आत्म निर्माण की ओर


👉 आत्म निर्माण की ओर (भाग 3)

 सुनील कुमार!

👉 आत्म निर्माण की ओर (भाग3)

🔵 यदि तुम्हें किसी व्यक्ति का व्यवहार संकीर्ण मालूम पड़े और तुम उसका तिरस्कार करना चाहो तो पहले विचार कर लो- तुममें उसका तिरस्कार करने की प्रेरणा क्यों हो रही हैउसमें जो संकीर्णता और बुराई हैक्या वह हममें नहीं है? यदि हममें भी वही बात है तो पहले स्वयं आत्मशुद्धि की आवश्यकता है तभी दूसरे पर दोष लगाने का अधिकार होगा। जब तक तुममें वही बुराई है तब तक तुम दोनों बराबरी की श्रेणी में हो। यदि तुममें वह संकीर्णता और बुराई नहीं है तो तुम शुद्ध हो परन्तु उसका तिरस्कार करने से तुममें हीनता आ जायगी। उसको शुद्ध करो। फूल मिट्टी में पड़ कर उसे भी सुगंधित कर देता है। उसे मत कहो,तुम निकृष्ट और नीच होदुष्ट बेईमान हो।” वरन् उसे इन शब्दों की कल्पना ही न होने दो। उससे महानता और ईमानदारी की बात करो। 🔴 अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया”, “अमुक बात अब तक नहीं हुई”, “अमुक कार्य हो जाय तब हम दूसरा काम करें”, “ऐसा हो जाता हो हम भी ऐसा करते”इत्यादि बातें आलसी व्यक्ति किया करते हैं। जो कुछ तुम्हें करना है उसके लिए दूसरी भूमिकाओं पर ठहरने की क्या आवश्यकता?भूतकाल की अपूर्णताओं पर कुढ़ते रहने की अपेक्षा वर्तमान को पूर्ण कर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। भूतकाल की घटना तो  मुर्दा हो गयीउसकी कब्र खोदकर हड्डियाँ निकालने से क्या लाभचेतन तत्व का आविष्कार करो जिससे तुम्हारा और संसार का निर्माण हो।🔵 जब तुम किसी व्यक्ति के व्यवहार में संकीर्णता पाओकिसी से किसी की चुगली सुनो तो उसके अनुसार कोई काम मत कर डालो और न वह बात लोगों में जाहिर करो। इससे तो वह दुर्गुण फैलता है- दुर्गंध की भाँति और सब सुनने देखने वालों के मन को दूषित करता है। इसके बदले उस दुर्गुण को कम करो। दुर्गुण की चर्चा करने से दिन दूना रात चौगुना बढ़ता है। रोग तो औषधि से शान्त होता हैगरम लोहे को ठण्डा लोहा काटता है। आग पानी से बुझती है। क्रोध नम्रता से शान्त होता है। अतः दुर्गुण से दुर्गुण उसी प्रकार बढ़ता है जैसे क्रोधी व्यक्ति से क्रोधपूर्ण बर्ताव करने से और आग में आग डालने के समान होता है। अतएव दुर्गुण की औषधि है सद्गुण।🌹 क्रमशः जारी🌹 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948पृष्ठ 24

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/August.24



👉 मरम्मत करो !
🔴 एक साधक ने श्री रामकृष्णदेव से पूछा कि : “महाशयमै इतना प्रभु नाम लेता हूँधर्म चर्चा करता हूँचिंतन-मनन करता हूँफिर भी समय-समय पर मेरे मन में कुभाव क्यों उठते है?”

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