महाराज_स्वातितिरुनाल_राम_वर्मा
#महाराज_स्वातितिरुनाल_राम_वर्मा
लेखक : डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'
भारत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा पर अवस्थित अरब सागर की उद्दाम तरंगों से आलिंगित, सह्याद्रि पर्वत श्रृंखलाओं से संरक्षित एवं मलयाळम् भाषा की मणिप्रवालम् शैली से अभिव्यंजित, द्वितीया के चन्द्रमा की तरह सुन्दर आकृतिवाले, 38863 वर्ग किलोमीटर विस्तारवाले केरल प्रान्त की कला-संस्कृति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इतिहास है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान् परशुराम ने अपना परशु समुद्र में फेंक दिया था, जिसके कारण उसी आकार की भूमि समुद्र से बाहर निकली और केरल प्रान्त अस्तित्व में आया। यहाँ दसवीं सदी ईसा पूर्व से मानव जाति के निवास के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। केरल का शाब्दिक अभिप्राय समुद्र से निकला हुआ भूभाग होता है। समुद्र और पर्वत के संगम स्थान को भी केरल कहा जाता है। केरल के आधुनिक इतिहास में त्रावणकोर राज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'त्रावणकोर' शब्द की व्युत्पत्ति 'तिरुवितांकूर' से हुई है और 'तिरुवितांकूर' नाम की उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि केरल के दक्षिणी सिरे पर पश्चिमी घाट और अरब सागर के मध्य की उर्वर भूमि को 'श्रीवाष़ुंकोड' नाम से जाना जाता था, जिसका अभिप्राय 'लक्ष्मी का निवास-स्थल' है। 'श्रीवाष़ुंकोड' से 'तिरुवारंकोड' बना, जिसका देशज रूप 'तिरुवंकोड' बन गया और कालान्तर में इसी शब्द से 'तिरुवितांकूर' की उत्पत्ति हुई। ईसा के पश्चात् इस प्रदेश के शासक आय राजवंश के थे। यही प्रदेश वेणाड नाम से विख्यात हुआ। महाराज मार्तण्ड वर्मा (1729 ई. - 1758 ई.) के शासनकाल में वेणाड प्रदेश कोच्चि तक फैलकर 'तिरुवितांकूर' नाम से जगत्प्रसिद्ध हुआ। महाराज मार्तण्ड वर्मा ने आट्टिंगल, कोल्लम, कोट्टारक्करा, कायंकुळम, अम्बलप्पुष़ा रियासतों को मिलाकर तिरुवितांकूर नामक शक्तिशाली प्रदेश की आधारशिला रखी थी। महाराज मार्तण्ड वर्मा के पश्चात् महाराज कार्तिकतिरुनाल राम वर्मा धर्मराज (1758 ई. - 1798 ई.), महाराज अविट्टमतिरुनाल बालराम वर्मा (1798 ई. - 1810 ई.), महारानी गौरी लक्ष्मीबाई (1810 ई. - 1815 ई.), महारानी गौरी पार्वतीबाई (1815 ई. - 1829 ई.), महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा (1829 ई. - 1847 ई.), महाराज उत्तरमतिरुनाल मार्तण्ड वर्मा (1829 ई. - 1860 ई.), महाराज आयिल्यमतिरुनाल (1860 ई - 1880 ई), महाराज विशाखमतिरुनाल (1880 ई - 1885 ई), महाराज श्रीमूलमतिरुनाल (1885 ई - 1924 ई), महारानी सेतु लक्ष्मीबाई (1924 ई - 1931 ई) एवं महाराज चित्तिरातिरुनाल बालराम वर्मा (1931 ई - 1949 ई) का तिरुवितांकूर राज्य पर शासन रहा।
तिरुवितांकूर के इतिहास में सर्वाधिक प्रसिद्धि महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की है। महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा का जन्म चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, विक्रमाब्द 1756 (16 अप्रैल, 1813 ई.) को 'स्वाति नक्षत्र' में हुआ था। तिरुवितांकूर के राजवंश की परम्परा के अनुसार राजकुमारों का नामकरण जन्म-नक्षत्र के आधार पर होता है। इसलिए इनका नाम स्वातितिरुनाल रखा गया। स्वातितिरुनाल राम वर्मा महारानी गौरी लक्ष्मीबाई एवं राजा राजा वर्मा कोयि थम्पुरन की द्वितीय सन्तति थे। इनका पालन-पोषण चंगनास्सेरी के राजमहल में हुआ था। राजकुमारी रुक्मिणीबाई महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की ज्येष्ठा भगिनी थीं और महाराज उत्तरमतिरुनाल मार्तण्ड वर्मा (26 सितम्बर, 1814 ई. - 18 अगस्त, 1860 ई.) एक मात्र अनुज थे। हिन्दी और मलयाळम् भाषा-साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् श्री के. नारायणन् ने महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा के प्रारम्भिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- 'गर्भ में ही इन्हें राज्याधिकार प्राप्त हो गया था, इसलिए इनका 'गर्भश्रीमान्' उपनाम भी पड़ा। दो वर्ष की अवस्था में इनकी माँ गौरी लक्ष्मीबाई स्वर्ग सिधारीं। गौरी लक्ष्मीबाई की गौरी पार्वतीबाई नामक एक बहन थीं, जिन्होंने स्वातितिरुनाल को बड़े प्यार से पाल-पोसकर बड़ा किया। जिस प्रकार नवोदित चन्द्रमा कलाओं के बढ़ते बढ़ते पूर्ण विकास को प्राप्त होता है, उसी प्रकार ये कुमार भी राजोचित कलाओं में दक्षता प्राप्त करके सुशोभित हुए। संगीत और साहित्य में इनकी सहज विशेष रुचि ने थोड़े ही समय में इन्हें एक महान् वाग्गेयकार और कवि बना दिया। इन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, तमिऴ्, मराठी, हिन्दुस्तानी आदि तेरह भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि थोड़े समय में ही स्वातितिरुनाल ने राजनीति में गहरे ज्ञान के साथ साथ इतनी भाषाओं और कलाओं में निपुणता प्राप्त की। तेरह वर्ष की अवस्था में इनकी कर्नल वेल्स से मुलाकात हुई। वेल्स ने राजकुमार की बहुमुखी प्रतिभा, बहुभाषा ज्ञान आदि की भूरि भूरि प्रशंसा की। सोलह वर्ष की अवस्था में इनका राज्याभिषेक हुआ।'[1]
महाराज स्वातितिरुनल राम वर्मा का अल्पायु में ही विवाह हो गया था, परन्तु इनकी प्रथम पत्नी तिरुवात्तर अम्माची पानपिल्लई अम्मा श्रीमती नारायणी पिल्लई कोचम्मा का शीघ्र ही स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् इनका द्वितीय विवाह तिरुवात्तर अम्माची पनापिल्लई अम्मा श्रीमती नीलम्मा पिल्लई के साथ हुआ, जिनका सम्बन्ध तिरुवात्तर अम्मावीडू के परिवार से था। महाराज स्वातितिरुनाल की द्वितीय पत्नी कर्नाटक शैली की गायिका और कुशल वीणावादक थीं। द्वितीय पत्नी से ही महाराज स्वातितिरुनाल को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, जिनका नाम तिरुवत्तर चित्तिरानाल अनन्त पद्मनाभन चम्पकरमण थम्पी था। सन् 1843 ई. में स्वातितिरुनाल ने त्रिवेन्द्रम् से विस्थापित मुदालियर की पुत्री वडस्सेरी अम्माची पानपिल्लई अम्मा सुन्दरालक्ष्मी पिल्लई के साथ अपना तृतीय विवाह कर लिया। सुन्दरालक्ष्मी को सुगन्धावल्ली के नाम से भी जाना जाता था। वे एक नृत्यांगना थीं। कहा तो यह भी जाता है कि महाराज स्वातितिरुनाल की दूसरी पत्नी ने तीसरे विवाह को मान्यता नहीं दी थी, इसलिए सुगन्धावल्ली त्रावणकोर को छोड़कर अन्यत्र चली गयीं। इससे महाराज स्वातितिरुनाल बहुत दु:खी हुए। इस सन्दर्भ में यह भी प्रसिद्ध है कि इस विरह-वेदना को महाराज स्वातितिरुनाल सहन नहीं कर पाये और इसी कारण मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में ही हृदयघात के कारण उनका शरीरान्त हो गया।
स्वातितिरुनाल का पूरा नाम श्री पद्मनाभदास श्री स्वातितिरुनाल राम वर्मा कुलशेखर पेरुमाल था। महाराज स्वातितिरुनाल सन् 1830 ई. में हिज़ हाइनेस श्री पद्मनाभदास वंचिपाल श्री राम वर्मा कुलशेखर कीर्तिपति मान्नेय सुलतान महाराजा राजा रामराजा बहादुर शमशेर जंग के नाम से सिंहासनारूढ़ हुए। स्वातितिरुनाल कुशाग्र बुद्धि, दूरदर्शी और अत्यन्त प्रतापी थे। 'महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत' नामक पुस्तक के विद्वान् सम्पादक डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने लिखा है कि 'स्वातितिरुनाल ने कई नये शासकीय विभाग तथा संस्थाएँ प्रारम्भ कीं। मुंसिफ़-अदालतों की स्थापना उन्होंने ही की। प्रथम सरकारी अंग्रेजी हाईस्कूल (1834), व्योमनिरीक्षणालय (1836), चिड़ियाघर व संग्रहालय (1836), त्रिवेन्द्रम का सार्वजनिक पुस्तकालय (1836), सरकारी मुद्रणालय (1836) और सरकारी मरम्मत विभाग स्वातितिरुनाल के प्रयत्न के सफल चिह्न थे। कई बर्बर दण्ड-प्रणालियाँ समाप्त करके सेना के संचालन में सुधार लाकर महाराजा ने कई युगान्तकारी कार्य किये।'[2] Wikipedia भी इन्हीं तथ्यों की ओर संकेत करती है- 'स्वातितिरुनाल राम वर्मा ने ही तिरुअनन्तपुरम् की खगोलीय वेधशाला, सरकारी प्रेस, त्रिवेन्द्रम जनता पुस्तकालय, पौर्वात्य पाण्डुलिपि संग्रहालय (Oriental Manuscript Library) आदि का शुभारम्भ किया। महाराज स्वातितिरुनाल सन् 1843 ई. से रॉयल एशियाटिक सोसायटी के सम्मानित सदस्य भी थे।'
महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु-तिथि के विषय में कई धारणाएँ प्रचलित हैं। 'हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार' के विद्वान् लेखक डॉ. किरनपाल सिंह ने लिखा है- 'इनकी जन्म-तिथि पर विद्वत् समाज एकमत है, परन्तु मृत्यु-तिथि पर उनमें मत-भिन्नता है। 'केरली-वैभव' के लेखक डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै ने इनका देहावसान 25 दिसम्बर, 1846 दर्शाया है, जबकि डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर इसका वर्ष 1847 बताते हैं (महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 15)। 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति-कोश' के सम्पादक विश्वामित्र शर्मा ने इनका जीवन-काल 1813-1847 (पृ. 316) अंकित किया है। इस प्रकार इनकी कुल उम्र 33 वर्ष या 34 वर्ष बैठती है।'[3] इस सन्दर्भ में श्री के. नारायणन् लिखते हैं- 'संगीत और साहित्य को अपनी अमूल्य देन द्वारा समुन्नत करनेवाले इस महाराज कवि वाग्गेयकार का निधन 15-12-1846 को 34 वर्ष की अवस्था में हुआ।'[4] महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा के विषय में हिन्दी भाषा में उपलब्ध साहित्य में भले ही उनकी मृत्यु-तिथि को लेकर विद्वानों में मतैक्य न हो, किन्तु अंग्रेजी में तद्विषयक जितना भी साहित्य उपलब्ध है, सबमें महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु-तिथि 27 दिसम्बर, 1846 ई. दी हुई है। 26 दिसम्बर, 2013 ई. के 'The Hindu' के चेन्नै संस्करण में लक्ष्मी देवनाथ ने महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु के विषय में लिखा है- 'A deeply distraught Swati Tirunal increasingly retreated into solitude and silence. He weakened intensely in body and mind. Death swished across the guarded doorway of his palace, a shroud billowing behind it. The monarch of Travancore and a king of a musician passed away on December 27, 1846, at 3 a.m. He was just 33'. [5] Wikipedia में भी यही तथ्य विद्यमान हैं।[6] कहने का आशय यह है कि महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की मृत्यु 27 दिसम्बर, 1846 ई. को रात्रि 3 बजे हुई थी।
महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की साहित्य एवं संगीत की रसमाधुरी से सम्पूर्ण दक्षिण भारत आप्लावित है। अनेक भाषाओं में रचित ललित कविताएँ स्वातितिरुनाल की उत्कृष्टता को सिद्ध करती हैं। डॉ. किरनपाल सिंह ने स्पष्टतः लिखा है- 'दक्षिण भारत की भूमि साहित्य-सृजन के लिए कम उपजाऊ नहीं रही। इन क्षेत्रों के साहित्यकारों ने अपनी मातृभाषाओं के साथ साथ इतर भाषाओं में भी उच्चकोटि का साहित्य रचा है, जिनमें देववाणी संस्कृत और राष्ट्रवाणी हिन्दी को प्रमुख स्थान दिया गया है। हमारे विवेच्य नायक भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वातितिरुनाल को दक्षिण का प्रथम हिन्दी-कवि होने का सौभाग्य प्राप्त है। वे बहुभाषाविद् थे, क्योंकि उन्होंने मलयाळम्, संस्कृत, मराठी, कन्नड़, तमिऴ्, अंग्रेजी तथा हिन्दी का गहन अध्ययन किया।'[7] महाराज स्वातितिरुनाल बहुभाषाविद् तो थे ही, साथ ही साथ रससिद्ध कवि और समर्पित भक्त थे। त्रावणकोर राज्य के चतुस्रमुखी विकास का उज्ज्वल चित्र महाराज स्वातितिरुनाल ने बनाया था। उनकी दूरदर्शी दृष्टि ही प्रशासन के साथ साथ साहित्य और संगीत का युगपत् समीकरण बना सकी। उनकी सहृदयता ही उन्हें शासक की जगह कवि, भक्त और वाग्गेयकार बनाती है। वे आंग्लयुगीन शासक होते हुए भी भगवान् पद्मनाभ के श्रीचरणों में समर्पित दास थे। त्रावणकोर के महाराजाओं का 'पद्मनाभदास' उपनाम स्वातितिरुनाल से ही चरितार्थ हुआ। उन्होंने एक अपना सम्पूर्ण जीवन राजयोगी की तरह व्यतीत किया। श्री के. नारायणन् ने स्वातितिरुनाल के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए लिखा है- 'कला और साहित्य का रसास्वादन स्वातितिरुनाल के लिए एक व्यक्तिगत मनोरंजन का विषय नहीं था, अपितु उसे आस्वादनीय मानकर दूसरे रसिकों तक प्रेरणीय भी बना देते थे। उन्होंने जगह जगह से कई विद्वानों, कवियों तथा संगीतज्ञों को आमन्त्रित कर उन्हें अपना आस्थान-विद्वान् बनाया और अपने दरबार को सुशोभित किया। इनके दरबार को अलंकृत करनेवाले विद्वानों में प्रमुख थे- किलिमानूर कोयि तम्पुरान, पंजाब सुलेमान, अलाउद्दीन, पोन्नैया, मेरुस्वामी (या अनन्तपद्मनाभस्वामी), तंजाऊर वडिवेलु, चिन्नैया, शिवानन्दम्, पालघाट वेंकटाद्रि अय्यर, परमेश्वर भागवतर, गणपति भागवतर, कन्हैया भागवतर, क्षीराब्धि शास्त्रिगल्।'[8]
स्वातितिरुनाल की कृतियों का सौरभ केरल में ही नहीं, अपितु समूचे भारत में फैला हुआ है। स्वातितिरुनाल की कृतियाँ साधारण मानव को ही नहीं, स्वयं भगवान् पद्मनाभ को भी मन्त्रमुग्ध करके अपने अधीन कर लेती हैं, क्योंकि भगवान् तो सुमधुर संगीत द्वारा गुणगान करनेवाले भक्तों के भी भक्त हैं। महाराज स्वातितिरुनाल के वाड़्मय का विधा और विस्तार की दृष्टि से विवरण निम्नलिखित है-
(अ) काव्य :
1. स्थानदूरपुरवर्णनप्रबन्धम्
2. श्रीपद्मनाभशतकम्
(आ) कथा :
1. कुचेलोपाख्यानम्
2. अजामिलोपाख्यानम्
(इ) स्तोत्र :
1. भक्तिमंजरी
(ई) संगीत :
1. विविध देवी-देवताओं की स्तुति में कई भाषाओं में रचित कीर्तन।
2. नृत्य के लिए स्वर-जातियों, तान वर्णम्, पद वर्णम्, चौक वर्णम्, पदम्, जावली, तिल्लाना आदि।
3. हिन्दुस्तानी कृतियाँ- उत्तरी संगीत के ध्रुपद, टप्पा, ख्याल प्रभृति राग-रागिनियों में निबद्ध कीर्तन।
स्वातितिरुनाल की संगीत-कृतियों में 'नवरात्रि-कीर्तन' और 'नवरत्नमालिका' का अन्यतम स्थान है। श्री के. नारायणन् ने दोनों कृतियों के कीर्तन और राग का विस्तार से विवेचन किया है। 'नवरात्रि कीर्तन' में त्रिवेन्द्रम् में अवस्थित भगवान् पद्मनाभस्वामी के मन्दिर के आस्थान-मण्डप में नवरात्रि के अवसर पर विद्वानों द्वारा गाये जाने के लिए रचित नौ ललित कीर्तन हैं-
रात्रि-कीर्तन राग
1. देवि! जगज्जननि! शंकराभरणम्
2. पाहि माँ श्रीवागेश्वरि कल्याण
3. देवि! पावने! सेवे चरणे सावेरी
4. भारति! मामव कृपया तोड़ी
5. जननि! मामवामेये! भैरवी
6. सरीरुहासनजाये! पंतुवराली
7. जननि! पाहि सदा शुद्धा सावेरी
8. पाहि जननि! सन्ततं नाटकुरंजी
9. पाहि पर्वतनन्दिनी! आरभी
'नवरत्नमालिका' में नवधा भक्ति को प्रतिपादित करनेवाले अनुपम कीर्तन हैं-
कीर्तन राग भक्ति-प्रकार
1. भवदीपकथाभिनवसुधायाम् भैरवी श्रवणम्
2. तावकनामानि शुभदानि केदारगौलम् कीर्तनम्
3. सतत संस्मरणीह नीलाम्बरी स्मरणम्
4. पंकजाक्ष! तव सेवाम् तोड़ी पादसेवनम्
5. आराध्यामि करणत्रेयेणाहम् विलहरि अर्चनम्
6. वन्दे देवदेव बंगड़ वन्दनम्
7. परमपुरुष! ननु कर्म आहिरी दास्यम्
8. भवति विश्वासो मे भवतु मुखारी सख्यम्
9. देवदेवः कल्पयामि नाभनामक्रिया आत्मनिवेदनम् [9]
वस्तुतः उच्चकोटि की कला भाषा-भेद को नहीं मानती। प्रत्येक भाषा की अच्छी चीज़ों को स्वीकार कर लेती है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण महाराज स्वातितिरुनाल द्वारा हिन्दुस्तानी संगीत के ध्रुवपद, टप्पा, ख्याल प्रभृति राग-रागिनियों में निबद्ध हिन्दी के पद एवं कीर्तन हैं। गर्भश्रीमान् स्वातितिरुनाल राम वर्मा ने हिन्दी में लगभग चालीस पद और गीत लिखे हैं। प्रारम्भ में ये गीत और पद मलयाळम् लिपि में ही निबद्ध थे, किन्तु सन् 1939 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की मुख-पत्रिका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में श्री एन. वेंकटेश्वरन् ने उन गीतों को कवि की जीवनी के साथ प्रकाशित करवाया था। स्वातितिरुनाल की कविता पर टिप्पणी करते हुए श्री एन. वेंकटेश्वरन् लिखते हैं- 'गर्भश्रीमान् के हिन्दी पदों और कीर्तनों की भाषा में खड़ीबोली और ब्रजभाषा का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ है। उनमें असीम श्रीकृष्ण-भक्ति के सूक्ष्म तथा मार्मिक भावों का अभिव्यंजन हुआ है। समुचित स्थानों पर सार्थक शब्द-रत्नों का सुन्दर चयन करके अपने पदों और गीतों की गति और गेयता में कमनीयता और कर्णप्रियता पैदा करने की कला ही गर्भश्रीमान् की लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता है। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में रचे हुए उनके तमाम पदों और कीर्तनों में हम एक सच्चे भक्त के सम्पूर्ण आत्मसमर्पण और तल्लीनता की अनुभूति का अभिव्यंजन पा सकते हैं। वे एक महान् तत्त्ववेत्ता, दार्शनिक, विद्वान् अथवा महान् उपदेशक नहीं थे। वे मुख्यतः एक रसिक भावुक भक्तकवि और सफल गायक मात्र थे। अपने इष्टदेव तथा कुलदेव श्रीपद्मनाभ के प्रति अपनी अपार एवं अकलंक भक्ति की अभिव्यक्ति करना, उनके प्रेम में मस्त होकर अपने आपको भूल जाना, उनके प्रति होनेवाली भक्ति के सामने समस्त संसार को तुच्छ मानना, श्रीपद्मनाभ को छोड़कर दूसरे देवों की गौड़ता दिखाना आदि बातें हम गर्भश्रीमान् की प्रत्येक कविता में पाते हैं।'[10]
महाराज स्वातितिरुनाल के अधिकांश हिन्दी-गीत भक्तिपरक हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवताओं की अर्चना की गयी है। डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने स्वातितिरुनाल के हिन्दी-गीतों को विषयवार विभाजित करते हुए लिखा है- '(1) श्रीकृष्ण सम्बन्धी - 20, (2) रामचन्द्र सम्बन्धी - 4, (3) देवी-सम्बन्धी - 9, (4) प्रेयसी-प्रिय-वार्ता - 7, (5) सामान्य भक्ति - 2। जैसा कि गीतों की संख्या से विदित होता है, श्रीकृष्ण सम्बन्धी और प्रेयसी-प्रिय-वार्ता के गीत प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण के विविध रूपों में मुरलीधर, गोपी-चित्तचोर और कालियादमन रूपों की कीर्ति इन्होंने अधिक गायी है। चाहे बाललीला हो, चाहे विरह-वार्ता या विनय-निवेदन, प्रत्येक प्रसंग पर जयदेव की-सी सरसता प्रकट होती है। राजपद, यौवन एवं कलावन्तों के सतसंग में ऐसी सरसता का रहना स्वाभाविक है।'[11]
वस्तुतः महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा केरल के प्रथम हिन्दी-कवि हैं। उनके पद मीरा, सूर, तुलसी प्रभृति के पदों के समान कर्णप्रिय एवं भावपूर्ण हैं। तथा-
मैं तो नहिं जाऊँ जननी जमुना के तीर।
इतनी सुनके मात जसोदा पूछति मुरहर से।
क्यों नहीं जावत धेनु चरावन बालन कह हमसे।
कहत हरी सब ग्वालिन मिलि हम मींजत घन कुच से।
जब सब लाज-भरी ब्रजवासिनि कहे न कहो दृग से।
तौं हूँ बात सबै मधुसूदन बोले जसुमति से।
जब तब गोपिन सब हरि के मुख ढाँकत निज कर से।
ऐसी लीला कोटि कियो कैसे जायो मधुबन से।
'पद्मनाभ' प्रभु दीन-उधारण पालो सब दुख से।।[12]
उपर्युक्त गीत को केन्द्र में रखकर डॉ. आनन्दस्वरूप पाठक लिखते हैं- 'कवि की दृष्टि कृष्ण-भक्त कवियों द्वारा प्रतिपादित कृष्ण-जीवन के सभी रसमय स्थलों पर गयी है। किशोर और बालकृष्ण ही कवि के उपास्य हैं। गोपियों की रीझ-खीझ, गोपी-मिलन, बाल-लीलाएँ, वन्दन पद, उद्धव-गोपी-संवाद, बाँसुरी के प्रति उपालम्भ आदि अनेक विषय कवि की रूप विधायिनी तूलिकावत लेखनी से साकार हो उठे हैं। अबोध बालक गाय न चराने जाने का कारण कितने सहज रूप से कह देता है कि माँ! गोपियाँ मुझे अपने पीवर स्तनों से भींच देती हैं। उस प्रसंग में गोपियों का बालकृष्ण को नैनों-सैनों से मना करना कितना मनोवैज्ञानिक व स्वाभाविक है।'[13]
महाराज स्वातितिरुनाल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और भगवती राधा को अपने मन में विराजित करने की कामना करते हैं-
कृष्णचन्द्र राधा मनमोहन मेरे मन मैं विराजो जी।
मोर पिंछ कटि काछनी राजे कर मुरली उर माल लसे।
फणिवर के पर निरत करत प्रभु देव मनीश्वर मगन बसे।
हाथ जोड़ सब नाग-बधूजन करें बिनती हरि चरण से।
छोड़ो हमारे प्रीतम को हम अंचल धोवैं असुवन से।
'पद्मनाभ' प्रभु फणि पर शायी कब जीवौ चितवन से।
ऐसी लीला कोटि तुमारी नहीं कहि जावे कविजन से।।[14]
उपर्युक्त पद की सरसता मीरा और सूर के पदों के समतुल्य है। स्वातितिरुनाल ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का मार्मिक चित्रण किया है। एक गोपांगना श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी का वर्णन दूसरी गोपांगना से करते हुए कहती है-
बंसीवाले ने मन मोहा।
बोली बोले मीठी लागे दरदर उमंग करावे।
बेणन बाजे तान गावे निसिदिन गोपियाँ रिजावे।
साँवरो रंग मोहनी अंग सुमरन तन की भुलावे।
कालिन्दी के तीर ठाढ़े मोहन बाँसुरी बजावे।
'पद्मनाभ' प्रभु दीनबन्धु सुर नर चरण मनावे।।[15]
महाराज स्वातितिरुनाल रचित श्रीकृष्ण-विषयक कतिपय पद यहाँ उद्धृत हैं-
(1)
चलिये कुंजन मो तुम हम मिल स्याम हरी।
देखो जमुना रे बही सुन्दर अति नीर भरी।
छोड़िये कैसे मोकूँ मैं तो तेरे हाथ धरी।
सुनिये कोइल के बोल पिया क्या कह री।।[16]
(2)
सुनो सखि! मेरी मन की दरद री।
जब फिरती मैं रंग-महल में
सेज पलँग पर तड़के जाती।
बेला चमेली दौना मरुवा
चम्पई गुलाब की हार बनाती।
जैसे जल बिन तरसत पंछी
तरस रही मेरो पिय बिन छाती।
सोवत नाहिं लगे गोरि निद्रा
बीच बीच पिया कू बुलाती।
निसि दिन भर भर चोवा रे चन्दन
अतर अगरजा अंग लगाती।।[17]
(3)
आज उनींदे चले आये ठाढ़ो मोरे अँगना
बृजराज नन्दकुँवर माई! गिरिधारी।
कोमल कपोलन में राजे जाके बिन्दन
अंजन अधर लसे चित्र-रूप-धारी।
मोसो कह आवन औरन ते रति पायो
मैं तो जागि रही, अब भोर भयो प्यारी।
'पद्मनाभ' दीनबन्धु छोड़े कैसे मोहे सखी!
गोपीनाथ साँवरो एरी बनवारी।।[18]
महाराज स्वातितिरुनाल के भक्ति-गीतों पर संगीत की राग-रागियों का स्पष्ट प्रभाव है। भगवान् श्रीराम के नृत्य को तालबद्ध करने का जैसा सुन्दर उपक्रम स्वातितिरुनाल ने किया है, वैसा वर्णन एक संगीताचार्य ही कर सकता है-
नाचे रघुनाथ रंग दासीजन गावे।
झनक झनक कनक कनक तोंततारि तनतनारि
ध्रिकिधा धिलांक मधुर धुन बजावे।
थिरक थिरक थैय थैय दीतथिं ततकथ थैय्य
ध्रुकुटधीं ध्रुकुटधीं ताधिन्न तान सुर मिलावे।
सुर नरेश मुनि गणेश तेरो ही प्रताप गावे
'पद्मनाभ' चरणदास कामित फल पावे।।[19]
इस तरह की संगीतबद्ध रचनाएँ कच्छ-भुज-नरेश महाराव लखपति सिंह 'लखधीर' कृत 'सदाशिव विवाह' नामक ग्रन्थ में प्राप्त होती हैं-
ताधिकि धिधिकटि धि धिकटि धिलांग।
धुकु धुकुटि धुकुटि धिवतां धुगांग।
ता थुंग थुंग बज्जत मृदंग।
अस नृतत नटेसुर नवल रंग।।
* * * *
बोलन्त बुलैया तान बोल।
तत् थेइ थेइ थेइ तान बोल।
तत् उघटन्त ताण्डव नि अंग अंग।
इमि नृतत नटेसुर नवल रंग।।[20]
इसी क्रम में प्रभु श्रीरामचन्द्र के श्रीचरणों में निवेदित दो पद और भी द्रष्टव्य हैं-
(1)
रामचन्द्र प्रभु! तुम बिन प्यारे कौन खबर ले मेरी।
बाज रही जिनकी नगरी मो सदा धरम की भेरी।
जाके चरण-कमल की रज से तिरिया तन कू फेरी।
औरन कूँ कछु और भरोसा हमें भरोसा तेरी।
'पद्मनाभ' प्रभु फणि पर शायी कृपा करो क्यों देरी।।[21]
(2)
अवध सुखदाई अब बाजे बधाई।
रतन सिंहासन के पर रधुपति सीता सहित सुहायो।
राम भरत सुमित्रनन्दन ठाढ़े चामर चतुर डुलायो।
गाँव गाँव जन मंगल गावत देवन वाद्य बजायो।
राम रावण मारे, असुर सब मारे, राज विभीषण पायो।
माता कौसल्या करत आरती निज मनवांछित पायो।
राम 'पद्मनाभ' प्रभु! फणि पर शायी त्रिभुवन सुख आयो।।[22]
महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की कृतियों को उनके रचना-काल में थोड़ी-बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हो गयी थी। उनके राजदरबार में विद्वानों द्वारा उनकी कृतियाँ गायी जाती थीं। मन्दिरों में भी स्वातितिरुनाल के पद गाये जाते थे, किन्तु उनकी अमूल्य कृतियों का जितने बड़े पैमाने पर प्रचारित होना चाहिए था, उतना लगभग पाँच दशक पूर्व तक नहीं हुआ था। श्री के. नारायणन् ने लिखा है- 'केरल की पाठशालाओं में लड़कियों को संगीत सिखाया जाता था, पर कुछ इने-गिने गानों को छोड़कर अन्य गाने स्वातितिरुनाल के नहीं थे। शीघ्र ही कुछ धीमानों का ध्यान इस भूल की ओर आकृष्ट हुआ। स्वातितिरुनाल के अनेक सुन्दर गीत अप्रचलित पड़े थे। उन गीतों को खोज निकाल कर और नयी नयी धुनों में बिठाकर उनको व्यापक तौर पर प्रचलित करने का ज़ोरदार प्रयत्न शुरू हुआ। प्रमुखतः इसी उद्देश्य से ई. 1940 में त्रिवेन्द्रम् में 'श्री स्वातितिरुनाल म्यूजिक अकादमी' कि स्थापना हुई।....इस अकादमी द्वारा स्वातितिरुनाल की अनेक अप्रचलित कृतियाँ प्रकाशित की गयीं हैं। सैकड़ों विद्यार्थी उन कृतियों के शुद्ध पाठ अर्थ सहित सीखकर उन्हें संगीत-कार्यक्रमों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज 'कर्नाटक संगीत' का ऐसा कार्यक्रम विरला ही होता है, जिसमें स्वातितिरुनाल की कुछ कृतियाँ न गयी जाती हों। स्वातितिरुनाल की कृतियाँ इतने ऊँचे स्तर की हैं कि वे 'कर्नाटक संगीत' की बृहत्त्रयी, 'कर्नाटक संगीत' के पितामह श्री पुरन्दरदास आदि के समकक्ष माने जाते हैं।'[23]
निश्चय ही महाराज स्वातितिरुनाल की जीवन और साहित्य अनुकरणीय है। इसी पक्ष को रेखांकित करते हुए डॉ. किरनपाल सिंह वाणी सर्वथा उचित प्रतीत होती है- 'स्वातितिरुनाल एक वैभवशाली राजा थे। ऐश्वर्यपूर्ण जीवन था। शासक के तौर पर प्रजापालन के साथ अनेक समस्याओं और झंझटों से जूझना पड़ता था। और सबसे अहम बात यह थी कि वे कम समय-अल्पायु में ही ब्रह्मलीन हो गये थे। 34 वर्ष की वय कोई अधिक नहीं होती। अपने इष्ट-देव की आराधना और साथ ही साहित्य-रचना करना कोई सरल कार्य नहीं और वह भी राजकीय परिवेश में। अपनी मातृभाषा से इतर ब्रजभाषा हिन्दी में सुन्दर गीतों की रचना कोई कम महत्त्वपूर्ण नहीं अति श्लाघनीय कार्य है। कम ही सही पर हिन्दी के लिए किये गये इस अंशदान-अवदान के लिए हिन्दी-जगत् कभी उऋण नहीं होगा, सदैव आभारी रहेगा उनका।'[24]
ब्रजमण्डल से सुदूर दक्षिण में अवस्थित केरल प्रान्त के मलयाळमभाषी शासक के द्वारा ब्रजभाषा में लिखी गयी पदावलियाँ ब्रजभाषा के माधुर्य एवं आकर्षण को सिद्ध करती हैं। ब्रजभाषा की माधुरी के लिए एक प्राक्तन उक्ति प्रचलित है, जिसमें कहा गया है कि ब्रजनारियों की वाणी में, मैथिलनारियों के कटाक्ष में, बंगालियों के दाँत में, ओड़िया स्त्रियों के जघन में, महाराष्ट्री स्त्रियों के नितम्ब में, केरल की नारियों के घने काले जूड़ों में, कन्नड़ी स्त्रियों की कटि में और गुजराती नारियों के स्तनों में कामदेव स्फुरण करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रजांगनाओं की वाणी, अर्थात् ब्रजभाषा का माधुर्य ही गर्भश्रीमान् महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा को हिन्दी-कवि की श्रेणी में स्थापित करता है-
वाचि श्री माथुरीणां जनक-जनपदस्थायिनीनां कटाक्षे
दन्ते गौडाड़्गनानां सुललितजघने चोत्कले-प्रेयसीनाम्।
महाराष्ट्री नितम्बे सजलघनरुचौ केरलीकेशपाशे-
कर्णाटीनां कटौ च स्फुरति रतिपतिर्गुर्जरीणां स्तनेषु।।[25]
●●●●
सन्दर्भ (Reference)
1. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : सम्पादक - प्रो. जी. गोपीनाथन् : वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002 : प्रथम संस्करण - 1998 ई., पृ. 127
2. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत : प्रथम संस्करण - 1963 ई., पृ. 14-15
3. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार : भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, देहरादून : प्रथम संस्करण - 2016 ई., पृ. 5
4. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 131
5. The Monarch musician - The Hindu
www.thehindu.com › article5504087
6. https://en.wikipedia.org/wiki/travancore royal family
7. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार, पृ. 5
8. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 128
9. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 128-129
10. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : रजत-जयन्ती ग्रन्थ : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा : प्रथम संस्करण - 1962 ई., पृ. 120-121
11. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत : प्रथम संस्करण - 1963 ई., पृ. 21
12. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : तदेव, पृ. 122
13. डॉ. आनन्दस्वरूप पाठक : मलयालम भाषी ब्रजभाषा कवि - स्वातितिरुनाल : हरसिंगार : साहित्य-मण्डल श्रीनाथद्वारा, अप्रैल-जून 2005 ई., पृ. 68
14. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : तदेव, पृ. 122-123
15. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : कैरली-वैभव : प्रथम संस्करण - 1976 ई., पृ. 108
16. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : तदेव : पृ. 108
17. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : तदेव : पृ. 109
18. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 36
19. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : तदेव, पृ. 54
20. महाराव लखपति सिंह 'लखधीर' : सदाशिव विवाह, छन्द संख्या 203 एवं 210 : उद्धृत - डॉ. निर्मला आसनाणी : कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला - उससे सम्बद्ध कवियों का कृतित्व : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : प्रथम संस्करण, पृ. 118
21. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 64
22. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : तदेव, पृ. 38
23. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 131-132
24. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार, पृ. 14
25. उद्धृत - आचार्य सीताराम चतुर्वेदी : हिन्दी साहित्य का इतिहास : रजत-जयन्ती ग्रन्थ : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, पृ. 36
सचिव
प्रभाश्री ग्रामोदय सेवा आश्रम
देवगढ़, शिवद्वार -231 210
सोनभद्र (उ. प्र.)
मोबाइल नम्बर : 09473614545
e-mail : drjkssanjay@yahoo.in
[मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक
#भारतीय_नरेशों_की_साहित्य_साधना
से उद्धृत]
लेखक : डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'
भारत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा पर अवस्थित अरब सागर की उद्दाम तरंगों से आलिंगित, सह्याद्रि पर्वत श्रृंखलाओं से संरक्षित एवं मलयाळम् भाषा की मणिप्रवालम् शैली से अभिव्यंजित, द्वितीया के चन्द्रमा की तरह सुन्दर आकृतिवाले, 38863 वर्ग किलोमीटर विस्तारवाले केरल प्रान्त की कला-संस्कृति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इतिहास है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान् परशुराम ने अपना परशु समुद्र में फेंक दिया था, जिसके कारण उसी आकार की भूमि समुद्र से बाहर निकली और केरल प्रान्त अस्तित्व में आया। यहाँ दसवीं सदी ईसा पूर्व से मानव जाति के निवास के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। केरल का शाब्दिक अभिप्राय समुद्र से निकला हुआ भूभाग होता है। समुद्र और पर्वत के संगम स्थान को भी केरल कहा जाता है। केरल के आधुनिक इतिहास में त्रावणकोर राज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'त्रावणकोर' शब्द की व्युत्पत्ति 'तिरुवितांकूर' से हुई है और 'तिरुवितांकूर' नाम की उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि केरल के दक्षिणी सिरे पर पश्चिमी घाट और अरब सागर के मध्य की उर्वर भूमि को 'श्रीवाष़ुंकोड' नाम से जाना जाता था, जिसका अभिप्राय 'लक्ष्मी का निवास-स्थल' है। 'श्रीवाष़ुंकोड' से 'तिरुवारंकोड' बना, जिसका देशज रूप 'तिरुवंकोड' बन गया और कालान्तर में इसी शब्द से 'तिरुवितांकूर' की उत्पत्ति हुई। ईसा के पश्चात् इस प्रदेश के शासक आय राजवंश के थे। यही प्रदेश वेणाड नाम से विख्यात हुआ। महाराज मार्तण्ड वर्मा (1729 ई. - 1758 ई.) के शासनकाल में वेणाड प्रदेश कोच्चि तक फैलकर 'तिरुवितांकूर' नाम से जगत्प्रसिद्ध हुआ। महाराज मार्तण्ड वर्मा ने आट्टिंगल, कोल्लम, कोट्टारक्करा, कायंकुळम, अम्बलप्पुष़ा रियासतों को मिलाकर तिरुवितांकूर नामक शक्तिशाली प्रदेश की आधारशिला रखी थी। महाराज मार्तण्ड वर्मा के पश्चात् महाराज कार्तिकतिरुनाल राम वर्मा धर्मराज (1758 ई. - 1798 ई.), महाराज अविट्टमतिरुनाल बालराम वर्मा (1798 ई. - 1810 ई.), महारानी गौरी लक्ष्मीबाई (1810 ई. - 1815 ई.), महारानी गौरी पार्वतीबाई (1815 ई. - 1829 ई.), महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा (1829 ई. - 1847 ई.), महाराज उत्तरमतिरुनाल मार्तण्ड वर्मा (1829 ई. - 1860 ई.), महाराज आयिल्यमतिरुनाल (1860 ई - 1880 ई), महाराज विशाखमतिरुनाल (1880 ई - 1885 ई), महाराज श्रीमूलमतिरुनाल (1885 ई - 1924 ई), महारानी सेतु लक्ष्मीबाई (1924 ई - 1931 ई) एवं महाराज चित्तिरातिरुनाल बालराम वर्मा (1931 ई - 1949 ई) का तिरुवितांकूर राज्य पर शासन रहा।
तिरुवितांकूर के इतिहास में सर्वाधिक प्रसिद्धि महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की है। महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा का जन्म चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, विक्रमाब्द 1756 (16 अप्रैल, 1813 ई.) को 'स्वाति नक्षत्र' में हुआ था। तिरुवितांकूर के राजवंश की परम्परा के अनुसार राजकुमारों का नामकरण जन्म-नक्षत्र के आधार पर होता है। इसलिए इनका नाम स्वातितिरुनाल रखा गया। स्वातितिरुनाल राम वर्मा महारानी गौरी लक्ष्मीबाई एवं राजा राजा वर्मा कोयि थम्पुरन की द्वितीय सन्तति थे। इनका पालन-पोषण चंगनास्सेरी के राजमहल में हुआ था। राजकुमारी रुक्मिणीबाई महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की ज्येष्ठा भगिनी थीं और महाराज उत्तरमतिरुनाल मार्तण्ड वर्मा (26 सितम्बर, 1814 ई. - 18 अगस्त, 1860 ई.) एक मात्र अनुज थे। हिन्दी और मलयाळम् भाषा-साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् श्री के. नारायणन् ने महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा के प्रारम्भिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- 'गर्भ में ही इन्हें राज्याधिकार प्राप्त हो गया था, इसलिए इनका 'गर्भश्रीमान्' उपनाम भी पड़ा। दो वर्ष की अवस्था में इनकी माँ गौरी लक्ष्मीबाई स्वर्ग सिधारीं। गौरी लक्ष्मीबाई की गौरी पार्वतीबाई नामक एक बहन थीं, जिन्होंने स्वातितिरुनाल को बड़े प्यार से पाल-पोसकर बड़ा किया। जिस प्रकार नवोदित चन्द्रमा कलाओं के बढ़ते बढ़ते पूर्ण विकास को प्राप्त होता है, उसी प्रकार ये कुमार भी राजोचित कलाओं में दक्षता प्राप्त करके सुशोभित हुए। संगीत और साहित्य में इनकी सहज विशेष रुचि ने थोड़े ही समय में इन्हें एक महान् वाग्गेयकार और कवि बना दिया। इन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, तमिऴ्, मराठी, हिन्दुस्तानी आदि तेरह भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि थोड़े समय में ही स्वातितिरुनाल ने राजनीति में गहरे ज्ञान के साथ साथ इतनी भाषाओं और कलाओं में निपुणता प्राप्त की। तेरह वर्ष की अवस्था में इनकी कर्नल वेल्स से मुलाकात हुई। वेल्स ने राजकुमार की बहुमुखी प्रतिभा, बहुभाषा ज्ञान आदि की भूरि भूरि प्रशंसा की। सोलह वर्ष की अवस्था में इनका राज्याभिषेक हुआ।'[1]
महाराज स्वातितिरुनल राम वर्मा का अल्पायु में ही विवाह हो गया था, परन्तु इनकी प्रथम पत्नी तिरुवात्तर अम्माची पानपिल्लई अम्मा श्रीमती नारायणी पिल्लई कोचम्मा का शीघ्र ही स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् इनका द्वितीय विवाह तिरुवात्तर अम्माची पनापिल्लई अम्मा श्रीमती नीलम्मा पिल्लई के साथ हुआ, जिनका सम्बन्ध तिरुवात्तर अम्मावीडू के परिवार से था। महाराज स्वातितिरुनाल की द्वितीय पत्नी कर्नाटक शैली की गायिका और कुशल वीणावादक थीं। द्वितीय पत्नी से ही महाराज स्वातितिरुनाल को एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, जिनका नाम तिरुवत्तर चित्तिरानाल अनन्त पद्मनाभन चम्पकरमण थम्पी था। सन् 1843 ई. में स्वातितिरुनाल ने त्रिवेन्द्रम् से विस्थापित मुदालियर की पुत्री वडस्सेरी अम्माची पानपिल्लई अम्मा सुन्दरालक्ष्मी पिल्लई के साथ अपना तृतीय विवाह कर लिया। सुन्दरालक्ष्मी को सुगन्धावल्ली के नाम से भी जाना जाता था। वे एक नृत्यांगना थीं। कहा तो यह भी जाता है कि महाराज स्वातितिरुनाल की दूसरी पत्नी ने तीसरे विवाह को मान्यता नहीं दी थी, इसलिए सुगन्धावल्ली त्रावणकोर को छोड़कर अन्यत्र चली गयीं। इससे महाराज स्वातितिरुनाल बहुत दु:खी हुए। इस सन्दर्भ में यह भी प्रसिद्ध है कि इस विरह-वेदना को महाराज स्वातितिरुनाल सहन नहीं कर पाये और इसी कारण मात्र 33 वर्ष की अल्पायु में ही हृदयघात के कारण उनका शरीरान्त हो गया।
स्वातितिरुनाल का पूरा नाम श्री पद्मनाभदास श्री स्वातितिरुनाल राम वर्मा कुलशेखर पेरुमाल था। महाराज स्वातितिरुनाल सन् 1830 ई. में हिज़ हाइनेस श्री पद्मनाभदास वंचिपाल श्री राम वर्मा कुलशेखर कीर्तिपति मान्नेय सुलतान महाराजा राजा रामराजा बहादुर शमशेर जंग के नाम से सिंहासनारूढ़ हुए। स्वातितिरुनाल कुशाग्र बुद्धि, दूरदर्शी और अत्यन्त प्रतापी थे। 'महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत' नामक पुस्तक के विद्वान् सम्पादक डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने लिखा है कि 'स्वातितिरुनाल ने कई नये शासकीय विभाग तथा संस्थाएँ प्रारम्भ कीं। मुंसिफ़-अदालतों की स्थापना उन्होंने ही की। प्रथम सरकारी अंग्रेजी हाईस्कूल (1834), व्योमनिरीक्षणालय (1836), चिड़ियाघर व संग्रहालय (1836), त्रिवेन्द्रम का सार्वजनिक पुस्तकालय (1836), सरकारी मुद्रणालय (1836) और सरकारी मरम्मत विभाग स्वातितिरुनाल के प्रयत्न के सफल चिह्न थे। कई बर्बर दण्ड-प्रणालियाँ समाप्त करके सेना के संचालन में सुधार लाकर महाराजा ने कई युगान्तकारी कार्य किये।'[2] Wikipedia भी इन्हीं तथ्यों की ओर संकेत करती है- 'स्वातितिरुनाल राम वर्मा ने ही तिरुअनन्तपुरम् की खगोलीय वेधशाला, सरकारी प्रेस, त्रिवेन्द्रम जनता पुस्तकालय, पौर्वात्य पाण्डुलिपि संग्रहालय (Oriental Manuscript Library) आदि का शुभारम्भ किया। महाराज स्वातितिरुनाल सन् 1843 ई. से रॉयल एशियाटिक सोसायटी के सम्मानित सदस्य भी थे।'
महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु-तिथि के विषय में कई धारणाएँ प्रचलित हैं। 'हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार' के विद्वान् लेखक डॉ. किरनपाल सिंह ने लिखा है- 'इनकी जन्म-तिथि पर विद्वत् समाज एकमत है, परन्तु मृत्यु-तिथि पर उनमें मत-भिन्नता है। 'केरली-वैभव' के लेखक डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै ने इनका देहावसान 25 दिसम्बर, 1846 दर्शाया है, जबकि डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर इसका वर्ष 1847 बताते हैं (महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 15)। 'अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति-कोश' के सम्पादक विश्वामित्र शर्मा ने इनका जीवन-काल 1813-1847 (पृ. 316) अंकित किया है। इस प्रकार इनकी कुल उम्र 33 वर्ष या 34 वर्ष बैठती है।'[3] इस सन्दर्भ में श्री के. नारायणन् लिखते हैं- 'संगीत और साहित्य को अपनी अमूल्य देन द्वारा समुन्नत करनेवाले इस महाराज कवि वाग्गेयकार का निधन 15-12-1846 को 34 वर्ष की अवस्था में हुआ।'[4] महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा के विषय में हिन्दी भाषा में उपलब्ध साहित्य में भले ही उनकी मृत्यु-तिथि को लेकर विद्वानों में मतैक्य न हो, किन्तु अंग्रेजी में तद्विषयक जितना भी साहित्य उपलब्ध है, सबमें महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु-तिथि 27 दिसम्बर, 1846 ई. दी हुई है। 26 दिसम्बर, 2013 ई. के 'The Hindu' के चेन्नै संस्करण में लक्ष्मी देवनाथ ने महाराज स्वातितिरुनाल की मृत्यु के विषय में लिखा है- 'A deeply distraught Swati Tirunal increasingly retreated into solitude and silence. He weakened intensely in body and mind. Death swished across the guarded doorway of his palace, a shroud billowing behind it. The monarch of Travancore and a king of a musician passed away on December 27, 1846, at 3 a.m. He was just 33'. [5] Wikipedia में भी यही तथ्य विद्यमान हैं।[6] कहने का आशय यह है कि महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की मृत्यु 27 दिसम्बर, 1846 ई. को रात्रि 3 बजे हुई थी।
महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की साहित्य एवं संगीत की रसमाधुरी से सम्पूर्ण दक्षिण भारत आप्लावित है। अनेक भाषाओं में रचित ललित कविताएँ स्वातितिरुनाल की उत्कृष्टता को सिद्ध करती हैं। डॉ. किरनपाल सिंह ने स्पष्टतः लिखा है- 'दक्षिण भारत की भूमि साहित्य-सृजन के लिए कम उपजाऊ नहीं रही। इन क्षेत्रों के साहित्यकारों ने अपनी मातृभाषाओं के साथ साथ इतर भाषाओं में भी उच्चकोटि का साहित्य रचा है, जिनमें देववाणी संस्कृत और राष्ट्रवाणी हिन्दी को प्रमुख स्थान दिया गया है। हमारे विवेच्य नायक भी इसके अपवाद नहीं रहे। स्वातितिरुनाल को दक्षिण का प्रथम हिन्दी-कवि होने का सौभाग्य प्राप्त है। वे बहुभाषाविद् थे, क्योंकि उन्होंने मलयाळम्, संस्कृत, मराठी, कन्नड़, तमिऴ्, अंग्रेजी तथा हिन्दी का गहन अध्ययन किया।'[7] महाराज स्वातितिरुनाल बहुभाषाविद् तो थे ही, साथ ही साथ रससिद्ध कवि और समर्पित भक्त थे। त्रावणकोर राज्य के चतुस्रमुखी विकास का उज्ज्वल चित्र महाराज स्वातितिरुनाल ने बनाया था। उनकी दूरदर्शी दृष्टि ही प्रशासन के साथ साथ साहित्य और संगीत का युगपत् समीकरण बना सकी। उनकी सहृदयता ही उन्हें शासक की जगह कवि, भक्त और वाग्गेयकार बनाती है। वे आंग्लयुगीन शासक होते हुए भी भगवान् पद्मनाभ के श्रीचरणों में समर्पित दास थे। त्रावणकोर के महाराजाओं का 'पद्मनाभदास' उपनाम स्वातितिरुनाल से ही चरितार्थ हुआ। उन्होंने एक अपना सम्पूर्ण जीवन राजयोगी की तरह व्यतीत किया। श्री के. नारायणन् ने स्वातितिरुनाल के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए लिखा है- 'कला और साहित्य का रसास्वादन स्वातितिरुनाल के लिए एक व्यक्तिगत मनोरंजन का विषय नहीं था, अपितु उसे आस्वादनीय मानकर दूसरे रसिकों तक प्रेरणीय भी बना देते थे। उन्होंने जगह जगह से कई विद्वानों, कवियों तथा संगीतज्ञों को आमन्त्रित कर उन्हें अपना आस्थान-विद्वान् बनाया और अपने दरबार को सुशोभित किया। इनके दरबार को अलंकृत करनेवाले विद्वानों में प्रमुख थे- किलिमानूर कोयि तम्पुरान, पंजाब सुलेमान, अलाउद्दीन, पोन्नैया, मेरुस्वामी (या अनन्तपद्मनाभस्वामी), तंजाऊर वडिवेलु, चिन्नैया, शिवानन्दम्, पालघाट वेंकटाद्रि अय्यर, परमेश्वर भागवतर, गणपति भागवतर, कन्हैया भागवतर, क्षीराब्धि शास्त्रिगल्।'[8]
स्वातितिरुनाल की कृतियों का सौरभ केरल में ही नहीं, अपितु समूचे भारत में फैला हुआ है। स्वातितिरुनाल की कृतियाँ साधारण मानव को ही नहीं, स्वयं भगवान् पद्मनाभ को भी मन्त्रमुग्ध करके अपने अधीन कर लेती हैं, क्योंकि भगवान् तो सुमधुर संगीत द्वारा गुणगान करनेवाले भक्तों के भी भक्त हैं। महाराज स्वातितिरुनाल के वाड़्मय का विधा और विस्तार की दृष्टि से विवरण निम्नलिखित है-
(अ) काव्य :
1. स्थानदूरपुरवर्णनप्रबन्धम्
2. श्रीपद्मनाभशतकम्
(आ) कथा :
1. कुचेलोपाख्यानम्
2. अजामिलोपाख्यानम्
(इ) स्तोत्र :
1. भक्तिमंजरी
(ई) संगीत :
1. विविध देवी-देवताओं की स्तुति में कई भाषाओं में रचित कीर्तन।
2. नृत्य के लिए स्वर-जातियों, तान वर्णम्, पद वर्णम्, चौक वर्णम्, पदम्, जावली, तिल्लाना आदि।
3. हिन्दुस्तानी कृतियाँ- उत्तरी संगीत के ध्रुपद, टप्पा, ख्याल प्रभृति राग-रागिनियों में निबद्ध कीर्तन।
स्वातितिरुनाल की संगीत-कृतियों में 'नवरात्रि-कीर्तन' और 'नवरत्नमालिका' का अन्यतम स्थान है। श्री के. नारायणन् ने दोनों कृतियों के कीर्तन और राग का विस्तार से विवेचन किया है। 'नवरात्रि कीर्तन' में त्रिवेन्द्रम् में अवस्थित भगवान् पद्मनाभस्वामी के मन्दिर के आस्थान-मण्डप में नवरात्रि के अवसर पर विद्वानों द्वारा गाये जाने के लिए रचित नौ ललित कीर्तन हैं-
रात्रि-कीर्तन राग
1. देवि! जगज्जननि! शंकराभरणम्
2. पाहि माँ श्रीवागेश्वरि कल्याण
3. देवि! पावने! सेवे चरणे सावेरी
4. भारति! मामव कृपया तोड़ी
5. जननि! मामवामेये! भैरवी
6. सरीरुहासनजाये! पंतुवराली
7. जननि! पाहि सदा शुद्धा सावेरी
8. पाहि जननि! सन्ततं नाटकुरंजी
9. पाहि पर्वतनन्दिनी! आरभी
'नवरत्नमालिका' में नवधा भक्ति को प्रतिपादित करनेवाले अनुपम कीर्तन हैं-
कीर्तन राग भक्ति-प्रकार
1. भवदीपकथाभिनवसुधायाम् भैरवी श्रवणम्
2. तावकनामानि शुभदानि केदारगौलम् कीर्तनम्
3. सतत संस्मरणीह नीलाम्बरी स्मरणम्
4. पंकजाक्ष! तव सेवाम् तोड़ी पादसेवनम्
5. आराध्यामि करणत्रेयेणाहम् विलहरि अर्चनम्
6. वन्दे देवदेव बंगड़ वन्दनम्
7. परमपुरुष! ननु कर्म आहिरी दास्यम्
8. भवति विश्वासो मे भवतु मुखारी सख्यम्
9. देवदेवः कल्पयामि नाभनामक्रिया आत्मनिवेदनम् [9]
वस्तुतः उच्चकोटि की कला भाषा-भेद को नहीं मानती। प्रत्येक भाषा की अच्छी चीज़ों को स्वीकार कर लेती है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण महाराज स्वातितिरुनाल द्वारा हिन्दुस्तानी संगीत के ध्रुवपद, टप्पा, ख्याल प्रभृति राग-रागिनियों में निबद्ध हिन्दी के पद एवं कीर्तन हैं। गर्भश्रीमान् स्वातितिरुनाल राम वर्मा ने हिन्दी में लगभग चालीस पद और गीत लिखे हैं। प्रारम्भ में ये गीत और पद मलयाळम् लिपि में ही निबद्ध थे, किन्तु सन् 1939 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की मुख-पत्रिका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' में श्री एन. वेंकटेश्वरन् ने उन गीतों को कवि की जीवनी के साथ प्रकाशित करवाया था। स्वातितिरुनाल की कविता पर टिप्पणी करते हुए श्री एन. वेंकटेश्वरन् लिखते हैं- 'गर्भश्रीमान् के हिन्दी पदों और कीर्तनों की भाषा में खड़ीबोली और ब्रजभाषा का सुन्दर सम्मिश्रण हुआ है। उनमें असीम श्रीकृष्ण-भक्ति के सूक्ष्म तथा मार्मिक भावों का अभिव्यंजन हुआ है। समुचित स्थानों पर सार्थक शब्द-रत्नों का सुन्दर चयन करके अपने पदों और गीतों की गति और गेयता में कमनीयता और कर्णप्रियता पैदा करने की कला ही गर्भश्रीमान् की लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता है। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में रचे हुए उनके तमाम पदों और कीर्तनों में हम एक सच्चे भक्त के सम्पूर्ण आत्मसमर्पण और तल्लीनता की अनुभूति का अभिव्यंजन पा सकते हैं। वे एक महान् तत्त्ववेत्ता, दार्शनिक, विद्वान् अथवा महान् उपदेशक नहीं थे। वे मुख्यतः एक रसिक भावुक भक्तकवि और सफल गायक मात्र थे। अपने इष्टदेव तथा कुलदेव श्रीपद्मनाभ के प्रति अपनी अपार एवं अकलंक भक्ति की अभिव्यक्ति करना, उनके प्रेम में मस्त होकर अपने आपको भूल जाना, उनके प्रति होनेवाली भक्ति के सामने समस्त संसार को तुच्छ मानना, श्रीपद्मनाभ को छोड़कर दूसरे देवों की गौड़ता दिखाना आदि बातें हम गर्भश्रीमान् की प्रत्येक कविता में पाते हैं।'[10]
महाराज स्वातितिरुनाल के अधिकांश हिन्दी-गीत भक्तिपरक हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवताओं की अर्चना की गयी है। डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने स्वातितिरुनाल के हिन्दी-गीतों को विषयवार विभाजित करते हुए लिखा है- '(1) श्रीकृष्ण सम्बन्धी - 20, (2) रामचन्द्र सम्बन्धी - 4, (3) देवी-सम्बन्धी - 9, (4) प्रेयसी-प्रिय-वार्ता - 7, (5) सामान्य भक्ति - 2। जैसा कि गीतों की संख्या से विदित होता है, श्रीकृष्ण सम्बन्धी और प्रेयसी-प्रिय-वार्ता के गीत प्रमुख हैं। श्रीकृष्ण के विविध रूपों में मुरलीधर, गोपी-चित्तचोर और कालियादमन रूपों की कीर्ति इन्होंने अधिक गायी है। चाहे बाललीला हो, चाहे विरह-वार्ता या विनय-निवेदन, प्रत्येक प्रसंग पर जयदेव की-सी सरसता प्रकट होती है। राजपद, यौवन एवं कलावन्तों के सतसंग में ऐसी सरसता का रहना स्वाभाविक है।'[11]
वस्तुतः महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा केरल के प्रथम हिन्दी-कवि हैं। उनके पद मीरा, सूर, तुलसी प्रभृति के पदों के समान कर्णप्रिय एवं भावपूर्ण हैं। तथा-
मैं तो नहिं जाऊँ जननी जमुना के तीर।
इतनी सुनके मात जसोदा पूछति मुरहर से।
क्यों नहीं जावत धेनु चरावन बालन कह हमसे।
कहत हरी सब ग्वालिन मिलि हम मींजत घन कुच से।
जब सब लाज-भरी ब्रजवासिनि कहे न कहो दृग से।
तौं हूँ बात सबै मधुसूदन बोले जसुमति से।
जब तब गोपिन सब हरि के मुख ढाँकत निज कर से।
ऐसी लीला कोटि कियो कैसे जायो मधुबन से।
'पद्मनाभ' प्रभु दीन-उधारण पालो सब दुख से।।[12]
उपर्युक्त गीत को केन्द्र में रखकर डॉ. आनन्दस्वरूप पाठक लिखते हैं- 'कवि की दृष्टि कृष्ण-भक्त कवियों द्वारा प्रतिपादित कृष्ण-जीवन के सभी रसमय स्थलों पर गयी है। किशोर और बालकृष्ण ही कवि के उपास्य हैं। गोपियों की रीझ-खीझ, गोपी-मिलन, बाल-लीलाएँ, वन्दन पद, उद्धव-गोपी-संवाद, बाँसुरी के प्रति उपालम्भ आदि अनेक विषय कवि की रूप विधायिनी तूलिकावत लेखनी से साकार हो उठे हैं। अबोध बालक गाय न चराने जाने का कारण कितने सहज रूप से कह देता है कि माँ! गोपियाँ मुझे अपने पीवर स्तनों से भींच देती हैं। उस प्रसंग में गोपियों का बालकृष्ण को नैनों-सैनों से मना करना कितना मनोवैज्ञानिक व स्वाभाविक है।'[13]
महाराज स्वातितिरुनाल भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और भगवती राधा को अपने मन में विराजित करने की कामना करते हैं-
कृष्णचन्द्र राधा मनमोहन मेरे मन मैं विराजो जी।
मोर पिंछ कटि काछनी राजे कर मुरली उर माल लसे।
फणिवर के पर निरत करत प्रभु देव मनीश्वर मगन बसे।
हाथ जोड़ सब नाग-बधूजन करें बिनती हरि चरण से।
छोड़ो हमारे प्रीतम को हम अंचल धोवैं असुवन से।
'पद्मनाभ' प्रभु फणि पर शायी कब जीवौ चितवन से।
ऐसी लीला कोटि तुमारी नहीं कहि जावे कविजन से।।[14]
उपर्युक्त पद की सरसता मीरा और सूर के पदों के समतुल्य है। स्वातितिरुनाल ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का मार्मिक चित्रण किया है। एक गोपांगना श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी का वर्णन दूसरी गोपांगना से करते हुए कहती है-
बंसीवाले ने मन मोहा।
बोली बोले मीठी लागे दरदर उमंग करावे।
बेणन बाजे तान गावे निसिदिन गोपियाँ रिजावे।
साँवरो रंग मोहनी अंग सुमरन तन की भुलावे।
कालिन्दी के तीर ठाढ़े मोहन बाँसुरी बजावे।
'पद्मनाभ' प्रभु दीनबन्धु सुर नर चरण मनावे।।[15]
महाराज स्वातितिरुनाल रचित श्रीकृष्ण-विषयक कतिपय पद यहाँ उद्धृत हैं-
(1)
चलिये कुंजन मो तुम हम मिल स्याम हरी।
देखो जमुना रे बही सुन्दर अति नीर भरी।
छोड़िये कैसे मोकूँ मैं तो तेरे हाथ धरी।
सुनिये कोइल के बोल पिया क्या कह री।।[16]
(2)
सुनो सखि! मेरी मन की दरद री।
जब फिरती मैं रंग-महल में
सेज पलँग पर तड़के जाती।
बेला चमेली दौना मरुवा
चम्पई गुलाब की हार बनाती।
जैसे जल बिन तरसत पंछी
तरस रही मेरो पिय बिन छाती।
सोवत नाहिं लगे गोरि निद्रा
बीच बीच पिया कू बुलाती।
निसि दिन भर भर चोवा रे चन्दन
अतर अगरजा अंग लगाती।।[17]
(3)
आज उनींदे चले आये ठाढ़ो मोरे अँगना
बृजराज नन्दकुँवर माई! गिरिधारी।
कोमल कपोलन में राजे जाके बिन्दन
अंजन अधर लसे चित्र-रूप-धारी।
मोसो कह आवन औरन ते रति पायो
मैं तो जागि रही, अब भोर भयो प्यारी।
'पद्मनाभ' दीनबन्धु छोड़े कैसे मोहे सखी!
गोपीनाथ साँवरो एरी बनवारी।।[18]
महाराज स्वातितिरुनाल के भक्ति-गीतों पर संगीत की राग-रागियों का स्पष्ट प्रभाव है। भगवान् श्रीराम के नृत्य को तालबद्ध करने का जैसा सुन्दर उपक्रम स्वातितिरुनाल ने किया है, वैसा वर्णन एक संगीताचार्य ही कर सकता है-
नाचे रघुनाथ रंग दासीजन गावे।
झनक झनक कनक कनक तोंततारि तनतनारि
ध्रिकिधा धिलांक मधुर धुन बजावे।
थिरक थिरक थैय थैय दीतथिं ततकथ थैय्य
ध्रुकुटधीं ध्रुकुटधीं ताधिन्न तान सुर मिलावे।
सुर नरेश मुनि गणेश तेरो ही प्रताप गावे
'पद्मनाभ' चरणदास कामित फल पावे।।[19]
इस तरह की संगीतबद्ध रचनाएँ कच्छ-भुज-नरेश महाराव लखपति सिंह 'लखधीर' कृत 'सदाशिव विवाह' नामक ग्रन्थ में प्राप्त होती हैं-
ताधिकि धिधिकटि धि धिकटि धिलांग।
धुकु धुकुटि धुकुटि धिवतां धुगांग।
ता थुंग थुंग बज्जत मृदंग।
अस नृतत नटेसुर नवल रंग।।
* * * *
बोलन्त बुलैया तान बोल।
तत् थेइ थेइ थेइ तान बोल।
तत् उघटन्त ताण्डव नि अंग अंग।
इमि नृतत नटेसुर नवल रंग।।[20]
इसी क्रम में प्रभु श्रीरामचन्द्र के श्रीचरणों में निवेदित दो पद और भी द्रष्टव्य हैं-
(1)
रामचन्द्र प्रभु! तुम बिन प्यारे कौन खबर ले मेरी।
बाज रही जिनकी नगरी मो सदा धरम की भेरी।
जाके चरण-कमल की रज से तिरिया तन कू फेरी।
औरन कूँ कछु और भरोसा हमें भरोसा तेरी।
'पद्मनाभ' प्रभु फणि पर शायी कृपा करो क्यों देरी।।[21]
(2)
अवध सुखदाई अब बाजे बधाई।
रतन सिंहासन के पर रधुपति सीता सहित सुहायो।
राम भरत सुमित्रनन्दन ठाढ़े चामर चतुर डुलायो।
गाँव गाँव जन मंगल गावत देवन वाद्य बजायो।
राम रावण मारे, असुर सब मारे, राज विभीषण पायो।
माता कौसल्या करत आरती निज मनवांछित पायो।
राम 'पद्मनाभ' प्रभु! फणि पर शायी त्रिभुवन सुख आयो।।[22]
महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा की कृतियों को उनके रचना-काल में थोड़ी-बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हो गयी थी। उनके राजदरबार में विद्वानों द्वारा उनकी कृतियाँ गायी जाती थीं। मन्दिरों में भी स्वातितिरुनाल के पद गाये जाते थे, किन्तु उनकी अमूल्य कृतियों का जितने बड़े पैमाने पर प्रचारित होना चाहिए था, उतना लगभग पाँच दशक पूर्व तक नहीं हुआ था। श्री के. नारायणन् ने लिखा है- 'केरल की पाठशालाओं में लड़कियों को संगीत सिखाया जाता था, पर कुछ इने-गिने गानों को छोड़कर अन्य गाने स्वातितिरुनाल के नहीं थे। शीघ्र ही कुछ धीमानों का ध्यान इस भूल की ओर आकृष्ट हुआ। स्वातितिरुनाल के अनेक सुन्दर गीत अप्रचलित पड़े थे। उन गीतों को खोज निकाल कर और नयी नयी धुनों में बिठाकर उनको व्यापक तौर पर प्रचलित करने का ज़ोरदार प्रयत्न शुरू हुआ। प्रमुखतः इसी उद्देश्य से ई. 1940 में त्रिवेन्द्रम् में 'श्री स्वातितिरुनाल म्यूजिक अकादमी' कि स्थापना हुई।....इस अकादमी द्वारा स्वातितिरुनाल की अनेक अप्रचलित कृतियाँ प्रकाशित की गयीं हैं। सैकड़ों विद्यार्थी उन कृतियों के शुद्ध पाठ अर्थ सहित सीखकर उन्हें संगीत-कार्यक्रमों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज 'कर्नाटक संगीत' का ऐसा कार्यक्रम विरला ही होता है, जिसमें स्वातितिरुनाल की कुछ कृतियाँ न गयी जाती हों। स्वातितिरुनाल की कृतियाँ इतने ऊँचे स्तर की हैं कि वे 'कर्नाटक संगीत' की बृहत्त्रयी, 'कर्नाटक संगीत' के पितामह श्री पुरन्दरदास आदि के समकक्ष माने जाते हैं।'[23]
निश्चय ही महाराज स्वातितिरुनाल की जीवन और साहित्य अनुकरणीय है। इसी पक्ष को रेखांकित करते हुए डॉ. किरनपाल सिंह वाणी सर्वथा उचित प्रतीत होती है- 'स्वातितिरुनाल एक वैभवशाली राजा थे। ऐश्वर्यपूर्ण जीवन था। शासक के तौर पर प्रजापालन के साथ अनेक समस्याओं और झंझटों से जूझना पड़ता था। और सबसे अहम बात यह थी कि वे कम समय-अल्पायु में ही ब्रह्मलीन हो गये थे। 34 वर्ष की वय कोई अधिक नहीं होती। अपने इष्ट-देव की आराधना और साथ ही साहित्य-रचना करना कोई सरल कार्य नहीं और वह भी राजकीय परिवेश में। अपनी मातृभाषा से इतर ब्रजभाषा हिन्दी में सुन्दर गीतों की रचना कोई कम महत्त्वपूर्ण नहीं अति श्लाघनीय कार्य है। कम ही सही पर हिन्दी के लिए किये गये इस अंशदान-अवदान के लिए हिन्दी-जगत् कभी उऋण नहीं होगा, सदैव आभारी रहेगा उनका।'[24]
ब्रजमण्डल से सुदूर दक्षिण में अवस्थित केरल प्रान्त के मलयाळमभाषी शासक के द्वारा ब्रजभाषा में लिखी गयी पदावलियाँ ब्रजभाषा के माधुर्य एवं आकर्षण को सिद्ध करती हैं। ब्रजभाषा की माधुरी के लिए एक प्राक्तन उक्ति प्रचलित है, जिसमें कहा गया है कि ब्रजनारियों की वाणी में, मैथिलनारियों के कटाक्ष में, बंगालियों के दाँत में, ओड़िया स्त्रियों के जघन में, महाराष्ट्री स्त्रियों के नितम्ब में, केरल की नारियों के घने काले जूड़ों में, कन्नड़ी स्त्रियों की कटि में और गुजराती नारियों के स्तनों में कामदेव स्फुरण करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रजांगनाओं की वाणी, अर्थात् ब्रजभाषा का माधुर्य ही गर्भश्रीमान् महाराज स्वातितिरुनाल राम वर्मा को हिन्दी-कवि की श्रेणी में स्थापित करता है-
वाचि श्री माथुरीणां जनक-जनपदस्थायिनीनां कटाक्षे
दन्ते गौडाड़्गनानां सुललितजघने चोत्कले-प्रेयसीनाम्।
महाराष्ट्री नितम्बे सजलघनरुचौ केरलीकेशपाशे-
कर्णाटीनां कटौ च स्फुरति रतिपतिर्गुर्जरीणां स्तनेषु।।[25]
●●●●
सन्दर्भ (Reference)
1. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : सम्पादक - प्रो. जी. गोपीनाथन् : वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002 : प्रथम संस्करण - 1998 ई., पृ. 127
2. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत : प्रथम संस्करण - 1963 ई., पृ. 14-15
3. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार : भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, देहरादून : प्रथम संस्करण - 2016 ई., पृ. 5
4. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 131
5. The Monarch musician - The Hindu
www.thehindu.com › article5504087
6. https://en.wikipedia.org/wiki/travancore royal family
7. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार, पृ. 5
8. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 128
9. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 128-129
10. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : रजत-जयन्ती ग्रन्थ : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा : प्रथम संस्करण - 1962 ई., पृ. 120-121
11. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत : प्रथम संस्करण - 1963 ई., पृ. 21
12. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : तदेव, पृ. 122
13. डॉ. आनन्दस्वरूप पाठक : मलयालम भाषी ब्रजभाषा कवि - स्वातितिरुनाल : हरसिंगार : साहित्य-मण्डल श्रीनाथद्वारा, अप्रैल-जून 2005 ई., पृ. 68
14. श्री एन वेंकटेश्वेरन् : केरल की हिन्दी को देन : तदेव, पृ. 122-123
15. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : कैरली-वैभव : प्रथम संस्करण - 1976 ई., पृ. 108
16. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : तदेव : पृ. 108
17. डॉ. एन. पी. कुट्टन पिल्लै : तदेव : पृ. 109
18. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 36
19. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : तदेव, पृ. 54
20. महाराव लखपति सिंह 'लखधीर' : सदाशिव विवाह, छन्द संख्या 203 एवं 210 : उद्धृत - डॉ. निर्मला आसनाणी : कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला - उससे सम्बद्ध कवियों का कृतित्व : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : प्रथम संस्करण, पृ. 118
21. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : महाराजा स्वातितिरुनाल के हिन्दी गीत, पृ. 64
22. डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर : तदेव, पृ. 38
23. श्री के. नारायणन् : केरल की सांस्कृतिक विरासत : तदेव, पृ. 131-132
24. डॉ. किरनपाल सिंह : हिन्दी के दिवंगत अल्पायु रचनाकार, पृ. 14
25. उद्धृत - आचार्य सीताराम चतुर्वेदी : हिन्दी साहित्य का इतिहास : रजत-जयन्ती ग्रन्थ : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, पृ. 36
सचिव
प्रभाश्री ग्रामोदय सेवा आश्रम
देवगढ़, शिवद्वार -231 210
सोनभद्र (उ. प्र.)
मोबाइल नम्बर : 09473614545
e-mail : drjkssanjay@yahoo.in
[मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक
#भारतीय_नरेशों_की_साहित्य_साधना
से उद्धृत]
Comments
Post a Comment