भारतीय_इतिहास_का_विकृतीकरण भाग -1

नमस्कार
#भारतीय_इतिहास_का_विकृतीकरण -
 कम्पनी सरकार ने भारत के इतिहास में विकृतियाँ लाने के लिए विभिन्न प्रकार की भ्रान्तियों का निर्माण कराकर उनको विभिन्न स्थानों पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्रकार से प्रचारित कराया। मैं कुछ विकृतियों का उल्लेख 4 खण्डों, यथा- ऐतिहासिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक और विविध में वर्गीकृत करके करूँगा जो क्रमशः खंडों में होंगें -
                                    भाग -1
                       ■ऐतिहासिक■ खण्ड (क)
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#आर्य_लोग_भारत_में_बाहर_से_आए --
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इसके कुल 4 भाग है तो आइए प्रथम भाग से शुरू करते है -
#अंग्रेजों ने भारत में विदेश से आकर की गई अपनी सत्ता की स्थापना को सही ठहराने के उद्देश्य से ही आर्यों के सम्बन्ध में, जो कि यहाँ के मूल निवासी थे, यह प्रचारित कराना शुरू कर दिया कि वे लोग भारत में बाहर से आए थे और उन्होंने भी बाहर से ही आकर यहाँ अपनी राज्यसत्ता स्थापित की थी। फिर उन्होंने आर्यों को ही नहीं, उनसे पूर्वआई नीग्रीटो, प्रोटो आस्ट्रोलायड, मंगोलाभ, द्रविड़ आदि विभिन्न जातियों को भी भारत के बाहर से आने वाली बताया।

#यह ठीक है कि पाश्चात्य विद्वान और उनके अनुसरण में चलने वाले भारतीय इतिहासकार ‘आर्यों‘ को भारत में बाहर से आने वाला भले ही मानते हों किन्तु भारत के किसी भी स्रोत से इस बात की पुष्टि नहीं होती। अनेक भारतीय विद्वान इसे मात्र एक भ्रान्ति से अधिक कुछ नहीं मानते। भारत के अधिकांश वैदिक विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि यहाँ की किसी भी प्राचीन साहित्यिक या अन्य प्रकार की रचना में कोई भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, जिससे यह सिद्ध होता हो कि आर्यों ने बाहर से आकर यहाँ राज्य सत्ता स्थापित की थी।

#आर्यों के आदि देश, आर्य भाषा, आर्य सभ्यता औरसंस्कृति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन और प्रामाणिक साक्ष्य ऋग्वेद है। यह आर्यों का ही नहीं विश्वका सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है किन्तु इसमें जितना भी भौगोलिक या सांस्कृतिक उल्लेख आता है वहसब इसी देश के परिवेश का है। ‘ऋग्वेद‘ के नदी सूक्त में एक भी ऐसी नदी का नाम नहीं मिलता जो भारत के बाहर की हो। इसमें गंगा, सिन्धु, सरस्वती आदि का ही उल्लेख आता है। अतः इन नदियों सेघिरी भूमि ही आर्यों का देश है और आर्य लोग यहीं के मूल निवासी हैं। यदि आर्य कहीं बाहर से आए होते तो कहीं तो उस भूमि अथवा परिवेश का कोई तो उल्लेख ऋग्वेद में मिलता।

#इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आर्यों ने भारतको ही अपनी मातृभूमि, धर्मभूमि और कर्मभूमि मानकर जिस रूप में अपनाया है वैसा किसी भी पराए देश का निवासी उसको नहीं अपना सकता था। यहाँ यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यों ने सप्तसिन्धु के बाहर के निवासियों को बहुत ही घृणापूर्वक ‘म्लेच्छ‘ कहकर पुकारा है - ‘म्लेच्छ देश ततः परः।‘ (मनु.) क्या ऐसा कहने वाले स्वयं म्लेच्छ देश से आने वाले हो सकते हैं, ऐसा नहीं हो सकता।

#दूसरी ओर भारत के इतिहास लेखन के क्षेत्र में 18वीं और 19वीं शताब्दी में आने वाले पाश्चात्य विद्वानों ने अपने तर्कों के सामने, भले ही वे अनर्गल ही क्यों न रहे हों, इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। उल्टे अपने कथ्यों से सभी को इस प्रकार का विश्वास दिलाने का पूरा प्रयास किया कि आर्य लोग भारत में बाहर से ही आए थे जबकि भारत के संदर्भ में विश्व केभिन्न-भिन्न देशों में मिल रहे प्राचीन ऐतिहासिक एवं साहित्यिक ब्योरों तथा उत्खननों में मिल रही पुरातात्विक सामग्रियों का जैसे-जैसे गहन अध्ययन होता जा रहा है, वैसे-वैसे विद्वान लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे हैं कि भारत ही आर्यों का मूल स्थान है और यहीं से आर्य बाहर गए थे। वे लोग बाहर से यहाँनहीं आए थे।

#इस_दृष्टि से विदेशी विद्वानों में से यूनान के मेगस्थनीज, फ्राँस के लुई जैकालियट, इंग्लैण्ड के कर्जन, मुरो, एल्फिन्सटन आदि तथा देशी विद्वानों में से स्वामी विवेकानन्द, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, डॉ. सम्पूर्णानन्द, डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा हैकि आर्य भारत में विदेशी नहीं थे। दूसरी ओर मैक्समूलर, पोकॉक, जोन्स, कुक टेलर, नारायण पावगी, भजनसिंह आदि अनेक विदेशी और देशी विद्वानों का तो यह मानना रहा है कि आर्य विदेशों से भारत में नहीं आए वरन भारत से ही विदेशों में गए हैं।

#जिस समय यूरोप के अधिकांश विद्वान और भारत के भी अनेक इतिहासकार यह मान रहे थे कि आर्य भारत में बाहर से आए, तभी 1900 ई. में पेरिससम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द जी ने यह सिंह गर्जना की थी कि यह एक मूर्खतापूर्ण प्रलाप मात्र है कि भारत में आर्य बाहर से आए हैं -

“Where is your proof, guess work, then keep your fancifulguess to your self. In which veda, in which sutra do you find that Aryans have come into India from a foreign country ? What your European pundits say about the Aryan’s swooping down from some foreign land, snatchng away the lands of aborigines and settling in India by exterminating them, is all pure non sense, foolish talk !”
#आर्यों के भारत से विदेशों में जाने की दृष्टि से जब प्राचीन भारतीय वाङ्मय का अध्ययन किया जाता है तो ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत के लोग एक-दो बार नहीं वरन बार-बार विदेश जाते रहे हैं। इनका प्रव्रजन कभी राजनीतिक कारणों से, यथा- ऋग्वेद और जेन्द अवेस्ता के अनुसार देवयुग में इन्द्र की सत्ता के भय से त्वष्टा का और विष्णुपुराण के अनुसार महाराजा सगर से युद्ध में हार जाने पर व्रात्य बना दिए जाने से शक, काम्बोज,पारद आदि क्षत्रिय राजाओं का और कभी सामाजिक कारणों, यथा- ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार विश्वामित्र के 50 पुत्रों के निष्कासन आदि से हुआ है। महाभारत युद्ध में मृत्यु के भय या हार जाने पर अपमानित महसूस करने पर आत्मग्लानी के और श्रीकृष्ण जी के स्वर्गारोहण से पूर्व हुए यादवी संघर्ष के फलस्वरूप भी बहुत से लोग भागकर देश के बाहर गए थे। यही नहीं, कभी-कभी स्वेच्छा से व्यापार, भ्रमण, धर्म प्रसार और उपनिवेश-निर्माण के हेतु भी भारतीयों ने प्रव्रजन किया है।
#विशेष -इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य और द्रविड़ अलग नहीं थे। जब अलग थे ही नहीं तो यह कहना कि भारत के मूल निवासी आर्य नहीं द्रविड़ थे, ठीक नहीं है। अब समय आ गया है कि आर्यों के आक्रमण और आर्य-द्रविड़ भिन्नता वाली इस मान्यता को विभिन्न नई पुरातात्विक खोजों और शोधपरक अध्ययनों के प्रकाश में मात्र राजनीतिक ‘मिथ‘ मानकर त्याग दिया जाना चाहिए।

#भारतीय_इतिहास_का_विकृतीकरण -
 कम्पनी सरकार ने भारत के इतिहास में विकृतियाँ लाने के लिए विभिन्न प्रकार की भ्रान्तियों का निर्माण कराकर उनको विभिन्न स्थानों पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न प्रकार से प्रचारित कराया। मैं कुछ विकृतियों का उल्लेख 4 खण्डों, यथा- ऐतिहासिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक और विविध में वर्गीकृत करके करूँगा जो क्रमशः खंडों में होंगें -                            
                                   भाग - 1
                       ■ऐतिहासिक■ खण्ड (ख)
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#आर्यों_ने_भारत_के_मूल_निवासियों_को_युद्धों_में_हराकर_दास_या_दस्यु_बनाया
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अंग्रेजों द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ‘बांटों और राज्य करो‘ की नीति के अनुसार फैलाई गई विभिन्न भ्रान्तियों में से ही यह भी एक थी। सर्वप्रथम यह विचार ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया‘ में प्रतिपादित किया गया था कि आर्य लोगों ने विदेशों से आकर भारत पर आक्रमण करके यहाँ के मूल निवासी द्रविड़, कोल, भील, सन्थाल आदि को अपनी शक्ति के बल पर पराजित करके जीता और अपमानित करके उन्हें दास या दस्यु बनाया।

आर्यों द्वारा बाहर से आकर स्थानीय जातियों को जीतने के प्रश्न पर भारत के प्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है कि ऋग्वेद में ‘दास‘ और ‘दस्यु‘ को आर्यों का शत्रु अवश्य बताया गया है और उसमें ऐसे मंत्र भी आए हैं, जिसमें वैदिक ऋषियों ने अपने देवताओं से उनको मारने और नष्ट करने की प्रार्थनाएँ भी की हैं किन्तु इससे भारत में आर्यों के आक्रमण के पक्ष में निर्णय नहीं किया जा सकता। उन्होंने ऋग्वेद के आधार पर इस सम्बन्ध में तीन तर्क प्रस्तुत किए हैं-

(1) #ऋग्वेद में आर्यों और दासों या दस्युओं के बीच युद्धों के संदर्भ नहीं मिलते। ऋग्वेद में 33 स्थानों पर ‘युद्ध‘ शब्द आया है, जिनमें से केवल आठ स्थानों में उसका प्रयोग ‘दस्यु‘ के विरोधी अर्थ में हुआ है और वह भी दोनों के मध्य किसी बड़े युद्ध को नहीं, बल्कि छिटपुट लड़ाइयों को ही दर्शाता है, जिनके आधार पर आर्यों की विजय-कथा को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।

(2) #दासों और आर्यों के बीच जो भी छिटपुट संघर्ष था, वह दोनों की आपसी सहमति से शान्तिपूर्ण ढंग से तय हो गया था। ऋग्वेद (6. 33. 3,7. 83. 1, 8. 51. 9, 10. 102. 3) से यह भी स्पष्ट होता है कि दासों और आर्यों का एक ही शत्रु था और दोनों ने मिलकर अपने शत्रु के विरुद्ध युद्ध किया था।

(3)#संघर्ष या विरोध का कारण जातीय नहीं था, अपितु उपासना भेद था। स्वयं ऋग्वेद से ही यह प्रमाणित होता है कि यह संघर्ष उपासना भेद के कारणों से उत्पन्न हुआ था, जाति के भेद के कारण नहीं क्योंकि, ऋग्वेद के मंत्र (1. 51. 8, 1. 32. 4, 4. 41. 2, 6. 14. 3) बताते हैं कि आर्यों और दासों या दस्युओं के उपासना से सम्बंधित आचार-विचार भिन्न-भिन्न थे।

#डॉ. अम्बेडकर ने अपने मत की पुष्टि में ऋग्वेद के मंत्र सं. 10.22.8 को विशेष रूप से उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है -

‘‘#हम दस्युओं के बीच में रहते हैं। वे लोग न तो यज्ञ करते हैं और न किसी में विश्वास ही करते हैं। इनके रीति-रिवाज भी पृथक हैं। वे मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं हैं। हे, शत्रु हंता ! तू उनका नाश कर।‘‘
डॉ. साहब का कहना है कि ऐसे मंत्रों के सामने दासों या दस्युओं को आर्यों द्वारा विजित करने के सिद्धान्त को किसी प्रकार से नहीं माना जा सकता। अपने कथन की पुष्टि में डॉक्टर साहब ने श्री पी. टी. आयंगर के लेख का एक उद्धरण दिया है-

‘‘#मंत्रों के परीक्षण से ज्ञात होता है कि उनमें जो आर्य, दास या दस्यु शब्द आए हैं, वे जाति-सूचक नहीं हैं, अपितु उनसे आस्था या उपासना का बोध होता है। वे शब्द मुख्य रूप से ऋग्वेद-संहिता में आए हैं। इनसे कहीं भी यह प्रमाणितनहीं होता कि जो जातियाँ अपने-आपको आर्य कहती थीं, वे हमलावर थीं और उन्होंने इस देश कोविजित करके यहाँ के लोगों का नाश किया था ...‘‘
दास या दस्यु कौन थे, इस संदर्भ में कुल्लूक नाम के एक विद्वान का यह कथन, जो उसने मनुस्मृति की टीका में लिखा है, उल्लेखनीय है- ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र जाति में, जो क्रियाहीनता के कारण जातिच्युत हुए हैं, वे चाहे म्लेच्छभाषी होंया आर्यभाषी, सभी दस्यु कहलाते हैं।

#ऋग्वेद का यह मंत्र -

अकर्मादस्युः अमिनो अमन्तु अन्यव्रती अमानुषः ।
त्वं तस्य अभिन्न हन वधोदासस्य दम्भये ।।
कर्महीन, मननहीन, विरुद्धव्रती और मनुष्यता से हीन व्यक्तिको दस्यु बताकर उसके वध की आज्ञा देता है और ‘दास‘ तथा ‘दस्यु‘ को अभिन्नार्थी बताता है। यदि दस्यु का अर्थ आज की भाँति दास या सेवक होता तो ऐसी आज्ञा कभी नहीं दी जाती।

#ऐतरेय ब्राह्मण में एक स्थान पर कहा गया है - ‘‘तुम्हारे वंशधर भ्रष्ट होंगे। यही (भ्रष्ट या संस्कार विहीन) आन्ध्र, पुण्ड्र, शवर आदि उत्तर दिक् वासी अनेकजातियाँ हैं‘‘ दूसरे शब्दों में सभ्यता और संस्कार विहीन लोगों की वंश परम्पराएँ चलीं और स्वतः ही अलग-अलग जातियाँ बन गईं, इन्हें किसी ने बनाया नहीं। आज की जरायमपेशा जातियों में ब्राह्मण भी हैं और राजपूत भी।

#श्रीरामदास गौड़ कृत ‘हिन्दुत्व‘ के पृष्ठ 772 पर दिए गएउक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि दस्यु या दास कैसे बने ? अतः आर्यों द्वारा भारत केमूल निवासियों को हराकर उन्हें दास या दस्यु बनाने की बात एक भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं।

#भारत_के_मूल_निवासी_द्रविड -

अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत में यह कोई जानताही नहीं था कि द्रविड़ और आर्य दो अलग-अलग जातियाँ हैं। यह बात तो देश में अंग्रेजों के आने के बाद ही सामने लाई गई। अंग्रेजों को यह कहना भी इसलिए पड़ा क्योंकि वे आर्यों को भारत में हमलावर बनाकर लाए थे। हमलावर के लिए कोई हमला सहने वाला भी तो चाहिए था। बस, यहीं से मूल निवासी की कथा चलाई गई और इसे सही सिद्ध करने के उद्देश्य से ‘द्रविड़‘ की कल्पना की गई। अन्यथाभारत के किसी भी साहित्यिक, धार्मिक या अन्य प्रकार के ग्रन्थ में इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य कहीं बाहर से आए थे। यदि थोड़ी देर के लिए इस बात को मान भी लियाजाए कि आर्यों ने विदेशों से आकर यहाँ के मूल निवासियों को युद्धों में हराया था तो पहले यह बताना होगा कि उन मूल निवासियों के समय इस देश का नाम क्या था ? क्योंकि जो भी व्यक्ति जहाँ रहते हैं, वे उस स्थान का नाम अवश्य रखते हैं। जबकि किसी भी प्राचीन भारतीय ग्रन्थ या तथाकथित मूल निवासियों की किसी परम्परा या मान्यता में ऐसे किसी भी नाम का उल्लेख नहीं मिलता।

‘#संस्कृति के चार अध्याय‘ ग्रन्थ के पृष्ठ 25 पर रामधारीसिंह ‘दिनकर‘ का कहना है कि जाति या रेस (race) का सिद्धान्त भारत में अंग्रेजों के आने के बाद ही प्रचलित हुआ, इससे पूर्व इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि द्रविड़ और आर्य जाति के लोग एक दूसरे को विजातीय समझते थे। वस्तुतः द्रविड़ आर्यों के ही वंशज हैं। मैथिल, गौड़, कान्यकुब्ज आदि की तरह द्रविड़ शब्द भी यहाँ भौगोलिक अर्थ देने वाला है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि आर्यों के बाहरसे आने वाली बात को प्रचारित करने वालों में मि. म्यूर, जो सबके अगुआ थे, को भी अन्त में निराश होकर यह स्वीकार करना पड़ा है कि - ‘‘किसी भी प्राचीन पुस्तक या प्राचीन गाथा से यह बात सिद्ध नहीं की जा सकती कि आर्य किसी अन्य देश से यहाँ आए।‘‘ (‘म्यूर संस्कृत टेक्स्ट बुक‘ भाग-2, पृष्ठ 523)

#इस संदर्भ में टामस बरो नाम के प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता का ‘क्लारानडन प्रेस, ऑक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित और ए. एल. भाषम द्वारा सम्पादित ‘कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इण्डिया‘ में छपे ‘दि अर्ली आर्यन्स‘ में उद्धृत यह कथन उल्लेखनीय है कि- ‘‘आर्यों के भारत पर आक्रमण का न कहीं इतिहास में उल्लेख मिलता है और न इसे पुरातात्त्विक आधारों पर सिद्ध किया जा सकता है‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृष्ठ-126 पर उद्धृत)

#इस संदर्भ में रोमिला थापर का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि ‘‘आर्यों के संदर्भ में बनी हमारी धारणाएँ कुछ भी क्यों न हों, पुरातात्त्विक साक्ष्यों से बड़े पैमाने पर किसी आक्रमण या आव्रजन का कोई संकेत नहीं मिलता ...... गंगा की उपत्यका के पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह प्रकट नहीं होता कि यहाँ के पुराने निवासियों को कभी भागना या पराजित होना पड़ा था।‘‘ (‘आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता‘, पृ. 113 पर उद्धृत)

#अंग्रेजों ने इस बात को भी बड़े जोर से उछाला है कि ‘आक्रान्ता आर्यों‘ ने द्रविड़ों के पूर्वजों पर नृशंस अत्याचार किए थे। वाशम, नीलकंठ शास्त्री आदि विद्वान यद्यपि अनेक बार यह लिख चुके हैं कि ‘आर्य‘ और ‘द्रविड़‘ शब्द नस्लवाद नहीं है फिर भी संस्कृत के अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर बने लेखक, साम्राज्यवादी प्रचारक और राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धिको सर्वोपरि मानने वाले नेता इस विवाद को आँख मींच कर बढ़ावा देते रहे हैं। पाश्चात्य विद्वानोंने द्रविड़ों की सभ्यता को आर्यों की सभ्यता से अलग बताने के लिए ‘हड़प्पा कालीन सभ्यता‘ को एक बड़े सशक्तहथियार के रूप में लिया था। पहले तो उन्होंने हड़प्पाकालीन सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता बताया किन्तु जब विभिन्न विद्वानों की नई खोजों से उनका यह कथन असत्य हो गया तो वे कहने लगे कि हड़प्पा के लोग वर्तमान ‘द्रविड़‘ नहीं, वे तो भूमध्य सागरीय ‘द्रविड़‘ थे - अर्थात वे कुछ भी थे किन्तु आर्य नहीं थे। इस प्रकार की भ्रान्तियाँ जान-बूझकर फैलाई गई थीं। जबकि सत्य तो यह है कि हड़प्पा की सभ्यता भी आर्य सभ्यता का ही अंश थी और आर्य सभ्यता वस्तुतः इससे भी हजारों-हजारों वर्ष पुरानी है।

#विशेष -
इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य और द्रविड़ अलग नहीं थे। जब अलग थे ही नहीं तो यह कहना कि भारत के मूल निवासी आर्य नहीं द्रविड़ थे, ठीक नहीं है। अब समय आ गया है कि आर्यों के आक्रमण और आर्य-द्रविड़ भिन्नता वाली इस मान्यता को विभिन्न नई पुरातात्विक खोजों और शोधपरक अध्ययनों के प्रकाश में मात्र ‘मिथ‘ मानकर त्याग दिया जाना चाहिए।


........क्रमशः


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अजेष्ठ त्रिपाठी

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