हमारे ऋषि-मुनियों ने आहार को तीन भागों में बांटा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने आहार को तीन भागों में बांटा है। राजसिक, तामसिक और सात्विक आहार। आधुनिक मैडिकल साइंस भी इस बात को स्वीकार करती है कि जैसा हम भोजन ग्रहण करते हैं, वैसा हमारे मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है और जैसा न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है उसी के अनुसार हम दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन’। अध्यात्म पथ के साधकों के लिए सात्विक आहार का विधान है।
खाना पकाते समय जो भाव बनाने वाले के मन में होते हैं वही भाव खाने में सम्माहित हो जाते हैं। फिर वही खाना जब कोई खाता है तो उसकी मनोवृति भी वैसी ही हो जाती है। तीन प्रकार का खाना होता है। एक जो घर से बाहर ढाबे, होटल या रेस्टोरैंट में खाया जाता है दूसरा जो घर पर मां या पत्नी बनाती है तीसरा जो किसी धार्मिक स्थल पर बनता है।
आज के बदलते दौर में लोग घर की बजाय बाहर के खाने को खाना पसंद करते हैं। तो कई लोगों को मजबूरी में बाहर का खाना खाना पड़ता है। घर से बाहर ढाबे, होटल या रेस्टोरैंट में खाना मिलता है वो खाना बनता है धन कमाने की कामना से इसलिए खाने वाले पर भी ऐसा ही प्रभाव पड़ता है। वो अधिक से अधिक धन कमाने की चाह रखता है।
घर पर मां या पत्नी के हाथ का बना खाना उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक होता है क्योंकि वो प्रेम से बनता है।
धार्मिक स्थल पर बना खाना भगवान को याद करके बनाया जाता है। भजन, कीर्तन और ईश आराधना करते हुए बनाए भोजन में काम, क्रोध, मद, लोभ नहीं होता। भगवान के लंगर को खाने से इंद्रियां और मन शांत रहते हैं।
खाना में जादू होता है। जब आप घर में भोजन बनाएं तो सर्वप्रथम किचन को साफ करें तत्पश्चात भजन, कीर्तन बोल कर खाना बनाएं या अपने भगवान का सिमरण करते हुए खाना बनाएं। आपके रसोई घर में जिस तरह की वाइब्रेशन होगी, खाना खानेवालों पर भी उसका वैसा ही प्रभाव पड़ेगा।
क्रोध में या अनमने मन से खाना बनाने वाले खाना खाने वाले की सेहत पर नकारात्मक असर डालते हैं। वहीं जब हम खाना बनाते हुए मन में सकारात्मक भाव लाते हैं तो पारिवारिक सदस्यों में सात्विकता का समावेश होता है।

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