-----------------हमारा महान प्राचिन भारत--------------

------ गुजरात के वरिष्ट पत्रकार और विद्वान लेखक श्री गुणवंतभाई शाह का ये लेख हर हिन्दुस्तानी को पढना चाहिए । उन्होंने युरोपियनो की खाल उखाड दी है । समज लो ये एक चोर कथा है । युरोपियन चोरों ने शाहुकार भारत की चीजें कैसे चुरा ली है ये सब बताया गया है । ------

-----------------हमारा महान प्राचिन भारत--------------

-जब अंग्रेज आये तब हमारा भारत सभी क्षेत्रों में अग्रसर था ।
-चेचक के टिके लगाने की प्रक्रिया हजारों साल से चली आ रही थी ।
-भारत की अनेक चिकित्सा पध्धति अंग्रेज यहां से उठा ले गये उसमे टिके लगाने की रीत भी ले गए और अपनी खोज है ऐसे प्रचार कर दिया !
-१८८२ में जुनागढ के नावाब के खिलाफ विद्रोह पर उतरे इमानदार कादु मकरानीने ९९ किसानोका नाक काट दिया था तब उस समय के जुनागढ के चीफ मेडिकल ओफिसर त्रिभोवन शेठ और जामनगर के झंडु भट्टने अपनी विद्या से नाक सांध दिये थे । (उस समय प्लास्टिक सर्जरी जैसा कुछ नही था, झंडू भट्ट, झंडू कंपनी के मूल स्थापक थे । वो कंपनी अब बीक गयी है ।)

इस हकिकत को कोइ ठुकरा नही सकता की भारतिय प्रजा अति प्राचीन, बौध्धिक, तार्किक, सुसंस्कृत और वैज्ञनिक थी और वो विश्वगुरु थी । राज्य करनेवाली अंग्रेज और समग्र युरोपिय प्रजा को ये बात पसंद ना आये वो स्वाभाविक है, इस लिए तो मेक्स मुलर जैसे वेद पंडित से लेकर अनेक विद्वानों को भारतिय संस्कृति का विनाश का काम सौंपा गया और उन्होंने वो काम आसानिसे पार लगाया । इसमें मॅक्स मुलर नामके जर्मन इसाईने बढ चढ कर रोल अदा किआ था । सबूत तो एक भी नही पर उस के लिखे पत्रों से कुछ पता चलता है ।
   
  मेकोले और मॅक्स मुलर जैसे युरोपियनो ने हमारे इतिहास को विकृत कर दिया है, उन की खाल उखाडने वाले कुछ भारतिय विद्वान हुए उनमें एक धर्मपाल जी भी है । धर्मपाल जी ने संशोधन कर के खोज निकाला की अंग्रेज शासन से पहले भारत अनेक क्षेत्रोंमें अग्रेसर था ।
 
 वैदराज एम.एच. बारोट ने इस विषय पर अच्छा संशोधन और संकलन किया है ।

चेचक के टीके ; -
भारत में चेचक (स्मोल-पोक्स) का रोग बहुत होता रहता था । उसे रोकने के उपचार वैदों द्वारा कराये जाते थे । उन की सफलता इतनी उंची थी की खूद अंग्रेज निष्णात उसे १००% सफलता मानते थे ।
चेचक के टीके लगाने की विधि भारतमें हजारों सालसे प्रचलित थी और अंग्रेज के समय में पूर्वि राज्य जैसे बंगाल, बिहार,ओरिस्सा और दक्षिण के राज्यों में भी उस का उपयोग होता रहा है । ब्रिटन में भी इसका उपयोग होना ही चाहिए ऐसा आग्रह भरा पत्र लेडी मेरी वोर्टेल मोन्टेग्यु ने एसियाटिक सोसाईटी को लिखा था । सन १७२० में मेरी तुर्कीस्तान के राजदूत की पत्नी थी और भारतमें बंगालमें उस के पति साथ रहती थी । युरोप के लोग भारत आने के लिए डरते थे क्यों की चेचक का खौफ सब से ज्यादा था । उस लेडी के पत्र का सार था " मेरे दोनों बच्चों के लिए मैं चिंतित थी, लेकिन यहां के वैदोंने टीके नाम से प्रचलित उपचार से मेरे दोनो बच्चों को बचा लिया । मुझे लगता है, अभी ये सर्वश्रेष्ट पध्धति है और ब्रिटन को इसे सिख कर हमारे देश में उपयोग करना चाहिए । "

इस के अलावा रोबर्ट कोल्ट द्वारा डो. एम्लेवर कोल्ट को १० फरवरी १७३१ को कलकत्ता से लिखा पत्र । पत्र का हेडिन्ग था 'ओपरेशन ओफ इनोक्युलेशन ओफ ध स्मोल पोक्स ऍज परफोर्म्ड इन बेन्गाल' । उसमें मि.  कोल्ट ने बंगाल के रोगों का रिपोट दिया था ।  

प्रमुख बात है, चेचक के उपचार टीके की ।

उस लेडी ने एक और पत्रमें लिखा था " वैदों का ये समुह धन्वन्तरी संप्रदाय का माना जाता है । वो ये काम करते हैं, बांहों मे एक दाल जैसा फोडा पैदा करते हैं, उसे पकने देते हैं । कभी कपाल में छेद करते हैं ।  
बूखार ना आये तब तक ठंडे पानी से उपवास कराते हैं । जहां घाव किया है वहां उबले हुए चावल का मरहम लगाते हैं । दाल पक जाना अच्छा होता है । दाल नही निकलती है तो टीका करण अच्छा नही होता है । दाल पकती है तो कभी चेचक नही होता और दाल ना पके तो चेचक हो सकता है । घाव या दाल जल्दी पकाने के लिए वैद चेचक का पस मिलाए हुए उबले चावल लगाते हैं । ये प्रक्रिया फरवरी शुरु होते ही घर घर मे होने लगती है । एक मिशन और हेल्थ प्रोजेक्ट के रूपमें ये किया जाता है "।  
टिका लगाने के बाद तीसरे या चौथे दिन बूखार आता है । बूखार की तव्रता रोगी की क्षमता पर होता है । बूखार से पहले ठंडे पानी से स्नान कराया जाता है और गर्म दवाई भी पिलाई जाती है । भारत की जनता पर इसका श्रेष्ट परिणाम होता है । युरोपिय प्रजा के लिए थोदा कम परिणाम है ।
एप्रिल-मै तक रोग दिखाई देता है तो मैं फिर से उसका निरिक्षण करना चाहती हूं । तबतक इलाज कितना सफल है वो अभी नही बता सकती ।

तीसरा पत्र
यह पत्र डॉ.जे.झेड.होलेन्स का है, यह १७६७ में लन्डन की कोलेज ओफ फिजिशीयन्स पर लिखा थ ।
पत्र का हेडिंग था ‘एन अकाउन्ट ओफ धी मेनर ओफ इनोवेटिन्ग फोर धी स्मोल पोक्स इन धी इस्ट इन्डिज’ ।  टायटल की तरह पत्र बहुत लंबा था, संक्षेप में कुछ यह बात थी ...
- यह टिकाकरण बंगाल के ब्राह्मण-वैश्य समुह के लोग करते हैं । और इस विषय पर डॉ. सुल्ट्ज ने भी काम किया है ।
- इस विस्तार में लगभग हर सात साल में चेचक का रोग दिखाई देता है, और उसकी ऋतु फरवरी से मइ तक होती है । जून तक शांत हो जाता है ।
- ‘टिका’ के लिए वैद व्यवस्थित आयोजन करते हैं । तीन से चार के समुह में वैद फरवरी से शुरुआत करते है । इतना ही नही उसके एक महिना पहले मांस मछली मदिरा का त्याग करते हैं, क्योंकि यह दैवि प्रकोप है, वैदों को पवित्रता का ख्याल रखना पडता है । टिके ना लगाने का मतबल चेचक से मर जाना या अंधे हो जाना ।
- मेरा निरिक्षण है कि सेन्ट हेलेना द्विप के निवासीयों को चेचक नही होता है, और होता है तो भी नूकसान नही होता है, कारण है उन लोगों का मूल खूराक ।
- युनानीयों को इस रोग का पता नही था । आरब भारत से इस ज्ञान को लाए हो ऐसा लगता है वहां चेचक को ‘फोडों की माता’ (गुटिका लागूरा) नाम से जाना जाता है ।
- बंगाल में सरदी, गरमी और वर्षा ऐसी तीन ऋतुएं हैं ।
-टिके वैदा घर के बाहर बैठ कर करते हैं और कहीं भी किया जाता है, लेकिन ज्यादातर हाथ पर किया जाता है ।
-टिके के लिए एक नोकदार शस्त्र से दाल के दाने जैसे उपरी घाव किया जाता है और प्रथम ८-१० मिनिट साफ कपडे से पोंछा जाता है ।
रुई पर वनस्पति का रस, दो चार गंगाजल की बुंद डाल कर टिके के जखम पर रख दिया जाता है । लगाने के बाद एक महिना तक मांस-मच्छी, दुध घी खाना बंद कराते हैं । गन्ने का रस, चावल का पानी दिया जाता है। ( चावल पकाते समय निकलता पानी) ।
थोडा बुखार हो जाय तो डरने का कोइ कारण नही होता है ।
टिके करने वाले एक साईड के ही घर पकडते हैं, एक साईड का काम पूरा होता है तभी सामने की साईड में जाते हैं, सुबह से शाम तक काम चलता है ।
टिके के बाद लाखों में एक को ही चेचक निकलता है और वो भी कमजोर टाईप के ।
इंलेन्ड को यह प्रथा अपनानी चाहिए, अभी तक अपनायी नही है ।

याद रहे सन १७८० में ऍडवर्ड जेनर के नाम से चेचक की वेक्सीन का प्रचार हुआ था उस का मूल भरत में है ।
‘जब पश्चिम के लोग पेड की खाल पहनते थे तब भारत में ब्रेइन सर्जरी होती थी ऐसी बातें हम सुनते हैं लेकिन साबीती के साथ की गयी बात प्रसिध्ध चिकित्सक और गुजरात समाचार के कोलम लेखक एम.एच.बारोट संशोधन करने के बाद बताते हैं, ‘नये नाक से नयी दिवाली’, यह कहावत गुजरात में बहुत प्रसिध्ध है । अलग अलग रूप में भारत के अन्य राज्यों में भी है । कहावतें मजाक के अर्थ में होती है । लेकिन कहावतों के पिछे तब की सामाजिक परिस्थितियां जिम्मेदार होती है ।

भारत में नया नाक बननाते थे, उस पर भी एक कहावत है । यह कहावत १०० साल से अधिक पूरानी है । कहावत जुनागढ (गुजरत) में शुरु हुई और देश विदेश में फैल गयी।

कहावत है ‘कापे कादु अने सांधे त्रिभोवन’ ( काटता है कादु और सांधता है त्रिभोवन )
यह कहावत उन्निसवीं सदी के सातवें दशक में शुरु हुई थी और आज लगभग भूला दी गयी है । कादु (कादुबक्ष) मकराणी जुनागढ के नवाब के खिलाफ अपनी नेक के लिए विद्रोह पर उतरा थ । वो अत्यंत इमानदार था, उसकी कहानी रोचक है लेकिन यहां उसका थान नही है की बताएं । बात है सन १८८२-८४ के बीच दो साल की ।
जुनागढ के नवाब के विरुध्ध विद्रोह पर उतरे कादुने नवाब का नाक काटने के लिए उनके बडे किसानों का नाक काटना शुरु कर दिया । सतत आ रही फरियास सुनकर नवाब विचार में पड गया, ‘कादु पकडा जाए तब की बात तब, लेकिन अभी यह नाककटे जमींदारों का क्या करें?’

नवाब ने अपने चीफ मेडिकल ओफिसर त्रिभोवन सेठ को नाक के इलाज के बारे में कुछ करने के लिए विनती की । विनती इसलिए उस समय विश्व में कहीं भी नाक रिपेर करने की पध्धति नही थी । इसलिए सेठ इस के लिए कुछ उपाय करे ऐसी अपेक्षा से विनती की थी । त्रिभोवन शेठ धर्म संकट में पड गये, एक तरफ माननिय जमीनदारों की कटी नाक देखते थे दुसरी तरफ उस समय के मिडिकल सायन्स के पास उपाय में कुछ भी नही था ।

आखिर डॉ. त्रिभोवनदास ने जामनगर के राजवैद झंडू भट्ट का संपर्क किया । ( झंडू फर्मसी के मूल स्थापक ) राजवैद झंडू भट्ट जामनगर के विभा जाम ( क्रिकेटर अजय जाडेजा के पूरखें ) के प्रितिपात्र वैद थे और बहुत लोकप्रिय थे । डॉ.त्रिभोवन सेठ के भी मित्र थे । डों.सेठ ने अपने संदेश में इतनी ही विनती थी कि श्री झंडू भट्ट आयुर्वेद में से खास तो सुश्रुत सहिंता में से कोइ सर्जरी-काटछांट का कोइ उपाय हो तो बताएं ।

परिस्थिति को समज कर झंडूजी के लिए नवाब नें महाराज विभा जाम को संदेश भेजा, जरूरी हो तो दिवान को भेजने की तैयारी बतायी लेकिन उदार विभा जामने भट्टजी को अच्छे काम के लिए मदद करने की रजा दे दी । और सच में झंडूजी डॉ.त्रिभोवन की मदद करने जुनागढ आ पधारे।

वैदराज झंडू भट्टजी ने आचार सुश्रुत में बताए  ‘नासासंधानविधि’ बतायी । इतना ही नही अपनी सुजबुज से उस में से व्यवहारिक रूप से क्या क्या हो सकता है उसका मार्गदर्शन किया । और एक प्रथम सर्जरी में वो खूद हाजिर रहे ।

उसके बाद डॉ.त्रिभोवन सेठ काम पर लग गए । अत्यंत सुजबुज से खोपडी में छेद करने की विधि शुरु की । कटा हुआ नाक अगर लटक रहा हो तो उसे सांध देना और बिलकुल कट गया हो तो श्वसन चलता रहे इस तरह पीपल के पत्ते की नलिका बनाकर और आजुबाजु की चमडी इस तरह से रोल करते थे कि नाक का भाग तैयार हो जाए और नाक बराबर जुड जाए तबतक मूल स्थान से पोषण मिलता रहे ।
नही किसी को एनेस्थिया देना, चमडी को अलग करने का नही कोइ पूर्व प्रेक्टिकल ज्ञान फिर भी डॉ.त्रिभोवनदास सेठ ने अथक मेहनत से नया नाक-नासासंसाधन किया और झंडू भट्टजी का चरण स्पर्श किया । फिर तो पूछना ही क्या ? जीतने नाककटे आते रहे उनको डॉ.सेठ के पास भेज दिया जाता था और डो.सेठ उन सब को नया नाक दे देते थे । तब से कहावत बनी थी, ‘काटे कादू और सांधे त्रिभोवन”

कहा जाता है कि डॉ.त्रिभोवनदास सेठ के नाम यह ‘नासासंसाधन कर्म’ के ओपरेशन की संख्या इतनी हो गयी थी कि वो स्वयं विश्व रिकोर्ड बना हुआ है । बाद में तो किसी सर्जन को ऐसा मौका नही मिला क्यों कि उनको कोइ नाक काटनेवाला कादू नही मिला । सुना है आज भी जब रिनो प्लास्टिक सर्जरी की विश्व कोन्फरन्स होती है तब श्री त्रिभोवनदास सेठ को भावांजली दी जाती है ।

विश्व में नासासंधान दो प्रकार के हैं । (१) भारतिय नसासंधानविधि और  (२) यूनानी नसा संधान विधि।

याद रखें यूनानी मेथड भी भारतिय परंपरा की ही है । भारत से युनान गयी है।
श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युमन सैनिकों को लेकर प्रथम मिडल इस्ट गया था । तभी के संस्कृत शब्द अर्ब पर से प्रथम अर्ब और बाद में वो प्रदेश अरब कहा गया । वो स्थल अरबस्तान और वहां जाने का रास्ता जीस समुद्र से जाता था उस समुद्र का नाम अरब सागर है।

बाद में प्रद्युमन यूनान गया और वहां भारतिय परंपरा को स्थापित किया । जीस में श्री कृष्ण मुख्य है । आज भी यूनान में श्री कृष्ण की अनेक यादें हैं । इतना ही नही विश्व में प्रचलित रात के १२ बजे दिन बदलने की रीत भी भारतिय ही है ।

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