स्वर्णिम_भारत_का_एक_दृश्य
सोशल मीडिया के माध्यम से आजकल गप्प और तथ्यरहित बातों को इतिहास बता कर प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसी पोस्टों में भ्रामक या अधूरे तथ्य देकर कोई बात सिद्ध की जाती है ।
दूसरी तरफ कुछ लोगों का प्रयास होता है सच्चे तथ्यों को सामने लाना, इसी क्रम में आज दो लेखकों की पोस्ट प्रस्तुत है। पहला भाग प्राचीन भारत से सम्बन्ध रखता है तो दूसरा भाग अपेक्षाकृत नवीन भारत से। पहला हिस्सा त्रिभुवन सिंह की वॉल से उड़ाया है और दूसरा भाग आनंद कुमार जी की वॉल से । इनको पढ़कर प्राचीन बैभव और नवीन तकनीक दोनों पर आपकी जानकारी बढ़ेगी ।
#स्वर्णिम_भारत_का_एक_दृश्य :
तेवेर्निर बंजारा समुदाय का वर्णन 350 साल पूर्व वर्णन किया है ।
350 साल पूर्व उसने यातायात के लिए बंजारों का वर्णन किया है जो चार तरह के होते थे जो सिर्फ एक ही वस्तु का ट्रांसपोर्ट एक स्थान से दूसरे स्थान पर करते थे, और जीवन भर सिर्फ यही व्यवसाय करते थे। इन चार वस्तुओं में ज्वार बाजरा मक्का , चावल, दलहन, और नमक को देश के अंदर और बाहर भेजने के लिए करते थे ।
एक कारवां में 10,000 से 12,000 तक बैलगाड़ियां होते थे। उनके नायकों को राजकुमार कहा जाता था जो गले में मोतियों की माला पहनते थे ।
इन बैलगाड़ियों का कारवाँ गुजरता था तो तेवेर्निर जैसे यात्रियों को कभी कभी रास्ता में पास पाने हेतु 2-2 या 3-3 दिन का इंतजार करना होता था।
कभी कभी इन कारवां के नायकों में , किसका कारवां पहले गुजरेगा , इस बात को लेकर खुनी जंग भी हो जाती थी । ऐसी स्थिति में इन नायकों को मोघल बादशाह व्यापर के सुचारु रूप से चलाने हेतु अपने पास मिलने हेतु बुलाता था और दोनों को समझाकर और भविष्य में झगड़ा न करने का आश्वासन लेकर उनको एक एक लाख रूपये और मोतियों की माला देकर विदा करता था
व्यक्तिगत रूप से बैलगाड़ी के लिए उसको 600 रुपये उस समय देने पड़े 60 दिन की यात्रा के लिए।
अनुवादक ने बताया कि इनको अब भी देखा जा सकता है लेकिन रेलवे ने इनको इस कार्य से कार्यमुक्त कर बेरोजगार कर चुका है।
Ref: Travels in India : Tevernier; P. 40-41 Volume-l
आज ये denotified caste में आते हैं।
Rajusing Ade
अब नवीन तकनीक की कुछ बात करते हैं
इतिहास के हिसाब से देखें तो 1970 के दौर में भारत में ये समझ आने लगा था कि भारत में पानी की किल्लत है | इसे सुलझाने के लिए भारत सरकार ने UNICEF से मदद ली | ए.सी. लगे कमरों में गरीबों के हितैषी, ग्रामीणों की समस्या सुलझाने बैठे | आखिर तय हुआ कि इसमें भी भारत के संविधान वाला ही नुस्खा आजमाया जाए | तो अमेरिका में इस्तेमाल होने वाले हैण्ड पंप को भारत में कॉपी कर लिया गया | काफ़ी खर्चे के बाद हैण्ड पंप तैयार हो गया और उसे लगाया गया |
कुछ ही महीने बाद जब दोबारा सर्वे करके इनके इस्तेमाल से होने वाला फायदा जांचने की कोशिश की गई तो पता चला कि सारे मूर्ख ग्रामीण तो अपने पुराने तरीकों से ही पानी निकाल रहे हैं | चिंतकों ने कारण जानना चाहा तो पता चला कि नए वाले हैण्ड पंप तो कबके खराब हो चुके | मरम्मत इतनी मुश्किल और खर्चीली कि सरकारी नल को छूता ही नहीं था | हुआ यूँ था कि अमेरिका के जिन नलों की नक़ल की गई थी वो एक परिवार दिन में मुश्किल से चार पांच बार इस्तेमाल करता था | यहाँ भारत में पूरा पूरा परिवार नल के सामने कतार में घंटों खड़ा रहता था |
विदेश से आई महंगी चीज़ को फेंके जाने की नौबत आ गई | ऐसे ही दौर में शोलापुर के किसी अनपढ़, देहाती, कमअक्ल, मिस्त्री ने उसी टूटे हैण्ड पंप को फिर से रिपेयर कर डाला | इस कामयाबी की खबर थोड़े ही समय में धुल भरे इलाकों से होती ए.सी. कमरों में भी जा पहुँची | लोग देखने आये, और इस “जुगाड़” कहे जाने वाली तकनीक से वो हैण्डपंप बनता है जिसे आप आज हर तरफ देखते हैं | ये तथाकथित “जुगाड़” सस्ता भी था, टिकाऊ भी और पिछले पचास साल से इस्तेमाल भी होता है | मजेदार चीज़ देखिये कि जिस शोलापुर हैण्ड पंप के आधार पर ये बना है उसे पेटेंट इत्यादि देना तो दूर किसी ने उसका नाम भी याद नहीं रखा |
इन्टरनेट पर ढूँढने की कोशिश की थी | लेकिन लिखित नहीं है | चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए लोग इसे भूल जायेंगे | चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए जब दल हित चिन्तक और वामी ये पूछेंगे कि बताओ भारतीय लोगों ने क्या बनाया ? कौन सा अविष्कार किया ? तो आप उसे सामने वाला हैण्ड पंप नहीं दिखा पाएंगे | सत्तर के दौर में किनकी सरकार थी ये बताने की जरुरत नहीं है | संविधान में जबरन “समाजवादी” शब्द ठूंसने वालों पर मेरी तरफ से एक गरीब की खोज को चुराने का इल्जाम भी दायर करें मी लार्ड | बाकी लिखकर ना रखने का नतीजा क्या होता है वो जब हैण्ड पंप दिखे तब याद कर लीजियेगा | लिखा हुआ ना होने के कारण उनकी मक्कारी से आपका राष्ट्रवादी जोश कैसे हारता है वो तो खैर देखने लायक हैइये है !
ना चाहने पर भी दिख जाने वाला ये मार्क टू (Mark II) हैण्ड पंप हिन्दू समाज की “समाजवादियों” से हार का हर ओर लगा हुआ स्मारक है |
आनंद कुमार
दूसरी तरफ कुछ लोगों का प्रयास होता है सच्चे तथ्यों को सामने लाना, इसी क्रम में आज दो लेखकों की पोस्ट प्रस्तुत है। पहला भाग प्राचीन भारत से सम्बन्ध रखता है तो दूसरा भाग अपेक्षाकृत नवीन भारत से। पहला हिस्सा त्रिभुवन सिंह की वॉल से उड़ाया है और दूसरा भाग आनंद कुमार जी की वॉल से । इनको पढ़कर प्राचीन बैभव और नवीन तकनीक दोनों पर आपकी जानकारी बढ़ेगी ।
#स्वर्णिम_भारत_का_एक_दृश्य :
तेवेर्निर बंजारा समुदाय का वर्णन 350 साल पूर्व वर्णन किया है ।
350 साल पूर्व उसने यातायात के लिए बंजारों का वर्णन किया है जो चार तरह के होते थे जो सिर्फ एक ही वस्तु का ट्रांसपोर्ट एक स्थान से दूसरे स्थान पर करते थे, और जीवन भर सिर्फ यही व्यवसाय करते थे। इन चार वस्तुओं में ज्वार बाजरा मक्का , चावल, दलहन, और नमक को देश के अंदर और बाहर भेजने के लिए करते थे ।
एक कारवां में 10,000 से 12,000 तक बैलगाड़ियां होते थे। उनके नायकों को राजकुमार कहा जाता था जो गले में मोतियों की माला पहनते थे ।
इन बैलगाड़ियों का कारवाँ गुजरता था तो तेवेर्निर जैसे यात्रियों को कभी कभी रास्ता में पास पाने हेतु 2-2 या 3-3 दिन का इंतजार करना होता था।
कभी कभी इन कारवां के नायकों में , किसका कारवां पहले गुजरेगा , इस बात को लेकर खुनी जंग भी हो जाती थी । ऐसी स्थिति में इन नायकों को मोघल बादशाह व्यापर के सुचारु रूप से चलाने हेतु अपने पास मिलने हेतु बुलाता था और दोनों को समझाकर और भविष्य में झगड़ा न करने का आश्वासन लेकर उनको एक एक लाख रूपये और मोतियों की माला देकर विदा करता था
व्यक्तिगत रूप से बैलगाड़ी के लिए उसको 600 रुपये उस समय देने पड़े 60 दिन की यात्रा के लिए।
अनुवादक ने बताया कि इनको अब भी देखा जा सकता है लेकिन रेलवे ने इनको इस कार्य से कार्यमुक्त कर बेरोजगार कर चुका है।
Ref: Travels in India : Tevernier; P. 40-41 Volume-l
आज ये denotified caste में आते हैं।
Rajusing Ade
अब नवीन तकनीक की कुछ बात करते हैं
इतिहास के हिसाब से देखें तो 1970 के दौर में भारत में ये समझ आने लगा था कि भारत में पानी की किल्लत है | इसे सुलझाने के लिए भारत सरकार ने UNICEF से मदद ली | ए.सी. लगे कमरों में गरीबों के हितैषी, ग्रामीणों की समस्या सुलझाने बैठे | आखिर तय हुआ कि इसमें भी भारत के संविधान वाला ही नुस्खा आजमाया जाए | तो अमेरिका में इस्तेमाल होने वाले हैण्ड पंप को भारत में कॉपी कर लिया गया | काफ़ी खर्चे के बाद हैण्ड पंप तैयार हो गया और उसे लगाया गया |
कुछ ही महीने बाद जब दोबारा सर्वे करके इनके इस्तेमाल से होने वाला फायदा जांचने की कोशिश की गई तो पता चला कि सारे मूर्ख ग्रामीण तो अपने पुराने तरीकों से ही पानी निकाल रहे हैं | चिंतकों ने कारण जानना चाहा तो पता चला कि नए वाले हैण्ड पंप तो कबके खराब हो चुके | मरम्मत इतनी मुश्किल और खर्चीली कि सरकारी नल को छूता ही नहीं था | हुआ यूँ था कि अमेरिका के जिन नलों की नक़ल की गई थी वो एक परिवार दिन में मुश्किल से चार पांच बार इस्तेमाल करता था | यहाँ भारत में पूरा पूरा परिवार नल के सामने कतार में घंटों खड़ा रहता था |
विदेश से आई महंगी चीज़ को फेंके जाने की नौबत आ गई | ऐसे ही दौर में शोलापुर के किसी अनपढ़, देहाती, कमअक्ल, मिस्त्री ने उसी टूटे हैण्ड पंप को फिर से रिपेयर कर डाला | इस कामयाबी की खबर थोड़े ही समय में धुल भरे इलाकों से होती ए.सी. कमरों में भी जा पहुँची | लोग देखने आये, और इस “जुगाड़” कहे जाने वाली तकनीक से वो हैण्डपंप बनता है जिसे आप आज हर तरफ देखते हैं | ये तथाकथित “जुगाड़” सस्ता भी था, टिकाऊ भी और पिछले पचास साल से इस्तेमाल भी होता है | मजेदार चीज़ देखिये कि जिस शोलापुर हैण्ड पंप के आधार पर ये बना है उसे पेटेंट इत्यादि देना तो दूर किसी ने उसका नाम भी याद नहीं रखा |
इन्टरनेट पर ढूँढने की कोशिश की थी | लेकिन लिखित नहीं है | चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए लोग इसे भूल जायेंगे | चूँकि ये लिखा हुआ नहीं है इसलिए जब दल हित चिन्तक और वामी ये पूछेंगे कि बताओ भारतीय लोगों ने क्या बनाया ? कौन सा अविष्कार किया ? तो आप उसे सामने वाला हैण्ड पंप नहीं दिखा पाएंगे | सत्तर के दौर में किनकी सरकार थी ये बताने की जरुरत नहीं है | संविधान में जबरन “समाजवादी” शब्द ठूंसने वालों पर मेरी तरफ से एक गरीब की खोज को चुराने का इल्जाम भी दायर करें मी लार्ड | बाकी लिखकर ना रखने का नतीजा क्या होता है वो जब हैण्ड पंप दिखे तब याद कर लीजियेगा | लिखा हुआ ना होने के कारण उनकी मक्कारी से आपका राष्ट्रवादी जोश कैसे हारता है वो तो खैर देखने लायक हैइये है !
ना चाहने पर भी दिख जाने वाला ये मार्क टू (Mark II) हैण्ड पंप हिन्दू समाज की “समाजवादियों” से हार का हर ओर लगा हुआ स्मारक है |
आनंद कुमार
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