्रबल शक्ति बनकर उभरे। लेकिन बप्पा के अभिलेख, सिक्के और साहित्य नहीं मिलने से मेवाड़ में उसके शासन के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाते हैं।
चचनाम में बप्पा
सिंध के अधिकृत इतिहास चचनामा में बप्पा का विवरण मिलता है। उसके अनुसार, राजा दाहिर की मौत के बाद देबल और उसके आस-पास के क्षेत्रा में अरब का प्रभाव स्थापित हो गया था। देबल के हिंगलाज भवानी अभिलेख में प्रमाणित होता है कि दाहिर के पुत्रा जयसेन के साथ उसकी माता रानी लाड़ी देवी चित्तौड़ मदद के लिए आई। इस पर चित्तौड़ मौर्य शासक ने अपने सेनापति बप्पा रावल को सेना के साथ मदद के लिए भेजा। उसने भारतीय राजाओं के संगठन के साथ मिलकर अरबों से 16 वर्ष तक संघर्ष किया और सिन्ध से अरबों के प्रभाव को समाप्त कर दिया। इसके बाद उसने गजनी के अरबी शासक सलीम को पराजित कर उसे संधि करने पर मजबूर किया और उसकी पुत्री माइया से विवाह किया।
गोरक्षनाथ परंपरा से आए बप्पा रावल ने भील जनजाति से भी मधुर सम्बन्ध बनाए, इसीलिए उनके दो खास सहयोगी भील जनजाति के ही थे. आज भी राजस्थान के दूरदराज इलाके के जनजाति इलाकों में भील लोग माथे पर तिलक लगाते हैं, जो बप्पा रावल की दी हुई परंपरा है. आज नाथ सम्प्रदाय के ही एक योगी को जातिवाद में गहरे धंसे उत्तरप्रदेश को एकजुट करने का अवसर मिला है, ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि गोरक्षनाथ का यह शिष्य आदित्यनाथ, मेवाड़ के योद्धा बप्पा रावल की ही तरह हिंदुओं को एकजुट करते हुए विजय के नए सोपान प्राप्त करेगा....
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साभार : विवेक भटनागर, भारतीय धरोहर
जब से योगी आदित्यनाथ ने यूपी की कमान संभाली है, तभी से वे अचानक विश्व की प्रेस में चर्चाओं के केन्द्र बन गए हैं. मीडिया में विशेषतः योगीजी के परिवार के बारे में खोजबीन की जा रही है, साथ ही गोरक्षनाथ पीठ तथा नाथ सम्प्रदाय के बारे में भी खासे सर्च-रिसर्च चालू हो गए हैं.
भले ही योगी जी को संन्यास और दीक्षा लिए अर्थात अपनी जाति छोड़े एक अरसा हो गया, लेकिन “मीडिया के हेडलाइन भूखों” को अभी भी वे राजपूत दिखाई दे रहे हैं. बहरहाल... इस लेख में आपको एक अलग किस्म की जानकारी मिलेगी, और वह ये है कि मेवाड़ (राजस्थान) के अपराजेय योद्धा बप्पा रावल कौन हैं? और इनका योगी आदित्यनाथ के नाथ सम्प्रदाय से क्या सम्बन्ध है?
जैसा कि प्रचलित है, नाथ सम्प्रदाय “हठयोग” की एक शाखा है. इस परंपरा का पालन करने वाले संतों और योगियों ने स्थानीय भाषाओं में अपना तमाम साहित्य तैयार किया तथा इसे पूरे देश में फैलाया. इस परंपरा ने हजारों महान संत भारत भूमि को दिए हैं. यहाँ तक कि सुदूर तमिलनाडु में भी गोरखनाथ की परंपरा ने अपनी पीठ स्थापित की है, वहाँ तमिल भाषा में इन्हें “गोरक्कर” कहा जाता है. गोरक्षनाथ पीठ के साधुओं ने उन सभी राजाओं से अपने मधुर सम्बन्ध बनाए जिन्होंने अरब देशों से आने वाले आक्रमणकारियों से लोहा लिया. “एकलिंग महात्म्य” के अनुसार राजस्थान में गुहिलोत वंश (गुहा) के नौंवें शासक बप्पा रावल को जब सत्ता से बेदखल किया गया तब ये गोरक्षनाथ ही थे, जिन्होंने बप्पा रावल को एक तलवार भेंट की तथा उन्हें इस बारे में शिक्षित किया कि वे दूसरे हिन्दू राजाओं को एकत्रित करके बाहरी हमलावरों से मुकाबला करें. ग्रंथों के अनुसार गुरु गोरक्षनाथ ने बप्पा रावल से कहा कि वे और उनके वंशज “गोरख” कहे जाएँगे जिन्होंने अफगानिस्तान को इस्लामिक शासन से मुक्त किया. न केवल मेवाड़ वंश, बल्कि पाकिस्तान की रावल-पिण्डी को भी बप्पा रावल ने ही स्थापित किया था. नेपाल के जिन गोरखाओं की बहादुरी की तारीफ़ पूरी दुनिया करती है, वे भी गोरक्षनाथ परंपरा से ही हैं. कई कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि काबुल, ईरान, तूरान, बलूचिस्तान इत्यादि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ कई गोरखनाथ मंदिर स्थापित किए गए थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं. हालाँकि अधिकाँश वामपंथी इतिहासकार “बप्पा रावल” को एक काल्पनिक चरित्र मानते हैं और उनके अनुसार ऐसा कोई योद्धा हुआ ही नहीं जो उस जमाने में पश्चिम दिशा में इतनी दूर अफगानिस्तान तक गया हो. लेकिन क्या आप “बप्पा रावल” के बारे में जानते हैं?? नहीं जानते होंगे क्योंकि उन्हीं वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात आपसे छिपकर रखी थी... खैर आज संक्षेप में जान लीजिए कि बप्पा रावल कौन थे...
हमारे देश पर अरबों, मुगलों, अंग्रेजों द्वारा आक्रमण और शासन किए जाने की कहानी तो हम पढ़ते ही हैं परंतु हमें यह नहीं बताया जाता, कि इन आक्रांताओं के आक्रमण के कालखंडों में जो अंतर है, वह भारतीय योद्धाओं के विजय का काल रहा है। उदाहरण के लिए हम सभी जानते हैं कि वर्ष 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। परंतु उसके बाद सीधे बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी का आक्रमण मिलता है। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक क्या अरब आक्रमणकारी उस एक जीत का जश्न मना रहे थे? नहीं... वास्तव में इस पूरे कालखण्ड में अरब आक्रमणकारियों को भारतीय योद्धा जमकर खदेड़े हुए थे। उस कालखंड में अरबों को पराजित करने वाले ऐसे ही एक महानायक योद्धा थे, बप्पा रावल।
यह एक इतिहास है कि मेवाड़ के राजवंश गुहिलोत और उसी की शाखा सिसोदिया ने राष्ट्र रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। शौर्य और बलिदान के धराधाम मेवाड़ पर अपने अतुलनीय शौर्य से वीर रस को साकार करने वाले गुहिलोत वंश का दावा है कि वे यहां पर सातवीं सदी से शासन कर रहे हैं। आखिर इस वंश का पहला शासक कौन था? वह कहां से आया था? और उससे पहले यहां पर शासक कौन हुआ होगा? अब तक प्राप्त हुए विदीर्ण शिलालेखों और जनश्रुतियों से जो कथा या कहानी सामने आती है, वह न केवल काफी आश्चर्यजनक है, बल्कि गौरवपूर्ण और प्रेरणास्पद भी है। यह तो सभी जानते हैं कि वीर प्रसूता मेवाड़ की धरा शक्ति, भक्ति और त्याग का अनूठा संगम है। लोककथाओं में अत्यंत प्रसिद्ध बप्पा के शौर्य, राणा प्रताप के पराक्रम और धाय पन्ना के बलिदान की साक्षी यह धरती देश में नई ऊर्जा का संचार करती है। मेवाड़ राजवंश के सबसे प्रतापी शासक कुम्भकर्ण उर्फ राणा कुम्भा जिनका शासनकाल सन् 1433 से 1468 तक रहा है, के समय से यहां का इतिहासक्रम व्यवस्थित हो जाता है, लेकिन उससे पहले का इतिहास अभिलेखों और जनश्रुतियों पर आधारित है। 712 ईस्वी में जब सिंध पर अरबों का भीषण आक्रमण होता है और राजा दाहिर सेन पराजित होने से खलीफा का राज्य सिंध की घाटी पर स्थापित हो जाता है, ऐसे में तब अरब की आंधी का सीधा सामना भीनमाल और मण्डोर के गुर्जर-प्रतिहारों और मेवाड़ के मौर्य व गुहिलोतों से होता है। उस समय मेवाड़ के सैनिकों और शासकों ने देश के सीमारक्षक की भूमिका निभाई और भारतवर्ष के सम्मान की रक्षा की, अन्यथा देश इस्लाम की आंधी में नेस्तनाबूद हो जाता और सनातन धर्म जिसे आज हिन्दू कहा जाता है, वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पारसियों और यहूदियों की भांति मातृभूमि से पृथक हो चुका होता। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भला हो मेवाड़ के गुहिलोतों और भीनमाल के प्रतिहारों का, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखता है। परंतु इस पर शोध किया जाना अभी बाकी है कि जब राजस्थान की सीमा पर अरबी सेना खड़ी थी, तो मेवाड़ का सैन्य संचालन कौन कर रहा था? यहां पर शासक कौन था? स्थानीय श्रुतियों और कुछ सिक्कों के आधार पर माना गया है कि 733 ईस्वी में किसी बप्प, बप्पा, वाष्प या बोप्पक नामक गुहिलवंषी का शासन यहां पर था।
अब तक प्राप्त जानकारियों के अनुसार, बप्पा रावल, बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु यह एक प्रकार की उपाधि है। आदरसूचक ‘बापा’ शब्द भी मेवाड़ के एक कुछ विशेष राजाओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। समझा जाता है कि मेवाड़ के गुहिल वंश के बप्पा उपाधि प्राप्त राजा अपराजित ही बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों (बप्पा और अपराजित) का ही समय आस-पास का है। राजा अपराजित का वर्णन 661 ईस्वी का कैटभरिपु मंदिर जो उदयपुर शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर है, के अभिलेख में मिलता है। यह वही स्थान है जहां कभी मेवाड़ की पहली राजधानी नागदा बसी हुई थी। दूसरी ओर, बप्पा का सोने का सिक्का अजमेर से मिला है, जो 733 ईस्वी का माना जाता है। इसका वजन 115 ग्रेन या 65.7 रत्ती है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प अंकित है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर शिवलिंग की ओर मुख किए नंदी बैठे हैं। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ चंवर, सूर्य और छत्रा के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गऊ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं। बप्पा रावल के प्रजा संरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवतः जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बप्पा का राज्यकाल 30 साल का भी रखा जाए तो वे सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होंगे। उनसे पहले भी उस वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। जनश्रुति से यह प्रसिद्ध है कि हारित ‘राशि’ (राशि लकुलिश मठों के मठाधीशों को कहते हैं) की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। राजस्थान का इतिहास के लेखक कर्नल टॉड को यहीं पर राजा मान का वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। उदयपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर बसा नागदा एक समृद्ध नगर और बप्पा के समय गुहिलों की राजधानी था। सन् 1234-35 में ममलुक सुल्तान इल्तमश ने हमला कर इस नगर को नष्ट कर दिया। इसके बाद इसी के निकट पहाड़ी क्षेत्र में इल्तमश नागदा के शासक जेत्रासिंह से पराजित हुआ। दिल्ली लौटने पर सन् 1236 में इल्तमश का निधन हो गया। इसके बाद मेवाड़ की राजधानी स्थायी रूप से चित्तौड़ स्थानान्तरित हो गई।
अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई थी। सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों और गुर्जरों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएं छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए राजस्थान में कुछ महान विभूतियों का जन्म हुआ, जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट्ट प्रथम और बापा ने मिलकर अरबों को मेवाड़, पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया।
बप्पा का प्रसिद्ध अरब संघर्ष
जन श्रुतियों में प्रसिद्ध अरबों के आक्रमणों ने 8वीं सदी में राजस्थान की सीमाओं को रक्त से लाल करना शुरू किया तो चित्तौड़ के मोरी और नागदा के गुहिलोतों ने मिलकर तत्कालीन उत्तरापथस्वामिन और गुर्जर-प्रतिहार वंष के शासक नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में खलीफा की सेनाओं से संघर्ष किया। इनका साथ दक्षिण भारत के चालुक्यवंशी सम्राट विक्रमादित्य-2 के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी ने दिया। माना जाता है कि नागदा के बप्पा रावल ने इस युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्व किया और अरबों पर गजनी तक धावे बोले। यह सभी युद्ध 724 से 740 ईस्वी के बीच लड़े गए। इसके बाद तत्कालीन ब्राह्मणाबाद (वर्तमान करांची) को केन्द्र बनाकर भारतीय शासकों ने एक शासन व्यवस्था भी बनाई। इससे यहां पर तलवार के बल पर इस्लाम कबूल चुके क्षत्रियों को पुनः हिन्दू बनाकर मुस्लिम राजपूत वंश का गठन किया गया। इनके वंशज आज भी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में नजर आते हैं। सिंध में अरबी आक्रमण की सबसे भीषण आंधी उम्मायद खलीफा अल वालिद-1 के काल में 692-718 ईस्वी के बीच चली। इसमें सन् 712 में खलीफा के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के ब्राह्मण वंषी शासक अलोर के दाहिर सेन को पराजित कर उसकी राजधानी अलोर और फिर प्रमुख शहर ब्राह्मणाबाद पर कब्जा कर लिया। अब वह सीधे गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की सीमा पर खड़ा था।
इसके बाद खलीफा और उसके सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम के विवाद के कारण यह आक्रमण कमजोर हो गया और अरब सेनाएं आगे नहीं बढ़ सकी। आठ वर्ष बाद खलीफा अल यजीद के काल में सेनापति हाशिम के नेतृत्व में सेना फिर से गठित हुई और प्रतिहार व चालुक्य साम्राज्य की ओर बढ़ने लगी। इस बार इस क्षेत्रा के राजाओं ने एक संगठन बनाया। इसमें नागदा के शासक बप्पा रावल चित्तौड़ के मोरियों के साथ संगठन में शामिल हुए। संगठन का नेतृत्व प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम ने किया। वह अपनी राजधानी कन्नौज से भीनमाल ले आया जो सिन्ध की सीमा पर थी। अन्हिलवाड़ा से चालुक्य सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी भी संगठन में शामिल हुआ। संगठन की सेनाओं का सेनापति बप्पा रावल को चुना गया। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से प्राप्त होता है।
इसके बाद 723 ईस्वी में अल जुनैद खलीफा का प्रतिनिधि बनकर भारत आया और भारत को खिलाफत के झण्डे के नीचे लाने के अभियान ने गति पकड़ी। उसने मारवाड़ (उस समय जैसलमेर और मण्डोर अर्थात् जोधपुर) भीनमाल और अन्हिलवाड़ (गुजरात) को अपना निशाना बनाया। तब बप्पा के नेतृत्व में गठबंधन सेना भीनमाल से बढ़ी और ब्राह्मणाबाद के निकट जुनैद की सेना को हराया और आगे बढ़कर अलोर को भी जीत लिया। इसके प्रमाण हमें चचनामा से मिलते हैं। पराजित जुनैद ने कष्मीर का रास्ता पकड़ा लेकिन वहां भी उसे तत्कालीन कष्मीर के कार्कोट वंश के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ की प्रबल सेनाओं से परास्त होना पड़ा। इसका वर्णन कल्हण द्वारा लिखित कश्मीर के इतिहास राजतरंगिणी से प्राप्त होता है। इस प्रकार बप्पा के प्रबल आवेग और ललितादित्य के पराक्रम से जुनैद को सिन्धू नदी के पूर्वी तट पर शरण लेनी पड़ी और उसने वहां पर अल-मंसूर नाम से राजधानी बनाई।
ईस्वी 731 में अल-हकीम सिंध की राजधानी अल-मंसूर का गवर्नर बना कर आया। उसने आगे बढ़कर ईस्वी 736 में भीनमाल और अन्हिलवाड़ पर हमला किया। इस बार फिर बप्पा रावल के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अल-हकीम को हराया। यह हार इतनी प्रबल थी कि आने वाले 200 वर्षों तक कोई इस्लामी सेना भारत पर हमले का प्रयास नहीं कर सकी। इसका वर्णन भीनमाल के अभिलेख से मिलता है। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से भी मिलता है कि कच्छेला, सैंधव, सौराष्ट्र, कावोटक, मौर्य और गुर्जर सेनाओं ने मिलकर ताजिकों की सेना को करारी मात दी। चूंकि मौर्य उस काल में मेवाड़ के स्थापित शासक हैं, समझा जाता है कि इसलिए नागदा की सेनाएं भी सम्भवतः उनके नेतृत्व में ही आई हो और बप्पा रावल उनके सेनापति हों। दूसरी ओर नंदीपुरी (भड़ोच) के गुर्जर शासक जयभट्ट-4 के 736 ईस्वी के अभिलेख में लिखा गया है वह वल्लभी के राजा के साथ अपनी सेना लेकर ताजिकों (अरबों) से युद्ध करने गया। एक जैन प्रबंध के अनुसार भीनमाल के निकट जालौर में अपने वंष का पहला शासक नाहड़ था। उसने अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं को युद्ध में पराजित किया। नाहड़ को नागभट्ट प्रथम के रूप में स्वीकार किया गया है। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम का काल एक ही था। एक ओर गुर्जर-प्रतिहार अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे और दूसरी ओर बप्पा मेवाड़ में अपनी धाक।
बप्पा की विजयों का प्रभाव
बप्पा के विजयी अभियानों के कारण अरब-आक्रमणों में काफी कमी आई। अल-हकीम की मृत्यु के बाद अरबों के हमले भारत में और भी कम हो गए। इस प्रकार भारत पर आने वाले 300 वर्षों तक मुसलमान के शासन में आने से बचा रहा, जो कि बप्पा का ही प्रताप माना जा सकता है। इस बीच गुर्जर-प्रतिहार उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बनकर उभरे और गंगा की घाटी से सिंध तक उनका साम्राज्य फैल गया। युद्ध में सहयोग के चलते नागदा का शासन सम्भवतः स्वतंत्र रूप से बप्पा के पास रहा होगा। गुजरात में राष्ट्रकूट अपने संस्थापक दंतिदुर्ग के नेतृत्व में चालुक्यों को कमजोर करने में सफल रहे और दक्षिण की प्रबल शक्ति बनकर उभरे। लेकिन बप्पा के अभिलेख, सिक्के और साहित्य नहीं मिलने से मेवाड़ में उसके शासन के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाते हैं।
चचनाम में बप्पा
सिंध के अधिकृत इतिहास चचनामा में बप्पा का विवरण मिलता है। उसके अनुसार, राजा दाहिर की मौत के बाद देबल और उसके आस-पास के क्षेत्रा में अरब का प्रभाव स्थापित हो गया था। देबल के हिंगलाज भवानी अभिलेख में प्रमाणित होता है कि दाहिर के पुत्रा जयसेन के साथ उसकी माता रानी लाड़ी देवी चित्तौड़ मदद के लिए आई। इस पर चित्तौड़ मौर्य शासक ने अपने सेनापति बप्पा रावल को सेना के साथ मदद के लिए भेजा। उसने भारतीय राजाओं के संगठन के साथ मिलकर अरबों से 16 वर्ष तक संघर्ष किया और सिन्ध से अरबों के प्रभाव को समाप्त कर दिया। इसके बाद उसने गजनी के अरबी शासक सलीम को पराजित कर उसे संधि करने पर मजबूर किया और उसकी पुत्री माइया से विवाह किया।
गोरक्षनाथ परंपरा से आए बप्पा रावल ने भील जनजाति से भी मधुर सम्बन्ध बनाए, इसीलिए उनके दो खास सहयोगी भील जनजाति के ही थे. आज भी राजस्थान के दूरदराज इलाके के जनजाति इलाकों में भील लोग माथे पर तिलक लगाते हैं, जो बप्पा रावल की दी हुई परंपरा है. आज नाथ सम्प्रदाय के ही एक योगी को जातिवाद में गहरे धंसे उत्तरप्रदेश को एकजुट करने का अवसर मिला है, ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि गोरक्षनाथ का यह शिष्य आदित्यनाथ, मेवाड़ के योद्धा बप्पा रावल की ही तरह हिंदुओं को एकजुट करते हुए विजय के नए सोपान प्राप्त करेगा....
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साभार : विवेक भटनागर, भारतीय धरोहर
Written by :- desiCNNमेवाड़ योद्धा बप्पा रावल और आदित्यनाथ का सम्बन्ध
Written by :- desiCNN
जब से योगी आदित्यनाथ ने यूपी की कमान संभाली है, तभी से वे अचानक विश्व की प्रेस में चर्चाओं के केन्द्र बन गए हैं. मीडिया में विशेषतः योगीजी के परिवार के बारे में खोजबीन की जा रही है, साथ ही गोरक्षनाथ पीठ तथा नाथ सम्प्रदाय के बारे में भी खासे सर्च-रिसर्च चालू हो गए हैं.
भले ही योगी जी को संन्यास और दीक्षा लिए अर्थात अपनी जाति छोड़े एक अरसा हो गया, लेकिन “मीडिया के हेडलाइन भूखों” को अभी भी वे राजपूत दिखाई दे रहे हैं. बहरहाल... इस लेख में आपको एक अलग किस्म की जानकारी मिलेगी, और वह ये है कि मेवाड़ (राजस्थान) के अपराजेय योद्धा बप्पा रावल कौन हैं? और इनका योगी आदित्यनाथ के नाथ सम्प्रदाय से क्या सम्बन्ध है?
जैसा कि प्रचलित है, नाथ सम्प्रदाय “हठयोग” की एक शाखा है. इस परंपरा का पालन करने वाले संतों और योगियों ने स्थानीय भाषाओं में अपना तमाम साहित्य तैयार किया तथा इसे पूरे देश में फैलाया. इस परंपरा ने हजारों महान संत भारत भूमि को दिए हैं. यहाँ तक कि सुदूर तमिलनाडु में भी गोरखनाथ की परंपरा ने अपनी पीठ स्थापित की है, वहाँ तमिल भाषा में इन्हें “गोरक्कर” कहा जाता है. गोरक्षनाथ पीठ के साधुओं ने उन सभी राजाओं से अपने मधुर सम्बन्ध बनाए जिन्होंने अरब देशों से आने वाले आक्रमणकारियों से लोहा लिया. “एकलिंग महात्म्य” के अनुसार राजस्थान में गुहिलोत वंश (गुहा) के नौंवें शासक बप्पा रावल को जब सत्ता से बेदखल किया गया तब ये गोरक्षनाथ ही थे, जिन्होंने बप्पा रावल को एक तलवार भेंट की तथा उन्हें इस बारे में शिक्षित किया कि वे दूसरे हिन्दू राजाओं को एकत्रित करके बाहरी हमलावरों से मुकाबला करें. ग्रंथों के अनुसार गुरु गोरक्षनाथ ने बप्पा रावल से कहा कि वे और उनके वंशज “गोरख” कहे जाएँगे जिन्होंने अफगानिस्तान को इस्लामिक शासन से मुक्त किया. न केवल मेवाड़ वंश, बल्कि पाकिस्तान की रावल-पिण्डी को भी बप्पा रावल ने ही स्थापित किया था. नेपाल के जिन गोरखाओं की बहादुरी की तारीफ़ पूरी दुनिया करती है, वे भी गोरक्षनाथ परंपरा से ही हैं. कई कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि काबुल, ईरान, तूरान, बलूचिस्तान इत्यादि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ कई गोरखनाथ मंदिर स्थापित किए गए थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं. हालाँकि अधिकाँश वामपंथी इतिहासकार “बप्पा रावल” को एक काल्पनिक चरित्र मानते हैं और उनके अनुसार ऐसा कोई योद्धा हुआ ही नहीं जो उस जमाने में पश्चिम दिशा में इतनी दूर अफगानिस्तान तक गया हो. लेकिन क्या आप “बप्पा रावल” के बारे में जानते हैं?? नहीं जानते होंगे क्योंकि उन्हीं वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात आपसे छिपकर रखी थी... खैर आज संक्षेप में जान लीजिए कि बप्पा रावल कौन थे...
हमारे देश पर अरबों, मुगलों, अंग्रेजों द्वारा आक्रमण और शासन किए जाने की कहानी तो हम पढ़ते ही हैं परंतु हमें यह नहीं बताया जाता, कि इन आक्रांताओं के आक्रमण के कालखंडों में जो अंतर है, वह भारतीय योद्धाओं के विजय का काल रहा है। उदाहरण के लिए हम सभी जानते हैं कि वर्ष 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। परंतु उसके बाद सीधे बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी का आक्रमण मिलता है। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक क्या अरब आक्रमणकारी उस एक जीत का जश्न मना रहे थे? नहीं... वास्तव में इस पूरे कालखण्ड में अरब आक्रमणकारियों को भारतीय योद्धा जमकर खदेड़े हुए थे। उस कालखंड में अरबों को पराजित करने वाले ऐसे ही एक महानायक योद्धा थे, बप्पा रावल।
यह एक इतिहास है कि मेवाड़ के राजवंश गुहिलोत और उसी की शाखा सिसोदिया ने राष्ट्र रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। शौर्य और बलिदान के धराधाम मेवाड़ पर अपने अतुलनीय शौर्य से वीर रस को साकार करने वाले गुहिलोत वंश का दावा है कि वे यहां पर सातवीं सदी से शासन कर रहे हैं। आखिर इस वंश का पहला शासक कौन था? वह कहां से आया था? और उससे पहले यहां पर शासक कौन हुआ होगा? अब तक प्राप्त हुए विदीर्ण शिलालेखों और जनश्रुतियों से जो कथा या कहानी सामने आती है, वह न केवल काफी आश्चर्यजनक है, बल्कि गौरवपूर्ण और प्रेरणास्पद भी है। यह तो सभी जानते हैं कि वीर प्रसूता मेवाड़ की धरा शक्ति, भक्ति और त्याग का अनूठा संगम है। लोककथाओं में अत्यंत प्रसिद्ध बप्पा के शौर्य, राणा प्रताप के पराक्रम और धाय पन्ना के बलिदान की साक्षी यह धरती देश में नई ऊर्जा का संचार करती है। मेवाड़ राजवंश के सबसे प्रतापी शासक कुम्भकर्ण उर्फ राणा कुम्भा जिनका शासनकाल सन् 1433 से 1468 तक रहा है, के समय से यहां का इतिहासक्रम व्यवस्थित हो जाता है, लेकिन उससे पहले का इतिहास अभिलेखों और जनश्रुतियों पर आधारित है। 712 ईस्वी में जब सिंध पर अरबों का भीषण आक्रमण होता है और राजा दाहिर सेन पराजित होने से खलीफा का राज्य सिंध की घाटी पर स्थापित हो जाता है, ऐसे में तब अरब की आंधी का सीधा सामना भीनमाल और मण्डोर के गुर्जर-प्रतिहारों और मेवाड़ के मौर्य व गुहिलोतों से होता है। उस समय मेवाड़ के सैनिकों और शासकों ने देश के सीमारक्षक की भूमिका निभाई और भारतवर्ष के सम्मान की रक्षा की, अन्यथा देश इस्लाम की आंधी में नेस्तनाबूद हो जाता और सनातन धर्म जिसे आज हिन्दू कहा जाता है, वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पारसियों और यहूदियों की भांति मातृभूमि से पृथक हो चुका होता। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भला हो मेवाड़ के गुहिलोतों और भीनमाल के प्रतिहारों का, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखता है। परंतु इस पर शोध किया जाना अभी बाकी है कि जब राजस्थान की सीमा पर अरबी सेना खड़ी थी, तो मेवाड़ का सैन्य संचालन कौन कर रहा था? यहां पर शासक कौन था? स्थानीय श्रुतियों और कुछ सिक्कों के आधार पर माना गया है कि 733 ईस्वी में किसी बप्प, बप्पा, वाष्प या बोप्पक नामक गुहिलवंषी का शासन यहां पर था।
अब तक प्राप्त जानकारियों के अनुसार, बप्पा रावल, बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु यह एक प्रकार की उपाधि है। आदरसूचक ‘बापा’ शब्द भी मेवाड़ के एक कुछ विशेष राजाओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। समझा जाता है कि मेवाड़ के गुहिल वंश के बप्पा उपाधि प्राप्त राजा अपराजित ही बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों (बप्पा और अपराजित) का ही समय आस-पास का है। राजा अपराजित का वर्णन 661 ईस्वी का कैटभरिपु मंदिर जो उदयपुर शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर है, के अभिलेख में मिलता है। यह वही स्थान है जहां कभी मेवाड़ की पहली राजधानी नागदा बसी हुई थी। दूसरी ओर, बप्पा का सोने का सिक्का अजमेर से मिला है, जो 733 ईस्वी का माना जाता है। इसका वजन 115 ग्रेन या 65.7 रत्ती है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प अंकित है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर शिवलिंग की ओर मुख किए नंदी बैठे हैं। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ चंवर, सूर्य और छत्रा के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गऊ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं। बप्पा रावल के प्रजा संरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवतः जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बप्पा का राज्यकाल 30 साल का भी रखा जाए तो वे सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होंगे। उनसे पहले भी उस वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। जनश्रुति से यह प्रसिद्ध है कि हारित ‘राशि’ (राशि लकुलिश मठों के मठाधीशों को कहते हैं) की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। राजस्थान का इतिहास के लेखक कर्नल टॉड को यहीं पर राजा मान का वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। उदयपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर बसा नागदा एक समृद्ध नगर और बप्पा के समय गुहिलों की राजधानी था। सन् 1234-35 में ममलुक सुल्तान इल्तमश ने हमला कर इस नगर को नष्ट कर दिया। इसके बाद इसी के निकट पहाड़ी क्षेत्र में इल्तमश नागदा के शासक जेत्रासिंह से पराजित हुआ। दिल्ली लौटने पर सन् 1236 में इल्तमश का निधन हो गया। इसके बाद मेवाड़ की राजधानी स्थायी रूप से चित्तौड़ स्थानान्तरित हो गई।
अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई थी। सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों और गुर्जरों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएं छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए राजस्थान में कुछ महान विभूतियों का जन्म हुआ, जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट्ट प्रथम और बापा ने मिलकर अरबों को मेवाड़, पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया।
बप्पा का प्रसिद्ध अरब संघर्ष
जन श्रुतियों में प्रसिद्ध अरबों के आक्रमणों ने 8वीं सदी में राजस्थान की सीमाओं को रक्त से लाल करना शुरू किया तो चित्तौड़ के मोरी और नागदा के गुहिलोतों ने मिलकर तत्कालीन उत्तरापथस्वामिन और गुर्जर-प्रतिहार वंष के शासक नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में खलीफा की सेनाओं से संघर्ष किया। इनका साथ दक्षिण भारत के चालुक्यवंशी सम्राट विक्रमादित्य-2 के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी ने दिया। माना जाता है कि नागदा के बप्पा रावल ने इस युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्व किया और अरबों पर गजनी तक धावे बोले। यह सभी युद्ध 724 से 740 ईस्वी के बीच लड़े गए। इसके बाद तत्कालीन ब्राह्मणाबाद (वर्तमान करांची) को केन्द्र बनाकर भारतीय शासकों ने एक शासन व्यवस्था भी बनाई। इससे यहां पर तलवार के बल पर इस्लाम कबूल चुके क्षत्रियों को पुनः हिन्दू बनाकर मुस्लिम राजपूत वंश का गठन किया गया। इनके वंशज आज भी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में नजर आते हैं। सिंध में अरबी आक्रमण की सबसे भीषण आंधी उम्मायद खलीफा अल वालिद-1 के काल में 692-718 ईस्वी के बीच चली। इसमें सन् 712 में खलीफा के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के ब्राह्मण वंषी शासक अलोर के दाहिर सेन को पराजित कर उसकी राजधानी अलोर और फिर प्रमुख शहर ब्राह्मणाबाद पर कब्जा कर लिया। अब वह सीधे गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की सीमा पर खड़ा था।
इसके बाद खलीफा और उसके सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम के विवाद के कारण यह आक्रमण कमजोर हो गया और अरब सेनाएं आगे नहीं बढ़ सकी। आठ वर्ष बाद खलीफा अल यजीद के काल में सेनापति हाशिम के नेतृत्व में सेना फिर से गठित हुई और प्रतिहार व चालुक्य साम्राज्य की ओर बढ़ने लगी। इस बार इस क्षेत्रा के राजाओं ने एक संगठन बनाया। इसमें नागदा के शासक बप्पा रावल चित्तौड़ के मोरियों के साथ संगठन में शामिल हुए। संगठन का नेतृत्व प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम ने किया। वह अपनी राजधानी कन्नौज से भीनमाल ले आया जो सिन्ध की सीमा पर थी। अन्हिलवाड़ा से चालुक्य सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी भी संगठन में शामिल हुआ। संगठन की सेनाओं का सेनापति बप्पा रावल को चुना गया। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से प्राप्त होता है।
इसके बाद 723 ईस्वी में अल जुनैद खलीफा का प्रतिनिधि बनकर भारत आया और भारत को खिलाफत के झण्डे के नीचे लाने के अभियान ने गति पकड़ी। उसने मारवाड़ (उस समय जैसलमेर और मण्डोर अर्थात् जोधपुर) भीनमाल और अन्हिलवाड़ (गुजरात) को अपना निशाना बनाया। तब बप्पा के नेतृत्व में गठबंधन सेना भीनमाल से बढ़ी और ब्राह्मणाबाद के निकट जुनैद की सेना को हराया और आगे बढ़कर अलोर को भी जीत लिया। इसके प्रमाण हमें चचनामा से मिलते हैं। पराजित जुनैद ने कष्मीर का रास्ता पकड़ा लेकिन वहां भी उसे तत्कालीन कष्मीर के कार्कोट वंश के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ की प्रबल सेनाओं से परास्त होना पड़ा। इसका वर्णन कल्हण द्वारा लिखित कश्मीर के इतिहास राजतरंगिणी से प्राप्त होता है। इस प्रकार बप्पा के प्रबल आवेग और ललितादित्य के पराक्रम से जुनैद को सिन्धू नदी के पूर्वी तट पर शरण लेनी पड़ी और उसने वहां पर अल-मंसूर नाम से राजधानी बनाई।
ईस्वी 731 में अल-हकीम सिंध की राजधानी अल-मंसूर का गवर्नर बना कर आया। उसने आगे बढ़कर ईस्वी 736 में भीनमाल और अन्हिलवाड़ पर हमला किया। इस बार फिर बप्पा रावल के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अल-हकीम को हराया। यह हार इतनी प्रबल थी कि आने वाले 200 वर्षों तक कोई इस्लामी सेना भारत पर हमले का प्रयास नहीं कर सकी। इसका वर्णन भीनमाल के अभिलेख से मिलता है। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से भी मिलता है कि कच्छेला, सैंधव, सौराष्ट्र, कावोटक, मौर्य और गुर्जर सेनाओं ने मिलकर ताजिकों की सेना को करारी मात दी। चूंकि मौर्य उस काल में मेवाड़ के स्थापित शासक हैं, समझा जाता है कि इसलिए नागदा की सेनाएं भी सम्भवतः उनके नेतृत्व में ही आई हो और बप्पा रावल उनके सेनापति हों। दूसरी ओर नंदीपुरी (भड़ोच) के गुर्जर शासक जयभट्ट-4 के 736 ईस्वी के अभिलेख में लिखा गया है वह वल्लभी के राजा के साथ अपनी सेना लेकर ताजिकों (अरबों) से युद्ध करने गया। एक जैन प्रबंध के अनुसार भीनमाल के निकट जालौर में अपने वंष का पहला शासक नाहड़ था। उसने अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं को युद्ध में पराजित किया। नाहड़ को नागभट्ट प्रथम के रूप में स्वीकार किया गया है। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम का काल एक ही था। एक ओर गुर्जर-प्रतिहार अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे और दूसरी ओर बप्पा मेवाड़ में अपनी धाक।
बप्पा की विजयों का प्रभाव
बप्पा के विजयी अभियानों के कारण अरब-आक्रमणों में काफी कमी आई। अल-हकीम की मृत्यु के बाद अरबों के हमले भारत में और भी कम हो गए। इस प्रकार भारत पर आने वाले 300 वर्षों तक मुसलमान के शासन में आने से बचा रहा, जो कि बप्पा का ही प्रताप माना जा सकता है। इस बीच गुर्जर-प्रतिहार उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बनकर उभरे और गंगा की घाटी से सिंध तक उनका साम्राज्य फैल गया। युद्ध में सहयोग के चलते नागदा का शासन सम्भवतः स्वतंत्र रूप से बप्पा के पास रहा होगा। गुजरात में राष्ट्रकूट अपने संस्थापक दंतिदुर्ग के नेतृत्व में चालुक्यों को कमजोर करने में सफल रहे और दक्षिण की प्रबल शक्ति बनकर उभरे। लेकिन बप्पा के अभिलेख, सिक्के और साहित्य नहीं मिलने से मेवाड़ में उसके शासन के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाते हैं।
चचनाम में बप्पा
सिंध के अधिकृत इतिहास चचनामा में बप्पा का विवरण मिलता है। उसके अनुसार, राजा दाहिर की मौत के बाद देबल और उसके आस-पास के क्षेत्रा में अरब का प्रभाव स्थापित हो गया था। देबल के हिंगलाज भवानी अभिलेख में प्रमाणित होता है कि दाहिर के पुत्रा जयसेन के साथ उसकी माता रानी लाड़ी देवी चित्तौड़ मदद के लिए आई। इस पर चित्तौड़ मौर्य शासक ने अपने सेनापति बप्पा रावल को सेना के साथ मदद के लिए भेजा। उसने भारतीय राजाओं के संगठन के साथ मिलकर अरबों से 16 वर्ष तक संघर्ष किया और सिन्ध से अरबों के प्रभाव को समाप्त कर दिया। इसके बाद उसने गजनी के अरबी शासक सलीम को पराजित कर उसे संधि करने पर मजबूर किया और उसकी पुत्री माइया से विवाह किया।
गोरक्षनाथ परंपरा से आए बप्पा रावल ने भील जनजाति से भी मधुर सम्बन्ध बनाए, इसीलिए उनके दो खास सहयोगी भील जनजाति के ही थे. आज भी राजस्थान के दूरदराज इलाके के जनजाति इलाकों में भील लोग माथे पर तिलक लगाते हैं, जो बप्पा रावल की दी हुई परंपरा है. आज नाथ सम्प्रदाय के ही एक योगी को जातिवाद में गहरे धंसे उत्तरप्रदेश को एकजुट करने का अवसर मिला है, ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि गोरक्षनाथ का यह शिष्य आदित्यनाथ, मेवाड़ के योद्धा बप्पा रावल की ही तरह हिंदुओं को एकजुट करते हुए विजय के नए सोपान प्राप्त करेगा....
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साभार : विवेक भटनागर, भारतीय धरोहर
जब से योगी आदित्यनाथ ने यूपी की कमान संभाली है, तभी से वे अचानक विश्व की प्रेस में चर्चाओं के केन्द्र बन गए हैं. मीडिया में विशेषतः योगीजी के परिवार के बारे में खोजबीन की जा रही है, साथ ही गोरक्षनाथ पीठ तथा नाथ सम्प्रदाय के बारे में भी खासे सर्च-रिसर्च चालू हो गए हैं.
भले ही योगी जी को संन्यास और दीक्षा लिए अर्थात अपनी जाति छोड़े एक अरसा हो गया, लेकिन “मीडिया के हेडलाइन भूखों” को अभी भी वे राजपूत दिखाई दे रहे हैं. बहरहाल... इस लेख में आपको एक अलग किस्म की जानकारी मिलेगी, और वह ये है कि मेवाड़ (राजस्थान) के अपराजेय योद्धा बप्पा रावल कौन हैं? और इनका योगी आदित्यनाथ के नाथ सम्प्रदाय से क्या सम्बन्ध है?
जैसा कि प्रचलित है, नाथ सम्प्रदाय “हठयोग” की एक शाखा है. इस परंपरा का पालन करने वाले संतों और योगियों ने स्थानीय भाषाओं में अपना तमाम साहित्य तैयार किया तथा इसे पूरे देश में फैलाया. इस परंपरा ने हजारों महान संत भारत भूमि को दिए हैं. यहाँ तक कि सुदूर तमिलनाडु में भी गोरखनाथ की परंपरा ने अपनी पीठ स्थापित की है, वहाँ तमिल भाषा में इन्हें “गोरक्कर” कहा जाता है. गोरक्षनाथ पीठ के साधुओं ने उन सभी राजाओं से अपने मधुर सम्बन्ध बनाए जिन्होंने अरब देशों से आने वाले आक्रमणकारियों से लोहा लिया. “एकलिंग महात्म्य” के अनुसार राजस्थान में गुहिलोत वंश (गुहा) के नौंवें शासक बप्पा रावल को जब सत्ता से बेदखल किया गया तब ये गोरक्षनाथ ही थे, जिन्होंने बप्पा रावल को एक तलवार भेंट की तथा उन्हें इस बारे में शिक्षित किया कि वे दूसरे हिन्दू राजाओं को एकत्रित करके बाहरी हमलावरों से मुकाबला करें. ग्रंथों के अनुसार गुरु गोरक्षनाथ ने बप्पा रावल से कहा कि वे और उनके वंशज “गोरख” कहे जाएँगे जिन्होंने अफगानिस्तान को इस्लामिक शासन से मुक्त किया. न केवल मेवाड़ वंश, बल्कि पाकिस्तान की रावल-पिण्डी को भी बप्पा रावल ने ही स्थापित किया था. नेपाल के जिन गोरखाओं की बहादुरी की तारीफ़ पूरी दुनिया करती है, वे भी गोरक्षनाथ परंपरा से ही हैं. कई कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि काबुल, ईरान, तूरान, बलूचिस्तान इत्यादि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ कई गोरखनाथ मंदिर स्थापित किए गए थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं. हालाँकि अधिकाँश वामपंथी इतिहासकार “बप्पा रावल” को एक काल्पनिक चरित्र मानते हैं और उनके अनुसार ऐसा कोई योद्धा हुआ ही नहीं जो उस जमाने में पश्चिम दिशा में इतनी दूर अफगानिस्तान तक गया हो. लेकिन क्या आप “बप्पा रावल” के बारे में जानते हैं?? नहीं जानते होंगे क्योंकि उन्हीं वामपंथी इतिहासकारों ने यह बात आपसे छिपकर रखी थी... खैर आज संक्षेप में जान लीजिए कि बप्पा रावल कौन थे...
हमारे देश पर अरबों, मुगलों, अंग्रेजों द्वारा आक्रमण और शासन किए जाने की कहानी तो हम पढ़ते ही हैं परंतु हमें यह नहीं बताया जाता, कि इन आक्रांताओं के आक्रमण के कालखंडों में जो अंतर है, वह भारतीय योद्धाओं के विजय का काल रहा है। उदाहरण के लिए हम सभी जानते हैं कि वर्ष 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। परंतु उसके बाद सीधे बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी का आक्रमण मिलता है। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक क्या अरब आक्रमणकारी उस एक जीत का जश्न मना रहे थे? नहीं... वास्तव में इस पूरे कालखण्ड में अरब आक्रमणकारियों को भारतीय योद्धा जमकर खदेड़े हुए थे। उस कालखंड में अरबों को पराजित करने वाले ऐसे ही एक महानायक योद्धा थे, बप्पा रावल।
यह एक इतिहास है कि मेवाड़ के राजवंश गुहिलोत और उसी की शाखा सिसोदिया ने राष्ट्र रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्योछावर किया है। शौर्य और बलिदान के धराधाम मेवाड़ पर अपने अतुलनीय शौर्य से वीर रस को साकार करने वाले गुहिलोत वंश का दावा है कि वे यहां पर सातवीं सदी से शासन कर रहे हैं। आखिर इस वंश का पहला शासक कौन था? वह कहां से आया था? और उससे पहले यहां पर शासक कौन हुआ होगा? अब तक प्राप्त हुए विदीर्ण शिलालेखों और जनश्रुतियों से जो कथा या कहानी सामने आती है, वह न केवल काफी आश्चर्यजनक है, बल्कि गौरवपूर्ण और प्रेरणास्पद भी है। यह तो सभी जानते हैं कि वीर प्रसूता मेवाड़ की धरा शक्ति, भक्ति और त्याग का अनूठा संगम है। लोककथाओं में अत्यंत प्रसिद्ध बप्पा के शौर्य, राणा प्रताप के पराक्रम और धाय पन्ना के बलिदान की साक्षी यह धरती देश में नई ऊर्जा का संचार करती है। मेवाड़ राजवंश के सबसे प्रतापी शासक कुम्भकर्ण उर्फ राणा कुम्भा जिनका शासनकाल सन् 1433 से 1468 तक रहा है, के समय से यहां का इतिहासक्रम व्यवस्थित हो जाता है, लेकिन उससे पहले का इतिहास अभिलेखों और जनश्रुतियों पर आधारित है। 712 ईस्वी में जब सिंध पर अरबों का भीषण आक्रमण होता है और राजा दाहिर सेन पराजित होने से खलीफा का राज्य सिंध की घाटी पर स्थापित हो जाता है, ऐसे में तब अरब की आंधी का सीधा सामना भीनमाल और मण्डोर के गुर्जर-प्रतिहारों और मेवाड़ के मौर्य व गुहिलोतों से होता है। उस समय मेवाड़ के सैनिकों और शासकों ने देश के सीमारक्षक की भूमिका निभाई और भारतवर्ष के सम्मान की रक्षा की, अन्यथा देश इस्लाम की आंधी में नेस्तनाबूद हो जाता और सनातन धर्म जिसे आज हिन्दू कहा जाता है, वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पारसियों और यहूदियों की भांति मातृभूमि से पृथक हो चुका होता। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भला हो मेवाड़ के गुहिलोतों और भीनमाल के प्रतिहारों का, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखता है। परंतु इस पर शोध किया जाना अभी बाकी है कि जब राजस्थान की सीमा पर अरबी सेना खड़ी थी, तो मेवाड़ का सैन्य संचालन कौन कर रहा था? यहां पर शासक कौन था? स्थानीय श्रुतियों और कुछ सिक्कों के आधार पर माना गया है कि 733 ईस्वी में किसी बप्प, बप्पा, वाष्प या बोप्पक नामक गुहिलवंषी का शासन यहां पर था।
अब तक प्राप्त जानकारियों के अनुसार, बप्पा रावल, बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु यह एक प्रकार की उपाधि है। आदरसूचक ‘बापा’ शब्द भी मेवाड़ के एक कुछ विशेष राजाओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। समझा जाता है कि मेवाड़ के गुहिल वंश के बप्पा उपाधि प्राप्त राजा अपराजित ही बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों (बप्पा और अपराजित) का ही समय आस-पास का है। राजा अपराजित का वर्णन 661 ईस्वी का कैटभरिपु मंदिर जो उदयपुर शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर है, के अभिलेख में मिलता है। यह वही स्थान है जहां कभी मेवाड़ की पहली राजधानी नागदा बसी हुई थी। दूसरी ओर, बप्पा का सोने का सिक्का अजमेर से मिला है, जो 733 ईस्वी का माना जाता है। इसका वजन 115 ग्रेन या 65.7 रत्ती है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प अंकित है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर शिवलिंग की ओर मुख किए नंदी बैठे हैं। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ चंवर, सूर्य और छत्रा के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गऊ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं। बप्पा रावल के प्रजा संरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवतः जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 (सन् 753) दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था। यदि बप्पा का राज्यकाल 30 साल का भी रखा जाए तो वे सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठे होंगे। उनसे पहले भी उस वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था। चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था। जनश्रुति से यह प्रसिद्ध है कि हारित ‘राशि’ (राशि लकुलिश मठों के मठाधीशों को कहते हैं) की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। राजस्थान का इतिहास के लेखक कर्नल टॉड को यहीं पर राजा मान का वि. सं. 770 (सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है। उदयपुर से करीब 20 किलोमीटर दूर बसा नागदा एक समृद्ध नगर और बप्पा के समय गुहिलों की राजधानी था। सन् 1234-35 में ममलुक सुल्तान इल्तमश ने हमला कर इस नगर को नष्ट कर दिया। इसके बाद इसी के निकट पहाड़ी क्षेत्र में इल्तमश नागदा के शासक जेत्रासिंह से पराजित हुआ। दिल्ली लौटने पर सन् 1236 में इल्तमश का निधन हो गया। इसके बाद मेवाड़ की राजधानी स्थायी रूप से चित्तौड़ स्थानान्तरित हो गई।
अनुमान है कि बप्पा रावल की विशेष प्रसिद्धि अरबों से सफल युद्ध करने के कारण हुई थी। सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध को जीता। उसके बाद अरबों ने चारों ओर धावे करने शुरु किए। उन्होंने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों और गुर्जरों को हराया। मारवाड़, मालवा, मेवाड़, गुजरात आदि सब भूभागों में उनकी सेनाएं छा गईं। इस भयंकर कालाग्नि से बचाने के लिए राजस्थान में कुछ महान विभूतियों का जन्म हुआ, जिनमें विशेष रूप से प्रतिहार सम्राट् नागभट्ट प्रथम और बापा रावल के नाम उल्लेखनीय हैं। नागभट्ट प्रथम और बापा ने मिलकर अरबों को मेवाड़, पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया।
बप्पा का प्रसिद्ध अरब संघर्ष
जन श्रुतियों में प्रसिद्ध अरबों के आक्रमणों ने 8वीं सदी में राजस्थान की सीमाओं को रक्त से लाल करना शुरू किया तो चित्तौड़ के मोरी और नागदा के गुहिलोतों ने मिलकर तत्कालीन उत्तरापथस्वामिन और गुर्जर-प्रतिहार वंष के शासक नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में खलीफा की सेनाओं से संघर्ष किया। इनका साथ दक्षिण भारत के चालुक्यवंशी सम्राट विक्रमादित्य-2 के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी ने दिया। माना जाता है कि नागदा के बप्पा रावल ने इस युद्ध में भारतीय सेनाओं का नेतृत्व किया और अरबों पर गजनी तक धावे बोले। यह सभी युद्ध 724 से 740 ईस्वी के बीच लड़े गए। इसके बाद तत्कालीन ब्राह्मणाबाद (वर्तमान करांची) को केन्द्र बनाकर भारतीय शासकों ने एक शासन व्यवस्था भी बनाई। इससे यहां पर तलवार के बल पर इस्लाम कबूल चुके क्षत्रियों को पुनः हिन्दू बनाकर मुस्लिम राजपूत वंश का गठन किया गया। इनके वंशज आज भी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में नजर आते हैं। सिंध में अरबी आक्रमण की सबसे भीषण आंधी उम्मायद खलीफा अल वालिद-1 के काल में 692-718 ईस्वी के बीच चली। इसमें सन् 712 में खलीफा के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के ब्राह्मण वंषी शासक अलोर के दाहिर सेन को पराजित कर उसकी राजधानी अलोर और फिर प्रमुख शहर ब्राह्मणाबाद पर कब्जा कर लिया। अब वह सीधे गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की सीमा पर खड़ा था।
इसके बाद खलीफा और उसके सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम के विवाद के कारण यह आक्रमण कमजोर हो गया और अरब सेनाएं आगे नहीं बढ़ सकी। आठ वर्ष बाद खलीफा अल यजीद के काल में सेनापति हाशिम के नेतृत्व में सेना फिर से गठित हुई और प्रतिहार व चालुक्य साम्राज्य की ओर बढ़ने लगी। इस बार इस क्षेत्रा के राजाओं ने एक संगठन बनाया। इसमें नागदा के शासक बप्पा रावल चित्तौड़ के मोरियों के साथ संगठन में शामिल हुए। संगठन का नेतृत्व प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम ने किया। वह अपनी राजधानी कन्नौज से भीनमाल ले आया जो सिन्ध की सीमा पर थी। अन्हिलवाड़ा से चालुक्य सेनापति अवनिजनाश्रय पुलकेषी भी संगठन में शामिल हुआ। संगठन की सेनाओं का सेनापति बप्पा रावल को चुना गया। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से प्राप्त होता है।
इसके बाद 723 ईस्वी में अल जुनैद खलीफा का प्रतिनिधि बनकर भारत आया और भारत को खिलाफत के झण्डे के नीचे लाने के अभियान ने गति पकड़ी। उसने मारवाड़ (उस समय जैसलमेर और मण्डोर अर्थात् जोधपुर) भीनमाल और अन्हिलवाड़ (गुजरात) को अपना निशाना बनाया। तब बप्पा के नेतृत्व में गठबंधन सेना भीनमाल से बढ़ी और ब्राह्मणाबाद के निकट जुनैद की सेना को हराया और आगे बढ़कर अलोर को भी जीत लिया। इसके प्रमाण हमें चचनामा से मिलते हैं। पराजित जुनैद ने कष्मीर का रास्ता पकड़ा लेकिन वहां भी उसे तत्कालीन कष्मीर के कार्कोट वंश के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ की प्रबल सेनाओं से परास्त होना पड़ा। इसका वर्णन कल्हण द्वारा लिखित कश्मीर के इतिहास राजतरंगिणी से प्राप्त होता है। इस प्रकार बप्पा के प्रबल आवेग और ललितादित्य के पराक्रम से जुनैद को सिन्धू नदी के पूर्वी तट पर शरण लेनी पड़ी और उसने वहां पर अल-मंसूर नाम से राजधानी बनाई।
ईस्वी 731 में अल-हकीम सिंध की राजधानी अल-मंसूर का गवर्नर बना कर आया। उसने आगे बढ़कर ईस्वी 736 में भीनमाल और अन्हिलवाड़ पर हमला किया। इस बार फिर बप्पा रावल के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अल-हकीम को हराया। यह हार इतनी प्रबल थी कि आने वाले 200 वर्षों तक कोई इस्लामी सेना भारत पर हमले का प्रयास नहीं कर सकी। इसका वर्णन भीनमाल के अभिलेख से मिलता है। इसका प्रमाण अवनिजनाश्रय पुलकेषी के 739 ईस्वी के नवसारी अभिलेख से भी मिलता है कि कच्छेला, सैंधव, सौराष्ट्र, कावोटक, मौर्य और गुर्जर सेनाओं ने मिलकर ताजिकों की सेना को करारी मात दी। चूंकि मौर्य उस काल में मेवाड़ के स्थापित शासक हैं, समझा जाता है कि इसलिए नागदा की सेनाएं भी सम्भवतः उनके नेतृत्व में ही आई हो और बप्पा रावल उनके सेनापति हों। दूसरी ओर नंदीपुरी (भड़ोच) के गुर्जर शासक जयभट्ट-4 के 736 ईस्वी के अभिलेख में लिखा गया है वह वल्लभी के राजा के साथ अपनी सेना लेकर ताजिकों (अरबों) से युद्ध करने गया। एक जैन प्रबंध के अनुसार भीनमाल के निकट जालौर में अपने वंष का पहला शासक नाहड़ था। उसने अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं को युद्ध में पराजित किया। नाहड़ को नागभट्ट प्रथम के रूप में स्वीकार किया गया है। वह गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम का काल एक ही था। एक ओर गुर्जर-प्रतिहार अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे और दूसरी ओर बप्पा मेवाड़ में अपनी धाक।
बप्पा की विजयों का प्रभाव
बप्पा के विजयी अभियानों के कारण अरब-आक्रमणों में काफी कमी आई। अल-हकीम की मृत्यु के बाद अरबों के हमले भारत में और भी कम हो गए। इस प्रकार भारत पर आने वाले 300 वर्षों तक मुसलमान के शासन में आने से बचा रहा, जो कि बप्पा का ही प्रताप माना जा सकता है। इस बीच गुर्जर-प्रतिहार उत्तर भारत की प्रमुख शक्ति बनकर उभरे और गंगा की घाटी से सिंध तक उनका साम्राज्य फैल गया। युद्ध में सहयोग के चलते नागदा का शासन सम्भवतः स्वतंत्र रूप से बप्पा के पास रहा होगा। गुजरात में राष्ट्रकूट अपने संस्थापक दंतिदुर्ग के नेतृत्व में चालुक्यों को कमजोर करने में सफल रहे और दक्षिण की प्रबल शक्ति बनकर उभरे। लेकिन बप्पा के अभिलेख, सिक्के और साहित्य नहीं मिलने से मेवाड़ में उसके शासन के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाते हैं।
चचनाम में बप्पा
सिंध के अधिकृत इतिहास चचनामा में बप्पा का विवरण मिलता है। उसके अनुसार, राजा दाहिर की मौत के बाद देबल और उसके आस-पास के क्षेत्रा में अरब का प्रभाव स्थापित हो गया था। देबल के हिंगलाज भवानी अभिलेख में प्रमाणित होता है कि दाहिर के पुत्रा जयसेन के साथ उसकी माता रानी लाड़ी देवी चित्तौड़ मदद के लिए आई। इस पर चित्तौड़ मौर्य शासक ने अपने सेनापति बप्पा रावल को सेना के साथ मदद के लिए भेजा। उसने भारतीय राजाओं के संगठन के साथ मिलकर अरबों से 16 वर्ष तक संघर्ष किया और सिन्ध से अरबों के प्रभाव को समाप्त कर दिया। इसके बाद उसने गजनी के अरबी शासक सलीम को पराजित कर उसे संधि करने पर मजबूर किया और उसकी पुत्री माइया से विवाह किया।
गोरक्षनाथ परंपरा से आए बप्पा रावल ने भील जनजाति से भी मधुर सम्बन्ध बनाए, इसीलिए उनके दो खास सहयोगी भील जनजाति के ही थे. आज भी राजस्थान के दूरदराज इलाके के जनजाति इलाकों में भील लोग माथे पर तिलक लगाते हैं, जो बप्पा रावल की दी हुई परंपरा है. आज नाथ सम्प्रदाय के ही एक योगी को जातिवाद में गहरे धंसे उत्तरप्रदेश को एकजुट करने का अवसर मिला है, ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि गोरक्षनाथ का यह शिष्य आदित्यनाथ, मेवाड़ के योद्धा बप्पा रावल की ही तरह हिंदुओं को एकजुट करते हुए विजय के नए सोपान प्राप्त करेगा....
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साभार : विवेक भटनागर, भारतीय धरोहर
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