धर्मवीर हकीकत राय
धर्मवीर हकीकत राय
वीर हकीकत राय का जन्म 1720 में सियालकोट में लाला बागमल पूरी के यहाँ हुया।इनकी माता का नाम कोरा था।लाला बागमल सियालकोट के तब के प्रसिद्ध सम्पन हिन्दू व्यपारी थे।वीर हकीकत राय उनकी एकलौती सन्तान थी।उस समय देश में बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी,क्योकि हिन्दुओ को भय रहता था कि कहि मुसलमान उनकी बेटियो को उठा कर न ले जाये।जैसे आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से समाचार आते रहते है।इसी कारण से वीर हकीकत राय का विवाह बटाला के निवासी क्रिशन सिंह की बेटी लक्ष्मी देवीसे बारहा वर्ष की आयु में क्र दिया गया था।
उस समय देश में मुसलमानो का राज था।जिन्होंने देश के सभी राजनितिक और प्रशासिनक कार्यो के लिये फ़ारसी भाषा लागु कर रखी थे।देश में सभी काम फ़ारसी में होते थे।इसी से यह कहावत भी बन गई कि ,” हाथ कंगन को आरसी क्या,और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इसी कारण से बागमल पूरी ने अपने पुत्र को फ़ारसी सिखने के लिये मोलवी के पास उसके मदरसे में पढ़ने के लिये भेजा।कहते है और जो बाद में सिद्ध भी हो गया कि वो पढ़ाई में अपने अन्य सहपाठियों से अधिक तेज था, जिससे वो मुसलमान बालक हकीकत राय से घृणा करने लगे।
एक बार हकीकत राय का अपने मुसलमान सहपाठियों के साथ झगड़ा हो गया।उन्होंने माता दुर्गा के प्रति अप्सब्द कहे,जिसका हकीकत ने विरोध करते हुए कहा,”क्या यह आप को अच्छा लगेगा यदि यही शब्द मै आपकी बीबी फातिमा (मोहम्द की पुत्री) के सम्बन्ध में कहु।इसलिये आप को भी अन्य के प्रति ऐसे शब्द नही कहने चाहिये।”इस पर मुस्लिम बच्चों ने शोर मचा दिया की इसने बीबी फातिमा को गालिया निकाल कर इस्लाम और मोहम्द का अपमान किया है।साथ ही उन्होंने हकीकत को मारना पीटना शुरू क्र दिया।मदरसे के मोलवी ने भी मुस्लिम बच्चों का ही पक्ष लिया।शीघ्र ही यह बात सारे स्यालकोट में फैल गई। लोगो ने हकीकत को पकड़ कर मारते-पिटते स्थानीय हाकिम अदीना बेग के समक्ष पेश किया।वो समझ गया की यह बच्चों का झगड़ा है,मगर मुस्लिम लोग उसे मृत्यु-दण्ड की मांग करने लगे।हकीकत राए के माता पिता ने भी दया की याचना की।तब अदीना बेग ने कहा,”मै मजबूर हूँ।परन्तु यदि हकीकत इस्लाम कबूल कर ले तो उसकी जान बख्श दी जायेगी।” किन्तु वो 14 वर्ष का बालक हकीकत राय ने धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया।अब तो काजी ,मोलवी और सारे मुसलमान उसे मारने को तैयार हो गए।ऐसे में बागमल के मित्रो ने कहा कि स्याकोट का वातावरण बहुत बिगड़ा हुआ है,यहाँ हकीकत के बचने की कोई आशा नही है।ऐसे में तुम्हे पंजाब के नवाब ज़करिया खान के पास लाहौर में फरियाद करनी चाहिये।बागमल ने रिश्वत देकर अपने बेटे का मुकदमा लाहौर भेजने की फरियाद की जो मंजूर कर ली गई।स्यालकोट से मुगल घुड़सवार हकीकत को लेकर लाहौर के लिये रवाना हो गये।हकीकत रे को यह सारी यात्रा पैदल चल कर पूरी करनी थी।उसके साथ बागमल अपनी पत्नी कोरा और एनी मित्रो के संग पैदल चल पड़ा।उसने हकीकत की पत्नी को बटाला उसके पिता के पास भिजवा दिया।कहते है कि लक्ष्मी से यह सारी बाते गुप्त रखी गई थी।परन्तु मार्ग में उसकी डोली और बन्दी बने हकीकत का मेल हो गया।जिससे लक्ष्मी को सारे घटनाक्रम का पता चला।फिर। भी उसे समझा-बुझा कर बटाला भेज दिया गया।
दूसरी तरफ स्यालकोट के मुसमन भी स्थानीय मौलवियो और काजियों को लेकर हकीकत को सजा दिलाने हेतु दल बना कर पीछे पीछे चल पड़े।सारे रास्ते वो हकीकत राय को डराते धमकाते,तरह तरह के लालच देते और गालिया निकलते चलते रहे।अगर किसी हिन्दू ने उसे सवारी या घोड़े पर बिठाना चाहा भी तो साथ चल रहे सैनिको ने मना कर दिया।मार्ग में जहाँ से भी हकीकत राय गुजरा, लोग साथ होते गये।
आखिर दो दिनों की यात्रा के बाद हकीकत राय को बन्दी बनाकर लानेवाले सेनिक लाहौर पहुंचे।अगले दिन उसे पंजाब के तत्कालिक सूबेदार ज़करिया खान के समक्ष पेश किया गया।यहाँ भी हकीकत के स्यालकोट से आये मुस्लिम सहपाठियों,मुल्लाओं और काजियों ने हकीकत राय को मोत की सजा देने की मांग की।उन्हें लाहोर के मुस्लिम उलिमा कभी समर्थन मिल गया।नवाब ज़करिया खान समझ तो गया की यह बच्चों का झगड़ा है, मगर मुस्लिम उलमा हकीकत की मृतयु या मुसलमान बनने से कम पर तैयार न थे ।
परन्तु यहाँ भी हकीकत राय ने अपना धर्म छोड़ने से मना कर दिया।उसने पूछा,”क्या यदि मै मुसलमान बन जाऊ तो मुझे मौत नही आएगी?क्या मुसलमानो को मौत नही आती?” तो उलिमयो ने कहा,”मौत तो सभी को आती है।” तब हकीकत राय ने कहा,” तो फिर मै अपना धर्म क्यों छोड़ू ,जो सभी को ईश्वर की सन्तान मानता है और क्यों इस्लाम कबुलु जो मेरे मुसलमान सहपाठियों के मेरी माता भगवती को कहे अपशब्दों को सही ठहराता है ,मगर मेरे न कहने पर भी उन्ही शब्दों के लिये मुझसे जीवित रहने का भी अधिकार छिन लेता है।जो दीन दूसरे धर्म के लोगो को गालिया निकलना,उन्हें लूटना,उन्हें मारना और उन्हें पग पग पर अपमानित करना अल्ला का हुक्म मानता हो,मै ऐसे धर्म को दूर से ही सलाम करता हूं।”
इस प्रकार सारा दिन लाहौर दरबार में शास्त्रार्थ होता रहा,मगर हकीकत राय इस्लाम कबूलने को तैयार ना हुआ।जैसे जैसे हकीकत की विद्वता ,साहस और बुद्धिमता प्रगट होती रही,वैसे वैसे। मुसलमानो में उसे दिन मनाने का उतसाह भी बढ़ता रहा।परन्तु कोई स्वार्थ,कोई लालच और न ही कोई भय उस 14 वर्ष के बालक हकीकत को डिगाने में सफल रहा।
आखिरकार हकीकत राय के माता पिता ने एक दिन का समय माँगा,जिससे वो हकीकत राय को समझा सके।उन्हें समय दे दिया गया।रात को हकीकत राय के माता पिता उसे जेल में मिलने गए।उन्होंने भी हकीकत राय को मुसलमान बन जाने के लिये तरह तरह से समझाया।माँ ने अपने बाल नोचे,रोइ,दूध का वास्ता दिया।मगर हकीकत ने कहा,”माँ! यह तुम क्या कर रही हो।तुम्हारी ही दी शिक्षया ने तो मुझे ये सब सहन करने की शक्ति दी है।मै कैसे तेरी दी शिक्षाओं का अपमान करू।आप ही ने सिखाया था कि धर्म से बढ़ के इस संसार में कुछ भी नही है।आत्मा अम्र है।”
अगले दिन वीर बालक हकीकत राय को दोबारा लाहौर के सूबेदार के समक्ष पेश किया गया।सभी को विश्वास था कि हकीकत आज अवश्य इस्लाम कबूल कर लेगा।उससे आखरी बार पूछा गया कि क्या वो मुसलमान बनने को तैयार है।परन्तु हकीकत ने तुरन्त इससे इंकार कर दिया।अब मुलिम उलमा हकीकत के लिये सजाये मौत मांगने लगे।ज़करिया खान ने इस पर कहा,” मै इसे मरतुयु दण्ड कैसे दे सकता हु।यह राष्ट्रद्रोही नही है और ना ही इसने हकुमत का कोई कानून तोड़ा है?” तब लाहौर के काजियों ने कहा कि यह इस्लाम का मुजरिम है।इसे आप हमे सौंप दे।हम इसे इस्लामिक कानून(शरिया) के मुताबिक सजा देगें।दरबार में मौजूद दरबारियों ने भी काजी की हाँ में हाँ मिला दी।अतह नवाब ने हकीकत राय को काजियों को सौंप दिया कि उनका निर्णय ही आगे मान्य होगा।
अब लाहौर के उल्मायो न मुस्लिम शरिया के मुताबिक हकीकत की सजा तय करने के लिये बैठक की।इस्लाम के मुताबिक कोई भी व्यक्ति इस्लाम ,उसके पैगम्बर और कुरान की सर्वोच्चता को चुनोती नही दे सकता।और यदि कोई ऐसा करता है तो वो ‘शैतान’ है।शैतान के लिये इस्लाम में एक ही सजा है कि उसे पत्थर मार मार क्र मार दिया जाये।आज भी जो मुसलमान हज पर जाते है,उनका हज तब तक पूरा नही माना जाता जब तक कि वो वहाँ शैतान के प्रतीकों को पत्थर नही मारते।कई मुस्लिम देशो में आज भी यह प्रथा प्रचलित है।लाहौर के मुस्लिम उलिमियो ने हकीकत राय के लिये भी यही सजा घोषित कर दी।
लाहोर में बकायदा मुनादी करवाई गई कि अगले दिन हकीकत नाम के शैतान को (संग-सार) अर्थात पत्थरो से मारा जायेगा और जो जो मुसलमान इस मौके पर सबाब(पूण्य) कमाना चाहे आ जाये।
अगले दिन बसन्त पंचमी का दिन था जो तब भी और आज भी लाहौर में भी भरी धूमधाम से मनाया जाता है।वीर हकीकत राय को लाहौर की कोतवाली से निकल कर उसके सामने ही गड्डा खोद कर कमर तक उसमे गाड़ दिया गया।लाहौर के मुसलमान शैतान को पत्थर मारने का पूण्य कमाने हेतु उसे चारो तरफ से घेर कर खड़े हो गए।हकीकत राय से अंतिम बार मुसलमान बनने के बारे में पूछा गया।हकीकत ने अपना निर्णय दोहरा दिया कि मुझे मरणा कबूल है पर इस्लाम नही।इस ने लाहौर के काजियों ने हकीकत राय को संग-सार करने का आदेश सुना दिया।आदेश मिलते ही उस 14 वर्ष केरीती बालक पर हर तरफ से पत्थरो की बारिश होने लगी।हजारो लोग उस बालक पर पत्थर बरसा रहे थे,जबकि हकीकत ‘राम-राम’ का जाप क्र रहा था।शीघ्र ही उसका सारा शरीर पत्थरो की मार से लहूलुहान हो गया और वो बेहोश हो गया।अब पास खड़े जल्लाद को उस बालक पर दया आ गयी की कब तक यह बालक युहीं पत्थर खाता रहेगा।इससे यही उचित है की मै ही इसे मार दू।इतना सोच कर उसने अपनी तलवार से हकीकत राय का सिर काट दिया।रक्त की धराये बह निकली और वीर हकीकत राय 1734 में बसन्त पंचमी के दिन अपने धर्म पर बलिदान हो गया।
दोपहर बाद हिन्दुओ को हकीकत राय के शव के वेदिक रीती से संस्कार की अनुमति मिल गई।हकीकत राय के धड़ को गड्ढे से निकाला गया।उसके शव को गंगाजल से नहलाया गया।उसकी शव यात्रा में सरे लाहौर के हिन्दू आ जुटे।सरे रास्ते उस के शव पर फुलो की वर्ष होती रही।इतिहास की पुस्तको में दर्ज है कि लाहौर में ऐसा कोई फूल नही बचा था जो हिन्दुओ ने खरीद कर उस धर्म-वीर के शव पर न चढ़ाया हो।कहते है कि किसी माली की टोकरी में एक ही फूलो का हार बचा था जो वो स्वयं चढ़ाना चाहता था, मगर भीढ़ में से एक औरत अपने कान का गहना नोच कर उसकी टोकरी में डाल के हार झपट कर ले गई।1 पाई में बिकने वाला वो हार उस दिन 15 रुपये में बिका ।यह उस आभूषण का मूल्य था।हकीकत राय का अंतिम संस्कार रावी नदी के तट पर क्र दिया गया।
जब हकीकत के शव का लाहौर में संस्कार हो रहा था,ठीक उसी समय। बटाला में उसकी 12 वर्ष की पत्नी लक्ष्मी देवी भी चिता सजा कर सती हो गई।बटाला में आज भी उनकी समाधि मौजूद है, जहाँ हर बसन्त को भारी उतसाह से मनाया जाता है।
लाहौर में हकीकत राय की दो समाधिया बनाई गई।पहली जहाँ उन्हें शहीद किया गया एयर दूसरी जहाँ उनका संस्कार किया गया।महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही हकीकत राय की समाधियों पर बसन्त पंचमी पर मेलेलगते रहे जो 1947 के विभाजन तक मनाया जाता रहा।1947 में हकीकत राय की मुख्य समाधि नष्ट कर दी गई।रावी नदी के तट पर जहाँ हकीकत राय का संस्कार हुआ था,वहाँ लाहौर निवासी कालूराम ने रणजीत सिंह के समय में पुंरूदार करवाया था।इससे वो कालूराम के मन्दिर से ही जाने जाना लगा।इसी से वो बच गया और आज भी लाहौर में वो समाधि मौजूद है
हकीकत राय के गृहनगर स्यालकोट में उसके घर में भी उसकी याद में समाधि बनाई गई, वो भी 1947 में नष्ट कर दी गई।
इस धर्म वीर के माता पिता अपने पुत्र की अस्थिया लेकर हरिद्वार गए,मगर फिर कभी लोट के नही आये।
हम आज बसन्तपंचमी के शुभ अवसर पर इस धर्म वीर अमर बलिदानी वीर हकीकत राय और उनकी पत्नी श्री लक्ष्मी देवी को उनके बलिदान दिवस पर शत शत नमन करते है।
वीर हकीकत राय का जन्म 1720 में सियालकोट में लाला बागमल पूरी के यहाँ हुया।इनकी माता का नाम कोरा था।लाला बागमल सियालकोट के तब के प्रसिद्ध सम्पन हिन्दू व्यपारी थे।वीर हकीकत राय उनकी एकलौती सन्तान थी।उस समय देश में बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी,क्योकि हिन्दुओ को भय रहता था कि कहि मुसलमान उनकी बेटियो को उठा कर न ले जाये।जैसे आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश से समाचार आते रहते है।इसी कारण से वीर हकीकत राय का विवाह बटाला के निवासी क्रिशन सिंह की बेटी लक्ष्मी देवीसे बारहा वर्ष की आयु में क्र दिया गया था।
उस समय देश में मुसलमानो का राज था।जिन्होंने देश के सभी राजनितिक और प्रशासिनक कार्यो के लिये फ़ारसी भाषा लागु कर रखी थे।देश में सभी काम फ़ारसी में होते थे।इसी से यह कहावत भी बन गई कि ,” हाथ कंगन को आरसी क्या,और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इसी कारण से बागमल पूरी ने अपने पुत्र को फ़ारसी सिखने के लिये मोलवी के पास उसके मदरसे में पढ़ने के लिये भेजा।कहते है और जो बाद में सिद्ध भी हो गया कि वो पढ़ाई में अपने अन्य सहपाठियों से अधिक तेज था, जिससे वो मुसलमान बालक हकीकत राय से घृणा करने लगे।
एक बार हकीकत राय का अपने मुसलमान सहपाठियों के साथ झगड़ा हो गया।उन्होंने माता दुर्गा के प्रति अप्सब्द कहे,जिसका हकीकत ने विरोध करते हुए कहा,”क्या यह आप को अच्छा लगेगा यदि यही शब्द मै आपकी बीबी फातिमा (मोहम्द की पुत्री) के सम्बन्ध में कहु।इसलिये आप को भी अन्य के प्रति ऐसे शब्द नही कहने चाहिये।”इस पर मुस्लिम बच्चों ने शोर मचा दिया की इसने बीबी फातिमा को गालिया निकाल कर इस्लाम और मोहम्द का अपमान किया है।साथ ही उन्होंने हकीकत को मारना पीटना शुरू क्र दिया।मदरसे के मोलवी ने भी मुस्लिम बच्चों का ही पक्ष लिया।शीघ्र ही यह बात सारे स्यालकोट में फैल गई। लोगो ने हकीकत को पकड़ कर मारते-पिटते स्थानीय हाकिम अदीना बेग के समक्ष पेश किया।वो समझ गया की यह बच्चों का झगड़ा है,मगर मुस्लिम लोग उसे मृत्यु-दण्ड की मांग करने लगे।हकीकत राए के माता पिता ने भी दया की याचना की।तब अदीना बेग ने कहा,”मै मजबूर हूँ।परन्तु यदि हकीकत इस्लाम कबूल कर ले तो उसकी जान बख्श दी जायेगी।” किन्तु वो 14 वर्ष का बालक हकीकत राय ने धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया।अब तो काजी ,मोलवी और सारे मुसलमान उसे मारने को तैयार हो गए।ऐसे में बागमल के मित्रो ने कहा कि स्याकोट का वातावरण बहुत बिगड़ा हुआ है,यहाँ हकीकत के बचने की कोई आशा नही है।ऐसे में तुम्हे पंजाब के नवाब ज़करिया खान के पास लाहौर में फरियाद करनी चाहिये।बागमल ने रिश्वत देकर अपने बेटे का मुकदमा लाहौर भेजने की फरियाद की जो मंजूर कर ली गई।स्यालकोट से मुगल घुड़सवार हकीकत को लेकर लाहौर के लिये रवाना हो गये।हकीकत रे को यह सारी यात्रा पैदल चल कर पूरी करनी थी।उसके साथ बागमल अपनी पत्नी कोरा और एनी मित्रो के संग पैदल चल पड़ा।उसने हकीकत की पत्नी को बटाला उसके पिता के पास भिजवा दिया।कहते है कि लक्ष्मी से यह सारी बाते गुप्त रखी गई थी।परन्तु मार्ग में उसकी डोली और बन्दी बने हकीकत का मेल हो गया।जिससे लक्ष्मी को सारे घटनाक्रम का पता चला।फिर। भी उसे समझा-बुझा कर बटाला भेज दिया गया।
दूसरी तरफ स्यालकोट के मुसमन भी स्थानीय मौलवियो और काजियों को लेकर हकीकत को सजा दिलाने हेतु दल बना कर पीछे पीछे चल पड़े।सारे रास्ते वो हकीकत राय को डराते धमकाते,तरह तरह के लालच देते और गालिया निकलते चलते रहे।अगर किसी हिन्दू ने उसे सवारी या घोड़े पर बिठाना चाहा भी तो साथ चल रहे सैनिको ने मना कर दिया।मार्ग में जहाँ से भी हकीकत राय गुजरा, लोग साथ होते गये।
आखिर दो दिनों की यात्रा के बाद हकीकत राय को बन्दी बनाकर लानेवाले सेनिक लाहौर पहुंचे।अगले दिन उसे पंजाब के तत्कालिक सूबेदार ज़करिया खान के समक्ष पेश किया गया।यहाँ भी हकीकत के स्यालकोट से आये मुस्लिम सहपाठियों,मुल्लाओं और काजियों ने हकीकत राय को मोत की सजा देने की मांग की।उन्हें लाहोर के मुस्लिम उलिमा कभी समर्थन मिल गया।नवाब ज़करिया खान समझ तो गया की यह बच्चों का झगड़ा है, मगर मुस्लिम उलमा हकीकत की मृतयु या मुसलमान बनने से कम पर तैयार न थे ।
परन्तु यहाँ भी हकीकत राय ने अपना धर्म छोड़ने से मना कर दिया।उसने पूछा,”क्या यदि मै मुसलमान बन जाऊ तो मुझे मौत नही आएगी?क्या मुसलमानो को मौत नही आती?” तो उलिमयो ने कहा,”मौत तो सभी को आती है।” तब हकीकत राय ने कहा,” तो फिर मै अपना धर्म क्यों छोड़ू ,जो सभी को ईश्वर की सन्तान मानता है और क्यों इस्लाम कबुलु जो मेरे मुसलमान सहपाठियों के मेरी माता भगवती को कहे अपशब्दों को सही ठहराता है ,मगर मेरे न कहने पर भी उन्ही शब्दों के लिये मुझसे जीवित रहने का भी अधिकार छिन लेता है।जो दीन दूसरे धर्म के लोगो को गालिया निकलना,उन्हें लूटना,उन्हें मारना और उन्हें पग पग पर अपमानित करना अल्ला का हुक्म मानता हो,मै ऐसे धर्म को दूर से ही सलाम करता हूं।”
इस प्रकार सारा दिन लाहौर दरबार में शास्त्रार्थ होता रहा,मगर हकीकत राय इस्लाम कबूलने को तैयार ना हुआ।जैसे जैसे हकीकत की विद्वता ,साहस और बुद्धिमता प्रगट होती रही,वैसे वैसे। मुसलमानो में उसे दिन मनाने का उतसाह भी बढ़ता रहा।परन्तु कोई स्वार्थ,कोई लालच और न ही कोई भय उस 14 वर्ष के बालक हकीकत को डिगाने में सफल रहा।
आखिरकार हकीकत राय के माता पिता ने एक दिन का समय माँगा,जिससे वो हकीकत राय को समझा सके।उन्हें समय दे दिया गया।रात को हकीकत राय के माता पिता उसे जेल में मिलने गए।उन्होंने भी हकीकत राय को मुसलमान बन जाने के लिये तरह तरह से समझाया।माँ ने अपने बाल नोचे,रोइ,दूध का वास्ता दिया।मगर हकीकत ने कहा,”माँ! यह तुम क्या कर रही हो।तुम्हारी ही दी शिक्षया ने तो मुझे ये सब सहन करने की शक्ति दी है।मै कैसे तेरी दी शिक्षाओं का अपमान करू।आप ही ने सिखाया था कि धर्म से बढ़ के इस संसार में कुछ भी नही है।आत्मा अम्र है।”
अगले दिन वीर बालक हकीकत राय को दोबारा लाहौर के सूबेदार के समक्ष पेश किया गया।सभी को विश्वास था कि हकीकत आज अवश्य इस्लाम कबूल कर लेगा।उससे आखरी बार पूछा गया कि क्या वो मुसलमान बनने को तैयार है।परन्तु हकीकत ने तुरन्त इससे इंकार कर दिया।अब मुलिम उलमा हकीकत के लिये सजाये मौत मांगने लगे।ज़करिया खान ने इस पर कहा,” मै इसे मरतुयु दण्ड कैसे दे सकता हु।यह राष्ट्रद्रोही नही है और ना ही इसने हकुमत का कोई कानून तोड़ा है?” तब लाहौर के काजियों ने कहा कि यह इस्लाम का मुजरिम है।इसे आप हमे सौंप दे।हम इसे इस्लामिक कानून(शरिया) के मुताबिक सजा देगें।दरबार में मौजूद दरबारियों ने भी काजी की हाँ में हाँ मिला दी।अतह नवाब ने हकीकत राय को काजियों को सौंप दिया कि उनका निर्णय ही आगे मान्य होगा।
अब लाहौर के उल्मायो न मुस्लिम शरिया के मुताबिक हकीकत की सजा तय करने के लिये बैठक की।इस्लाम के मुताबिक कोई भी व्यक्ति इस्लाम ,उसके पैगम्बर और कुरान की सर्वोच्चता को चुनोती नही दे सकता।और यदि कोई ऐसा करता है तो वो ‘शैतान’ है।शैतान के लिये इस्लाम में एक ही सजा है कि उसे पत्थर मार मार क्र मार दिया जाये।आज भी जो मुसलमान हज पर जाते है,उनका हज तब तक पूरा नही माना जाता जब तक कि वो वहाँ शैतान के प्रतीकों को पत्थर नही मारते।कई मुस्लिम देशो में आज भी यह प्रथा प्रचलित है।लाहौर के मुस्लिम उलिमियो ने हकीकत राय के लिये भी यही सजा घोषित कर दी।
लाहोर में बकायदा मुनादी करवाई गई कि अगले दिन हकीकत नाम के शैतान को (संग-सार) अर्थात पत्थरो से मारा जायेगा और जो जो मुसलमान इस मौके पर सबाब(पूण्य) कमाना चाहे आ जाये।
अगले दिन बसन्त पंचमी का दिन था जो तब भी और आज भी लाहौर में भी भरी धूमधाम से मनाया जाता है।वीर हकीकत राय को लाहौर की कोतवाली से निकल कर उसके सामने ही गड्डा खोद कर कमर तक उसमे गाड़ दिया गया।लाहौर के मुसलमान शैतान को पत्थर मारने का पूण्य कमाने हेतु उसे चारो तरफ से घेर कर खड़े हो गए।हकीकत राय से अंतिम बार मुसलमान बनने के बारे में पूछा गया।हकीकत ने अपना निर्णय दोहरा दिया कि मुझे मरणा कबूल है पर इस्लाम नही।इस ने लाहौर के काजियों ने हकीकत राय को संग-सार करने का आदेश सुना दिया।आदेश मिलते ही उस 14 वर्ष केरीती बालक पर हर तरफ से पत्थरो की बारिश होने लगी।हजारो लोग उस बालक पर पत्थर बरसा रहे थे,जबकि हकीकत ‘राम-राम’ का जाप क्र रहा था।शीघ्र ही उसका सारा शरीर पत्थरो की मार से लहूलुहान हो गया और वो बेहोश हो गया।अब पास खड़े जल्लाद को उस बालक पर दया आ गयी की कब तक यह बालक युहीं पत्थर खाता रहेगा।इससे यही उचित है की मै ही इसे मार दू।इतना सोच कर उसने अपनी तलवार से हकीकत राय का सिर काट दिया।रक्त की धराये बह निकली और वीर हकीकत राय 1734 में बसन्त पंचमी के दिन अपने धर्म पर बलिदान हो गया।
दोपहर बाद हिन्दुओ को हकीकत राय के शव के वेदिक रीती से संस्कार की अनुमति मिल गई।हकीकत राय के धड़ को गड्ढे से निकाला गया।उसके शव को गंगाजल से नहलाया गया।उसकी शव यात्रा में सरे लाहौर के हिन्दू आ जुटे।सरे रास्ते उस के शव पर फुलो की वर्ष होती रही।इतिहास की पुस्तको में दर्ज है कि लाहौर में ऐसा कोई फूल नही बचा था जो हिन्दुओ ने खरीद कर उस धर्म-वीर के शव पर न चढ़ाया हो।कहते है कि किसी माली की टोकरी में एक ही फूलो का हार बचा था जो वो स्वयं चढ़ाना चाहता था, मगर भीढ़ में से एक औरत अपने कान का गहना नोच कर उसकी टोकरी में डाल के हार झपट कर ले गई।1 पाई में बिकने वाला वो हार उस दिन 15 रुपये में बिका ।यह उस आभूषण का मूल्य था।हकीकत राय का अंतिम संस्कार रावी नदी के तट पर क्र दिया गया।
जब हकीकत के शव का लाहौर में संस्कार हो रहा था,ठीक उसी समय। बटाला में उसकी 12 वर्ष की पत्नी लक्ष्मी देवी भी चिता सजा कर सती हो गई।बटाला में आज भी उनकी समाधि मौजूद है, जहाँ हर बसन्त को भारी उतसाह से मनाया जाता है।
लाहौर में हकीकत राय की दो समाधिया बनाई गई।पहली जहाँ उन्हें शहीद किया गया एयर दूसरी जहाँ उनका संस्कार किया गया।महाराजा रणजीत सिंह के समय से ही हकीकत राय की समाधियों पर बसन्त पंचमी पर मेलेलगते रहे जो 1947 के विभाजन तक मनाया जाता रहा।1947 में हकीकत राय की मुख्य समाधि नष्ट कर दी गई।रावी नदी के तट पर जहाँ हकीकत राय का संस्कार हुआ था,वहाँ लाहौर निवासी कालूराम ने रणजीत सिंह के समय में पुंरूदार करवाया था।इससे वो कालूराम के मन्दिर से ही जाने जाना लगा।इसी से वो बच गया और आज भी लाहौर में वो समाधि मौजूद है
हकीकत राय के गृहनगर स्यालकोट में उसके घर में भी उसकी याद में समाधि बनाई गई, वो भी 1947 में नष्ट कर दी गई।
इस धर्म वीर के माता पिता अपने पुत्र की अस्थिया लेकर हरिद्वार गए,मगर फिर कभी लोट के नही आये।
हम आज बसन्तपंचमी के शुभ अवसर पर इस धर्म वीर अमर बलिदानी वीर हकीकत राय और उनकी पत्नी श्री लक्ष्मी देवी को उनके बलिदान दिवस पर शत शत नमन करते है।
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