“चंडी पाठ”
“चंडी पाठ” के अंतिम हिस्सों में आद्या शक्ति के पुनः प्रादुर्भाव और मनुष्यों एवं देवताओं पर उनकी कृपा की चर्चा आती है। हिरण्याक्ष नामक राक्षस के वंश में रुरु नाम के असुर का पुत्र दुर्गमासुर था। उसने वर्षों की कठिन तपस्या करके ब्रह्मा से वर में चारों वेद मांग लिए। कहते हैं कि वर के प्रभाव से जब वेद दुर्गमासुर के पास चले गए तो ऋषि-मुनि वेदों के बिना यज्ञ नहीं कर पाते थे। देवताओं के यज्ञ भाग से विहीन होने पर वर्षा बंद हो गयी और लोग अकालग्रस्त हो गए।
ऐसे में देवताओं ने पूरे भुवन की स्वामिनी, देवी भुवनेश्वरी की उपासना की और देवी अपने शताक्षी रूप में प्रकट हुईं। जनता की दुर्दशा देखकर उनके सौ नेत्रों से आंसू बहने लगे और मान्यता है कि उनके रोते रहने के कारण नौ दिनों तक वर्षा होती रही। मनुष्यों के पास खाने पीने की वस्तुओं की कमी न हो इसलिए देवी शाकम्भरी रूप में भी प्रकट हुईं। संभवतः नवरात्र में शाकाहार की परम्परा आद्या शक्ति के इसी शाकम्भरी रूप के कारण है।
देवी के नामों को देखने पर एक और भी चीज़ ध्यान में आती है। देवी जिन राक्षसों का वध करती हैं, उनका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुरमर्दिनी कहने के लिए महिषासुर कहना होगा, दुर्गा कहने पर दुर्ग नाम आ जाता है, चंड-मुंड के वध के कारण चामुंडा नाम होता है। पापनाशिनी की शक्ति यहाँ दिखती है। देवी के अस्त्र-शस्त्रों से जो छू गया उसके पाप कहाँ बचे होंगे? कुछ ऐसे ही कारणों से वैष्णो देवी जाने पर भी ऊपर भैरव मंदिर तक जाकर पूजा की जाती है। सनातनी उसे दुत्कारते नहीं।
भुवनेश्वरी सुनने पर ये भी ध्यान आ जायेगा कि इनके ही नाम पर तो भुवनेश्वर शहर का नाम है। ऐसा सिर्फ एक शहर के साथ हो रहा है ये भी मत सोचिये। चंडीगढ़ देवी चंडी के नाम पर, मुम्बई का नाम मुम्बा देवी के कारण, त्रिपुरा का नाम त्रिपुर सुंदरी के नाम पर है। पटना की नगर देवी पाटन देवी हैं, अम्बाला का नाम अम्बा से आता है, कश्मीर के श्रीनगर का नाम श्री यानी लक्ष्मी देवी के नाम पर है। मीरजा का मतलब समुद्र से जन्म लेने वाली यानि लक्ष्मी, उत्तरप्रदेश का मीरजापुर असल में मिर्ज़ापुर भी नहीं है।
कर्णाटक के हसन का नाम हस्सनाम्बे के नाम पर है। भारत भर के ऐसे नामों की एक सूची इंडिया टेल्स की वेबसाइट पर मिल जाएगी जो उन्होंने पिछले साल लगाईं थी। ये भी सोचिये कि विविधता में एकता भारत का परिचय है क्या? इन सभी जगहों पर देवी की उपासना पद्दति अलग अलग है। एक की प्रक्रिया दूसरे से बिलकुल अलग हो सकती है। इन विविधताओं को हम बर्दाश्त (टोलरेट) नहीं करते, उनके प्रति सहिष्णुता नहीं दिखाते, बल्कि उन सब का सम्मान करते हैं।
हमारी संस्कृति के दस किस्म के परिधान हो सकते हैं, साड़ी ही कई तरीके से पहनी जा सकती है। वो सबको एक ही बोरे में घुसकर बंद कर देना चाहते हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद (कल्चरल इम्पेरिअलिस्म) किसी भी किस्म की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए उन्हें सबरीमाला, शनि मंदिर या ब्रह्मा के मंदिरों में एक सी पूजा पद्दति चाहिए। कल को वो ये भी कह सकते हैं कि नौ बालिकाओं के कन्या-पूजन में पुरुषों का अधिकार छिनता है इसलिए पांच कन्याओं के साथ चार बालकों की भी पूजा करो!
निशाना एक ही हो तो उसपर प्रहार करना आसान हो जाता है। इस वजह से वो सह्लेश पूजा, सामा-चकेवा जैसी परम्पराओं को ओछा बताएँगे। वो ये भी कहने की कोशिश करेंगे कि दुर्गा पूजा की यही एक पद्दति होनी चाहिए। वो कहेंगे कि मध्यम मार्ग के अलावा सभी तंत्रोक्त रीतियाँ गलत या निम्न है। वो ये भी कहेंगे कि शाकाहारी उत्तम है, मांसाहारी लोग ये पूजा नहीं कर सकते, जबकि ये सोचना भी शुद्ध मूर्खता है। वो नहीं चाहते कि संविधान के मुताबिक अलग-अलग तरीकों से पूजा करने की छूट जारी रहे।
वो भारत के संविधान के भी शत्रु हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवादियों के हमले के बदलते रूपों को पहचाना आपकी जिम्मेदारी है। कोई दस महाविद्याओं की उपासना करता है, या कोई तीन महादेवियों की पूजा करता है, कौन देवी के नौ रूपों की साधना में लीन है, ये उसकी निजी स्वतंत्रता है। मजहब-रिलिजन के सामुदायिक मजबूरियों की धर्म वाली निजी स्वतंत्रता में कोई जगह नहीं। हाल में हेगल के सिद्धांतों की नक़ल से बने मार्क्स की आयातित विचारधारा वाले मजहब के अलग-अलग वाद या फिरकों जैसा धर्म में सबको एक जैसा करने की मजबूरी भी यहाँ नहीं होनी चाहिए।
बाकि सबरीमाला की ही तरह प्रतिरोध जारी रखिये। ध्यान रहे कि हमलावरों ने जब जिस देश पर आक्रमण किया, वहां की सभ्यता संस्कृति को नष्ट करके वहां स्वयं को स्थापित कर लिया। सनातनी परम्पराएं इन आक्रमणकारियों का सबसे लम्बे समय तक (हज़ार वर्षों से ज्यादा) सामना करने वाली परम्परा है। प्रतिरोध की सबसे लम्बी परम्परा की एक कड़ी होने के नाते आपकी जिम्मेदारी होती है कि इसे एक पीढ़ी आगे बढ़ाएं। आपके मन के विचार, आपके शारीरिक कर्म, आपके वचन के एक भी शब्द से उनकी सहायता तो नहीं हुई न? जागृत रहिये!
#नवरात्र
#शारदीयनवरात्र
नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । ये पर्व साल में चार बार आता है। पोष, चैत्र, आषाढ और अश्विन प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महालक्ष्मी, महासरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।
चैत्र नवरात्र में दिन बड़े होने लगते हैं और रात्रि घटती है | आज जब ये शुरू होगा तो कई लोग उपवास रखेंगे, पूजा पाठ भी करेंगे | एक नयी परिपाटी जो धीरे धीरे बढती दिखती है वो है दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों में इस दौरान होने वाले “जगराते” | इसमें मोहल्ले के कई लोग बैठकर रात भर भजन गा रहे होते हैं | माइक, जोरदार लाउडस्पीकर, भजन गाने वाली मण्डली और भीड़ का पूरा इंतजाम होता है |
इस तरह से वो खुद तो नहीं ही सोते, दूसरों को भी नहीं सोने देते | काफी बददुआएं बटोरने में कामयाब हो जाते होंगे इस तरीके से |
जब भी मुझे ऐसे “जगराते” की आवाज़ सुनाई देती है, दो छोटे बच्चों की कहानी याद आ जाती है जिसमे एक लड़का और एक लड़की खेल रहे होते हैं | लड़के के पास ढेर सारे कंचे होते हैं और लड़की के पास बहुत सी टॉफ़ी होती है | खेल खेल में दोनों को अपनी अपनी चीज़ें अदला बदली करने की सूझती है | लड़का कहता है की अपने सारे कंचे वो सारी टॉफ़ी के बदले में दे देगा | लड़की को रंगीन चमकते कंचे अच्छे लगते थे, वो राज़ी हो जाती है |
अपनी सारी टॉफ़ी वो लड़के को दे देती है | लड़के को मगर बेईमानी सूझी, वो अपना सबसे प्यारा एक कंचा छुपा लेता है | शाम हुई खेलने का वक्त ख़त्म हुआ तो दोनों घर लौट आये | लड़की तो थोड़ी देर कंचो से खेलकर सो गई | मगर लड़का इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा की जैसे मैंने एक कंचा बचा लिया है, लड़की ने पता नहीं कितनी टोफियाँ बचाई होंगी ?
जब आप बेईमानी करते हैं तो सबसे पहले नींद आनी बंद हो जायेगी |
शारदीय नवरात्र के बीतने का मतलब दीपावली लगभग आ गयी है। एक रिलिजन के कुछ फिरकों में 13 की संख्या, या ख़ास तौर पर तेरह की तारिख अगर शुक्रवार को हो तो और ज्यादा अशुभ मानने का अन्धविश्वास चलता है। सनातन धर्म में अमावस्या या किसी दूसरी तिथि को अशुभ मानने जैसा कोई प्रावधान नहीं होता। ये इसमें भी दिखता है कि दीपावली अमावस्या की तिथि को ही मनाई जाती है और इसी दिन गल्ले पर नए बहीखातों की शुरुआत होती है।
अब जब नए बहीखाते बदलने का समय आया तो
कई साल पहले की बात है, शायद दस-पंद्रह साल बीत गए होंगे, जब एक मित्र के मामा श्री आते तो उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। अब ये मामा जी अपने संस्कृत की जानकारी, कर्म-कांडों के ज्ञान के लिए तो जाने ही जाते थे, साथ ही अपने मुंहफट होने के लिए भी काफी विख्यात थे। जाहिर है हम लोगों को उनके आस पास होने पर बड़ा मजा आता था। कोई ना कोई ऐसा “वन लाइनर” वो दागते ही जिसे हम लोग अगले चार छह महीने (उनसे दोबारा भेंट होने तक) लोगों पर चिपका पाते थे।
तो एक बार हुआ यूँ की कई वयोवृद्ध सज्जन उनके साथ बैठे कुछ शब्दों को एक साथ जोड़कर लिखने या अन्वयार्थ रूप में लिखने पर चर्चा कर रहे थे। वहां एक दो समाजवादी किस्म के वृद्ध भी थे। थोड़ी थोड़ी देर में वो संस्कृत और शब्दों के बारे में कहते, अरे व्याकरण कैसा ? ऐसे के बदले वैसे लिख दें तो क्या होगा। वहां मौजूद लोग अनदेखा कर रहे थे। सही उच्चारण और उचित वर्तनी पर अड़े मामा जी भी ध्यान दिए बिना सुधार करवाए जा रहे थे।
आखिर नेता जी ने कहना शुरू किया, “अरे उच्चारण से कुछ नहीं होता ! कुछ ना ही बोले मन ही मन पढ़ ले तो क्या हो जाएगा?” आदत के विपरीत, काफी देर से शांत बैठे मामाजी मुड़े और बड़े शांत भाव में चू*&^ से शुरू करते हुए मादर*&^% तक की बीस पच्चीस गालियाँ उन्हें सुना डाली ! भड़क कर खड़े हो गए सज्जन से फिर कहा, ये सारी गालियाँ जब इतने लोग मन ही मन आपको दे रहे थे तो फर्क पड़ा था क्या ? मेरे उच्चारण कर देने से क्या असर हुआ देख लिया ना ?
उच्चारण का असर होता है। नवरात्री की पूजा दस महाविद्या की भी पूजा होती है, और उनसे प्राप्त होने वाली सबसे शुरूआती सिद्धियों में से एक वाक् सिद्धि होती है। बोलकर पढ़ने के लिए आपको ज्यादा कोशिश करनी होगी। ध्यान भंग होते ही आपका बोलना रुकेगा, तो कंसंट्रेशन भी बेहतर रहेगा। इस वजह से बच्चे जब छोटे होते हैं, ज्यादा चंचल होते हैं तो उन्हें बोल-बोल कर पढ़ना सिखाया जाता है। बाद में अभ्यास होने पर बंद भी कर सकते हैं। वाक् सिद्धि का मतलब मुझे पता नहीं। इस से आपका कहा सच होने लगेगा, या ये उच्चारण की शुद्धि और हकलाने या तुतलाने जैसी समस्याओं का निवारण है वो आप कर के देखिये।
बाकी उच्चारण से जो समस्याएँ हो रही हैं, उसमें से एक ये है कि थोड़ा उकसाए जाते ही लगता है इस बार कई लोगों ने पाठ करना शुरू कर दिया है। उसकी ऑडियो रिकॉर्डिंग भी व्हाट्स-एप्प से भेजी जा रही है। पांच-दस एम.बी. की ऐसी फाइल्स से मेरे फोन की मेमोरी दो दिन में भर गई है, अब सबको डिलीट करना पड़ रहा है ! मगर खैर कई लोग प्रयास कर रहे हैं ये सुनना अच्छा लगता है, लगे रहिये..
महाविद्या तारा
खूब तल-भुनकर बहुत अच्छा, स्वादिष्ट खाना भी बनाया हो तो भी उसे दो-तीन महीने के बच्चे को नहीं खिला देते। तंत्र के साथ भी ऐसा ही है, सबसे हजम नहीं होता, जबरन ठूंसने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसे कुछ ऐसे भी समझ सकते हैं कि कुत्ते-बिल्ली जैसे किसी जानवर से अगर बच्चा डरता हो तो उसे देखते ही वो मम्मी चिल्लाता माँ के पास भागेगा। जो मम्मी बच्चे के लिए प्यारी से होती है वही उस कुत्ते-बिल्ली के लिए भयावह हो जाती है क्या ? ये उतना मुश्किल सवाल नहीं है, मामूली सा एक्सपेरिमेंट कीजिये।
अपने बच्चों को दुलारती किसी निरीह दिखती बिल्ली के बच्चे को उठा लेने की कोशिश कीजियेगा, जवाब समझ आ जाएगा। तंत्र या वामाचार मुश्किल है क्योंकि इसमें कई पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। जैसे देवी तारा की उपासना में महाशंख की माला का प्रयोग होता है। इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल और शालिग्राम से कभी नहीं करना चाहिये। थोड़े समय पहले तक भारत के घरों में आंगन, सामने की सड़क को गोबर से लीपने की परंपरा थी। तुलसी घर में होगी ही। गंगाजल छिडके जाने और शालिग्राम की भी कई जगह संभावना रहती है। यानि तकनिकी मजबूरियों की वजह से तांत्रिक किसी गृहस्थ के घर में प्रवेश भी नहीं कर सकता।
देवी तारा, दस महाविद्याओं में से दूसरी होती है, उन्हें नीलसरस्वती, उग्रतारा, कामख्या आदि नामों से भी जाना जाता है। आदिशक्ति के इस स्वरुप की उपासना कौल तंत्र और बौद्ध वज्रायण में भी की जाती है। कम प्रचलित वाली कथाओं के हिसाब से एक बार जब देवताओं को शुम्भ और निशुम्भ ने पराजित कर के अमरावती से भगा दिया तो हिमालय पर वो देवी दुर्गा की उपासना कर रहे थे। उसी समय वहां मातंग ऋषि की पत्नी मातंगी आयीं। उन्होंने जब देवताओं से पूछा कि आप किसकी उपासना कर रहे हैं ?
देवताओं ने जवाब देने की कोशिश की, वो सही जवाब दे नहीं पाए। आखिर महासरस्वती मातंगी के शरीर से प्रकट हुई। सरस्वती जो मातंगी के शरीर से अलग हो गई थी, वो आठ भुजाओं वाली देवी गौर वर्ण कौशिकी थी। उनके अलग होने पर मातंगी का शरीर काला पड़ गया था और वो कालिका-उग्रतारा नाम की देवी हुई। तंत्र में सांध्यवंदना तारा को अर्पित होती है, सुबह की एकजाता, दोपहर की नीलसरस्वती, और संध्या की कामख्या के रूप को अर्पित होती है। तांत्रिक के हिसाब से शमशान वो जगह है जहाँ पञ्च तत्व, महाभूत’ या देह में विद्यमान स्थूल तत्त्व, चिद्-ब्रह्म में विलीन होते हैं।
तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान, विकार रहित हृदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। जहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि विकारों या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं। मन या हृदय भी वह श्मशान हैं, जहाँ इन समस्त विकारों का दाह होता हैं। अतः देवी काली-तारा अपने उपासकों के विकार शून्य हृदय पर ही वास करती हैं।
रुद्र्यामाला तंत्र के मुताबिक प्रजापति ब्रह्मा की आज्ञा से वसिष्ठ मुनि ने प्रागज्योतिषपुर में अपना आश्रम बनाया और कामख्या शक्ति पीठ के पास देवी तारा की मन्त्र साधना शुरू की। काफी लम्बे, बरसों के प्रयास के बाद भी जब मन्त्र सिद्ध नहीं हुआ, देवी भी प्रकट नहीं हुई। तो खीज कर वसिष्ठ मन्त्र को ही शापित करने चले, इतने में पार्वती अपने वज्रयोगिनी स्वरुप में वसिष्ठ के सामने आई और उनसे महाचीन जाकर साधना सीखने कहा। देवी की सलाह से जब वसिष्ठ बुद्ध के पास पहुंचे तो विष्णु अवतार को पंचमकार में लिप्त देखकर वो घृणा से भर उठे।
लेकिन वशिष्ठ को पंचमकार का अर्थ समझाते हुए वाम साधना में बुद्ध ने दीक्षित किया। लौटने पर द्वारक नदी के किनारे एक शमशान चुनकर वसिष्ठ ने साधना दोबारा की और देवी तारा सद्योजात शिव के साथ प्रकट हुई और वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। जिस स्थान पर वशिष्ठ ने ये उपासना की थी, वो जगह अब बीरभूम (बंगाल) में है। यहाँ के मंदिर में देवी तारा अपने आदिरूप में हैं जिसे चार भुजाओं वाले एक चांदी के उग्रतारा के आवरण से ढक कर रखा जाता है। इसे सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त में देख सकते हैं।
देवी के तारा स्वरुप के भैरव का नाम अक्षोभ्य है। वो प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी होती हैं, यानी योद्धाओं की तरह बायाँ पैर आगे शिव के अचेतन स्वरुप पर। देवी का वाहन गीदड़ या शव होता है। द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से साधक ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें ताराणी भी कहा जाता हैं। वशिष्ठ मुनि ने सबसे पहले देवी तारा कि आराधना की थी, इसलिए देवी ’वशिष्ठाराधिता’ के नाम से भी जानी जाती हैं।
देवी तारा ज्ञान और मोक्ष की देवी हैं, जितनी हिन्दुओं के लिए उपास्य हैं, उतनी ही बौद्ध तंत्र में भी उनकी मान्यता है। हाँ, फिर से याद दिला दें, गरिष्ठ भोजन मजबूत हाजमे वालों के लिए होता है, बच्चों के लिए नहीं।
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आनंद कुमार
ऐसे में देवताओं ने पूरे भुवन की स्वामिनी, देवी भुवनेश्वरी की उपासना की और देवी अपने शताक्षी रूप में प्रकट हुईं। जनता की दुर्दशा देखकर उनके सौ नेत्रों से आंसू बहने लगे और मान्यता है कि उनके रोते रहने के कारण नौ दिनों तक वर्षा होती रही। मनुष्यों के पास खाने पीने की वस्तुओं की कमी न हो इसलिए देवी शाकम्भरी रूप में भी प्रकट हुईं। संभवतः नवरात्र में शाकाहार की परम्परा आद्या शक्ति के इसी शाकम्भरी रूप के कारण है।
देवी के नामों को देखने पर एक और भी चीज़ ध्यान में आती है। देवी जिन राक्षसों का वध करती हैं, उनका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुरमर्दिनी कहने के लिए महिषासुर कहना होगा, दुर्गा कहने पर दुर्ग नाम आ जाता है, चंड-मुंड के वध के कारण चामुंडा नाम होता है। पापनाशिनी की शक्ति यहाँ दिखती है। देवी के अस्त्र-शस्त्रों से जो छू गया उसके पाप कहाँ बचे होंगे? कुछ ऐसे ही कारणों से वैष्णो देवी जाने पर भी ऊपर भैरव मंदिर तक जाकर पूजा की जाती है। सनातनी उसे दुत्कारते नहीं।
भुवनेश्वरी सुनने पर ये भी ध्यान आ जायेगा कि इनके ही नाम पर तो भुवनेश्वर शहर का नाम है। ऐसा सिर्फ एक शहर के साथ हो रहा है ये भी मत सोचिये। चंडीगढ़ देवी चंडी के नाम पर, मुम्बई का नाम मुम्बा देवी के कारण, त्रिपुरा का नाम त्रिपुर सुंदरी के नाम पर है। पटना की नगर देवी पाटन देवी हैं, अम्बाला का नाम अम्बा से आता है, कश्मीर के श्रीनगर का नाम श्री यानी लक्ष्मी देवी के नाम पर है। मीरजा का मतलब समुद्र से जन्म लेने वाली यानि लक्ष्मी, उत्तरप्रदेश का मीरजापुर असल में मिर्ज़ापुर भी नहीं है।
कर्णाटक के हसन का नाम हस्सनाम्बे के नाम पर है। भारत भर के ऐसे नामों की एक सूची इंडिया टेल्स की वेबसाइट पर मिल जाएगी जो उन्होंने पिछले साल लगाईं थी। ये भी सोचिये कि विविधता में एकता भारत का परिचय है क्या? इन सभी जगहों पर देवी की उपासना पद्दति अलग अलग है। एक की प्रक्रिया दूसरे से बिलकुल अलग हो सकती है। इन विविधताओं को हम बर्दाश्त (टोलरेट) नहीं करते, उनके प्रति सहिष्णुता नहीं दिखाते, बल्कि उन सब का सम्मान करते हैं।
हमारी संस्कृति के दस किस्म के परिधान हो सकते हैं, साड़ी ही कई तरीके से पहनी जा सकती है। वो सबको एक ही बोरे में घुसकर बंद कर देना चाहते हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद (कल्चरल इम्पेरिअलिस्म) किसी भी किस्म की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए उन्हें सबरीमाला, शनि मंदिर या ब्रह्मा के मंदिरों में एक सी पूजा पद्दति चाहिए। कल को वो ये भी कह सकते हैं कि नौ बालिकाओं के कन्या-पूजन में पुरुषों का अधिकार छिनता है इसलिए पांच कन्याओं के साथ चार बालकों की भी पूजा करो!
निशाना एक ही हो तो उसपर प्रहार करना आसान हो जाता है। इस वजह से वो सह्लेश पूजा, सामा-चकेवा जैसी परम्पराओं को ओछा बताएँगे। वो ये भी कहने की कोशिश करेंगे कि दुर्गा पूजा की यही एक पद्दति होनी चाहिए। वो कहेंगे कि मध्यम मार्ग के अलावा सभी तंत्रोक्त रीतियाँ गलत या निम्न है। वो ये भी कहेंगे कि शाकाहारी उत्तम है, मांसाहारी लोग ये पूजा नहीं कर सकते, जबकि ये सोचना भी शुद्ध मूर्खता है। वो नहीं चाहते कि संविधान के मुताबिक अलग-अलग तरीकों से पूजा करने की छूट जारी रहे।
वो भारत के संविधान के भी शत्रु हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवादियों के हमले के बदलते रूपों को पहचाना आपकी जिम्मेदारी है। कोई दस महाविद्याओं की उपासना करता है, या कोई तीन महादेवियों की पूजा करता है, कौन देवी के नौ रूपों की साधना में लीन है, ये उसकी निजी स्वतंत्रता है। मजहब-रिलिजन के सामुदायिक मजबूरियों की धर्म वाली निजी स्वतंत्रता में कोई जगह नहीं। हाल में हेगल के सिद्धांतों की नक़ल से बने मार्क्स की आयातित विचारधारा वाले मजहब के अलग-अलग वाद या फिरकों जैसा धर्म में सबको एक जैसा करने की मजबूरी भी यहाँ नहीं होनी चाहिए।
बाकि सबरीमाला की ही तरह प्रतिरोध जारी रखिये। ध्यान रहे कि हमलावरों ने जब जिस देश पर आक्रमण किया, वहां की सभ्यता संस्कृति को नष्ट करके वहां स्वयं को स्थापित कर लिया। सनातनी परम्पराएं इन आक्रमणकारियों का सबसे लम्बे समय तक (हज़ार वर्षों से ज्यादा) सामना करने वाली परम्परा है। प्रतिरोध की सबसे लम्बी परम्परा की एक कड़ी होने के नाते आपकी जिम्मेदारी होती है कि इसे एक पीढ़ी आगे बढ़ाएं। आपके मन के विचार, आपके शारीरिक कर्म, आपके वचन के एक भी शब्द से उनकी सहायता तो नहीं हुई न? जागृत रहिये!
#नवरात्र
#शारदीयनवरात्र
नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । ये पर्व साल में चार बार आता है। पोष, चैत्र, आषाढ और अश्विन प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महालक्ष्मी, महासरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।
चैत्र नवरात्र में दिन बड़े होने लगते हैं और रात्रि घटती है | आज जब ये शुरू होगा तो कई लोग उपवास रखेंगे, पूजा पाठ भी करेंगे | एक नयी परिपाटी जो धीरे धीरे बढती दिखती है वो है दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों में इस दौरान होने वाले “जगराते” | इसमें मोहल्ले के कई लोग बैठकर रात भर भजन गा रहे होते हैं | माइक, जोरदार लाउडस्पीकर, भजन गाने वाली मण्डली और भीड़ का पूरा इंतजाम होता है |
इस तरह से वो खुद तो नहीं ही सोते, दूसरों को भी नहीं सोने देते | काफी बददुआएं बटोरने में कामयाब हो जाते होंगे इस तरीके से |
जब भी मुझे ऐसे “जगराते” की आवाज़ सुनाई देती है, दो छोटे बच्चों की कहानी याद आ जाती है जिसमे एक लड़का और एक लड़की खेल रहे होते हैं | लड़के के पास ढेर सारे कंचे होते हैं और लड़की के पास बहुत सी टॉफ़ी होती है | खेल खेल में दोनों को अपनी अपनी चीज़ें अदला बदली करने की सूझती है | लड़का कहता है की अपने सारे कंचे वो सारी टॉफ़ी के बदले में दे देगा | लड़की को रंगीन चमकते कंचे अच्छे लगते थे, वो राज़ी हो जाती है |
अपनी सारी टॉफ़ी वो लड़के को दे देती है | लड़के को मगर बेईमानी सूझी, वो अपना सबसे प्यारा एक कंचा छुपा लेता है | शाम हुई खेलने का वक्त ख़त्म हुआ तो दोनों घर लौट आये | लड़की तो थोड़ी देर कंचो से खेलकर सो गई | मगर लड़का इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा की जैसे मैंने एक कंचा बचा लिया है, लड़की ने पता नहीं कितनी टोफियाँ बचाई होंगी ?
जब आप बेईमानी करते हैं तो सबसे पहले नींद आनी बंद हो जायेगी |
शारदीय नवरात्र के बीतने का मतलब दीपावली लगभग आ गयी है। एक रिलिजन के कुछ फिरकों में 13 की संख्या, या ख़ास तौर पर तेरह की तारिख अगर शुक्रवार को हो तो और ज्यादा अशुभ मानने का अन्धविश्वास चलता है। सनातन धर्म में अमावस्या या किसी दूसरी तिथि को अशुभ मानने जैसा कोई प्रावधान नहीं होता। ये इसमें भी दिखता है कि दीपावली अमावस्या की तिथि को ही मनाई जाती है और इसी दिन गल्ले पर नए बहीखातों की शुरुआत होती है।
अब जब नए बहीखाते बदलने का समय आया तो
कई साल पहले की बात है, शायद दस-पंद्रह साल बीत गए होंगे, जब एक मित्र के मामा श्री आते तो उनसे मुलाकात हो जाया करती थी। अब ये मामा जी अपने संस्कृत की जानकारी, कर्म-कांडों के ज्ञान के लिए तो जाने ही जाते थे, साथ ही अपने मुंहफट होने के लिए भी काफी विख्यात थे। जाहिर है हम लोगों को उनके आस पास होने पर बड़ा मजा आता था। कोई ना कोई ऐसा “वन लाइनर” वो दागते ही जिसे हम लोग अगले चार छह महीने (उनसे दोबारा भेंट होने तक) लोगों पर चिपका पाते थे।
तो एक बार हुआ यूँ की कई वयोवृद्ध सज्जन उनके साथ बैठे कुछ शब्दों को एक साथ जोड़कर लिखने या अन्वयार्थ रूप में लिखने पर चर्चा कर रहे थे। वहां एक दो समाजवादी किस्म के वृद्ध भी थे। थोड़ी थोड़ी देर में वो संस्कृत और शब्दों के बारे में कहते, अरे व्याकरण कैसा ? ऐसे के बदले वैसे लिख दें तो क्या होगा। वहां मौजूद लोग अनदेखा कर रहे थे। सही उच्चारण और उचित वर्तनी पर अड़े मामा जी भी ध्यान दिए बिना सुधार करवाए जा रहे थे।
आखिर नेता जी ने कहना शुरू किया, “अरे उच्चारण से कुछ नहीं होता ! कुछ ना ही बोले मन ही मन पढ़ ले तो क्या हो जाएगा?” आदत के विपरीत, काफी देर से शांत बैठे मामाजी मुड़े और बड़े शांत भाव में चू*&^ से शुरू करते हुए मादर*&^% तक की बीस पच्चीस गालियाँ उन्हें सुना डाली ! भड़क कर खड़े हो गए सज्जन से फिर कहा, ये सारी गालियाँ जब इतने लोग मन ही मन आपको दे रहे थे तो फर्क पड़ा था क्या ? मेरे उच्चारण कर देने से क्या असर हुआ देख लिया ना ?
उच्चारण का असर होता है। नवरात्री की पूजा दस महाविद्या की भी पूजा होती है, और उनसे प्राप्त होने वाली सबसे शुरूआती सिद्धियों में से एक वाक् सिद्धि होती है। बोलकर पढ़ने के लिए आपको ज्यादा कोशिश करनी होगी। ध्यान भंग होते ही आपका बोलना रुकेगा, तो कंसंट्रेशन भी बेहतर रहेगा। इस वजह से बच्चे जब छोटे होते हैं, ज्यादा चंचल होते हैं तो उन्हें बोल-बोल कर पढ़ना सिखाया जाता है। बाद में अभ्यास होने पर बंद भी कर सकते हैं। वाक् सिद्धि का मतलब मुझे पता नहीं। इस से आपका कहा सच होने लगेगा, या ये उच्चारण की शुद्धि और हकलाने या तुतलाने जैसी समस्याओं का निवारण है वो आप कर के देखिये।
बाकी उच्चारण से जो समस्याएँ हो रही हैं, उसमें से एक ये है कि थोड़ा उकसाए जाते ही लगता है इस बार कई लोगों ने पाठ करना शुरू कर दिया है। उसकी ऑडियो रिकॉर्डिंग भी व्हाट्स-एप्प से भेजी जा रही है। पांच-दस एम.बी. की ऐसी फाइल्स से मेरे फोन की मेमोरी दो दिन में भर गई है, अब सबको डिलीट करना पड़ रहा है ! मगर खैर कई लोग प्रयास कर रहे हैं ये सुनना अच्छा लगता है, लगे रहिये..
महाविद्या तारा
खूब तल-भुनकर बहुत अच्छा, स्वादिष्ट खाना भी बनाया हो तो भी उसे दो-तीन महीने के बच्चे को नहीं खिला देते। तंत्र के साथ भी ऐसा ही है, सबसे हजम नहीं होता, जबरन ठूंसने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसे कुछ ऐसे भी समझ सकते हैं कि कुत्ते-बिल्ली जैसे किसी जानवर से अगर बच्चा डरता हो तो उसे देखते ही वो मम्मी चिल्लाता माँ के पास भागेगा। जो मम्मी बच्चे के लिए प्यारी से होती है वही उस कुत्ते-बिल्ली के लिए भयावह हो जाती है क्या ? ये उतना मुश्किल सवाल नहीं है, मामूली सा एक्सपेरिमेंट कीजिये।
अपने बच्चों को दुलारती किसी निरीह दिखती बिल्ली के बच्चे को उठा लेने की कोशिश कीजियेगा, जवाब समझ आ जाएगा। तंत्र या वामाचार मुश्किल है क्योंकि इसमें कई पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं। जैसे देवी तारा की उपासना में महाशंख की माला का प्रयोग होता है। इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल और शालिग्राम से कभी नहीं करना चाहिये। थोड़े समय पहले तक भारत के घरों में आंगन, सामने की सड़क को गोबर से लीपने की परंपरा थी। तुलसी घर में होगी ही। गंगाजल छिडके जाने और शालिग्राम की भी कई जगह संभावना रहती है। यानि तकनिकी मजबूरियों की वजह से तांत्रिक किसी गृहस्थ के घर में प्रवेश भी नहीं कर सकता।
देवी तारा, दस महाविद्याओं में से दूसरी होती है, उन्हें नीलसरस्वती, उग्रतारा, कामख्या आदि नामों से भी जाना जाता है। आदिशक्ति के इस स्वरुप की उपासना कौल तंत्र और बौद्ध वज्रायण में भी की जाती है। कम प्रचलित वाली कथाओं के हिसाब से एक बार जब देवताओं को शुम्भ और निशुम्भ ने पराजित कर के अमरावती से भगा दिया तो हिमालय पर वो देवी दुर्गा की उपासना कर रहे थे। उसी समय वहां मातंग ऋषि की पत्नी मातंगी आयीं। उन्होंने जब देवताओं से पूछा कि आप किसकी उपासना कर रहे हैं ?
देवताओं ने जवाब देने की कोशिश की, वो सही जवाब दे नहीं पाए। आखिर महासरस्वती मातंगी के शरीर से प्रकट हुई। सरस्वती जो मातंगी के शरीर से अलग हो गई थी, वो आठ भुजाओं वाली देवी गौर वर्ण कौशिकी थी। उनके अलग होने पर मातंगी का शरीर काला पड़ गया था और वो कालिका-उग्रतारा नाम की देवी हुई। तंत्र में सांध्यवंदना तारा को अर्पित होती है, सुबह की एकजाता, दोपहर की नीलसरस्वती, और संध्या की कामख्या के रूप को अर्पित होती है। तांत्रिक के हिसाब से शमशान वो जगह है जहाँ पञ्च तत्व, महाभूत’ या देह में विद्यमान स्थूल तत्त्व, चिद्-ब्रह्म में विलीन होते हैं।
तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान, विकार रहित हृदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। जहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि विकारों या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं। मन या हृदय भी वह श्मशान हैं, जहाँ इन समस्त विकारों का दाह होता हैं। अतः देवी काली-तारा अपने उपासकों के विकार शून्य हृदय पर ही वास करती हैं।
रुद्र्यामाला तंत्र के मुताबिक प्रजापति ब्रह्मा की आज्ञा से वसिष्ठ मुनि ने प्रागज्योतिषपुर में अपना आश्रम बनाया और कामख्या शक्ति पीठ के पास देवी तारा की मन्त्र साधना शुरू की। काफी लम्बे, बरसों के प्रयास के बाद भी जब मन्त्र सिद्ध नहीं हुआ, देवी भी प्रकट नहीं हुई। तो खीज कर वसिष्ठ मन्त्र को ही शापित करने चले, इतने में पार्वती अपने वज्रयोगिनी स्वरुप में वसिष्ठ के सामने आई और उनसे महाचीन जाकर साधना सीखने कहा। देवी की सलाह से जब वसिष्ठ बुद्ध के पास पहुंचे तो विष्णु अवतार को पंचमकार में लिप्त देखकर वो घृणा से भर उठे।
लेकिन वशिष्ठ को पंचमकार का अर्थ समझाते हुए वाम साधना में बुद्ध ने दीक्षित किया। लौटने पर द्वारक नदी के किनारे एक शमशान चुनकर वसिष्ठ ने साधना दोबारा की और देवी तारा सद्योजात शिव के साथ प्रकट हुई और वशिष्ठ को आशीर्वाद दिया। जिस स्थान पर वशिष्ठ ने ये उपासना की थी, वो जगह अब बीरभूम (बंगाल) में है। यहाँ के मंदिर में देवी तारा अपने आदिरूप में हैं जिसे चार भुजाओं वाले एक चांदी के उग्रतारा के आवरण से ढक कर रखा जाता है। इसे सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त में देख सकते हैं।
देवी के तारा स्वरुप के भैरव का नाम अक्षोभ्य है। वो प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी होती हैं, यानी योद्धाओं की तरह बायाँ पैर आगे शिव के अचेतन स्वरुप पर। देवी का वाहन गीदड़ या शव होता है। द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से साधक ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख, मोक्ष प्रदान करने तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें ताराणी भी कहा जाता हैं। वशिष्ठ मुनि ने सबसे पहले देवी तारा कि आराधना की थी, इसलिए देवी ’वशिष्ठाराधिता’ के नाम से भी जानी जाती हैं।
देवी तारा ज्ञान और मोक्ष की देवी हैं, जितनी हिन्दुओं के लिए उपास्य हैं, उतनी ही बौद्ध तंत्र में भी उनकी मान्यता है। हाँ, फिर से याद दिला दें, गरिष्ठ भोजन मजबूत हाजमे वालों के लिए होता है, बच्चों के लिए नहीं।
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आनंद कुमार
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